विष के प्रभाव के निवारण हेतु, प्रतिकार और नष्ट करने हेतु जो उपाय किए जाते हैं उन्हें विष—चकित्सा कहते हैं। विष शब्द का शाब्दिक अर्थ जहर, हलाहल हैं। इस शब्द की व्युत्पति ‘‘विष + क’’ के संयोग से हुई हैं। अष्टांगहृदय में विष के तीन प्रकार कहे गये हैं। फल—फूल आदि कन्दों में पाया जाने वाला विष स्थावर। सर्प, बिच्छू, मकड़ी आदि की दाढ़ों में रहने वाला विष जंगम विष होता है। ये दोनों विष अकृत्रिम होते हैं इसका तीसरा भेद चर कहलाता है जों विभिन्न औषधियों से बनाया जाता हैं वह विष कृत्रिम होता हैं। यह अपने तीक्षण गुणों के कारण ओज को नष्ट करता है और वात—पित्त प्रधान होने से जीवन को भी नष्ट करता है। विष— चिकित्सा के विषय में कहा गया हैं कि विष का प्रभाव होते ही तुरंत वमन अर्थात् उल्टी करानी चाहिए और रोगी के ऊपर शीतल जल डालना चाहिए। इसके साथ ही गाय का घी—शहद मिलाकर चाटने के लिए देना चाहिए। मुलहठी का काढ़ा (क्वाथ) और शहद भी देने का विधान किया गया है। सभी प्रकार के विष के प्रभाव को कम करने के लिए घी अर्थात् गाय के घी के समान लाभकारी कोई औषधि नहीं हैं। घीवायु की प्रबलता को नष्ट करता हैं क्योंकि विष से ग्रसित रोगी को अधिक से अधिक गाय के घी का सेवन कराना चाहिए क्योंकि घी विष के प्रभाव को शान्त करता है। अर्थववेद में सोम— पान को विष नाशक का सर्वोत्तम उपाय कहा है। सोमपान करने वाले प्राणी पर विष का प्रभाव नहीं होता है। मन्त्रोच्चारण द्वारा भी विष को कम किया जाता है। जिसे मन्त्र—चकित्सा कहते हैं। इसको लौकिक भाषा में झाड़—फूक भी कह सकते हैं। बाणण् लगने से, फल से सींग आदि लगने से जो विष शरीर में प्रवेश कर चुका होता है उसे भी मन्त्रोच्चारण द्वारा दूर किया जा सकता है। मंत्र इस प्रकार है—
अथर्ववेद में विषनाशक औषधियों में ‘अलाबू’ (लौकी, लम्बा कद्दू या मीठी तुम्बी), अवध्नती, इन्द्राणी, ऋतजात, (मधुला,वच, कुलिंजन), कान्दाविष (कन्द विष), तौदी, दर्भ (कुश), बभ्रु (सहस्रपर्णी, शंखपुष्पी), मधुक, मधू, मधूला, धृताची (बड़ी इलायची), विशदूशणी, आदि का उल्लेख मिलता हैं। वेद में सर्पदंश के विष का अत्यधिक उल्लेख है। वेद १८ प्रकार के सर्पों का उल्लेख है, जिनमें कुछ विषैले तथा कुछ असहयविष वाले होते हैं। अथर्ववेद में सौंप के काटने के मुख्य तीन रूप माने हैं—
(१) खात—जिसमें सौंप के गहरे दाँत लगे हो,
(२) अखात—जिसमें साँप के दाँत कम गहरे लगे हो।
(३) रक्त— सांप की केवल सांप के काटने पर कटे हुए स्थान से चार अंगुल ऊपर किसी चीज से बांधकर गांठ लगानी चाहिए।
गाँठ इतनी कसकर लगाई जाए कि विष का प्रभाव शरीर में ऊपर न जाए। इस प्रकार उत्तम, मध्यम और अधम तीनों प्रकार के विष का प्रभाव रोका जा सकता हैं। वाद्ययन्त्र अर्थात ढोल, नगाड़ा आदि के तीव्र स्वर से भी सर्प—विष की चिकित्सा की जाती हैं इससे सौंप से कटे व्यक्ति को बेहोशी नहीं आती हैं और उसे बचा लिया जाता है। सर्पविष नाशन के लिए बाहरी विष के प्रयोग का भी उपदेश किया है ऐसा करने से बाहरी विष सर्प के विष को नष्ट कर देता हैं। अर्थवेदानुसार काटने वाले साँप को मार देना चाहिए । इससे साँप के विष का प्रभाव साँप पर लौट जाता है। सर्पविष दूर करने के लिए जल— चिकित्सा का भी महत्व हैं। नदी के जल में नहाने , तैरने आदि से भी सर्प— विष बहने से कम हो जाता है। उल्लेख हैं कि नदी के जल में विष कम करने का गुण होता हैं। जल— चकित्सा की दृष्टि से सर्पविष उतारने के लिए योग की कुंजल किया भी विशेष लाभप्रद होती है। सांप से काटे व्यक्ति को अधिक से अधिक २ से ४ लीटर तक पानी पिलाएं और खड़े होकर मुँह में अंगुली डालकर उससे उल्टी कराएं। पेट का सारा पानी बाहर आने पर विष का प्रभाव कम हो जाएगा। क्योंकि जल में सर्पविष को कम करने की शक्ति होती हैं अत: जल में रहने वाले सर्प इसीलिए अधिक विष वाले नहीं होते। अथर्ववेद में सर्पचिकित्सा के सन्दर्भ में अनेक औषधियों का उल्लेख मिलता हैं। ताबुव और तस्तुव नामक ओषधियों में सर्पविष— ्नााशक गुण पाए जाते है। वही समान गुण कटु तुम्बी (कड़वा लौकी) और तिक्त कोशातकि (कड़वी तोरई) में पाए जाते हैं। भावप्रकाश निधण्टु में कटुतुम्बी को कड़वी, विषनाशक, ठण्डी और हृदय को शक्ति देने वाली कहा जाता है। इसको वमनकारक अर्थात् उल्टी कराने में लाभकारी माना है।
कटुतुम्बी की बारीक जड़ को गोमूत्र में पीसकर वटी या गोली बनाकर छाया में सुखाकर, उसको गोमूत्र आदि के साथ घिसकर एक हाथ भर लेप करने से सांप का विष नष्ट हो जाता है। सपेरे कटुतुम्बी की वीणा (बीण) अपने पास रखते हैं इसका कारण यह है कि कटुतुम्बी सर्पविषनाषक है और इसके अन्दर से निकलने वाली ध्वनि सर्प को अपने वश में कर लेती हैं। दर्भ (कुश या कुशा) शोचि (अग्नि) तरूणक (रोहिष तृण, सुगंधतृण या कृत्तृण), अव्श्रवार या अश्ववाल (कास नामक तृण), परूषवार (मंजू या मुंज), श्वेत औषधि (सफेद अर्क या आक को ही श्वेत औषधि कहते हैं) आक की जड़ , आक के फूल,आक का दूध (अरंधुष और पैदव औषधि को भी सफेद आक के नाम से जाना जाता है) पैद्व अर्थात् सफेद आक की जड़ फूल और रस को सर्वविषनाशन कहा हैं। इन्द्र औषधि (ऐन्द्री, इन्द्रवारूणी),कुमारिका औषधि, भी सर्पविषनाशक होती हैं। वंध्या कार्कोटकी (बांझ ककोडा, बांझ खेखसा), को कुमारिका और कन्या नाम से भी जाना जाता है अपराजिता औषधि (कोयल, विष्णुकान्ता इसके अन्य नाम हैं) यह सर्पविष के साथ—साथ बिच्छू—विष को भी नष्ट करता है। तौदी, धृताची, कन्या औषधियों को भी सर्पविषनाशक कहा है ये तीनों नाम बड़ी इलायची के समझे जाते हैं। मधुला, मधू, मधूजाता, मधुश्चुत् इन्हें सर्प, बिच्छू एवं मच्छर मारने की दवा कहा है। मधु, मधूलिका आदि को यष्टीमधु (मुलहठी) नाम से पुकारा जाता हैं। अर्थववेद में बाण के विष को उतारने के लिए मुलहठी का उपयोग होता है। वरणावती (वरना या वरूणा) विषनाशक होने के साथ—साथ यह विविध रोगों, ज्वर, राजयक्ष्मा आदि को दूर करने में भी सक्षम है। करम्भ (दही मिले हुए सत्तू को करम्भ कहते हैं) दही के सेवन से विषनाशक का वर्णन मिलता है। वच या वचा औषधि, अपजीका (दीमक) जो वल्मीक (वमी या बांबी) बनाती हैं। अजशृ्रंगी (मेषशृ्रंगी), अलाबू (लम्बा कद्दू), वृष (वासा) शीपाल (शैवाल) शोचि (कुशा), सदंपुष्पा सदंपुष्पी (सदापुष्प) सैर्य (अष्ववाल, कास) आदि विभिन्न प्रकार की औषधियां विष निवारण हेतु उपयोगी बतायी गयी हैं इनके यथाविधि प्रयोग से रोगी को बचा लिया जाता है। इस प्रकार संक्षेप से लिखा जा सकता है कि वैदिक काल से ही अनेक प्रकार के विष निवारण हेतु वैदिक चिकित्सकों के द्वारा विभिन्न उपाय भिन्न—भिन्न औषधियों के द्वारा किए जाते थे। वर्तमान काल में भी अनेक स्थानों पर सर्पविष नष्ट करने के लिए वैदिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। जिससे रोगी शीघ्र ही सर्पविष से मुक्ति पा कर स्वस्थ हो जाता है। इस प्रकार वैदिक विधियां वर्तमान काल में भी उपयोगी सिद्ध होती है।