फाल्गुन वदी ३, ८, १४ को उपवास करने से क्रमश: सोलह, सतरह, अठारह पल्य उपवास का फल होता है। ऐसे ही फाल्गुन सुदी ५, ११ को उपवास करना चाहिए। चैत्र कृष्णा ३, ८, ११, चैत्र सुदी १, ५, ८, ११, वैशाख वदी ३, ८, १४, वैशाख सुदी १, ५, ८, ११, ज्येष्ठ वदी ३, ८, १४, ज्येष्ठ सुदी ५, ८, १०, आषाढ़ वदी ८, १४, आषाढ़ सुदी १, ५, ८, १४, श्रावण वदी १, ५, ८, १४, श्रावण-सुदी ३, ५, ८, १४, भाद्रपद वदी ५, ८, १४, भाद्रपद सुदी ५, ११, १४, आश्विन वदी ५, ८, १४ इन उपर्युक्त तिथियों में उपवास करना। इस व्रत में छियासठ उपवास होते हैं। यह व्रत एक वर्ष में समाप्त होता है, बहुत ही उत्कृष्ट है। व्रत पूर्ण होने के बाद शक्ति के अनुसार उद्यापन करके पूर्ण करना चाहिए। व्रत के दिन पंचपरमेष्ठी की निम्नलिखित जाप्य करना चाहिए-
ॐ ह्रीं अर्हं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नम:।
तथा जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करके नित्यपूजन और पंचपरमेष्ठी की पूजन करना चाहिए।