चामुण्डाराय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
डॉ. आनन्द जैन (जैनदर्शनाचार्य वाराणसी)
महान् चामुण्डाराय का जन्म ईसा की दशवीं शताब्दी में माता काललदेवी की कुक्षि से ब्रह्मक्षत्रियवंश’ में हुआ था। इनके पिता महाबलिह राज्य के प्रसिद्ध श्रावक थे। चामुण्डाराय ने आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा गुरु अजितसेन’ के सान्निध्य में प्राप्त की थी तथा जैनदर्शन में दक्षता आ. नेमिचन्द के पादमूल में बैठकर प्राप्त की थी। इनकी भगिनी पीयप्पई (पुल्लव्वे) का उल्लेख भी मिलता है, जिनका मरण विजयमंगल में हुआ था।’ यौवनावस्था में इनका विवाह अजितादेवी से हुआ था। इनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम जिनदेवन था, जो श्रवणबेलगोला निर्मित जिनदेव मंदिर के द्रव्यदाता थे। अतः यह निःसंकोच कहा जा सका है कि इनका समस्त परिवार जिनशासन के प्रति समर्पित था।
कन्नड़ प्रान्तीय होने से चामुण्डाराय की मातृभाषा यद्यपि कन्नड़ थी, किन्तु वे संस्कृत के भी सिद्धहस्त विद्वान् थे। उक्त भाषाद्वय में प्रवीणता तथा जैनदर्शन का गहन अध्ययन आपकी रचनाओं में आदर्शरूप में प्रतिबिम्बित होता है। चामुण्डाराय के गोम्मट, गोम्मटराय, राय तथा अण्ण- ये नाम प्रचलित थे। जन्मदात्री माता की इच्छापूर्ति हेतु श्रवणबेलगोला के विन्ध्यगिरि पर्वत पर भगवान् बाहुबली की 57 (58. 8′) फीट ऊँची, अतिशयकारी, अद्वितीय प्रतिमा का निर्माण चैत्र शुक्ला पंचमी, विक्रम संवत् 1038 गुरुवार, दिनांक 13 मार्च, 981 और वीर मार्त्तण्ड चामुण्डाराय ने कराया था। 1180 में शिलालेख से ज्ञात होता है कि चामुण्डाराय का घरेलू नाम ‘गोम्मट’ था इसलिए बाहुबली की प्रतिमा का नाम गोम्मटेश्वर प्रचलित हुआ।* डॉ० ए. एन. उपाध्ये ने ‘गोम्मटेश्वर’ का, अर्थ ‘चामुण्डाराय का देवता’ किया है।’ इस भव्य प्रतिमा का प्रधान शिल्पी अरिष्टनेमि तथा प्रतिष्ठाचार्य स्वयं नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। इसी प्रतिमा की स्तुति में इन्होंने ‘गोम्मटेश-थुदि’ की रचना की थी।
विन्रिध्यगिरि पर्वत पर चामुण्डराय ने एक त्यागद ब्रह्मदेव नामक स्तम्भ की रचना है सम् 974 में कराई थी, जिस पर एक प्रशस्ति भी है। इस पर्वत के सामने स्थित चन्द्रगिरि पर्वत पर एक पथ बोदर है, जो चामुण्डरायवसति के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसे ही अन्यान्य भज्य मन्दिरों के निर्माणकर्ता के रूप में चामुण्डराय इतिहास प्रसिद्ध है। तत्कालीन शासक ने जिनमत की महिमा बढ़ाने के फलस्वरूप उन्हें राय’ पदवी से सम्मानित किया था।
‘ भारत के प्रथम आश्चर्य के रूप में प्रतिष्ठित श्रवणबेलगोला स्थित भगवान् बाहुबली स्वामी की 58.8’ फीट ऊँची प्रतिमा की कथा भी रोचक है, कहते हैं कि महाराज मारसिंह राचमल्ल द्वितीय को राजसभा में संयोगवश किसी सेठ का आगमन हुआ, जिसने पोदनपुर स्थित बाहुबली भगवान् की प्रतिमा का अनुपम वर्णन किया, जिससे अभिभूत होकर मंत्री चामुण्डराय ने वहीं खड़े होकर प्रतिमा को भाव-नमस्कार किया तथा अपने गुरु अजितसेन के समक्ष प्रतिमा-दर्शन की इच्छा प्रकट की तथा भगवान् बाहुबली के दर्शनोपरान्त ही दुग्धना सेवन की कठिन प्रतिज्ञा कर ली। तत्पश्चात् चतुरगिंनी सेना सहित उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। तदनन्तर वे विन्ध्याचल पर्वत पर पहुँचे, वहाँ उन्होंने जिनदर्शन कर रात्रि विश्राम किया। इसी रात्रि में कुष्माण्डिनी देवी (शासन देवी) ने प्रकट होकर कहा- ‘पोदनपुर 12 जाने का मार्ग कठिन है। इस पर्वत में रावण द्वारा स्थापित श्री बाहुबली स्वामी का प्रतिबिम्ब है, वह धनुष पर सुवर्ण का बाण चढ़ाकर, पर्वत को छेदने पर प्रकट होगा।’ प्रात:काल होते ही चामुण्डराय ने रात्रि में आये स्वप्न का वृतान्त आ० नेमिचन्द्र को सुनाया, उन्होंने स्वप्नानुकूल कार्य करने की सलाह दी। गुरु-आज्ञा शिरोधार्य कर चामुण्डराय ने पर्वत भेदन किया, जिससे संपूर्ण लक्षणयुक्त बीस धनुष ऊँची बाहुबली को प्रतिमा प्रकट हुई। उद्देश्य पूर्ण होने पर वे पुनः अपने गृह नगर को लौटे और विंध्यगिरि पर बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण कराया। इसका प्रथम कलशाभिषेक ई. सन् 981 में संपन्न हुआ।'”
धार्मिक प्रकृति से ओतप्रोत एवं राज्य के प्रति निष्ठा होने से उन्होंने गंगवंशीय तीन पीढ़ियों की सेवा की। ग्रंथ परम्पराओं में भी इसका उल्लेख है जैसे बाहुबलिचरित के अनुसार द्रविड देश में एक मथुरा नामक नगरी थी, जो वर्तमान में मडुरा नाम से प्रसिद्ध है, वहाँ देशीयगण के स्वामी श्री सिंहनंदी आचार्य के चरणकमलसेवक गंगवंश-तिलक भी राचमल्ल राजा हुए।”
जस्टिस मांगीलाल जैन चामुण्डराय का अपर नाम गोम्मटराय नहीं स्वीकारते हैं और न ही सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य को समकालीन मानते हैं। वे गोम्मटेश्वर प्रतिमा निर्माण का भी निषेध करते हैं, वे लिखते हैं कि “आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने गुरु भाई, शिष्य एवं बालसखा कहे जाने वाले चामुण्डराय का नाम भूलकर भी नहीं लिया और न ही चामुण्डराय ने अपने ग्रंथों में अपने आपको गोम्मटराय ही लिखा है। यह भी कहा जाता है कि स्वयं चामुण्डराय ने अपने पुराण में आ. नेमिचन्द्र का भी जिक्र नहीं किया है। अतः जस्टिस मांगीलाल के अनुसार निष्कर्ष यह निकलता है कि चामुण्डराय न गोम्मटराय हैं और न चामुण्डराय नेमिचन्द्राचार्य के समकालीन थे। उनका कहना है कि यदि मूर्ति चामुण्डराय ने बनवाई होती, तो चामुण्डरायपुराण (978 ई.) में वे इसके बनाने का न सही, किन्तु बनाने के संकल्प का तो अवश्य ही जिक्र करते। इस कृति में उन्होंने अपने सखा गुरुभाई नेमिचन्द्र का उल्लेख नहीं किया है। यदि मूर्ति 981 में प्रतिष्ठित हुई होती तो चामुण्डराय पुराण लिखते समय अथवा समाप्त करते समय इसका निर्माण चल रहा होगा। आश्चर्य यह है कि इस कृति के समापन के आधार पर निर्माणकाल सन् 981 की मान्यता दृढ़ की गई है जबकि मूर्ति के निर्माण में दस वर्ष का समय लगा था”।’
मिस्टर जस्टिस के उपर्युक्त कथन के विरुद्ध अन्य अनेक तथ्य है जो इस भ्रान्ति को दूर कर चामुण्डराय, गोम्मटेश्वर तथा नेमिचन्द्राचार्य को निःशंकित रूप से समकालीन सिद्ध करते हैं।
1. नेमिचन्द्रचार्य ने त्रिलोकसार की रचना के प्रारंभ में स्पष्ट उल्लेख किया है कि यह ग्रंथ उन्होंने भव्य चामुण्डराय को तत्त्व बोधार्थ रचा है।
2.पं. टोडरमलजी ने अपनी भाषा वचनिका नामक टीका में भी लिखा है कि,’जो भगवान नेमीचन्द्र नामा सैध्दांतदेव चारि अनुयोगरूपी चारि समुद्रनिका पारगामी सो चामुण्डराय के संबोधन का मिसकरि समस्त शिष्य जननि के संबोधन के अर्थि त्रिलोकसार को नामा ग्रन्थ को रचतासंता….|
3. इसी प्रकार गोम्मटसार कर्मकाण्ड में रूपक के रूप में लिखा है कि ‘सिद्धांतरूपी उदयाचल के तट पर उदित निर्मल नेमिचन्द की किरण से युक्त गुणरत्नभूषण अर्थात् चामुण्डराय रूपी समुद्र की यती रूपी बेला भुवनतल को पूरित करे।’ यहाँ गुणरत्नभूषण’ पद चामुण्डराव की उपाधि है।”
4. गोम्मटसार के मंगलाचरण में भी “गुणरयणभूसुणुदयं जीवस्य तु परूवणं वोच्छ” कहकर प्रकारान्तर से चामुण्डराय का निर्देशन किया
5. गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा 358 तथा 451 में भी चामुण्डराय का उल्लेख प्राप्त होता है।
नमिऊण णेमिचंदं असहायपरमक्कमं महावीर।
णमिऊण वड्डमाणं कणयणिहं देवरायपरिपुज्जं ॥ ३५८॥
असहाय जिणवरिदे असहाय परक्कम्मे महावीरे।
णमिऊण णेमिणाहे सज्जगुहिद्विणमंसियधिजुंग ।।४५९॥
6. गोम्मटसार की जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिनी टीका की उत्थानिका में स्वयं अभयचन्द्र सूरि ने लिखा है कि- गंगवंश के ललामभूत श्रीमद्राचमल्लदेव के महामात्य पद पर विराजमान और रणांगमल्ल असहाय-पराक्रम, गुणरत्नभूषण, सम्यक्त्वरत्ननिलय आदि विविध सार्थक नामधारी श्री चामुण्डराय के प्रश्न के अनुरूप जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के अर्थसंग्रह करने के लिए गोम्मटसार नाम वाले पञ्चसड शास्त्र का प्रारंभ करते हुए मैं नेमिचन्द्र मंगलपूर्वक गाथासूत्र कहला हूँ।
उपर्युक्त तथ्यों का गहराई से अन्वेषण करने पर जस्टिस मांगीलाल जैन के पक्ष में इतना तो स्वीकार किया जा सकता है कि नेमिचन्द्राचार
ने कहीं भी बाहुबली की प्रतिमा को गोम्मट नहीं कहा है, अपितु इसे दक्षिण कुक्कुडजिन कहकर संबोधित किया है। किन्तु नेमिचन्द्र ने अपनी रचनाओं तथा उत्तरवर्ती टीकाकारों ने स्पष्टरूप से चामुण्डराय के उद्देश्य से ग्रंथ रचा है, ऐसा लिखा है। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने भी नेमिचन्द्र तथा चामुण्डराय को समकालीन माना है।
‘जे कम्मे सूरा सो धम्मे सूरा’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए चामुण्डराय ने अपनी भाषा-प्रवीणता का सदुपयोग जैनदर्शन के सूक्ष्म एवं गंभीर विषयों के प्रतिपादन में किया। इनके परिणाम स्वरूप ही आपकी चार रचनायें दृष्टिगोचर होती हैं- 1. चारित्रसार, 2. चामुण्डरायपुराण (त्रिषष्टि लक्षण-महापुराण), 3. गोम्मटसार जीवकाण्ड की वीरमार्त्तण्ड नामक कन्नड़ी टीका, 4. तत्त्वार्थसार संग्रह।
चामुण्डराय के व्यक्तित्व की विशेषताएँ :
1. आज्ञाकारी- चामुण्डराय परम आज्ञाकारी थे। अपनी माता की इच्छापूर्ति हेतु इन्होंने भगवान् बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण कराया। माता की ही इच्छापूर्ति के निमित्त अज्ञात स्थान पर स्थित पोदनपुर की बाहुबली की अलौकिक प्रतिमा के दर्शन के लिए चतुरंगिणी सेना के साथ गये।
2. रसनेन्द्रिय विजयी- अज्ञात स्थान पर स्थित प्रतिमा के दर्शन होने के पूर्व तक दुग्ध-सेवन का त्याग किया।
3. प्रश्रयता- कन्नड़ महाकवि रत्र को प्रश्रय दिया। सिद्धान्तचक्रवर्ती आ. नेमिचन्द्र ने चामुण्डराय के आश्रय में निवास करते हुए सुप्रसिद्ध गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि सिद्धान्त-ग्रन्थों का सृजन किया। आचार्य अजितसेन को भी इन्होंने प्रश्रय किया।
4. राजभक्त- द्रुतवेग से पतनशील वंश की अभिभावकता एवं रक्षा के साथ ही उसके अधिपति पतनोन्मुख राष्ट्रकूट सम्राटों का भी संरक्षण चामुण्डराय ने यथाशक्ति किया। स्वयं सामर्थ्यवान् होते हुए भी पदलोलुपता का सर्वथा अभाव था।
अपने धार्मिक एवं नैतिक चारित्र तथा क्रियाकलापों के लिए इन्हें ‘सम्यक्त्वरत्नाकर’, ‘सत्ययुधिष्ठिर’, ‘गुणरत्नभूषण’, ‘देवराज””, गुणकाव’ आदि उपाधियों से अलंकृत किया है।
5. उत्कृष्ट श्रावक – मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद के वहनकर्ता होने के बाद भी धार्मिक क्रियाओं में रुचि रखते थे। चामुण्डराय ने अनेक जिनमंदिरों, मूर्तियों आदि का निर्माण, जीर्णोद्धार तथा प्रतिष्ठा कराई थी। अवणबेलगोला की चन्द्रगिरि पर स्वनिर्मित चामुण्डराय-वसति में इन्द्रनीलमणि की मनोज नेमिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी।” विन्ध्यगिरि पर त्यागद-ब्रहादेव नाम का सुन्दर मानस्तम्भ बनवाया था। विश्व प्रसिद्ध बाहुबली की प्रतिमा निर्माण का श्रेय भी इनको जाता है। इन्होंने सांसारिक क्षेत्र में उन्नति करने के साथ-साथ धार्मिक क्षेत्र में भी समान ख्याति अर्जित की थी। इन गुणों का अनुकरण इनके पुत्र तथा पुत्रवधू ने भी किया था।”
चारित्रसार -आचार विषयक यह गद्यात्मक ग्रंथ संक्षेप में जैनश्श्रावकाचार तथा श्रमणाचार को ध्यान में रखते हुए रचा गया है। प्रारंभ में तीन अध्याय श्रावकों के विषय में है। प्रथम अध्याय में सम्यक्त्व तथा पञ्चाणुव्रतों का उल्लेख है, आगे व्रतों की परिभाषा, उनके अतिचार, रात्रि भोजन त्याग (जिसे छठाँ अणुव्रत कहा है) का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में सप्तशीलों का वर्णन है। इसमें भी इनके अतिचारों तथा भेद-प्रभेदों का कथन है। गृहस्थ की इज्जा, वात्ती, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप- इन षडावश्यकों का कथन है। इस अध्याय के अन्त में सल्लेखना का विवेचन है। तृतीयाधिकार में षोडशकरण भावना का स्वरूप दिया है। चतुर्थ अधिकार के अनगार (मुनि) धर्म का स्वरूप कहा है, जिसके आरंभ में दश धर्मों का विशद् विवेचन है। तत्पश्चात् तीन गुप्तियों तथा पांच समितियों का कथन है। संयमी निर्ग्रन्थों के भेद-प्रभेद, परीषहजय, गुणस्थानानुसार परिषह-कथन तथा अन्त में तप का वर्णन है तथा सबसे अन्त में द्वादश अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख कर ग्रंथ का समापन किया है।
चामुण्डरायकृत चारित्रसार की कतिपय विशेषताएँ :
1. चामुण्डराय की यह कृति पूर्ण रूपेण पूर्वाचार्यों का अनुकरण करती है। आद्यन्त इस ग्रंथ में विभिन्न आचार्यों के महत्वपूर्ण श्लोक, गाथा, कारिका आदि का संदर्भ देकर स्वलेखनी की पुष्टि की है। इस कारण यह ग्रंथ प्रामाणिक है।
2. जीवों के शरण एवं स्वर्ग-मोक्ष फलप्रदाता अर्थात् धर्म की महिमा
का वर्णन है।
3. आवकों के पंचाणुव्रतों के अतिरिक्त रात्रिभोजनत्याग को हसे छठें व्रत की संज्ञा प्रदान की है। पृथक् रूप
4. उपासकदशांग में उल्लिखित सप्तशीलव्रतों का अन्तर्भाव चारित्रसार में किया है।
* साधु के उत्तरगुणों में गर्भित परीषहजय का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है।
6. श्रावका का चारित्र-विकास ग्यारह प्रतिमाओं के माध्यम से होता है। इस ग्रंथ में व्रतों का तो संक्षिप्त कथन है किन्तु प्रतिमाओं का विशद् वर्णन किया है। 7. ध्यान-प्रकरण के अन्तर्गत धर्म्यध्यान में अनित्य आदि बारह भावनाओं
का विवेचन किया है।
8. तपश्चरण द्वारा मुनियों को अनेक ऋद्धियाँ प्रकट होती हैं। इन ऋद्धियों का ग्रंथ में विस्तारपूर्वक कथन है।
9. प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर यह गृहस्थ प्रणीत प्रथम रचना है, क्योंकि ग्रंथ-सृजन का प्रचलन आर्ष (आचार्य) प्रणीत ही माना गया है।
२. त्रिषष्टि लक्षण महापुराण :-
इसे चामुण्डरायपुराण भी कहते हैं। चामुण्डराय ने इसे कन्नड़ भाषा में लिखा है, इसका रचनाकाल शक सं. 990 (ई.सन् 978) है। यह कन्नड़ भाषा का आद्य ग्रंथ है। इसकी भाषा सरल एवं बोधगम्य है। इसमें प्रमुख आचायों के नाम, उनकी परम्परा तथा ग्रंथकारों का उल्लेख मिलता है, साथ ही इस आधार पर इनकी कालगणना में भी सहजता होती है। गृद्धपिच्छाचार्य (कुन्दकुन्द), सिद्धसेन, समन्तभद्र, पूज्यपाद (पद्मनन्दि), कवि परमेश्वर, वीरसेन, गुणभद्र, धर्मसेन, कुमारसेन, नागसेन, आर्यनन्दि, अजितसेन, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, माघनन्दि, शामकुण्ड, तेम्बुलूराचार्य, एलाचार्य, शुभनन्दि, रविनन्दि, जिनसेन आदि का उल्लेख इस महापुराण में मिलता है। इसमें लेखक ने अनेक आचायों द्वारा रचित संस्कृत-प्राकृत भाषा के अनेक श्लोकों एवं गाथाओं का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ के नाम से ज्ञात होता है कि इसमें श्रेष्ठ शलाका पुरुषों (24 तीर्थंकर+12 चक्रवर्ती 9 नारायण 9 प्रतिनारायण + 9 बलभद्र) का वर्णन यह ग्रंथ जातक शैली का प्रथम ग्रंथ है।’ में तैयार किया गया है, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ये प्रथम कवि थे, जिन्होंने महापुराण, जो मूलतः संस्कृत में है, क कन्नड़ में रचना की है। जो ‘वड्ढाराधना के पश्चात् पद्यात्मक शैली का प्रथम ग्रन्थ है |
३. वीर मात्र्त्तण्डी टीका:-
चामुण्डराय ने आचार्य नेमिचन सिद्धान्तचक्रवर्ती के गोम्मटसार पर वीरमार्तण्ड नामक कन्नड़ टीक रची है। इस रचना के पीछे दो मुख्य हेतु प्रतीत होते हैं, प्रथम यह कि उन्होंने स्वनिमित्त रची गई कृति गोम्मटसार से उऋण होने हेतु इस स्त्र जनों के लिए अगम्य होने से कन्नड़-भाषियों के प्रति विशिष्ट राग एवं है तथा द्वितीय यह कि गोम्मटसार की भाषागत सौष्ठवता साधारण उपकार की दृष्टि से इसे रचा होगा।
४ .तत्वार्थ वार्तिक संग्रह :-
इस रचना के विषय में जैन सिद्धान्त कोश के निर्माता जिनेन्द्र वर्णी ने मात्र उल्लेख किया है।
तीर्थंकर महावीर एवं उनकी आचार्य परम्परा’
में डॉ. नेमिचर ‘ज्योतिषी धोकर मतथा ‘अर्हत्वचन’ के बाहुबली विशेषांक में कहीं में इसका उल्लेख नहीं मिलता है। 30
संदर्भः
1. ‘जगत्पवित्रब्रह्मक्षत्रियवंश भागे’, चामुण्डरायपुराण, पृ. 5
2. तलकारडु निवासी
3. ‘सो अजियसेणणाहो जस्स गुरु’, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गा. 9664. “It is believer that Puiyappai who did in Vijayamangala was the sister of Camundaraya
Camundaraya and Sravan Aelagola. Padmavathamma.
5-“Ajita Devi, one of the vives of Camundaraya had given birth to sonJinadevanna.” Camundaraya and Sravan Aelagola. – Padmavathamma Vol.18, No.1, Jan-March&2006, 69-74.
6- तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा- नेमिचन्द ज्योतिषाचार्य।
7. गोम्मटेश्वर बाहुबली और गोमटेस थुदि : एक अनुशीलन, भागचन्द्र जैन ‘भागेन्दु’
अर्हत् वचन, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ इन्दौर, वर्ष 18, अंक-1, जनवरी-मार्च 2006, ३
27-33
8. (E.C.II) नं. 238, पंक्ति 16, अंग्रेजी संक्षेप का पृ. 98, उद्धृत जीवकाण्ड की, भूमिका, पृ. 14 (पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री) उद्धृत वीरवर चामुण्डराय- श्रेयांस कुमार अहंत् वचन, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, वर्ष 18, अंक-1, जनवरी-मार्च 2006,पृ. 35-39
9.नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड-2, पृ. 21
10. वीरवर चामुण्डराय – श्रेयांस कुमार जैन, अर्हत् वचन, पृ. 38
11. वीरवर चामुण्डराय – श्रेयांस कुमार जैन, अर्हत् वचन, पृ. 36 .
12.बाहुबली के राज्यक्षेत्र तक्षशिला की राजधानी
13. वीरवर चामुण्डराय – श्रेयांस कुमार जैन, अर्हत् वचन, पृ. 35-36
14. श्रवणबेलगोला : अतीत से वर्तमान, अर्हत् वचन, पृ. 9
15. गोम्मटेश्वर बाहुबली और गोमटेस धुदि : एक अनुशीलन- भागचन्द्र जैन ‘भागेन्दु’,अर्हत् वचन, पृ. 29
16. बाहुबलीचरित, श्लोक-6
17. बाहुबली, (जस्टिस मांगीलाल जैन), प्रकाशक- दि. जैन विद्यानंद शोधपीठ, बड़ौत
18. त्रिलोकसार, भाषा वचनिका पं. टोडरमल जी,
19. गोम्मटकर्मकाण्ड गाथा 967
20. गोम्मटसार
21. गोम्मटसार जीवकाण्ड, मन्द प्रबोधिनी टीका, 503
22. गो.कर्म. 968
23. गोम्मटसार जीवकाण्ड, भूमिका पृ.14,पं. कैलाशचन्द शास्त्री
24. कर्मकाण्ड (गोम्मटसार), गाथा ।
25. कर्मकाण्ड (गोम्मटसार), गाथा 45
26. कर्मकाण्ड (गोम्मटसार), गाथा ।
27. कर्मकाण्ड (गोम्मटसार), गाथा 258
28. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 980-971
29. गोमटेश गाथा, पृ. 187
30. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग-2,शब्द-चामुण्डराय,
अनेकांत पत्रिका जनवरी -मार्च, २०१५
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