आ.सुवर्णमती माताजी : पूज्य माताजी, हमें तो संस्कृत व्याकरण इतना कठिन लगता है की बार बार रटकर भी उसके सूत्र याद नहीं होते.
पर आप तो उन्हें प्राचीन ग्रंथों का स्वाध्याय करते समय इतनी सहजता से कैसे उपयोग में लाती है ? क्या आपने इसका कोई विशेष अध्ययन किया है ?
ग.प्र.आ.शि.ज्ञानमती माताजी :(मुस्कुराते हुए) चलो इस बारे में आज तुम्हे आ. देशभूषण महाराज के संघ के समय के कुछ संस्मरण सुनाती हूँ.
सन १९५४ के जयपुर चातुर्मास की बात है.
चातुर्मास शुरू होते ही मैं संस्कृत व्याकरण और सिद्धान्त ग्रंथ आदि खूब पढ़ना चाहती थी किन्तु अभी तक मेरी इच्छा पूर्ण नहीं हो रही थी। इससे मेरे परिणामों में कभी-कभी बहुत ही अशांति हो जाती थी, यहाँ तक कि कभी-कभी मेरी आँखों में अश्रु आ जाते।’’
‘‘भगवान् ! मुझे पढ़ने का साधनकैसे मिलेगा? मेरी ज्ञान की बुभुक्षाकैसे शान्त होगी?’’
मेरी यह स्थिति देखकर विशालमती माताजी आचार्यश्री के पास पहुँचकर सजल नेत्र करके मेरी वेदना सुनातीं और निवेदन करतीं- ‘‘महाराज जी! इसकी पढ़ाई का कुछ प्रबंध कीजिये।’’
महाराज जी कहते-‘‘अम्मा! इतनी छोटी उम्र है। आजकल का जमाना बहुत ही खराब है। पण्डितो से पढ़ाने में कभी भी कोई उंगली उठा सकता है अतः इसे खूब स्वाध्याय करके स्वयं ही श्लोक रट-रट कर अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहिए, चिन्ता नहीं करनी चाहिए।’’
एक बार मैंने कहा-‘‘महाराज जी! मैं सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ का स्वाध्याय करने बैठी, मूल संस्कृत पंक्तियों से अर्थ समझना चाहती थी किन्तु कुछ समझ में नहीं आया, मैं चाहती हूँ कि मुझे आप एक बार इस ग्रन्थ को पढ़ा दीजिये।’’
महाराज जी ने कहा-‘‘आज तुम्हें मैं एक ग्रन्थ तो पढ़ा दूँ फिर भी संस्कृत के ग्रन्थों को पढ़कर स्वयं अर्थ करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए संस्कृत व्याकरण का पढ़ना बहुत ही जरूरी है।’’
मैं तो स्वयं व्याकरण पूर्ण करना चाहती ही थी। इस उत्तर से कुछ शांति मिली पुनः विशालमती माताजी के अत्यधिक अनुनय-विनय से महाराज जी ने स्थानीय पंडितप्रवर इन्द्रलाल जी शास्त्री से कहा- ‘‘पंडित जी! मेरी शिष्या वीरमती को आप संस्कृत व्याकरण पढ़ा दें।’’
पंडित जी ने महाराज जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर मेरा अध्यापन शुरू किया। पूज्या क्षुल्लिका विशालमती माताजी मेरे साथ व्याकरण पढ़ने बैठ गईं। पंडित जी ने दो- तीन सूत्र कराये और खूब समझाया। उतनी ही देर में मुझे वे सूत्र, उनकी वृत्ति और अर्थ याद हो गये पुनः पंडित जी ने कहा- ‘माताजी! इन सूत्रों को मैं कल कंठाग्र सुनूँगा।’’
तब मैंने कहा-पंडित जी! आप अभी ही सुन लो और मुझे आगे के आठ-दस सूत्र और बता दो।’’
पंडित जी ने कहा-‘‘यह लोहे के चने हैं हलुआ नहीं है। बस एक-दो सूत्र ही पढ़ो ज्यादा हविश (लालच) मत करो।’’ दो-तीन दिन पंडित जी ने पढ़ाया किन्तु मुझे इस गति से संतोष नहीं हुआ।
तब विशालमती जी के आग्रह से आचार्यश्री ने दूसरे पंडितों को बुलाया। वे भी ऐसे ही असफल रहे, तब पंडित इंद्रलाल जी आदि कई महानुभावों ने विचार किया कि- ‘‘इन्हें तो व्याकरण पढ़ने की भस्मक व्याधि है सो कोई ब्राह्मण विद्वान् जो कि अतिप्रौढ़ हो, जिसे व्याकरण कंठाग्र हो और जो ५० सूत्र पढ़ाकर भी न थके ऐसा विद्वान् ढूँढकर लाना चाहिए।’’
उस समय जैन कालेज में कातन्त्र रूपमाला व्याकरण को पढ़ाने वाले एक दामोदर शास्त्री थे, उन्हें बुलाया गया और आचार्यश्री के सामने उनका परिचय दिया गया।
पंडित इंद्रलाल जी बोले- ‘‘महाराज जी! ये पंडितजी ही इन्हें व्याकरण पढ़ा सकते हैं क्योंकि इन्हें व्याकरण के सारे सूत्र कंठाग्र हैं। रात-दिन यही व्याकरण पढ़ाते हैं।’’
तभी आचार्यश्री ने मुझे बुलाया और विनोदपूर्ण शब्दों में बोले-
‘‘वीरमती! देखो, ये विद्वान् दामोदर शास्त्री जी तुम्हें व्याकरण पढ़ायेंगे, यह कातन्त्र रूपमाला नाम की व्याकरण का यहाँ जैन कालेज में दो वर्ष का कोर्स है लेकिन हाँ, तुम्हें दो महीने में पूरी कर लेनी है।’’
मैंने प्रसन्नता से कहा-‘‘हाँ, महाराज जी! जैसी आपकी आज्ञा है, वैसा ही करूँगी, मैं तो दो महीने से एक दिन कम में ही पूरी कर लूगी।’’
इसी बीच पंडित दामोदर जी बोले-‘‘पूज्य महाराज जी! मैं प्रतिदिन एक घण्टे समय दे सकता हूँ इससे अधिक नहीं, चूँकि मेरे पास अधिक समय ही नही हैं।’’
विशालमती माताजी ने कहा- ‘‘ठीक है पंडित जी! आप कल से ही इनकी व्याकरण शुरू कर दीजिए। मुझे भी व्याकरण की रुचि है। साथ ही मैं भी अध्ययन करूँगी।’’
दूसरे दिन से कातन्त्र रूपमाला का अध्ययन शुरू हो गया। पंडित दामोदर जी सूत्र बोलते, उसका अर्थ कर देते पुनः संधि तथा रूपसिद्धि आदि करना बता देते।
मैं सुनती रहती सब समझ लेती, किसी दिन शायद ही दूसरी बार व्याकरण हाथ में उठाई हो, उसी समय जो मनन हो जाता था सो ठीक, दूसरे दिन यदि पंडित जी कोई संधि या रूप पूछ लेते तो मैं विधिवत् सूत्रोच्चारण करके बता देती।
विशालमती माताजी भी आश्चर्य से कहा करतीं-‘‘अम्मा! तुमने पूर्वजन्म में व्याकरण पढ़ी है ऐसा प्रतीत होता है। यही कारण है कि एक पाठी के समान तुम्हें व्याकरण याद हो जाती है, पुनः पुनः दिन भर रटना नहीं पड़ता है।’’
मुझे भी स्वयं ऐसा लगता था कि वास्तव में जैसे मैंने इस पुस्तक को भी पढ़ा ही होगा, यही कारण है कि मुझे न तो वह व्याकरण कठिन महसूस होती, न लोहे के चने लगती। मैं सोचा करती-भला विद्वान् लोग व्याकरण को लोहे का चना क्यों कहते हैं?
उस समय कातन्त्र व्याकरण की मूल प्रति बड़ी मुश्किल से १-२ मिली थीं एवं मुझे भी उस व्याकरण की सरलता तथा जैनाचार्यों की कृति होने से बहुत ही प्रेम हो गया था, अतः मेरी इच्छा व क्षुल्लिका विशालमती माताजी की प्रेरणा और गुरुदेव आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज की आज्ञा से खण्डाका सरदारमलजी ने वीर प्रेस में उसी समय यह व्याकरण प्रति छपवाई थी।
पंडित भंवरलालजी न्यायतीर्थ सामने वीर प्रेस में हमेशा रहते थे अतः सामने के कमरे में सतत मेरी चर्या का अवलोकन कर एवं अध्ययनरत देखकर प्रसन्नता व्यक्त किया करते थे। कभी-कभी निकट आकर क्षुल्लिका विशालमती माताजी से कुछ धर्मचर्चायें भी किया करते थे।
मुझे उन दिनों आहार में अन्तराय अधिक होती रहती थी जिससे शरीर, मस्तिष्क और आँखें कमजोर रहती थीं परन्तु फिर भी अपनी आवश्यक क्रियाओं को करके मैं स्वाध्याय भी अधिक करती थी अतः व्याकरण का रटना नहीं होता था।
फिर भी रात्रि में स्वप्न में अनेक रूप सिद्ध कर लिया करती थी। जो-जो सूत्र एक रूप के सिद्ध करने में काम आते थे, प्रायः सुबह उठकर व्याकरण देखने से वे सूत्र सही मिलते थे।
कुल मिलाकर मैं दिन में व्याकरण नहीं रटती थी तो भी रात्रि स्वप्न में रटना हो जाया करता था। इसे कहते हैं संस्कार। प्रायः सभी लोग अनुभव करते हैं कि जो कार्य दिन में किया जाता है या जिस कार्य में अधिक रुचि होती है स्वप्न में प्रायः वे ही कार्य दिखते रहते हैं।
जैसे कि कपड़े के व्यापारी स्वप्न में भी कपड़ा फाड़ते रहते हैं। विशालमती माताजी कभी-कभी आचार्यश्री के समीप आकर कहा करतीं- ‘‘महाराज जी! वीरमती अम्मा दिन में एक बार व्याकरण पढ़ने के बाद उठाकर देखती भी नहीं हैं और रात्रि स्वप्न में सारे सूत्र याद कर लिया करती हैं।’’
तब निकट में बैठे पंडित कन्हैयालालजी आदि यही कहते कि इन्होंने पूर्वजन्म में सब कुछ पढ़ा हुआ है इसलिए बिना याद किये सूत्र कंठाग्र हो जाते हैं।
पंडित इंद्रलाल जी प्रतिदिन दर्शन करने आते थे, तब वे व्याकरण में मेरी इतनी योग्यता देखकर कहा करते थे-‘‘ये माताजी ‘व्युत्पन्नमती’ हैं।’’
क्षुल्लिका विशालमती जी से भी कहते कि-तुम इन्हें व्युत्पन्नमती कहा करो। इनका व्युत्पन्नमती नाम सार्थक है। तब विशालमती माताजी भी अतीव वात्सल्यपूर्वक व्युत्पन्नमती कहने लगती थीं।
अनन्तर दो महीने में एक दिन शेष रहने पर ही मैंने व्याकरण पूर्ण पढ़ लिया, तब विशालमती माताजी मुझे साथ में लेकर आचार्यश्री से आशीर्वाद दिलाने लाईं। आचार्य देव ने कहा- ‘‘बस, इतने मात्र व्याकरण से तुम सभी शास्त्रों का अर्थ समझ लोगी, अब तुम्हें किसी से कोई भी ग्रन्थ पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।’’
इसके बाद दामोदर शास्त्री को यथोचित पुरस्कार दिलाकर आचार्यश्री ने कहा-‘‘पंडित जी! बस आपका कार्य हो चुका है।’’ उस समय पंडित जी बहुत ही दुःखी हुए। वे बोले-‘‘गुरुदेव! मैं इन माताजी को और भी कुछ अध्यापन कराकर इनकी सेवा करना चाहता हूँ।’’
आचार्य श्री ने कहा-‘‘पुनः सोचा जायेगा।’’
फिर भी मेरी इच्छा सब कुछ पूर्ण हो चुकी थी और गुरु आज्ञा को ही मैं सब कुछ मानती थी।
इसप्रकार लाख बात की एक बात यह है की पूर्व भव में मैंने जो कुछ भी स्वाध्याय – ज्ञान प्राप्त किया है वो ही ज्ञानावरणीय क्षयोपक्षम के कारण आज सहायक हो रहा है.
कहा भी है की “भव भव में प्राप्त किया हुआ ज्ञान, आगे के भवों में भी आत्मा के साथ हमेशा रहता है. बस क्षयोपक्षम जितना अच्छा होगा उतना ही अच्छी तरह से वो प्रकट होगा.
इससे आप सब लोगो को मेरी यही प्रेरणा है की अगर आज आप को स्वाध्याय करते हुए, कुछ चीजे समझ में नहीं आती है तो भी उसका अध्ययन मत छोड़ो. क्योंकि यही आगे चलकर केवल ज्ञान में सहायक हो जाएगा.