सम्यग्दर्शन औ ज्ञान चरित, ये मुक्ती के कारण जानो।
व्यवहारनयापेक्षा कहना, तीनों के लक्षण पहचानो।।
इन रत्नत्रयमय निज आत्मा, निश्चयनय से शिव का कारण।
इन उभय नयों के समझे बिन, नहिं होता शिवपथ का साधन।।३९।।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये व्यवहारनय से मोक्ष के कारण हैं और निश्चयनय से इन रत्नत्रय से परिणत हुई अपनी आत्मा ही मोक्ष का कारण है, ऐसा तुम जानो। यहाँ पर व्यवहारनय भेद को विषय करने वाला है न कि अभूतार्थ को, चूँकि यह भेद रत्नत्रय ही अभेद रत्नत्रय का साधन है। वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ इनका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, इनका जानना-समझना सम्यग्ज्ञान है और व्रत आदि को धारण करना सम्यक् चारित्र है, यह व्यवहार मोक्षमार्ग है। अपने निरंजन शुद्धात्म तत्त्व का श्रद्धान, उसी का ज्ञान, उसी में तन्मयता-एकाग्र परिणति, वही हुआ चारित्र, यह अभेदरत्नत्रय है, यही निश्चयमोक्षमार्ग है अथवा यों समझिये कि स्वर्णपाषाण को शुद्ध करने के लिए जैसे अग्नि साधक है-कारण है, वैसे ही अशुद्ध आत्मा को शुद्ध करने के लिए व्यवहाररत्नत्रय साधन है। सुवर्ण के सदृश निर्विकार स्वात्मा की उपलब्धि को प्राप्त कराने वाला निश्चयरत्नत्रय है। यही मोक्षमार्ग है, यह साध्य है। इस एक गाथा में ही पूर्वार्ध में व्यवहार और उत्तरार्ध में निश्चय मोक्षमार्ग बतला दिया है। अब आचार्य कहते हैं कि अभेदरूप से अपनी शुद्ध आत्मा ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप है इसलिए निश्चय से आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है अथवा पूर्वकथित निश्चयमोक्षमार्ग को अन्य प्रकार से कहते हैं-
आत्मा को छोड़ न रह सकता, यह रत्नत्रय परद्रव्यों में।
अतएव इन्हीं रत्नत्रयमय, आत्मा ही हेतू मुक्ती में।।
निज शुद्ध चिदात्मा की श्रद्धा, सुज्ञान उसी में रत होना।
यह निश्चय रत्नत्रय होता, एकाग्रमयी परिणति होना।।४०।।
आत्मा को छोड़कर रत्नत्रय अन्य द्रव्यों में नहीं रहता है इसलिए उन रत्नत्रयमय आत्मा ही मोक्ष का कारण होता है। इस हेतु से आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है। रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित चित्चमत्कार भाव से उत्पन्न मधुर रसास्वाद सुख का अनुभव करने वाला ‘‘मैं’’ हूँ, इस प्रकार निश्चय से दृढ़ श्रद्धानरूप भाव निश्चय सम्यग्दर्शन है, अपने स्वसंवेदनज्ञान के द्वारा समस्त विभावों से पृथक् उसी सुख का अनुभव करना निश्चय का जानना सम्यग्ज्ञान है और देखे, सुने तथा अनुभव में आये हुए जो भोगों की आकांक्षा आदि समस्त अपध्यानरूप मनोरथ, इन मनोरथों से उत्पन्न हुए नाना संकल्प विकल्प समूह, इन सबका त्याग करके उसी स्वात्मसुख में रत हुए-संतुष्ट हुए-तृप्त हुए आत्मा में एकाकारस्वरूप परम समरसी भाव से द्रवीभूत चित्त का पुन:-पुन: स्थिर होना सो निश्चय सम्यक् चारित्र है। इस प्रकार लक्षण वाला जो निश्चय रत्नत्रय है वह शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य बाह्य द्रव्यों में नहीं रहता है इसलिए अभेदनय से वह आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, वह आत्मा ही सम्यग्ज्ञान है, वह आत्मा ही सम्यक्चारित्र है और वह आत्मा ही स्वात्मतत्त्व है। इस प्रकार उपर्युक्त निश्चय रत्नत्रय लक्षण से युक्त अपनी शुद्ध आत्मा ही मुक्ति का कारण है अर्थात् यह निश्चय रत्नत्रयस्वरूप शुद्धात्मा ही अथवा शुद्धोपयोग ही निश्चय मोक्षमार्ग है, ऐसा समझो।