औपपातिक, अध्युषित और अभियोग्य इस प्रकार से व्यंतर देव तीन प्रकार के होते हैं। भवन, भवनपुर और आवास ये तीन प्रकार के स्थान व्यंतर देवों के माने गये हैं।
मेरू प्रमाण ऊँचे मध्यलोक एवं अधोलोक में व्यंतर देवों का निवास है। इन व्यंतरों में से किन्हीं के भवन हैं, किन्हीं के भवन और भवनपुर दोनों हैं एवं किन्हीं के तीनों ही स्थान होते हैं। ये सभी आवास प्राकार से परिवेष्टित बतलाये गये हैं। सब भवनों के चारों ओर वेदिकाएँ मानी गई हैं जो कि परकोटे के सदृश हैं। ये परकोटे महाभवनों के दो कोस ऊँचे तथा अन्य भवनों के १०० हाथ ऊँचे हैं।
महाभवनों का विस्तार १२२०० योजन है एवं मोटाई ३०० योजन है। अल्पभवनों का विस्तार ३ कोस एवं मोटाई भी ३ कोस है। उत्कृष्ट भवन में १०० योजन चौड़ाई वाला एवं जघन्य भवनों में एक कोस मात्र मोटाई वाला कूट है।
समुद्र में स्थित द्वीपों में भवनपुर होते हैं और तालाब, पर्वत एवं वृक्षों के आश्रित आवास होते हैं। पुरों में कितने ही गोल, त्रिकोण तथा चतुष्कोण भी होते हैं। इनमें क्षुद्रपुर एक योजन विस्तीर्ण तथा महापुर एक लाख योजन विस्तीर्ण होते हैं। ये पुर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में स्थित हैं। ये रत्नमयी पुर रमणीय, बहुत प्रकार के आकार वाले हैं। इस प्रकार व्यंतर देवों के स्थान असंख्यात होने से उनमें स्थित जिन मंदिर भी असंख्यात प्रमाण हैं। उन सभी जिनमंदिरों में एक सौ आठ-एक सौ आठ प्रमाण जिन प्रतिमाएँ विराजमान हैं और बाकी सभी व्यवस्था भवनवासी देवों के जिनमंदिरों के सदृश ही हैं। ये व्यंतर देव क्रीड़ा प्रिय होने से इस मध्य लोक में यत्र-तत्र शून्य स्थान, वृक्षों की कोटर, श्मसान भूमि आदि में भी विचरण करते रहते हैं। कदाचित्-क्वचित् किसी से पूर्व जन्म का बैर विरोध होने से उसे कष्ट भी दिया करते हैं, किसी पर प्रसन्न होकर उसकी सहायता भी करते हैं। जब सम्यक्दर्शन को ग्रहण कर लेते हैं तब पापभीरू बनकर धर्मकार्यों में ही रूचि लेते हैं ऐसा समझना चाहिए।