कुण्डलपुर (नालंदा) भगवान महावीर की जन्मभूमि है-पावन धरा है। यहाँ नंद्यावर्त महल है-यहाँ एक विशाल जैन मंदिर, दिव्य विरासत और वर्तमान वास्तुकला का जीवित आदर्श है। आओ, इसे नमन करें। यहाँ आकर समस्त विकारों का शमन हो जाता है। यह स्थान संतुलन बोध का प्रत्यक्ष साक्षी है। यहाँ हमें भगवान महावीर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का संदेश मिलता है। वीर जन्मभूमि कोई साधारण भूमि नहीं है कि उसकी रक्षा और सुरक्षा के लिए बाहर के डंडे की आवश्यकता पड़े। वह छुईमुई का पौधा भी नहीं है कि छूने से मुरझा जाये और उसे हर समय लू लपट से बचाते रहने में हमारी समूची शक्ति लगानी पड़े। उसे तो वटवृक्ष की भांति अपने बल पर ही खड़े रहना है और समूची जीवराशि को छाया भी देना है। भगवान महावीर ने कहा-मैंने कुण्डलपुर में जन्म लेकर अपनी जीवन यात्रा आरंभ की है, गति मेरा पंथ, अहिंसा मेरा जीवन है और लक्ष्य मेरी मुक्ति है, मैं एक यात्री हूँ।
मुझे इतिहास और इतिहास के साक्षियों से मत बांधो। मैं वर्तमान हूँ और जिस पर मैं अभिमुख हूँ वह भविष्य है। यही जैनधर्म है। परंपरागत श्रद्धा, आस्था और विश्वास पर उठने वाले प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहते, उनकी प्रतिध्वनियाँ उनके समाधानों की पालकी बनकर लौटती हैं। आस्था और विश्वास की न जाने कितनी मूर्तियाँ प्रतिक्षण तोड़ी जा रही हैं। आर्ष परम्परा की विरासत देवशास्त्र गुरु की नित्य नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। इसे आधुनिकता एवं प्रगतिशीलता का चिन्ह मान लिया गया है। क्या यह सच है? हमारे जनमानस में युगों से जिस वीर जन्मभूमि की आस्था की मूर्ति प्रतिष्ठित है उसे वहाँ से हटाने के पश्चात् जो विवाद उत्पन्न होगा उसे तुम भरोगे किस वस्तु से? कभी सोचा है? परंपरागत निर्मित तीर्थ को इतिहास की अनसूझ पहेलियों से विचलित नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा होता है तो हिटलर इस युग का सबसे बड़ा निर्माता सिद्ध हो जाता। महावीर की दिव्य ज्योति की सबसे अधिक आवश्यकता वहीं है जहाँ अंधकार की जड़ता सबसे अधिक घनीभूत है। पुराने तीर्थों की सुरक्षा करके ही भगवान महावीर का प्रशस्त संदेश विश्वव्यापी बनाया जा सकता है। हम भूल जाते हैं कि समन्वय का तंत्र ही इस सारे चक्र को संतुलित करता है। जिसमें विरासत को संभालने की क्षमता है, एक बड़े परिवेश में अपने को अभिव्यक्त करने का बल भी उसी के बांटे में आता है। सतत् साधना में रत ये सरस्वती पुत्र भविष्य दृष्टा हैं, ये युग के प्रतिनिधि भी है, मार्गदर्शक भी हैं। ये नमस्करणीय और प्रणम्य हैं।
प्रकाश अंधकार को समाप्त नहीं करता, उनमें संघर्ष ही नहीं होता और नहीं होती है जय-पराजय। प्रकाश और अंधकार एक विशेष समय में एक विशेष स्थल पर एक साथ कभी होते ही नहीं। इसलिए उनके बीच संघर्ष और जय-पराजय का प्रश्न भी कहाँ उठता है। जिस समय सूर्य यहाँ मध्यान्ह में होता है, तब क्या तहखानों और बंद दीवारों के पीछे अधंकार नहीं दहाड़ता? और जब अंधकार अपने चरम पर होता है तब क्या दीपों के प्रभा क्षेत्रों में प्रकाश नहीं विराजता? प्रश्न केवल अपना-अपना अस्तित्व बनाए रखने का है। रात्रि का अंधकार फिर आने पर क्या हम यह कहते हैं कि सूर्य का अवतरण व्यर्थ हो गया? जब-जब प्रकाश असावधान हो जाता है, अंधकार अपना फन पैâला देता है। यह अंधकार की विजय नहीं कही जा सकती। इतिहास के कालखण्ड साक्षी हैं, प्रकाश की ऐसी असावधानियाँ बहुत मंहगी पड़ती है। प्राचीन जैन आगम के ज्ञानरूपी प्रकाश के द्वारा अपने अज्ञान का अंधकार मिटाएं और सन्मार्ग पर चलकर अपनी श्रद्धा दृढ़ करें, यही मेरी भावना है।