मालिनी- त्रसहतिपरिणामध्वांतविध्वंसहेतु:।
सकलभुवनजीवग्रामसौख्यप्रदो य:।।
स जयति जिनधर्म: स्थावरैकेन्द्रियाणां।
विविधवधविदूरश्चारुशर्म्माब्धिपूर:।।७६।।
अर्थ-जो त्रस घात के परिणामरूप अंधकार के विध्वंस का हेतु है, सकल भुवन के जीवसमूह को सौख्य प्रदान करने वाला है, स्थावरकायिक एकेन्द्रिय जीवो के विविध प्रकार के वध बहुत ही दूर हैं और उत्तम सुखरूपी समुद्र का पूर है ऐसा वह जैनधर्म जयशील होता है।
भावार्थ-व्यवहार चारित्र का वर्णन करते हुये श्री कुंदकुंददेव ने कहा है कि कुल, योनि, जीवसमास, मार्गणास्थानों में जीवों को जानकर उनके आरंभ से निवृत्ति परिणाम है वह अहिंसा महाव्रत है। टीकाकार ने कहा है कि उन जीवों के रक्षा की परिणति ही अिंहसा है। जीवों का मरण हो या न हो, यत्नाचार परिणति के बिना दोष का परिहार असंभव है अत: यत्नाचारी मुनि के िंहसा की परिणति के अभाव होने से अिंहसाव्रत होता है। पुन: कलश काव्य में कहते हैं कि जो धर्म त्रस स्थावर की िंहसा से दूर है और सभी जीवों को सुखदायी है तथा उत्तम सुख का सागर है वह आज भी जयवंत हो रहा है।
शालिनी– वक्ति व्यक्तं सत्यमुच्चैर्जनो य:।
स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगैकभाक् स्यात्।।
अस्मिन् पूज्य: सर्वदा सर्वसद्भि:।
सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति व्रतं किम्।।७७।।
अर्थ-जो पुरुष अत्यन्त स्पष्ट रूप सत्य वचन को बोलता है वह स्वर्ग की देवांगनाओं के विपुल भोगों का एक भागी-भोक्ता हो जाता है और इस लोक में हमेशा सर्व सत्पुरुषों के द्वारा पूज्य हो जाता है। सचमुच में सत्य से बढ़कर क्या अन्य कोई सत्य-समीचीन व्रत हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है।
भावार्थ-श्रीकुंदकुंद ने यह बतलाया है कि जो साधु राग, द्वेष अथवा मोह से असत्यभाषा के परिणाम को छोड़ देता है उसके सत्य महाव्रत होता है। पुन: टीकाकार ने कलश में उस व्रत की महानता को स्पष्ट किया है।
आर्या– आकर्षति रत्नानां संचयमुच्चैरचौर्य्यमेतदिह।
स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च।।७८।।
अर्थ-यह उत्कृष्ट अचौर्यव्रत इस लोक में रत्नों के समूह को आकर्षित करता है और (परलोक में) स्वर्ग की देवांगनाओं के सुख का मूल है तथा क्रम से मुक्तिरूपी स्त्री के सुख का भी कारण है।
भावार्थ-आचार्यश्री ने गाथा में यह बतलाया है कि ग्राम, नगर अथवा वन में परवस्तु को देखकर उसके ग्रहण के भाव को छोड़ना अचौर्य महाव्रत है। पुन: टीकाकार ने कलश में उस व्रत का महत्त्व बतलाया है।
मालिनी– भवति तनुविभूति: कामिनीनां विभूतिं
स्मरसि मनसि कािंमस्त्वं तदा मद्वच: किम्।
सहज परमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय
व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम्।।७९।।
अर्थ-कामिनी स्त्रियों की जो शरीर विभूति, शरीर के आंगोपांग सौन्दर्य आदि हैं, हे कामी पुरुष ! तू यदि उस विभूति-सौंदर्य आदि को मन में स्मरण करता है तब तो मेरे वचन से तुझे क्या लाभ होगा ? अहो ! आश्चर्य हो रहा है कि तू किस हेतु से सहज परमतत्त्व निजस्वरूप को छोड़कर के अत्यधिक मोह को प्राप्त हो रहा है अर्थात् सहज तत्त्व रूप जो निज परमात्मा है उसमें जो आनन्द है वह स्त्रियों के मोह में आसक्त हुए जीवों को नहीं मिल सकता है।भावार्थ-आचार्यश्री ने गाथा में बतलाया है कि स्त्री के रूप को देखकर उनके प्रति वांछा का अभाव और मैथुन संज्ञारहित परिणाम ही चौथा ब्रह्मचर्य महाव्रत है। इसी के पालन करने के लिये टीकाकार ने कलश काव्य में प्रेरणा दी है।
हरिणी– त्यजतु भव भीरुत्वाद्भव्य: परिग्रहविग्रहं
निरुपमसुखावासप्राप्त्यै करोतु निजात्मनि।
स्थितिमविचलां शर्माकारां जगज्जनदुर्लभां।
न च भवति महच्चित्रं चित्रं सतामसताभिदम्।।८०।।
अर्थ-भव्यजीव भवभीरू होने से परिग्रह के विशेष आग्रह को या ग्रहण को छोड़ो और निरुपम सुख के आवास (मोक्षपद) की प्राप्ति के लिये अपनी आत्मा में जगत् के जीवों को दुर्लभ, सुखमयी ऐसी अविचल स्थिति को करो और यह निजात्मा में स्थिति करना सत्पुरुष-साधुओं के लिये कोई महान् आश्चर्य नहीं है किन्तु असत्पुरुष-असाधुजनों के लिये ही यह आश्चर्य की बात है।
भावार्थ-आचार्यश्री ने गाथा में यह बतलाया है कि निरपेक्ष भावनापूर्वक संपूर्ण अंतरंग-बहिरंग परिग्रह का त्याग करना ही चारित्र के भार को वहन करने वाले साधुओं का पाँचवां महाव्रत है। पुन: टीकाकार ने टीका में इस पंचमव्रत को परम्परा से पंचमगति का हेतु कहते हुए कलश में परिग्रह के त्याग की प्रेरणा दी है और मोक्षपद की प्राप्ति के लिए आत्मा में अविचल स्थिर होने का आदेश दिया है तथा यह भी बतलाया है कि सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर शुद्ध आत्मा में स्थिर होना यह जगत् के जीवों के लिये दुर्लभ है। इसके प्राप्त करने में महापुरुषों को तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है अर्थात् वे सहज ही प्राप्त कर सकते हैं किन्तु असज्जन पुरुषों को आश्चर्यकारी अवश्य है अर्थात् वे धर्म प्राप्त नहीं कर पाते हैं, यह अभिप्राय हुआ।
मंदाक्रांता-इत्थं बुद्ध्वा परमसमििंत मुक्तिकान्तासखीं यो।
मुक्त्वा संगं भवभयकरं हेमरामात्मकं च।।
स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे।
भेदाभावे समयति च य: सर्वदा मुक्त एव।।८१।।
अर्थ-इस प्रकार ऐसी परमसमिति को मुक्तिकांता की सखी जान करके जो जीव भव भय के करने वाले कनक और कामिनी रूप परिग्रह को छोड़कर ज्ाो अपूर्व सहज विलासरूप चैतन्य चमत्कार मात्र ऐसे अभेद-अद्वैत में स्थित होकर सम्यक््â गमन करते हैं वे सर्वदा मुक्त ही हैं।
विशेषार्थ-गाथा में श्री आचार्यदेव ने कहा है कि प्रासुक मार्ग से दिवस में चार हाथ प्रमाण अवलोकन करते हुए जो श्रमण गमन करता है उसके ईर्या समिति होती है। टीकाकार ने उसको स्पष्ट करते हुये कहा है कि परम संयमी साधु गुरुओं के दर्शन या गुरु की निषद्या के दर्शन के लिए इन तथा देवयात्रा देव के दर्शन, जिनमंदिर, पंचकल्याणक भूमि आदि के दर्शन के लिए इन प्रशस्त प्रयोजनों से गमन करते हैं। वे दिवस में ही त्रस स्थावर की रक्षा करते हुए चार हाथ आगे भूमि का अवलोकन करते हुए चलते हैं यह व्यवहार ईर्या समिति है और निश्चय रत्नत्रय के मार्ग से परधर्मी अपनी आत्मा को सम्यक् प्रकार से प्राप्त होते हैं, आत्मा में ही अभेद रत्नत्रय रूप से परिणमन करते हैं वह निश्चय ईर्या समिति है। इन उभय समितियों को जानकर साधु निश्चय समिति को प्राप्त करो। अभिप्राय यह हुआ कि पहले साधु व्यवहार समिति में तत्पर है उसे उपदेश है कि निश्चय समिति को प्राप्त करो।
मालिनी– जयति समितिरेषा शीलमूलं मुनीनां।
त्रसहतिपरिदूरा स्थावराणां हतेर्वा।।
भवदवपरितापक्लेशजीमूतमाला।
सकलसुकृतसीत्यानीकसन्तोषदायी।।८२।।
अर्थ-यह समिति जयशील हो रही है, जो कि मुनियों के शील-चरित्र का मूल है, त्रस जीवों के घात से बहुत दूर है, वैसे ही स्थावर जीवों की िंहसा से भी दूर है, भवरूपी दावानल के परिताप से उत्पन्न हुए क्लेश के लिये मेघमाला है और सकल पुण्यरूपी धान्य की राशि को संतोष देने वाली है अर्थात् जैसे मेघ की वर्षा से वन की दावानल अग्नि बुझ जाती है और धान्य के खेत पुष्ट हो जाते हैं वैसे ही यह संसार के संताप को बुझाने के लिए और पुण्य को वृद्धिंगत करने के लिये मेघ के समान है। यहाँ समिति के उत्तम फल को बताया गया है।
मालिनी– नियतमिह जनानां जन्मजन्मार्णवेऽस्मिन्।
समितिविरहितानां कामरोगातुराणाम्।।
मुनिप कुरु ततस्त्त्वं त्वन्मनोगेहमध्ये।
ह्यपवरकममुष्याश्चारुयोषित्सुमुक्ते:।।८३।।
अर्थ-इस जन्मरूपी समुद्र-संसार सागर में समिति से रहित, कामरोग से पीड़ित (इच्छाओं से पीड़ित) जीवों का यहाँ जन्म लेना निश्चित ही हैं इसलिये हे मुनिपते। तुम अपने मनरूपी घर के भीतर इस सुन्दर मुक्तिरूपी स्त्री के लिए अपवरक-कमरा (निवासगृह)बनाओ अर्थात् समिति से रहित जीवों को ही इस संसार में जन्म लेना पड़ता है। समिति का पालन करते हैं समझिये उन्होंने अपने विशाल मनरूपी महल में मुक्तिसुंदरी के रहने के लिए एक कमरा बनवा लिया है। मतलब वे जल्दी ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
आर्या– निश्चयरूपां समििंत सूते यदि मुक्तिभाग्भवेन्मोक्ष:।
बत न च लभतेऽपायात् संसारमहार्णवे भ्रमति।।८४।।
अर्थ-यदि यह जीव निश्चय रूप समिति को प्रकट करता है तो वह मुक्ति को प्राप्त करने वाला हो जाता है। अरे रे ! खेद है कि उस समिति के अपाय-अभाव से वह मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता है, प्रत्युत संसाररूपी महासमुद्र में भ्रमण करता है अर्थात् निश्चय समिति के बिना मोक्ष नहीं है और व्यवहार समिति के बिना निश्चय समिति नहीं हो सकती है ऐसा समझकर व्यवहार चारित्र को धारणकर निश्चय चारित्र को प्राप्त करने का उद्यम करना चाहिए।
अनुष्टुप्– परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां मनीषिणाम्।
अन्तरैरप्यलं जल्पै: बहिर्ज्जल्पैश्च किं पुन:।।८५।।
अर्थ-परब्रह्म स्वरूप आत्मा के अनुष्ठान में निरत मनीषी बुद्धिमान् साधुओं को अंतरंग के जल्प से भी बस होवो। पुन: बहिर्जल्प की तो बात ही क्या है ?
विशेषार्थ-श्री आचार्यदेव ने कहा है कि पैशून्य, हास्य, कर्कश, परिंनदा, आत्मप्रशंसा के वचनों को छोड़कर स्वपर हितकारी वचन को बोलने वाले साधु के भाषा समिति होती है। टीकाकार ने इन सभी का विशद लक्षण करके यह स्पष्ट किया है कि सभी अप्रशस्त वचन को छोड़कर अपनी और पर की शुभ तथा शुद्ध परिणति में कारण ऐसे वचन बोलना चाहिये। अनंतर कलश काव्य में कहा है कि अपनी आत्मा के स्वरूप को प्राप्त करने के अनुष्ठान में संलग्न हुए साधु जब अंर्तजल्प-मन के विकल्प जालों को भी छोड़ देते हैं तो उनके बहिर्जल्प-बाहर में लोगों से बोलना-चालना आदि पहले ही छूट चुका है अर्थात् बाह्यजनों से बोलना आदि व्यापार बंद करके अंतरंग के मन के व्यापार को भी रोकना चाहिये, यह अभिप्राय है।
शालिनी– भुक्त्वा भक्तं भक्तहस्ताग्रदत्तं।
ध्यात्वात्मानं पूर्णबोधप्रकाशम्।
तप्त्वा चैवं सत्तप: सत्तपस्वी
प्राप्नोतीद्धां मुक्तिवारांगनां स:।।८६।।
अर्थ-भक्त के हस्ताग्र से दिये हुए भुक्त-भोजन को खाकर पूर्ण ज्ञान के प्रकाशस्वरूप आत्मा का ध्यान करके और इसी प्रकार से सम्यक््â तपश्चरण को तप करके वह सत्तपस्वी देदीप्यमान मुक्तिरूपी सुन्दर स्त्री को प्राप्त कर लेता है अर्थात् जो महाव्रती साधु विधिवत् श्रावक के द्वारा शुद्ध आहार ग्रहण करके अपनी आत्मा का ध्यान करता है, वही मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है।
विशेषार्थ-आचार्यश्री ने एषणा समिति में कहा है कि सप्तगुणयुत, नवधा भक्ति सहित, शुद्ध, सदाचारी उपासक-श्रावक के द्वारा दिए हुए कृत, कारित, अनुमोदना से रहित अर्थात् मन, वचन, काय और कृतादि तीन से गुणित र्३ े ३ ृ ९ नवकोटि से विशुद्ध प्रशस्त और प्रासुक आहार को जो ग्रहण करता है वह एषणा समिति को पालन करने वाला होता है। यह व्यवहार एषणा समिति है और निश्चय से जीव को अशन ही नहीं हैै। नोकर्म, कर्मादि षट्प्रकार के आहार व्यवहारनय से संसारी जीवों को ही होते हैं। पुन: काव्य में स्पष्ट किया है कि साधु श्रावक के द्वारा दिये हुए आहार को ग्रहण कर आत्मा का ध्यान करे और बारह प्रकार के तपश्चरणों को करके मुक्ति को प्राप्त करे। पर के यहाँ भोजन करने का यही मतलब है, अन्यथा पर के यहाँ भोजन कर यदि पर प्रपञ्चों में ही उलझा रहे तो वह अपने कर्त्तव्य से च्युत है।
मालिनी– समितिषु समितीयं राजते सोत्तमानां।
परमजिनमुनीनां संहतौ क्षांतिमैत्री।
त्वमपि कुरु मन:पंकेरुहे भव्य नित्यं।
भवसि हि परमश्रीकामिनीकांतकांत:।।८७।।
अर्थ-उत्तम परम जिन-जिनमुनियों की समितियों में यह आदाननिक्षेपण समिति शोभित होती है जो कि प्राणियों के समुदाय में क्षमा और मैत्री स्वरूप है। हे भव्य ! तुम भी अपने मनरूपी पंकज में नित्य ही इसको धारो, निश्चित ही परमश्री-मुक्तिलक्ष्मी रूपी स्त्री के प्रियकांत हो जावोगे।
विशेषार्थ-यहाँ गाथा में आचार्यश्री ने आदाननिक्षेपण समिति को बताया है कि पुस्तक, कमंडलु आदि के रखने-उठाने में जो प्रयत्नरूप परिणाम है वही आदाननिक्षेपण समिति है। टीकाकार ने कहा है कि अपहृत-सरागसंयमी साधुओं को ज्ञानोपकरण पुस्तक, शौचोपकरण कमंडलु और संयमोपकरण पिच्छी आदि रहती हैं, इनके रखने-उठाने में दृष्टि देखकर और कोमल पिच्छी से संमार्जन करके प्रवृत्ति करना चाहिये। उपेक्षा संयमी-वीतरागी संयमी को पुस्तक, कमंडलु आदि की आवश्यकता नहीं रहती है।पुन: टीकाकार काव्य में इस बात को स्पष्ट करते हैं कि इस समिति से जीवरक्षा होती है अत: इसको पालन करने वाले मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
मालिनी– समितिरिह यतीनां मुक्तिसाम्राज्यमूलं।
जिनमतकुशलानां स्वात्मिंचतापराणाम्।
मधुसखनिशितास्त्रव्रातसंभिन्नचेत:।
सहितमुनिगणानां नैव सा गोचरा स्यात्।।८८।।
अर्थ-जिनमत में कुशल और स्वात्मिंचतन में तत्पर यतियों के लिये यह समिति मुक्तिसाम्राज्य का मूल है। मधुसख-कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्रसमूह के भिदे हुए हृदय सहित मुनिगणों के वह समिति गोचर ही नहीं होती है अर्थात् मुनि आत्मा के स्वरूप का िंचतन करने वाले हैं, उन्हीं की यह समिति उन्हें मोक्ष प्राप्त कराने वाली है किन्तु जो सांसारिक विषयसुखों में आसक्त हैं उनके यह समिति ही नहीं होती है पुन: मोक्ष की बात उनसे बहुत दूर है।
हरिणी– समितिसमििंत बुद्ध्वा मुक्त्यंगनाभिमतामिमां
भवभवभयध्वांतप्रध्वंसपूर्णशशिप्रभाम्।
मुनिप तव सद्दीक्षाकान्तासखीमधुना मुदा
जिनमततप:सिद्धं याया: फलं किमपि धु्रवम्।।८९।।
अर्थ-हे मुनिपते ! मुक्तिरूपी स्त्री को अभिमत-प्रिय, भव भव के भयरूपी अंधकार को ध्वंस करने में पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा-चाँदनी स्वरूप और तुम्हारी सम्यक््â दीक्षारूपी कांता की सखी ऐसी इस सम्यक््â प्रवृत्ति रूप समिति को अब हर्ष से जान करके तुम जिनमत के तप से सिद्ध होने वाले ऐसे कोई एक-अनुपम ध्रुव-अविनश्वर फल को प्राप्त करोगे।
द्रुतविलंबित– समितिसंहतित: फलमुत्तमं।
सपदि याति मुनि: परमार्थत:।।
न च मनोवचसामपि गोचरं।
किमपि केवलसौख्यसुधामयम्।।९०।।
अर्थ-समिति के समूह से वास्तव में मुनिराज शीघ्र ही उत्तम फल को प्राप्त कर लेते हैं जो कि मन और वाणी के अगोचर वैâवल्य सौख्य सुधामय कोई एक अद्भुत है।
विशेषार्थ-गाथा में आचार्यदेव ने प्रतिष्ठापन समिति को बतलाया है कि पर के रोक-टोक से रहित गूढ़-एकांत और प्रासुक ऐसे भूमिस्थान में मलमूत्रादि का विसर्जन करना प्रतिष्ठापन समिति है। टीकाकार ने कहा है कि शुद्ध निश्चयनय से जीव के शरीर का अभाव होने से आहार ग्रहण रूप प्रवृत्ति ही नहीं है। व्यवहारनय से जीव को शरीर होने से आहार का ग्रहण होता है और आहार ग्रहण से मल मूत्रादि होते ही हैं। यहाँ यह कथन भी सामान्य की अपेक्षा है क्योंकि प्रतिष्ठापन समिति का वर्णन है किन्तु तीर्थंकर१, गणधर, तप्ततप आदि ऋद्धिधारी मुनियों के आहार होकर भी मल-मूत्र आदि नहीं होते हैं इसलिये संयमी साधु निर्जंतुक स्थान में मल-मूत्रादि विसर्जन कर उत्तर में कुछ दूर जाकर उत्तर दिशा में मुख कर खड़े होकर कायोत्सर्ग करते हुए निराकुल चित्त से अपनी आत्मा का ध्यान करे अथवा शरीर की अपवित्रता का भी विचार करे। संसारभीरू, स्वात्म सिद्धि में तत्पर ऐसे साधुओं के ही ये समितियाँ होती हैं किन्तु स्वच्छंदचारी साधुओं के नहीं है।पुन: कलश काव्यों में स्पष्ट कह दिया है कि ये समितियां मोक्षरूपी सर्वोत्तम फल को देने वाली हैं, जो मुनि इन समिति रूप प्रवृत्ति करते हैं वे शीघ्र ही अविनश्वर फल को प्राप्त कर लेते हैं।
अर्थ-परमागम के अर्थ के िंचतवन में जिनका मन लगा हुआ है, जो विजितेन्द्रिय हैं, जो बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह से रहित हैं और जो श्रीमान् जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को स्मरण करने में दत्तचित्त हैं ऐसे साधु के सदा मनोगुप्ति होती है।
विशेषार्थ-गाथा में आचार्य ने गुप्ति के लक्षण में बतलाया है कि कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों का परिहार करना व्यवहार से मनोगुप्ति है। टीकाकार ने इसी भाव को लेकर कलश काव्य में स्पष्ट किया है कि निर्ग्रंथ जितेन्द्रिय मुनि जब तत्त्व िंचता में तत्पर होते हैं और जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में रत होते हैं तब उनके शुभ परिणामों से मन का शुभ व्यापार भी मनोगुप्ति कहलाता है।
मंदाक्रांता-त्यक्त्वा वाचं भवभयकरीं भव्यजीव: समस्तां।
ध्यात्वा शुद्धं सहजविलसच्चिच्चमत्कारमेकम्।।
पश्चान्मुक्तिं सहजमहिमानंदसौख्याकरीं तां।
प्राप्नोत्युच्चै: प्रहतदुरितध्वांतसंघातरूप:।।९२।।
अर्थ-भव्यजीव भवभय को करने वाली ऐसी समस्त वाणी को छोड़कर शुद्ध, एक, सहज प्रकाशमान, चिच्चमत्कार आत्मा का ध्यान करके, पापरूपी अंधकार के समूह को नाश करने वाले ऐसे वे साधु सहज महिमास्वरूप और आनंद की खान उस मुक्ति को अतिशयरूप से प्राप्त कर लेते हैं।
विशेषार्थ-मूल में आचार्यश्री ने वचनगुप्ति को बतलाते हुये कहा है कि पाप के कारणभूत ऐसी स्त्री कथा, भोजनकथा, राजकथा और चौरकथा आदि कथाओं का परिहार करना अथवा असत्य आदि वचनों से निवृत्त होना वचन गुप्ति है। पुन: टीकाकार ने कहा है कि जितने भी वचन भव परम्परा को बढ़ाने वाले हैं और अप्रशस्त हैं उन सबको छोड़ करके चैतन्यात्मा का ध्यान करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है।
अनुष्टुप्– मुक्त्वा कायविकारं य: शुद्धात्मानं मुहुर्मुहु:।
संभावयति तस्यैव सफलं जन्म संसृतौ।।९३।।
अर्थ-जो साधु काय के विकार को छोड़कर पुन:-पुन: शुद्धात्मा की सम्यक् प्रकार से भावना करते हैं इस संसार में उन्हीं का जन्म सफल है।।९३।।
अर्थात् यथाजात पद्मासन या खड्गासन मुद्रा से शरीर को स्थिर करना काय की गुप्तिरूप क्रिया है इससे अतिरिक्त काय की किसी प्रकार की भी प्रवृत्ति काय का विकार है। उसको छोड़कर अपने शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है, यहाँ पर इस प्रकार से कायगुप्ति के फल को सूचित किया है।
शार्दूलविक्रीडित– शस्ताशस्तमनोवचस्समुदयं त्यक्त्वात्मनिष्ठापर:।
शुद्धाशुद्धनयातिरिक्तमनघं चिन्मात्रचिन्तामणिम्।।
प्राप्यानंतचतुष्टयात्मकतया सार्धं स्थितां सर्वदा।
जीवन्मुक्तिमुपैति योगितिलक: पापाटवीपावक:।।९४।।
श्लोकार्थ-पापरूपी वन के लिए अग्निस्वरूप ऐसे योगितिलक प्रशस्त और अप्रशस्त मन, वचन के समूह को छोड़ करके आत्मस्वरूप में लीन हुए शुद्ध और अशुद्ध नयों से रहित, निर्दोष, चिन्मात्र िंचतामणि को प्राप्त करके अनंतचतुष्टयात्मकस्वरूप के साथ सदा रहने वाली ऐसी जीवन्मुक्त अर्हंत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं।।९४।।
भावार्थ-निश्चय रत्नत्रय से परिणत हुए महामुनि प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के मन, वचन के व्यापारों को छोड़कर नयातीत अवस्था को प्राप्त ऐसे शुद्धात्म तत्त्व में लीन होकर अर्हंत हो जाते हैं। यहाँ पर निश्चय गुप्ति में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के मन, वचन के व्यापार को छुड़ाया गया है।
अनुष्टुप्-अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तनु:।
व्यवहाराद्भवेन्मेऽतस्त्यजामि विकृिंत तनो:।।९५।।
अर्थ-अपरिस्पंदनस्वरूप आत्मा का शरीर परिस्पंदनस्वरूप है, वह शरीर व्यवहारनय से मेरा है अत: मैं शरीर के विकार का त्याग करता हूँ अर्थात् आत्मा अविचलस्वरूपी है, यह परिस्पंदन रूप शरीर व्यवहारनय से ही मेरा है निश्चयनय से मेरा नहीं है इसीलिए मैं इस शरीर की क्रियाओं को छोड़ रहा हूँ। शरीर की क्रियाओं को छोड़कर शरीर से निर्मम होकर आत्मा के स्वरूप में स्थिर हो जाना ही निश्चय कायगुप्ति है।।९५।।
मालिनी– जयति विदितगात्र: स्मेरनीरेजनेत्र:।
सुकृतनिलयगोत्र: पण्डिताम्भोजमित्र:।।
मुनिजनवनचैत्र: कर्मवाहिन्यमित्र:।
सकलहितचरित्र: श्रीसुसीमासुपुत्र:।।९६।।
अर्थ-जिनका शरीर प्रसिद्धि को प्राप्त-परमौदारिक है, खिले हुए कमल के समान जिनके नेत्र हैं, जिनका गोत्र-तीर्थंकर पद अथवा गोत्र पुण्य का निवासगृह है, जो पंडितरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं, जो मुनिजनरूपी वन-उद्यान के लिए चैत्रमास-बसंतऋतु के समान हैं, जो कर्मरूपी सेना के लिए शत्रु हैं और जिनका चारित्र सभी जीवों का हित करने वाला है, ऐसे श्री सुसीमा के सुपुत्र पद्मप्रभ भगवान जयशील होते हैं।।९६।।
मालिनी– स्मरकरिमृगराज: पुण्यकंजान्हिराज:।
सकलगुणसमाज: सर्वकल्पावनीज:।
स जयति जिनराज: प्रास्तदु:कर्मबीज:।
पदनुतसुरराजस्त्यक्तसंसारभूज:।।९७।।
अर्थ-जो कामदेवरूपी हाथी के मद को नष्ट करने के लिये सिंह हैं, जो पुण्यरूपी कमल को विकसित करने के लिये दिवाकर हैं, जो सकल गुणों के समुदाय रूप हैं, जो सम्पूर्ण कल्पित-इच्छित वस्तुओं को प्रदान करने के लिये कल्पवृक्ष हैं, जो दुष्ट कर्मों के बीज नष्ट कर चुके हैं, जिनके चरणों में सुरेन्द्र नमन करते हैं और जिन्होंने संसार रूपी वृक्ष का (आश्रय) त्याग कर दिया है ऐसे श्री पद्मप्रभ जिनराज जयशील हो रहे हैं।।९७।।
मालिनी– जितरतिपतिचाप: सर्वविद्याप्रदीप:।
परिणतसुखरूप: पापकीनाशरूप:।
हतभवपरिताप: श्रीपदानम्रभूप:।
स जयति जितकोप: प्रह्वविद्वत्कलाप:।।९८।।
अर्थ-जिन्होंने कामदेव के धनुष को जीत लिया है, जो सम्पूर्ण विद्याओं के प्रदीप-प्रकाशक हैं, जो सुखस्वरूप से परिणत हो रहे हैं, जो पाप को नाश करने के लिये य्ामराज स्वरूप हैं, संसार के संताप को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, जिनके श्रीचरणों में राजागण नमस्कार करते हैं, जिन्होंने क्रोध को जीत लिया है और जिनके निकट विद्वानों का समूह नत हो रहा है ऐसे वे श्री पद्मप्रभ भगवान जयवंत हो रहे हैं।।९८।।
मालिनी– जयति विदितमोक्ष: पद्मपत्रायताक्ष:।
प्रजितदुरितकक्ष: प्रास्तकंदर्पपक्ष:।।
पदयुगनतयक्ष: तत्त्वविज्ञानदक्ष:।
कृतबुधजनशिक्ष: प्रोक्तनिर्व्वाणदीक्ष:।।९९।
अर्थ-जिन्होंने मोक्ष को जान लिया-प्राप्त कर लिया है, जिनके नेत्र कमलदल के समान विस्तृत हैं, जिन्होंने दुरितकक्ष-पाप समूह को जीत लिया है, जिन्होंने कामदेव के पक्ष को समाप्त कर दिया है, जिनके चरणयुगल में यक्षदेव नमन करते हैं, जो तत्त्वों के विज्ञान में दक्ष हैं, जिन्होंने विद्वानजनों को शिक्षा दी है और जिन्होंने निर्वाणदीक्षा के स्वरूप को कहा है ऐसे श्री जिन पद्मप्रभ भगवान जयशील होते हैं।।९९।।
मालिनी– मदननगसुरेश: कान्तकायप्रदेश:।
पदविनतयमीश: प्रास्तकीनाशपाश:।
दुरघवनहुताश: कीर्तिसंपूरिताश:।
जयति जगदधीश: चारुपद्मप्रभेश:।।१००।।
अर्थ-जो कामदेव रूपी पर्वत के लिये सुरेन्द्र हैं अर्थात् जैसे इंद्र वङ्का से पर्वत को फोड़ डालता है वैसे ही भगवान कामदेव के मद को चूर-चूर करने वाले हैं, जिनके शरीर के प्रदेश अतीव सुन्दर हैं, जिनके चरणों में संयमधारी मुनिवर विनत रहते हैं, जिन्होंने यमराज के जाल को समाप्त कर दिया है, जो दुष्ट पापरूपी वन को भस्म करने के लिये अग्निस्वरूप हैं, जिन्होंने अपनी कीर्ति से सम्पूर्ण दिशाओं को व्याप्त कर दिया है, जो भुवन के अधीश हैं ऐसे सुन्दर पद्मप्रभ स्वामी जयशील होते हैं अथवा ऐसे सुन्दर पद्मप्रभ मुनिराज के स्वामी श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र जयवंत हो रहे हैं।।१००।।
विशेषार्थ-यहाँ पर टीकाकार श्री पद्मप्रभ मुनिराज ने अरहंत भगवान के लक्षण के अनन्तर बहुत ही मधुर शब्दों में पाँच श्लोकों द्वारा श्री पद्मप्रभ भगवान की स्तुति की है। इसमें अनेकों गुणों के वर्णन के साथ-साथ मुनिराज ने ‘पदांतवर्ण यमक’ अलंकार के द्वारा प्रत्येक श्लोक में साहित्य रस को भर दिया है। प्रथम श्लोक में प्रत्येक पद के अंत में ‘त्र’ शब्द का प्रयोग है, द्वितीय श्लोक में सभी पदों के अंत में ‘ज’ शब्द का प्रयोग है, तृतीय श्लोक में सर्वत्र पदों में ‘प’ शब्द का प्रयोग है, चतुर्थ श्लोक में प्रत्येक पद में ‘क्ष’ शब्द प्रयुक्त हुआ है एवं पाँचवें श्लोक में प्रत्येक पद के अंत में ‘श’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार की रचना से टीकाकार की सर्वतोमुखी प्रतिभा का अवलोकन होता है।
मालिनी– व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंज: स सिद्ध:।
त्रिभुवनशिखराग्रग्रावचूड़ामणि: स्यात्।
सहजपरमचिच्चिन्तामणौ नित्यशुद्धे।
निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देव:।।१०१।।
अर्थ-व्यवहारनय से ज्ञान के पुंजस्वरूप वे सिद्ध भगवान त्रिभुवनशिखर की शिखा के चूड़ामणि स्वरूप हैं, निश्चयनय से वे ही देव सहज परम चैतन्य चिन्तामणि रूप नित्य शुद्ध अपने स्वरूप में ही निवास करते हैं।
स्रग्धरा– नीत्वास्तान् सर्वदोषान् त्रिभुवनशिखरे ये स्थिता देहमुक्ता:
तान् सर्वान् सिद्धिसिद्ध्यैै निरुपमविशदज्ञानदृक््शक्तियुक्तान्।
सिद्धान् नष्टाष्टकर्मप्रकृतिसमुदयान् नित्यशुद्धाननन्तान्
अव्याबाधान्नमामि त्रिभुवनतिलकान् सिद्धसीमन्तिनीशान्।।१०२।।
अर्थ-जो उन सम्पूर्ण दोषों को समाप्त करके लोक के शिखर पर स्थित हैं और शरीर से मुक्त हैं, उन निरुपम, विशद ज्ञान, दर्शन, शक्ति से युक्त, आठों कर्मप्रकृतियों के समुदाय को नष्ट करने वाले, नित्य-शुद्ध, अंतरहित अथवा गणना रहित अनंत, बाधाजन्य इंद्रियसुख से रहित-अव्याबाध सुख स्वरूप, त्रिभुवन के तिलक और मुक्तिकांता के पति, ऐसे सम्पूर्ण सिद्धों को मैं सिद्धपद की सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूँ।
अनुष्टुप्– स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपद:।
नष्टाष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुन: पुन:।।१०३।।
अर्थ-अपने स्वरूप में स्थित, शुद्ध अष्ट गुणों की संपत्ति को प्राप्त, अष्ट कर्म समूह को नष्ट करने वाले ऐसे सिद्धों को मैं पुन:-पुन: वंदन करता हूँ।
हरिणी– सकलकरणग्रामालंबाद्विमुक्तमनाकुलं
स्वहितनिरतं शुद्धं निर्व्वाणकारणकारणम्।
शमदमयमावासं मैत्रीदयादममंदिरं
निरुपममिदं वंद्यं श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मन:।।१०४।।
अर्थ-समस्त इंद्रिय समुदाय के आलंबन से रहित, अनाकुल, स्वहित में निरत, शुद्ध, निर्वाण के कारण-भेदाभेद रत्नत्रय का कारण, कषायों का शमन, इंद्रियों का दमन, यम-त्याग का निवासस्थान, मैत्री, दया और दम का घर ऐसा यह श्री चंद्रकीर्ति मुनिराज का उपमारहित मन वंदनीय है।
भावार्थ-यहाँ पर टीकाकार ने गुरुदेव श्री चंद्रकीर्ति सूरि के निर्मल मन की वंदना की है। इससे स्पष्ट होता है कि ये मुनिराज या इनके दीक्षा गुरु हों या शिक्षा गुरु हों, गुरु अवश्य होंगे।
अनुष्टुप्– रत्नत्रयमयान् शुद्धान् भव्यांभोजदिवाकरान्।
उपदेष्ट्रनुपाध्यायान् नित्यं वंदे पुन: पुन:।।१०५।।
अर्थ-जो रत्नत्रयमय हैं, शुद्ध हैं, भव्यजनरूपी कमलों के लिये दिवाकर हैं, उपदेश देने वाले हैं ऐसे उपाध्याय गुरुओं को मैं नित्य ही पुन:-पुन: वंदन करता हूँ।।१०५।।
आर्या– भविनां भवसुखविमुखं त्यक्तं सर्वाभिषंगसंबंधात्।
मंक्षु विमंक्ष्व निजात्मनि वंद्यं नस्तन्मन: साधो:।।१०६।।
श्लोकार्थ-जो संसारी जीवों के संसार के सुख से विमुख है और सर्व संग के संबंध से रहित है वह साधु का मन हम सभी के लिए वंदनीय है। हे साधो ! आप उस मन काे शीघ्र ही अपनी आत्मा में निमग्न करो।।१०६।।
आर्या– शीलमपवर्गयोषिदनंगसुखस्यापि मूलमाचार्या:।
प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परंपरा हेतु:।।१०७।।
अर्थ-आचार्यवर्य शील-निश्चयचारित्र को मुक्तिरमणी के अतीन्द्रिय सुख का भी मूल कारण कहते हैं और व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परम्परा कारण है अर्थात् व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्र के लिये कारण है और निश्चय चारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है इसलिये व्यवहार चारित्र मोक्ष के लिये परम्पराकारण है।।१०७।।
इस प्रकार से नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलश के भाषानुवाद रूप व्यवहार चारित्र अधिकार नामक चौथा श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ।