पाक्षिक प्रतिक्रमण में अनगारधर्मामृत में बताया है कि-
‘‘परे पुनव्र्रतारोपणा-दिविषयाश्चत्वार: प्रतिक्रमणा:
स्यु: विंविशिष्टा:! वृहन्मध्यसूरि-भक्तिद्वयोज्झिता:।’’
अर्थात् व्रतारोपणादि चार प्रतिक्रमणों मे, वृहदाचार्य ‘सिद्धगुणस्तुतिनिरता’ से लेकर मध्याचार्यभक्ति ‘देस कुल जाइसुद्धा’ सहित छेदोवट्ठावणं होउ मज्झं, पर्यंत दो भक्तियों को छोड़कर शेष सब पाक्षिक प्रतिक्रमणविधि ही करें। अंतर केवल इतना ही है कि प्रयोग विधि में -पाक्षिक प्रतिक्रमण क्रियायां के स्थान मे ‘‘व्रतारोपणप्रतिक्रमण क्रियायां’’ इत्यादि का प्रयोग करें।
जैसे कि-
‘‘अथ व्रतारोपणीप्रतिक्रमणक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं
भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
तथा वीरभक्ति में कायोत्सर्ग का भी प्रमाण १०८ उच्छ्वासों में ही ३६ जाप्य देवें।
तद्यथा- या व्रतारोपणी सार्वातीचारिक्यातिचारिकी ।
औत्तमार्थी प्रतिक्रान्ति: सोच्छ्वासैरान्हिकी समा।। (अनगार)
अर्थ – व्रतारोपणी, सार्वातिचारी, आतिचारिकी, औत्तमार्थी प्रतिक्रमणाओं में दैवसिक प्रमाण १०८ उच्छ्वासों में कायोत्सर्ग होता है।
विशेष – पाक्षिक प्रतिक्रमण प्रयोग विधि में मध्य-मध्य में पक्खियम्मि आलोचेउं पक्खिओ चउमासिओ संवच्छरिओ आदि जो प्रयोग है वह मर्यादित काल की अपेक्षा से है परन्तु यहाँ पर पक्ष, चार मास आदि कुछ दिन की मर्यादा न होकर चारों ही प्रतिक्रमण अपने सार्थक नाम से संबंधित हैं अत: जो प्रतिक्रमण हो उसके प्रयोग के मध्य-मध्य में भी इन शब्दों के स्थानों में भी परिवर्तन कर देवें। अर्थात् पक्खियम्मि आलोचेउं के स्थान में ‘‘व्रतारोपणे आलोचेउं’’ इत्यादि रूप से प्रयोग करना चाहिए।
ततस्तत्पक्षे द्वितीयपक्षे वा सुमुहूत्र्ते व्रतारोपणं कुर्यात्।
तदा रत्नत्रयपूजां विधाय पाक्षिकप्रतिक्रमणपाठ: पठनीय:।
तत्र पाक्षिकनियमग्रहणसमयात् पूर्वं यदा वदसमदीत्यादि पठ्यते तदा पूर्ववद्व्रतादि दद्यात्।
नियमग्रहणसमये यथायोग्यं एकं तपो दद्यात् (पल्यविधानादिकं)।
दातृप्रभृतिश्रावकेभ्योऽपि एकं एकं तपो दद्यात्।
ततोऽन्ये मुनय: प्रतिवंदनां ददति।
पश्चात् उसी पक्ष में अथवा द्वितीय पक्ष में शुभ मुहूर्त में व्रतारोपण करें। तब रत्नत्रय पूजा कराके पाक्षिक मुहूर्त में व्रतारोपण करें। तब रत्नत्रय पूजा कराके पाक्षिक प्रतिक्रमण पाठ पढ़ना चाहिए और पाक्षिक नियम ग्रहण समय के पूर्व ही जब ‘‘वदसिमिददिय’’ इत्यादि पाठ पढ़ा जाता है तब पूर्व के समान ही व्रतादि देवें। अर्थात् जहाँ वदसमिदिंदिय इत्यादि पढ़कर प्रायश्चित्त देने का विधान है वहीं पर ‘‘वदसमिदिंदिय’’ आदि को तीन बार बोलकर व्रतादि देवे जैसे पूर्व में इस श्लोक को पढ़कर मूलगुणों का वर्णन करने के अनंतर पंचमहाव्रत पंचसमिति इत्यादि को तीन बार पढ़कर व्रत प्रदान किये थे तद्वत् इस समय भी करे और नियम ग्रहण के समय पर ही यथायोग्य कोई पल्य विधानादि एकतप (व्रत) भी देवें। तथा दाता-प्रमुख श्रावक आदि को भी कोई न कोई एक-एक तप (व्रत) देवे। तत्पश्चात् सभी मुनिगण प्रतिवंदना करें। विशेष-व्रतारोपिणी प्रतिक्रमण विधि इस दीक्षा दिवस के बाद उसी पक्ष या द्वितीय पक्ष में अर्थात् एक माह के अंतर्गत अवश्य करें। अनगार धर्मामृत में भी व्रतारोपिणी प्रतिक्रमण का विधान है।
‘‘एतेन वृहत्प्रतिक्रमणा: सप्त भवन्तीत्युत्तं भवति।
ताश्च यथा-व्रतारोपिणी, पाक्षिकी कार्तिकान्तचातुर्मासी
फाल्गुनान्तचातुर्मासी आषाढ़ान्तसांवत्सरी सार्वातिचारी उत्तमार्थी चेति।’’
वृहत् प्रतिक्रमण सात होते हैं ऐसा यहाँ कहा गया है। वे ये हैं-
१. व्रतारोपिणी
२. पाक्षिकी प्रतिक्रमण
३. कार्तिक मास के अंत में-कार्तिक शु. १४ या पूर्णिमा को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण
४. फाल्गुन मास के अंत में-फाल्गुन शु. १४ या पूर्णिमा को चातुर्मासिक-चार महीने का प्रतिक्रमण
५. आषाढ़ मास के अंत में-आषाढ़ शु. १४ या पूर्णिमा को सांवत्सरिक-वार्षिक प्रतिक्रमण
६. सर्वातिचार प्रतिक्रमण
७. उत्तमार्थ-सल्लेखना के समय प्रतिक्रमण ये सात वृहत्प्रतिक्रमण माने गये हैं। मुनि या आर्यिका दीक्षा देने के बाद उसी पक्ष में या अगले पक्ष में शुभ मुहूर्त में दीक्षादाता गुरु यह व्रतारोपिणी व्रतारोपणविधि करने रूप बड़ा प्रतिक्रमण करते हैं। उस समय पुन: शिष्य के ऊपर व्रतारोपण करते हैं। यही व्रतारोपण प्रतिक्रमण इसका नाम सार्थक है।