क्षत्रिय वृत्ति के काल में वैराग्यपना दिखाने से धर्म का संरक्षण नहीं हो सकता।
– चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी महाराज
मुसलमानों ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया था। वहां के सेनापति आबू व्रती श्रावक थे। युद्ध मैदान में प्रतिक्रमण (अपने दोषों की आलोचना, सब जीजा से क्षमा का वक्त होने पर) दोनों हाथों में तलवार लिए वे बोलने “जे मे जीवा विराहिया एगिन्दिया वा वेइन्दिया वा,” इत्यादि।
ये नरम नरम हलुवा खाने वाले जैन क्या वीरता दिखा सकते हैं। सेना के सरदार के मुख से सुनकर के सरदार को भी वे प्रतिक्रमण पढ़ते रहे। प्रतिक्रमण समाप्त होने पर शत्रुओं के सरदार को ललकारा शूरवीरता पूर्वक युद्ध करते हुए शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिए और मुसलमान सेनापति मैदान छोड़कर भागने लगे।
व्रती सेनापति आबू को अभिनंदन पत्र भेंट करते हुए रानी ने हास्य में कहा कि सेनापति ! जब युद्ध में एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय जीवों तक से क्षमा माँग रहे थे तो हमारी फौज घबरा उठी थी कि एकेन्द्रिय जीव से क्षमा माँगने वाला पञ्चेन्द्रिय मनुष्य को युद्ध में कैसे मार सकेगा। इस पर व्रती श्रावक आबू ने उत्तर दिया कि महारानीजी-मेरे अहिंसा व्रत का सम्बन्ध मेरी आत्मा के साथ है। आत्महित के लिए सभी जीवों की रक्षा का भाव रखता हूँ। मेरेद्वारा अनजाने में उन्हें कष्ट हुआ हो तो क्षमा मांगता हूँ, किन्तु यदि देश, समाज, धर्मायतन की सेवा के लिए मुझे युद्ध तथा हिंसा करनी भी पड़े तो मैं उसे धर्म मानता हूँ क्योंकि “यह शरीर भी राष्ट्रीय सम्पत्ति है। इसका उपयोग राष्ट्र की आज्ञा एवं आवश्यकतानुसार ही होना चाहिए। परन्तु आत्मा और मन मेरी निजी सम्पत्ति है। इन दोनों को हिंसा भाव से अलग रखना मेरे अहिंसा व्रत का लक्षण है।