(श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
नम: श्री वर्धमानाय, निर्धूतकलिलात्मने।
सालोकानां त्रिलोकानां, यद्विद्या दर्पणायते।।
भव्यात्माओं! संसार में मनुष्य पर्याय अत्यन्त दुर्लभ है और उसको प्राप्त करके हमेशा उसको सार्थक करने का पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। इष्टोपदेश ग्रंथ में आचार्यश्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं-
तश्चिन्तामणिर्दिव्य:, इत: पिण्याक खण्डवं।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये, क्वाद्रियन्तां विवेकिन:।।
अर्थात् आपके एक हाथ में चिन्तामणि रत्न है और दूसरे हाथ में खली का टुकड़ा है, अब आप स्वयं विचार करें कि आप किसमें आदर करेंगे? चिन्तामणि रत्न में या खली के टुकड़े में? इस पर किसी ने प्रश्न किया कि चिन्तामणि रत्न क्या है? उसको उत्तर मिला-‘‘धर्म है।’’ पुन: प्रश्न किया-वह धर्म क्या है? तब समाधान देते हैं-जो संसार के दु:खों से प्राणियों को निकालकर उत्तम सुख में पहुँचा दे, वह धर्म है। वह धर्म दो भागों में विभक्त है-गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म अर्थात् प्रवृत्तिधर्म और निवृत्ति धर्म अथवा भक्तिमार्ग-वैराग्यमार्ग। इसमें विचार करने का विषय यह है कि पहले किस धर्म का निरूपण किया जाये? आप तो यही कहेंगे कि सबसे पहले गृहस्थधर्म को धारण करना चाहिए पुन: मुनिधर्म को, लेकिन आचार्यों ने ऐसा नहीं कहा है।
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमति:।
तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।।१८।।।।
अर्थात् जो साधु सामने आए हुए भव्यप्राणियों को मुनिधर्म का उपदेश न देकर गृहस्थधर्म का उपदेश देते हैं, वे भगवान के प्रवचन में निग्रह अर्थात् प्रायश्चित्त के भागी माने गए हैं क्योंकि व्यवहार में भी देखा जाता है कि कोई भी व्यापारी ग्राहक को सबसे पहले बहुमूल्य वस्तु दिखाता है, जब ग्राहक उस महंगी वस्तु को लेने में सक्षम नहीं होता है, तब वह सस्ती वस्तु दिखाता है, उसी प्रकार साधुगण सर्वप्रथम मुनिधर्म का ही उपदेश देते हैं, बाद में गृहस्थधर्म का स्वरूप कहते हैं, ऐसा प्रथमानुयोग आदि पुराण ग्रंथों में वर्णन आता है।
एक बार सोमदत्त ब्राह्मण अपनी गर्भवती पत्नी के दोहले की पूर्ति हेतु आम की खोज करते-करते एक उद्यान में पहुँचे। वह वज्रकुमार मुनिराज आम्रवृक्ष के नीचे विराजमान थे।
मुनि की तपश्चर्या के प्रभाव से असमय में ही उस वृक्ष में आम्रफल आ गए थे। सोमदत्त ने मुनि के निकट पहुँचकर उनको नमस्कार किया। मुनिराज ने उन्हें मुनिधर्म का उपदेश दिया, जिसके प्रभाव से वे सोमदत्त मुनि बन गये। मुनि बनने से पूर्व किसी व्यक्ति के द्वारा उन्होंने पत्नी के लिए आम भिजवा दिया।
उपदेश का प्रभाव देखिए! गर्भवती पत्नी को छोड़कर सोमदत्त ने मुनिदीक्षा धारण कर ली। इस प्रकार के अनेकों रोमांचकारी उदाहरण शास्त्रों में पढ़ने को मिलते हैं।
अयोध्या के राजा सुरेन्द्रमन्यु के पुत्र वज्रबाहु का विवाह हस्तिनापुर के राजा इभवाहन की कन्या मनोदया के साथ सम्पन्न हुआ। कुछ दिन बाद पुत्री मनोदया के भाई उदयसुन्दर अपनी बहन को विदा कराने उसकी ससुराल गए, उस समय वज्रबाहु अपनी पत्नी के गुण, सौन्दर्य आदि में इतने अधिक आसक्त थे कि वे उसको पीहर भेजने के लिए सहमत नहीं थे।
तब उदयसुन्दर ने वज्रबाहु से भी हस्तिनापुर चलकर कुछ दिन वहाँ रहने की बात कही, वे तैयार हो गये और उनके साथ चल पड़े। उस समय कन्यापक्ष और वरपक्ष के सब मिलाकर कुल २६ राजकुमार साथ में थे। नवविवाहिता मनोदया कन्या के साथ अन्य कई महिलाएँ भी थीं।
उन सभी ने मार्ग में एक उद्यान में पड़ाव डाला। उस उद्यान में पर्वत की चोटी पर एक नग्न दिगम्बर मुनिराज ध्यान में लीन थे। सभी लोग वन क्रीड़ा आदि करने में मग्न थे। वन की शोभा देखते-देखते अचानक वज्रबाहु की दृष्टि मुनिराज के मुखमण्डल पर पड़ी, वे एकटक होकर मुनिराज को देखने लगे, उनके अन्तरंग में अनेक विचारधाराएँ हिलोरें लेने लगीं। वे सोचने लगे-‘‘अहो! मनुष्यपर्याय ही सर्वोत्कृष्ट, श्रेष्ठ चिन्तामणि रत्न है।
देखो! ये महासाधु वैसे तपश्चरण कर रहे हैं! अगर मैं भी इस प्रकार से संसार के विषय भोगों को छोड़कर ऐसी उत्तम जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके आत्मिक, अतीन्द्रिय, उत्तम सुख को प्राप्त कर लूँ, तो कितना अच्छा होगा!’’
इस प्रकार उनके हृदय में वैराग्य की भावनाएँ उमड़ पड़ीं, वे अपलक दृष्टि से मुनि को देखते हुए अपने चिन्तन में इतने निमग्न थे कि उन्हें यह आभास ही नहीं था कि कहाँ, क्या हो रहा है? तभी उनके साले उदयसुन्दर ने मजाक करते हुए कहा-अरे जीजाजी! क्या आप मुनि बनना चाहते हैं? एकटक होकर बहुत देर से आप मुनि को देख रहे हैं! क्या आपको दीक्षा लेना है क्या?
वज्रबाहु ने अपने भावों को अन्तरंग में छिपाते हुए सहजता से उत्तर दिया-‘अगर मैं दीक्षा लेता हूँ तो आप क्या करेंगे? बताइए। चूँकि उदयसुन्दर ने स्वप्न में भी यह कल्पना नहीं की थी कि ये दीक्षा धारण कर लेंगे बल्कि वे समझ रहे थे कि सब बिल्कुल मजाक है, जब ये अपनी पत्नी अर्थात् मेरी बहन में अत्यधिक आसक्ति के कारण हमारे साथ अयोध्या से हस्तिनापुर चल रहे हैं, तो ये भला वैसे दीक्षा लेंगे?
अत: उन्होंने भी सरलभाव से कह दिया-‘जब आप दीक्षा लेंगे, तब मैं भी दीक्षा ले लूँगा।’’ बस, फिर क्या था! बिना किसी से कुछ कहे सुने वे युवराज वज्रबाहु पर्वत की ओर चल पड़े, वहाँ पहुँचकर उन्होंने विवाह के समय के अपने बेशकीमती वस्त्र-आभूषण आदि उतारकर मुनिराज से निवेदन किया-‘भगवन्! मुझे जैनेश्वरी दीक्षा लेनी है, शीघ्र ही मुझे इस संसार समुद्र से पार पहुँचाने वाली जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिए।’ तभी उदयसुन्दर जोर-जोर से कहने लगे-जीजाजी!
यह आप क्या कह रहे हैं? मैं तो यह सब मजाक में कह रहा था। आप वापस चलिए, मेरी नवविवाहिता बहन आपके बिना वैसे रह पाएगी? तब वज्रबाहु ने कहा-उदयसुन्दर! अब आप भी अपने कर्तव्य को निभाइए, अभी आपने कहा था कि आपके साथ मैं भी दीक्षा ले लूँगा अत: अब आप भी तैयार हो जाइए। यह सुनकर उदयसुन्दर भी तुरंत दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गए।
इतना ही नहीं, साथ में आए सभी २६ राजकुमारों ने भी राज्यवैभव का त्याग करके, बिना माता-पिता की आज्ञा के जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली।
‘मुझ नवविवाहिता को छोड़कर मेरे पतिदेव महामुनि बन गए हैं, अब मेरा कर्तव्य क्या है? रोने-धोने से तो अब कुछ भी लाभ नहीं है।’’ इस प्रकार विचार करके वह मनोदया श्वेत साड़ी पहनकर आर्यिका दीक्षा के लिए तत्पर हो जाती है तथा उसके साथ में सभी राजकुमारों की पत्नियाँ भी दीक्षा धारण कर लेती हैं।
वास्तव में वह कितना रोमांचकारी दृश्य रहा होगा! इधर अयोध्या में जब वज्रबाहु के बाबा ने यह समाचार सुना, तो वे विचार करने लगे कि-अरे! मेरे पोते ने जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और मैं अभी घर में ही पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि में मग्न हूँ।’’ इतना चिन्तन करते ही उनको भी राज्यवैभव से विरक्ति हो गई, तब उन्होंने वज्रबाहु के भाई को राज्यभार सौंपकर निर्वाणसंगम नामक महामुनि के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। कहने का तात्पर्य यही है कि इस प्रकार के एक, दो नहीं, हजारों उदाहरण जैन ग्रंथों में भरे पड़े हैं। ये तो पूर्व समय की बात है, वर्तमान में भी इस प्रकार के उदाहरण देखने को मिल जाते हैं।
आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज बताया करते थे कि जब वे संघ में आए और दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गए, तब उनमें उनके एक रिश्तेदार भी थे, जो उनको समझाने आए थे परन्तु उन्होंने भी दीक्षा लेकर अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया। आज भी लगभग एक हजार साधुओं में ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे। कभी-कभी महिलाओं के मुँह से एक भजन सुना है, जिसकी पंक्तियाँ बहुत कर्णप्रिय लगती हैं-
जीवन के किसी भी क्षण में, वैराग्य उपज सकता है।
संसार में रहकर प्राणी, संसार को तज सकता है।।
अर्थात् किसी भी क्षण में किसी को भी वैराग्य उत्पन्न हो सकता है। यह कोई नियम नहीं है कि बचपन में वैराग्य क्यों? शादी होने के बाद वैराग्य क्यों? गर्भवती महिला को छोड़कर वैराग्य क्यों? आदि।
इसी जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में वत्सकावती देश है, उसमें अपराजित और अनन्तवीर्य नामक दो भाई बलभद्र और नारायण पद से सुशोभित थे। इनमें से बलभद्र अपराजित की कन्या सुमति, बहुत ही गुणवती एवं रूपवती थी।
किसी समय अपराजित महाराज ने दमवर नाम के चारण ऋद्धिधारी महामुनि का पड़गाहन कर उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान दिया, जिसके प्रभाव से वहाँ पंचाश्चर्यवृष्टि हुई। उसी समय वह सुमति कन्या आहारदान आदि क्रियाओं को देखकर प्रसन्नचित्त होती हुई महामुनि को नमस्कार करके उनके चरण सानिध्य में बैठ गई।
बलभद्र महाराज अपराजित अपनी रूप और गुणों की खान, नवयौवन सम्पन्न कन्या को देखकर विचार करने लगे कि-‘मुझे अब इस कन्या का विवाह करना है।’ यह सोचकर उन्होंने कुछ क्षण बाद सभामण्डप में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने अपने मंत्रियों के साथ मंत्रणा करके एक विशाल स्वयंवर मण्डप तैयार कराया। हजारों राजपुत्र उस स्वयंवर मण्डप में उपस्थित हुए।
स्वयंवर की बात चली तो पहले आपको यह बता दूँ कि यह स्वयंवर प्रथा भी अनादि है। युग की आदि में भगवान ऋषभदेव के समय वाराणसी के महाराजा अकम्पन ने अपनी पुत्री सुलोचना के लिए स्वयंवर मण्डप तैयार कराया था, जिसमें सुलोचना ने हस्तिनापुर के युवराज (भरतचक्रवर्ती के सेनापति) जयकुमार के गले में वरमाला डाली थी, तब से यहाँ भारत में भी स्वयंवर की परम्परा चली आ रही है।
इधर अर्धचक्री बलभद्र अपराजित की पुत्री का स्वयंवर हो रहा था, कन्या सुमति हाथ में पुष्प और रत्नों की सुन्दर माला लेकर अपनी सखियों के साथ स्वयंवर मंडप में प्रवेश करती है। वह क्रम-क्रम से एक-एक राजकुमार के मुख पर दृष्टि डाल रही है, तभी अकस्मात् स्वर्ग से विमान में बैठकर एक देवी वहाँ आती है और वह देवी सुमति कन्या के सामने खड़ी होकर कहती है- सखी! हमारी और तुम्हारी स्वर्ग में प्रतिज्ञा हुई थी कि हम दोनों में जो कन्या मध्यलोक में पहले जन्म लेगी, दूसरी कन्या उसे वैराग्य उत्पन्न कराकर दीक्षा दिलाएगी, तुमको याद है कि नहीं! अकस्मात् सुमती को याद आने लगा।
तब वह देवी आगे कहती है कि हम दोनों देवियाँ एक बार नंदीश्वर द्वीप में देवों द्वारा आष्टान्हिक पर्व में किए जा रहे महामह पूजायज्ञ में गए थे पुन: सुमेरु पर्वत की वंदना करने गए थे, वहाँ विराजमान धृतिषेण नामक महामुनिराज के दर्शन करके उनसे प्रश्न किया था कि-भगवन्! हम दोनों को मोक्ष की प्राप्ति कब होगी?
तब मुनिराज ने बताया कि-इस भव से चौथे भव में तुम दोनों मुक्तिपद को प्राप्त करोगी।’’ अत: हे सखी! मैं अवधिज्ञान से इन सब बातों को जानकर तुम्हें समझाने के लिए आई हूँ।
इतना सुनकर सुमतिकन्या को वैराग्य हो गया और उसी क्षण रत्नमाला वहीं पर रखकर वह विरक्तमना आर्यिका दीक्षा के लिए तत्पर हो गई। सभा मण्डप में उत्सुकता से बैठे सभी हजारो राजकुमार आश्चर्यचकित हो सुमति की ओर देखने लगे। तभी वहाँ महाराजा अपराजित भी आ गए, बोले-बेटी! क्या बात है?
सुमति ने कहा-पिताजी! मुझे संसार के विषय-भोगों में नहीं पंसना है अपितु मुझे आर्यिका दीक्षा लेना है।’ यह सुनकर पिता ने पुत्री सुमति को सहर्ष आर्यिका दीक्षा हेतु स्वीकृति प्रदान कर दी। वास्तव में इस विचित्र संसार में सभी तरह के लोग देखे जाते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस समय नारायण लक्ष्मण की मृत्यु हुई, मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र अत्यन्त विक्षिप्त अवस्था में लक्ष्मण के शव को लेकर विचरण कर रहे थे।
उस समय सभी लोग रामचन्द्र को समझाते कि लक्ष्मण अब जीवित नहीं हैं, ये मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं परन्तु रामचन्द्र यह नहीं समझ पा रहे थे कि लक्ष्मण मर चुके हैं, वे कहते कि अभी लक्ष्मण उठेंगे, स्नान करेंगे, भोजन करेंगे। वे लक्ष्मण से कहते-उठो लक्ष्मण! तुम मुझसे बात क्यों नहीं करते हो? तुम आँख क्यों नहीं खोल रहे हो? क्या तुम मुझसे नाराज हो?
सीता के दोनों पुत्र-लव, कुश पिता की इस दयनीय अवस्था को देखकर विरक्त हो गए और जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करके वे वन में चले गए, तब रामचन्द्र कहते हैं-जाओ! देखो! उन दोनों को क्या हो गया है?
क्या उन्हें वातरोग हो गया है? जाओ, उन्हें पकड़कर ले आओ! वे दोनों कहाँ चले गए? क्यों चले गए? कर्मों की विचित्रता तो देखिए! स्वयं तो अशान्त थे ही, दोनों पुत्रों ने दीक्षा ले ली, तो उन्हें वापस लाओ-वापस लाओ कह-कहकर आकुलता करते थे। एक बार नारायण श्रीकृष्ण एवं बलदेव, दोनों भाई अनेक परिजन एवं पुरजनों के साथ भगवान नेमिनाथ के समवसरण में पहुँचे।
भगवान का दिव्य उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण ने प्रश्न किया-भगवन्! देवों द्वारा बनाई गई यह द्वारिकानगरी कब तक रहेगी? भगवान की दिव्यध्वनि खिरी, श्री वरदत्त नामक प्रमुख गणधर ने बताया-हे नारायण श्रीकृष्ण! बारह वर्ष में यह द्वारिकानगरी भस्म हो जायेगी। वो वैसे भगवन्! इसके उत्तर में गणधर देव बताते हैं-किसी समय द्वीपायनमुनि तपश्चर्या में लीन होंगे।
कुछ राजपुत्र मदिरा पीकर उनके ऊपर उपसर्ग करेंगे, जिससे उनको क्रोध उत्पन्न होगा, उनकी तपश्चर्या के प्रभाव से क्रोधावेश में उनके शरीर से एक तैजस पुतला निकलेगा और वह पुतला बारह योजन की इस द्वारिकानगरी को भस्मसात् कर देगा। उन्होंने पुन: प्रश्न किया-भगवन्! फिर उस समय कौन जीवित बचेगा? उत्तर मिलता है-आप और बलभद्र आदि दो-तीन लोग ही बचेंगे। अब किसी ने प्रश्न किया-भगवन्! श्रीकृष्ण की मृत्यु वैसे होगी?
तो गणधरदेव ने बताया कि-जरत्कुमार के बाण से इनकी मृत्यु होगी। यह सुनकर जरत्कुमार उसी समय घबराकर, घर छोड़कर कहीं चले गए, द्वीपायन मुनि ने बारह वर्ष तक के लिए उस क्षेत्र को छोड़ दिया परन्तु भगवन्तों की वाणी अटल होती है, उसको कोई टाल नहीं सकता।
उस समय श्रीकृष्ण ने राजमहल में आकर यह घोषणा कर दी कि ‘मेरे जितने भी परिवार के लोग हैं, परिजन-पुरजन, रानी-पट्टरानियाँ, पुत्र-पौत्र-प्रपौत्र आदि हैं, उनमें से जो भी राजसुख का त्याग करके दीक्षा लेना चाहें, ले सकते हैं, ऐसी मेरी आज्ञा है।’’ उस समय प्रद्युम्न, शंबुकुमार आदि ने विरक्तमना होकर दीक्षा धारण की थी। इस प्रकार वैराग्यपथ में बढ़ने वालों को रोकने वाले भी हैं और उन्हें आज्ञा देने वाले भी बहुत लोग हैं।
सन् १९५२ में घर से निकलने के समय मेरे माता-पिता ने मुझे समझा-बुझाकर रोकने की बहुत कोशिश की परन्तु किसी प्रकार की जबर्दस्ती नहीं की। मुझे याद है कि जब बाराबंकी में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के केशलोंच के समय मैंने भी विरक्तमना होकर सभा में अपने केश उखाड़ने शुरू किए, उस समय मेरी माँ शोक से मूच्र्छित हो गई थीं।
चूँकि सभा में उपस्थित सभी लोग जोर-जोर से शोर तो मचा रहे थे, परन्तु हाथ पकड़कर रोकने का साहस किसी में नहीं था। उस समय महाराज जी के संकेत से मेरी माँ के मामा बब्बूमल जी ने मेरा हाथ पकड़कर रोक दिया, तब तक मेरा आधा केशलोंच हो चुका था पुन: रात्रिभर मेरा और मेरी माँ का संवाद चला, मेने माँ को खूब समझाया, तब मेरी माँ ने एक कागज पर लिखकर दिया कि-महाराज जी! आप मेरी बेटी को दीक्षा दे दीजिए, ऐसी मेरी आज्ञा है, यह दीक्षा को उत्तमरूप से निभाएगी।’’
घर में मैं पिताजी को भी समझाया करती थी, वे मेरी हर बात को मानते थे। लोगों ने पिताजी को बहुत भड़काया कि इसे जबर्दस्ती उठाकर गाड़ी में डालो और घर ले जाओ परन्तु पिताजी ने यही कहा कि-मैं ऐसा नहीं करूँगा, मैं इसे समझाऊँगा, यह खुशी-खुशी चलेगी, तो ठीक है। उनके समझाने पर भी जब मैं नहीं मानी, तो वे बहुत विक्षिप्त होकर एक जंगल में जाकर बैठ गए। लोग खूब ढूंढते रहे, ऐसा लगता कि कुंए में कूद गए अथवा अपघात कर लिया।
अनेक लोग मुझसे कहते-क्या यही अहिंसा धर्म है? माता-पिता मर जाएँ और तुम दीक्षा ले लो! लेकिन मैंने दृढ़प्रतिज्ञ होकर यही कहा कि-संसार में अनन्त माता-पिता हो चुके हैं। कौन किसकी माता? कौन किसका पिता? कौन संसार में ऐसा है, जो किसी की माता न हुआ हो, जो किसी का पिता न हुआ हो! आदि।
खैर दो-तीन दिन के बाद ताऊ जी उनको (पिताजी को) जंगल से ढूंढकर लाए, तब भी वह मेरे मोह में विक्षिप्त होकर रोते रहते थे। हमारे संघ में एक संभवसागर जी मुनि थे। मेरी प्रेरणा से वे क्षुल्लक हुए पुन: मुनि बने, मैंने उनको सप्तम प्रतिमा के व्रत दिये थे।
वह उदयपुर का बालक सुरेश, अपने माता-पिता का इकलौता पुत्र, जबर्दस्ती भाग-भागकर आता, उसको कमरे में बंद कर दिया जाता, तब भी खुलने पर जबर्दस्ती भाग आता। सन् १९६४ में मुझे पुन: शिखरजी में मिला, मैंने उसे सप्तम प्रतिमा के व्रत दिए, आगे वह संभवसागर क्षुल्लक हुए पुन: मुनि संभवसागर जी बने और अंत में सुन्दर समाधि को प्राप्त किया।
इसी संदर्भ में भगवान नेमिनाथ के पूर्वभव का बहुत ही रोमांचकारी वर्णन है- पुष्करार्ध द्वीप में विजयार्ध पर्वत पर सूर्यप्रभ नाम के विद्याधर राजा थे। उनके तीन पुत्र थे-चिन्तागति, मनोगति और चपलगति।
ये तीनों विद्याधर पुत्र अपनी विद्या के बल से प्रतिदिन सुमेरुपर्वत की वंदना करने जाया करते थे। उसी विजयार्ध की उत्तरश्रेणी में अरिन्दमन नामक नगर में अरिंजय राजा राज्य करते थे, उनकी महारानी अजितसेना की पुत्री प्रीतिमती थी। कन्या प्रीतिमती ने एक बार यह संकल्प कर लिया कि ‘सुमेरु पर्वत की वंदना में जो मुझे जीत लेगा, मैं उसी के साथ विवाह करूँगी’ इस गतियुद्ध में अनेकों राजकुमार प्रीतिमती से पराजित होते चले गए।
ये तीनों विद्याधर पुत्र भी वहाँ पहुँचे। सर्वप्रथम मनोगति और फिर चपलगति तो इस गतियुद्ध में प्रीतिमती से पराजित हो गए। अब चिन्तागति नामक बड़े भाई के साथ गतियुद्ध प्रारंभ हुआ। इस बार चिन्तागति ने प्रीतिमती को पराजित कर दिया। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार प्रीतिमती ने हाथों में रत्नों की माला लेकर स्वयंवर मण्डप में प्रवेश किया और चिन्तागति के गले में वरमाला डालने को उद्यत हुई परन्तु चिन्तागति ने कहा-नहीं, यह वरमाला मेरे योग्य नहीं है, इसे तुम मेरे भाई के गले में डाल दो।
प्रीतिमती ने कहा-ऐसा कैसे हो सकता है? गतियुद्ध में मुझे पराजित तो आपने किया है अत: मैं आपको ही पति के रूप में स्वीकार करूँगी, आपके भाई को नहीं। चिन्तागति ने कहा-चूँकि इससे पहले तुम्हारा मेरे दोनों भाइयों के साथ गतियुद्ध हो चुका है अत: तुम मेरे लिए त्याज्य हो। यह सुनकर प्रीतिमती कन्या को वैराग्य हो गया।
उसने माता-पिता की आज्ञा लेकर आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। उसके इस साहस को देखकर उसके साथ अन्य अनेक कन्याओं ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली तथा अनेक राजकुमारों के साथ चिन्तागति आदि तीनों भाइयों ने भी जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। कालान्तर में ये चिन्तागति विद्याधर भगवान नेमिनाथ हुए हैं और कन्या प्रीतिमती राजुल के रूप में विख्यात हुई है।
आप देखिए! जम्बूकुमार का चार कन्याओं के साथ सगाई हो गई थी पुन: उन्हें वैराग्य हो गया। माता-पिता ने बहुत समझाया कि बेटा! तुम इन कन्याओं के साथ विवाह कर लो।
कन्याओं के माता-पिता ने भी जम्बूकुमार से विवाह हेतु अतीव आग्रह किया। अन्तत: जम्बू कुमार ने स्पष्ट शब्दों में कहा-मैं इस शर्त पर विवाह करूँगा कि विवाह के अगले दिन प्रात:काल ही मैं दीक्षा ले लूँगा। सबने उनकी शर्त मान ली क्योंकि सबको यह विश्वास था कि विवाह के बाद ये चारों कन्याएँ इन्हें अपने रूप-यौवन में आसक्त कर लेंगी, जम्बूकुमार दीक्षा की बात बिल्कुल भूल जाएंगे, इनका वैराग्य पलायमान हो जायेगा।
अन्ततोगत्वा जम्बूकुमार का विवाह हुआ। रात्रि भर चारों कन्याएं जम्बूकुमार से राग की बातें करती रहीं और जम्बूकुमार उनसे वैराग्य की बातें करते रहे। जम्बूकुमार की माता चोरी-छिपे यह सब सुनकर आकुल-व्याकुल हो रही थीं।
उसी समय राजमहल में विद्युत चोर (५०० चोरों का सरदार) चोरी करने आ गया, उसने जम्बूकुमार की माँ को विक्षिप्तावस्था में देखा तो उनसे पूछा-बहन जी! आप इतनी परेशान क्यों हैं? आप बार-बार इधर से उधर चक्कर क्यों लगा रही हैं? मैं यहाँ चोरी करने के लिए घुसा था। उन्होंने कहा-भाई! तू सब कुछ ले जा, मगर मेरा बेटा जो सुबह दीक्षा लेने वाला है, तू उसे समझा दे। मैं उसके वियोग की कल्पना करके बहुत चिंतित हूँ।
यह सुनकर वह चोर जम्बूकुमार को समझाने गया परन्तु जम्बूकुमार की वैराग्यवर्धक बातें सुनकर वह भी विरक्त हो गया। प्रात:काल जम्बूकुमार ने अपनी नवविवाहिता पत्नियों के साथ दीक्षा ले ली, उन सभी के माता-पिता ने भी दीक्षा ले ली, और तो और, उस चोर ने भी अपने ५०० साथियों के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली।
चूँकि ये सभी चोर क्षत्रिय कुल के थे, मात्र संगति से चोर बन गए थे। इस प्रकार के अनेकों उदाहरण शास्त्रों में हैं। कोई नवविवाहिता पत्नी को छोड़कर दीक्षित हो जाते हैं, कोई गर्भस्थ शिशु को राज्य सौंपकर दीक्षा ले लेते हैं तथा भगवान नेमिनाथ ने तो विवाह के बीच में तोरण से ही रथ को मोड़कर दीक्षा ग्रहण कर ली थी।
बात यह है कि जिनका संसार कम हो जाता है अर्थात् जो मोक्ष के निकट पहुँच जाते हैं, ऐसे भव्य जीवों के भाव दीक्षा लेने के हो जाते हैं अन्यथा संसार में कई लोग तो दुख से पीड़ित होकर अपघात कर लेते हैं परन्तु उनके दीक्षा लेने के भाव नहीं होते हैं।
आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर जी महाराज के सामने किसी ने कहा-ये जो लोग दीक्षा लेते हैं न! इनके घर में खाने का ठिकाना नहीं रहता है, इन्हें व्यापार करना नहीं आता है, अकर्मण्यता के कारण दीक्षा ले लेते हैं।
आचार्यश्री ने कहा-किसी गरीब-दुखी को मेरे सामने बुलाकर लाओ, देखूँ! उसके दीक्षा के भाव होते हैं क्या? नहीं होंगे। यह वास्तविकता है कि दीक्षा के भाव तो सम्पन्न घराने के लोगों में भी हो सकते हैं, किसी गरीब में भी हो सकते हैं, इस विषय में कुछ निश्चित नहीं है। कहा भी है –
‘‘मुनि सकल-व्रती बड़भागी, भव-भोगनतें वैरागी’’
अर्थात् जो महान पुण्यशाली हैं, उनके ही वैराग्य के भाव होते हैं अत: आप सभी का यह परम कर्तव्य है कि अगर आप स्वयं दीक्षा न ले सकें, तो जो लोग वैराग्य भाव से ओत-प्रोत होकर दीक्षा लेने के उन्मुख हैं, उनको कभी रोकें नहीं, अपितु उनको आज्ञा प्रदान करके उनकी अनुमोदना करें, इससे आपको भी महान पुण्य का बंध होगा। इस प्रकार मनुष्य जीवन को सफल करने का यही उपाय है।