तेिंस असोयचंपयणागा तुंबुरु वडो य कंटतरू।
तुलसी कडंबणामा चेत्ततरू होंति हु कमेण१।।७।।
कदम्बस्तु पिशाचानां राक्षसाः कण्टकद्रुमाः।
भूतानां तुलसीचैत्यं यक्षाणां च वटो भवेत्।।५५।।
किंनराणामशोकः स्वािंत्कपुरुषेषु च चम्पकः।
महोरगाणां नागोऽपि गन्धर्वाणां च तुम्बरुः।।५६।।
पृथिवीपरिणामास्ते आयागनियुतद्रुमाः।
जम्बूमानार्धमानाश्च र्कीिततास्ते प्रमाणतः।।५७।।
दिव्यरत्नविचित्रं च छत्रत्रितयमेकशः।
शुभध्वजपताकास्ते विभान्त्यायागमाश्रिताः।।५८।।
तोरणानि च चत्वारि नानारत्नमयानि च।
आसक्तमाल्यधामानि चैत्यानां हि चर्तुिदशम्।।५९।।
प्रत्येकं च चतस्रोऽर्चाः सौवण्र्योऽत्र चर्तुिदशम्।
भूमिजानां यथा वृक्षाः तथा वानान्तरद्रुमाः।।६०।।
व्यंतर देवों के क्रम से अशोक, चम्पक, नाग (नागकेसर), तुंबरु, वट, कण्टतरु, तुलसी और कदम्ब; इन नामों वाले चैत्यवृक्ष होते हैं।।७।।
चैत्यवृक्ष पिशाचों का कदम्ब, राक्षसों का कण्टकद्रुम, भूतों का तुलसी, यक्षों का वट, किन्नरों का अशोक, किंपुरुषों का चम्पक, महोरगों का नाग (नागकेसर) और गन्धर्वों का तुंबरु होता है।।५५-५६।।
आयाग पर नियत वे चैत्यवृक्ष पृथिवी के परिणामस्वरूप होते हुए प्रमाण में जम्बूवृक्ष के प्रमाण के अर्ध प्रमाण वाले कहे गऐ हैं।।५७।।
उनमें से प्रत्येक के दिव्य रत्नों से विचित्र तीन छत्र होते हैं। आयाग के आश्रित वे वृक्ष उत्तम ध्वजा पताकाओं से संयुक्त होते हुए शोभायमान होते हैं।।५८।।
चैत्यवृक्षों की चारों दिशाओं में मालाओं के तेज से सहित अनेक रत्नमय चार तोरण होते हैं।।५९।।
प्रत्येक वृक्ष की चारों दिशाओं में चार सुवर्णमय जिनप्रतिमाएँ स्थित होती हैं। ये वृक्ष जैसे भूमिजों (भवनवासियों) के होते हैं वैसे ही वे व्यन्तरों के भी होते हैं।।६०।।