असंख्यव्यन्तरावासस्थितान् सर्वान् जिनालयान्।व्यन्तरामरवन्द्याच्र्यान् प्रतिमाभि: सह स्तुवे।।१।।
अथ पञ्चगुरुन्नत्वा विश्वकल्याणसिद्धिदान्। करिष्ये वर्णनं सिद्धये ह्यष्टधाव्यन्तरात्मनाम्।।२।।
आदिमा: किन्नरादेवा: किम्पुरुषा महोरगा:। गन्धर्वाख्यास्ततो यक्षा राक्षसा भूतनिर्जरा:।।३।।
पिशाचाश्च ह्यमी ज्ञेया अष्टधा व्यन्तरामरा:। अमीषां वर्णभेदादीन् पृथग्वक्ष्येऽधुनाचिदे।।४।।
प्रियङ्गुफलभा: किन्नराश्च किम्पुरुषा: सिता:। महोरगा हि कृष्णाङ्गा गन्धर्वयक्षराक्षसा:।।५।।
हेमप्रभास्त्रयो भूता: कृष्णवर्णा: पिशाचका:। बहुलप्रभसद्गात्रा अमीषां भेद उच्यते।।६।।
रत्नप्रभाक्षिते: सन्ति खरभागे महागृहा:। चतुर्दशसहस्राणि भूतानामविनश्वरा:२।।३९।।
रत्नप्रभावने: पज्र्भागे रत्नमया: शुभा:। आवासा राक्षसानां स्यु: सहस्रषोडशप्रमा:।।४०।।
शेषव्यन्तरदेवानां मध्यलोकेऽचलादिषु। सर्वत: सन्ति चावासाश्चैत्यालयविराजिता:।।४१।।
अञ्जनो वङ्काधातुश्च द्वीप: सुवर्णनामक:। द्वीपो मन:शिलाभिख्यो द्वीपो वङ्कासमाह्वय:।।४२।।
रजतो हिङ्गुलद्वीपो हरितालाभिधानक:। अष्टद्वीपेषु चैतेषु समभागे समावनौ।।४३।।
अष्टानां व्यन्तरेन्द्राणां प्रत्येक़ शाश्वतानि च। जम्बूद्वीपसमानानि पञ्चपञ्चपुराण्यपि।।४४।।
पूर्वादिदिक्षु विद्यन्ते मानस्तम्भजिनालयै:। चैत्यवृक्षैश्च युक्तानि स्वस्वेन्द्रनामभि: स्पुक़टम्।।४५।।
अमीषां मध्यभागस्थं स्वेन्द्रनामयुतं पुरम्। प्रभं चावर्तकं कान्तं मध्यमं चेति दिक्ष्वपि।।४६।।
एतेषां पृथग्नामानि प्रोच्यंते :- एषां पुराणां मध्यस्थपुरस्य किन्नरपुराख्यं नाम स्यात्।
पूर्वभागस्थितपुरस्य किन्नरप्रभाह्वयं नामास्ति। दक्षिणदिग् भागस्थपुरस्य किन्नरावर्तपुराभिधं नाम स्यात्।
पश्चिमाशास्थपुरस्य किन्नरकान्तपुरसंज्ञं नामास्ति। उत्तरादिग् स्थितपुरस्य किन्नर मध्यमाह्वयं नाम भवेत्।
तथा अन्येषां सप्तद्वीपस्थ सर्वपुराणां अनया रीत्या स्व स्वेन्द्रनामपूर्वाणि प्रभावर्तकान्त मध्यमान्तानि नामानि भवन्ति।
प्राकारा नगरेषु स्यु: शाश्वता: प्रोन्नता: शुभा:। द्विक्रोशाधिकसप्तिंत्रशद्योजनैश्च विस्तृता:।।४७।।
मूले क्रोशद्वयाग्रद्वादशसंख्यैश्च योजनै:। सार्धद्वियोजन व्यासा र्मूिध्न द्वारादिभूषिता:।।४८।।
द्वारााणामुदयोऽमीषां सार्धद्विषष्टियोजन:। विस्तार: कोशसंयुत्तैकिंत्रशद्योजनप्रम:।।४९।।
द्वाराणां मस्तकेऽमीषां प्रासादामणिसङ्कुला:। विद्यन्ते प्रोन्नता रम्या: पञ्चसप्ततियोजनै:।।५०।।
विस्तृता: क्रोशसंयुत्तैकत्रिंशद्योजनै: शुभा:। तेषां मध्ये सुधर्माख्यो राजते मणिमण्डप:।।५१।।
योजनानां नवोत्तुङ्ग: सार्धद्वादशयोजनै:। आयतो विस्तृत: कोशाधिकषड्भिश्च योजनै:।।५२।।
तस्य द्वाराणि रम्याणि द्वियोजनोन्नतानि च। योजनव्यासयुक्तानि मण्डपस्य भवन्त्यपि ।।५३।।
इत्येवं वर्णना ज्ञेया सर्वेन्द्राणां पुरेषु च। नगराणां चर्तुिदक्षु चत्वारश्चैत्यपादपा: ।।५४।।
रत्नपीठाश्रिता मूले चर्तुिदक्षु विराजिता:। भौमेन्द्र पूजिताभि: स्र्युिजनेन्द्रदिव्यर्मूितभि:।।५५।।
मानस्तम्भाश्च चत्वारो मणिपीठत्रिकोध्र्वगा:। शालत्रय युताः सन्ति सिद्धबिम्बाढ्यशेखरा:।।५६।।
अशोकश्चम्पको नागस्तुम्बुरुश्च वटद्रुम:। बदरी तुलसी वृक्ष: कदम्बोऽष्टांह्रिपा इमे।।५७।।
मणिपीठाग्रभागस्था: पृथ्वीसारमयोन्नता:। भवनेषु क्रमात्सन्ति ह्यष्टानां व्यन्तरात्मनाम्।।५८।।
तेषां मूले चर्तुिदक्षु चतस्र: प्रतिमा: पृथव्क़। चतुस्तोरणसंयुक्ता दीप्ता दिव्या जिनेशिनाम्।।५९।।
मानस्तम्भोऽस्ति चैवैक: एवैकां प्रतिमां प्रति। मुक्तास्रग्मणिघण्टाढ्यस्त्रिपीठशालभूषित:।।६०।।
पुराणां च चर्तुिदक्षु त्यक्त्वा द्वे च सहस्रके। योजनानां हि चत्वारि वनानि शाश्वतान्यपि।।६१।।
लक्षयोजनदीर्घाणि लक्षार्धविस्तृतानि वै। अशोकसप्तपर्णाम्र-चम्पकाढ्यानि सन्ति च ।।६२।।
मध्येऽमीषां हि चत्वारो राजन्ते चैत्यपादपा:। अशोक-सप्तपर्णाम्र-चम्पकाख्या जिनार्चनै:।।६३।।
विदिक्षु नगराणा स्युर्गणिकानां पुराणि च। सहस्रचतुरशीतियोजर्नैिवस्तृतानि वै।।६४।।
वृत्ताकाराणि नित्यानि प्राकारादियुतान्यपि। पुराणि शेष भौमानामनेकद्वीपर्वािधषु।।६५।।
प्रदर्शनी हि भोगाख्या भोगावती भुजङ्गिनी। नागप्रिया सुतोषाथ घोषाख्या विमलप्रिया।।६८।।
सुस्वरानिन्दितादेवी देवी भद्रा सुभद्रका। मालिनी पद्ममालाख्या सर्वश्री सर्वसैनिका।।६९।।
रुद्राथ रुद्रदर्शाख्या भूतकान्ता समाह्वया। भूतभूतप्रिया देवी दत्ता महाभुजङ्गिनी।।७०।। अ
म्विकाथ करालाख्या सुरसेना सुदर्शना। इन्द्राणां स्युरिमा देव्यो द्वाित्रशद्विश्वपिण्डिता:।।७१।।
अष्टानां व्यन्तराणां स्यु: पुराणि भवनानि च। आवासा इति विज्ञेयास्त्रिविधा: स्थानका: शुभा:।।७२।।
मध्यलोकस्थद्वीपाब्धिमहीषु स्यु पुराणि च। खरांशे पज्र्भागे चाधोलोके भवनान्यपि।।७३।।
आवासा: सन्ति चैतेषामूध्र्वलोके क्षयोज्झिता:। पर्वताग्रेषु वूक़टेषु वृक्षाग्रेषु ह्रदादिषु।।७४।।
वृत्तोत्कृष्टपुराणां स्याद् व्यासो लक्षैकयोजन:। जघन्यनगराणां किलैकयोजनविस्तर:।।७५।।
उत्कृष्टभवनानां हि सकलोत्कृष्टविस्तर:। योजनद्विशताग्रस्थसहस्रद्वादशप्रम:।।७६।।
जघन्यभवनानां स्याद् विस्तरोऽतिजघन्यक:। योजनानामधोलोके पञ्चविंशतिमानक:।।७७।।
विष्कम्भो निखिलोत्कृष्टावासानां श्रीजिनागमे। योजनानां जिनै: प्रोक्त: सहस्रद्वादशप्रम:।।७८।।
आवासानां जघन्यानां व्यास: कोशत्रयं भवेत्। उत्कृष्टभवनादीनां मध्ये कूटो जघन्यक:।।८०।।
एकगव्यूतिविस्तारो हेमरत्नमयोऽक्षय:। क्रोशैकस्य त्रिभागानामेकभागसमुन्नत:।।८१।।
अमीषां सर्वकूटानां मध्यभागे च मूर्धनि। स्पुरद्रत्नमयस्तुङ्ग एवैक: श्रीजिनालय:।।८२।।
ज्येष्ठानां भवनादीनामुत्कृष्टा वेदिका मता। प्रतोलीतोरणाद्याढ्या कोशद्वयोच्छ्रिर्तोिजता।।८३।।
लघूनां भवनादीनां लघ्वी सद्वेदिका भवेत्। पञ्चिंवशतिचापोच्चा गोपुरादिविभूषिता।।८४।।
केषाञ्चिद् भौमदेवानामावासा: सन्ति केवलम्। केषाञ्चिद् भवनै: सार्धमावासा: स्यु: सुधाभुजाम्।।८५।।
पुराणि भवनान्युच्चावासा एते त्रय: शुभा:। भवन्ति वसतिस्थाना: केषाञ्चित्पुण्यपाकत:।।८६।।
तथेतित्रिविधस्थानानि स्युर्भवनवासिनाम्। नवानामसुराणां च केवलं भवनान्यपि।।८७।।
मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा—
अर्थ :- व्यन्तर देवों से वन्दनीय और व्यन्तर देवों के असंख्यात आवासों में स्थित प्रतिमाओं सहित सम्पूर्ण जिनालयों का मैं स्तवन करता हूँ ।।१।।
इसके बाद विश्व का कल्याण करने वाले और सिद्धि प्रदान करने वाले पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करके अब मैं आत्मसिद्धि के लिये आठ प्रकार के व्यन्तर देवों का वर्णन करूँगा।।२।
व्यन्तरदेवों के आठ भेद—
अर्थ :- किन्नरदेव, किम्पुरुषदेव, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये आठ प्रकार के व्यन्तर देव हैं। अब ज्ञान प्राप्ति के लिये इनके शरीर का वर्ण और इनके भेद अलग-अलग करता हूँ ।।३-४।।
अब व्यन्तर देवों के शरीर का वर्ण कहते हैं :-
अर्थ :- किन्नर देवों के शरीर का वर्ण प्रियंगुफल सदृश नील वर्ण, किम्पुरुषों का धवलवर्ण, महोरगों का कृष्ण वर्ण, गन्धर्व, यक्ष और राक्षसों का स्वर्ण सदृश वर्ण, भूतों का कृष्ण वर्ण और पिशाच जाति के देवों का पंक सदृश वर्ण होता हैं।।५-६।।
अब व्यंतर देवों के निवास का एवं उनके पुरों (नगरों) आदि का वर्णन करते हैं :-
अर्थ :- रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग में भूत नामक व्यन्तर देवों के शाश्वत चौदह हजार महागृह हैं।।३९।।
रत्नप्रभा पृथिवी के पंकभाग में राक्षस कुल व्यंतरों के रत्नमयी और अत्यन्त रमणीक सोलह हजार प्रमाण आवास हैं।।४०।।
शेष व्यंतर देवों के चैत्यालयों से विभूषित आवास तिर्यग्लोक के पर्वतों पर सर्वत्र हैं।।४१।।
अंजन, वङ्काधातु, सुवर्ण , द्वीप, मन:शिल द्वीप, वङ्का द्वीप, रजत द्वीप, हिंगुल द्वीप और हरिताल द्वीप, इन आठ द्वीपों में चित्रा भूमि पर समभाग में अर्थात् भूमि के नीचे या पर्वतों के ऊपर नहीं जम्बूद्वीप सदृश समतल भूमि पर आठ प्रकार के व्यन्तर देवों में से प्रत्येक इन्द्र के जम्बूद्वीप सदृश प्रमाण वाले पांच-पांच नगर हैं।।४२-४४।।
ये नगर मानस्तम्भों, जिनालयों और चैत्यवृक्षों से युक्त तथा अपने-अपने इन्द्रों के नाम से संयुक्त पूर्वादि चारों दिशाओं में हैं । इन नगरों में से अपने-अपने इन्द्रों के नाम से युक्त पुर नाम का नगर मध्य में स्थित है, अवशेष किन्नरप्रभ, किन्नरावर्त, किन्नरकान्त और किन्नरमध्य ये चारों नगर क्रमश: पूर्व आदि चारों दिशाओं में अवस्थित हैं।।४५-४६।।
अब इन नगरों के पृथक़-पृथक़ नाम कहते हैं :-
अर्थ :- अंजन द्वीप के मध्य स्थित नगर का नाम किन्नरपुर है। पूर्व दिशा स्थित नगर का नाम किन्नरप्रभ है। दक्षिणदिग् स्थित नगर का नाम किन्नरावर्त है। पश्चिम दिश् स्थित नगर का नाम किन्नरकान्त है और उत्तर दिग् स्थित नगर का नाम किन्नरमध्य है। इसी प्रकार सातों द्वीपों में अपने-अपने इन्द्रों के नाम हैं पूर्व में जिनके, ऐसे पुर, प्रभ, आवर्त, कान्त और मध्य नाम के नगर इसी रीति से पूर्वादि दिशाओं मे अवस्थित हैं।
अब प्राकार, द्वार, प्रासाद, सभामण्डप एवं चैत्यवृक्षों आदि का प्रमाणपूर्वक वर्णन करते हैं :-
अर्थ :- उन प्रत्येक नगरों में ३७ योजन २ कोस ऊँचे, मूल में १२-१/२ योजन चौड़े, ऊपर २-१/२ योजन चौड़े, शाश्वत, शुभ और द्वारों आदि से विभूषित प्राकार हैं।।४७-४८।।
इन प्राकारों में स्थित द्वारों में से प्रत्येक द्वार की ऊँचाई ६२-१/२ योजन तथा चौड़ाई ३१-१/४ योजन प्रमाण है।।४९।।
इन द्वारों के ऊपर ७५ योजन ऊँचे और ३१-१/४ योजन चौड़े मणिमय प्रासाद हैं। जिनके मध्य में सुधर्मा नाम के मणिमय मण्डप सुशोभित होते हैं ।।५०-५१।।
जो ९ योजन ऊँचे, १२-१/२ योजन चौड़े और ६-१/४ योजन चौड़े हैं।।५२।।
उस सभामण्डप के द्वार अत्यन्त रमणीक, दो योजन ऊँचे और एक योजन चौड़े हैं।।५३।।
इसी प्रकार का वर्णन सर्व इन्द्रों (दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों) के नगरों में जानना चाहिये। नगरों की चारों दिशाओं में (एक-एक) चार चैत्यवृक्ष हैं। जिनके मूल में चारों दिशाओं में रत्नपीठ के आश्रित, व्यन्तर देवों से पूजित जिनेन्द्र भगवान की दिव्य र्मूितयाँ हैं।।५४-५५।।
इन्हीं चारों वृक्षों के सामने तीन-तीन मणिमय पीठ के ऊपर, तीन कोट से युक्त चार मानस्तम्भ हैं, जिनके शिखर सिद्ध भगवान् के बिम्बों से युक्त हैं।।५६।।
अब पिशाचादि व्यन्तर देवों के चैत्यवृक्षों के भिन्न-भिन्न नाम, उनमें स्थित प्रतिबिंब एवं मानस्तम्भों का वर्णन करते हैं :–
अर्थ :- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष,राक्षस, भूत और पिशाच इन आठों व्यन्तर देवों के क्रम से अशोक, चम्पक, नाग(केसर), तुम्बरु, वट, वदरी, तुलसी और कदम्ब नाम वाले चैत्यवृक्ष होते हैं। ये ऊँचे-ऊँचे वृक्ष पृथ्वी के सारमय (पृथ्वीकायिक) और मणिपीठ के अग्रभाग पर स्थित होते हैं। इन वृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में जिनेन्द्र भगवान की चार-चार तोरण द्वारों से युक्त, देदीप्यमान और दिव्य पृथक़-पृथक़ चार प्रतिमाएँ हैं तथा एक-एक प्रतिमा के प्रति मुक्तादामों एवं मणिमय घण्टाओं से युक्त, मणिमय तीन-तीन पीठ और प्राकार से युक्त एक-एक मानस्तम्भ हैं।।५७-६०।।
अब नगरों की चारों दिशाओं में स्थित वनों एवं विदिशाओं में स्थित नगरों का कथन करते हैं:-
अर्थ :- नगरों की चारों दिशाओं में दो-दो हजार योजन छोड़कर अशोक, सप्तपर्ण, आम्र और चम्पक नाम के चार-चार शाश्वत वन हैं, जो एक-एक लाख योजन लम्बे तथा पचास-पचास हजार योजन चौड़े हैं। इन वनों के मध्य में जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं से युक्त अशोक, सप्तपर्ण, आम्र और चम्पक नाम के चार-चार चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं।।६१-६३।।
नगरों की चारों विदिशाओं में गणिकाओं (प्रधान देवियों) के वलयाकार, शाश्वत और प्राकार आदि से युक्त नगर हैं, जो ८४००० योजन लम्बे और ८४००० योजन ही चौड़े हैं। शेष व्यन्तर देवों के नगर अनेक द्वीपों एवं अनेक समुद्रों में हैं।।६४-६५।।
अर्थ :- सोलह इन्द्रों में से प्रत्येक की गणिका नाम की दो-दो प्रधान देवांगनाएँ हैं, इनमें से प्रत्येक की आयु एक-एक पल्य प्रमाण है।।६६।।
माधुरी, मधुरालाप, मधुरस्वरा, पुरुषप्रिया, पृथुका, सोमा, प्रदर्शनी, भोगा, भोगवती, भुजङ्गिनी, नागप्रिया, सुतोषा, घोषा, विमलप्रिया, सुस्वरा, अिंनदिता, भद्रा, सुभद्रका, मालिनी, पद्ममाला, सर्वश्री, सर्वसैनिका, रुद्रा, रुद्रदर्शा, भूतकान्ता, भूतप्रिया, दत्ता, महाभुजङ्गिनी, अम्बिका, कराला, सुरसेना और सुदर्शना ये ३२ गणिका महत्तरिकाएँ व्यन्तरवासी इन्द्रों की हैं।।६७-७१।।
अब व्यन्तर देवों के तीन प्रकार के निवासस्थानों का अवस्थान सूचित कर उनके नगरों एवं कूटों का प्रमाण कहते हैं :-
अर्थ :- आठों प्रकार के व्यन्तर देवों के रहने के शुभ स्थान पुर, भवन और आवास के भेद से तीन प्रकार के जानना चाहिये।।७२।।
मध्यलोक में (सम) पृथ्वी पर स्थित द्वीप-समुद्रों में व्यन्तर देवों के निवास स्थान हैं उन्हें पुर कहते हैं। अधोलोक में खर और पज्र्भाग में जो स्थान हैं उन्हें भवन कहते हैं तथा ऊध्र्वलोक में अर्थात् पृथ्वी से ऊपरी भागों में पर्वतों के अग्रभागों पर, कूटों पर, वृक्षों के अग्रभागों पर और पर्वतस्थ सरोवरों आदि में जो स्थान हैं उन्हें आवास कहते हैं। ये तीनों प्रकार के निवासस्थान हानि-क्षय से रहित अर्थात् शाश्वत हैं।।७३-७४।।
उत्कृष्ट पुर वृत्ताकार और एक लाख योजन विस्तार वाले हैं तथा जघन्य पुर एक योजन विस्तार वाले हैं।।७५।।
समस्त उत्कृष्ट भवनों का उत्कृष्ट विस्तार १२,२०० योजन प्रमाण है।।७६।।
अधोलोक स्थित जघन्य भवनों का जघन्य विस्तार २५ योजन प्रमाण है।।७७।।
जिनागम में जिनेन्द्र भगवान के द्वारा सम्पूर्ण उत्कृष्ट आवासों का विष्कम्भ १२००० योजन कहा गया है तथा जघन्य आवासों का व्यास तीन कोस कहा गया है। उत्कृष्ट भवन आदि के मध्य में देदीप्यमान कूट हैं, जो ३०० योजन चौड़े और १०० योजन ऊँचे हैं। जघन्य भवनों आदि के मध्य में जघन्य कूट हैं जो स्वर्ण और रत्नमय हैं, शाश्वत हैं तथा एक कोस चौड़े और १/३ कोस ऊँचे हैं।७८-८१।।
अब कूटों का अवशेष वर्णन करते हुए व्यन्तरदेवों के निवास (आवासों आदि का ) स्थानों का विभाग दर्शाते हैं :-
अर्थ :- इन उत्कृष्ट एवं जघन्य सर्व कूट के ऊपर मध्य भाग में देदीप्यमान रत्नमय एक-एक उत्तुङ्ग जिनालय है।।८२।।
उत्कृष्ट भवनों आदि की उत्कृष्ट वेदियाँ प्रतोली तथा तोरणों आदि से युक्त दो कोस ऊँची हैं तथा जघन्य भवनों आदि की जघन्य वेदियाँ गोपुर आदि से विभूषित और २५ धनुष ऊँची हैं।।८३-८४।।
पूर्व पुण्योदय से किन्हीं-किन्हीं व्यन्तर देवों के मात्र आवास ही हैं, किन्हीं के आवास और भवन दोनों हैं।।८५।।
तथा किन्हीं-किन्हीं व्यन्तर देवों के आवास , भवन और पुर ये तीनों प्रकार के अत्यन्त शुभ निवासस्थान होते हैं।।८६।।
भवनवासी देवों में असुरकुमारों के मात्र भवन होते हैं, अन्य शेष भवनवासियों के तीनों प्रकार के निवासस्थान होते हैं।।८७।।