उत्तर भरत के तीन खंडों में से मध्यम खंड के बीचों-बीच में चक्रवर्तियों के मान का मर्दन करने वाला अनेक चक्रवर्तियों के नामों से व्याप्त रत्नों से निर्मित ऐसा वृषभाचल पर्वत है। यह पर्वत सौ योजन ऊँचा, मूल में सौ योजन विस्तृत, मध्य में पचहत्तर योजन एवं शिखर पर पचास योजन प्रमाण है। इसके मूल में, मध्य में और ऊपर में वेदी तथा वन खण्ड स्थित हैं। इस पर्वत के शिखर पर चार तोरणों से सहित, पुष्करिणी एवं कूपों से परिपूर्ण वङ्का, इंद्र नील, मरकत, कर्वेâतन और पद्मराग इन मणि विशेषों से निर्मित, विचित्र रचनाओं से मनोहर आकृति को धारण करने वाले, देदीप्यमान रत्नों के दीपकों से संयुक्त ऐसे उत्तम भवन हैं। इन भवनों में उत्तम रत्न एवं सुवर्ण से निर्मित विविध प्रकार के सुंदर आकारों वाले जिन भवन स्थित हैं इनका सब वर्णन पहले के ही समान है।
पर्वत के उपरिम भवन में विविध प्रकार के परिवार से सहित और ‘वृषभ’ इस नाम से प्रसिद्ध व्यंतर देव अनेक प्रकार के सुखों का उपभोग करते हुए निवास करता है। यह देव सर्वांग सुंदर है, दस धनुष प्रमाण शरीर की ऊँचाई एवं एक पल्य की आयु से युक्त है।
दक्षिण भरत के मध्य भाग के खंड का नाम आर्य खंड है इसके बीचों-बीच में ‘अयोध्या’ नगरी है। इस आर्य खंड में ही तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि महापुरुष जन्म लेते हैं। आज की उपलब्ध दुनियाँ इसी आर्य खण्ड में ही है। इसमें षट्काल से परिवर्तन होता रहता है। इस समय पंचमकाल चल रहा है इसका विस्तृत वर्णन आगे किया जाएगा। यहाँ तक षट्खंड युक्त भरत क्षेत्र एवं हिमवन् पर्वत का वर्णन पूर्ण हुआ है।