ऊँ नम: सिद्धेभ्य: श्रीमन्तं वर्धमानेशं भारतीं गौतमं गुरुम्। नत्वा वक्ष्ये तिथीनां वै निर्णयं व्रतनिर्णयम्।।१।।
अर्थ —श्रीमन्त—अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंगश्री और समवसरण आदि विभूति रूप बहिरंग श्री से युक्त भगवान् महावीरस्वामी को, जिनवाणी को—सरस्वती रूप दिव्यध्वनि को एवं गुरु गौतम गणधर को नमस्कार कर निश्चय से व्रत निर्णय और तिथिनिर्णय को कहता हूँ।
श्रीपद्मनन्दिमुनिना पद्मदेवेन वाऽपरा। हरिषेणेन देवादिसेनेन प्रोक्तमुत्तमम्।।२।। ग्राह्यं तच्चेदिवान्यद्वा चतुर्गुणप्रकल्पितम्। विधानं च व्रतानां वै ग्राह्यं प्रोत्तं समुत्तमम्।।३।।
अर्थ — श्री पद्मनन्दिमुनि, अपर पद्मदेवमुनि, हरिषेण एवं देवसेन से जो चतुर्गुण प्रकल्पित—यथा समय नियत तिथि को धारण, विधिपूर्वक पालन, विधेय मन्त्र का जाप और प्रोषधोपवासयुक्त उत्तम व्रत कहे गये हैं, उन्हें ग्रहण करना चाहिये। अथवा इन्हीं आचार्यों के समान अन्य आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। व्रतों के लिए जो विधान—विधि, नियत तिथि, जाप्य मन्त्र, अनुष्ठान करने के नियम; बताया गया है, उसे निश्चयपूर्वक ग्रहण करना चाहिए।
श्रुतसागरसूरीशभावशर्माभ्रदेवक: । छत्रसेनादित्यर्कीित्तसकलादिसुकीर्तिभि:।।४।।
अर्थ — श्रुतसागर आचार्य, भावशर्मा, अभ्रदेव, छत्रसेन, आदित्यर्कीित्त, सकलर्कीित आदि आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित व्रततिथिनिर्णय को कहता हूँ।
क्रमतोऽहं प्रवक्ष्ये वै तिथिव्रतसुनिर्णयौ। मतं ग्राह्यं साम्प्रतं कुलाद्रिघटिकाप्रभम्।।५।।
अर्थ — क्रम से मैं तिथि निर्णय और व्रतनिर्णय को कहता हूँ। इस समय व्रत के लिए छ: घटी प्रमाण तिथि का मान ग्रहण करना चाहिए।
प्राचीन भारत में हिमाद्रि और कुलाद्रि दो मत व्रत—तिथियों के निर्णय के लिए प्रचलित थे। हिमाद्रि मत का आदर उत्तर भारत में था और कुलाद्रि मत का दक्षिण भारत में। हिमाद्रि मत में वैदिक आचार्य तथा कतिपय श्वेताम्बराचार्य परिगणित हैं। हिमाद्रि मत में साधारणत: व्रततिथिका मान दस घटी प्रमाण स्वीकार किया गया है। हिमाद्रि मत केवल व्रतों का निर्णय ही नहीं करता है, बल्कि अनेक सामाजिक, पारिवारिक व्यवस्थाओं का प्रतिपादन भी करता है। हिमाद्रि मत के उद्धरण देवीपुराण, विष्णुपुराण, शिवसर्वस्व, भविष्य एवं निर्णयसिन्धु आदि ग्रथों में मिलते हैं। इन उद्धरणों को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में उत्तर भारत में इसका बड़ा प्रचार था। पारिवारिक और सामाजिक जीवन की अर्थव्यवस्था, दण्डव्यवस्था, जीवनोन्नति के लिए विधेय अनुष्ठान आदि का निर्णय उक्त मत के आधार पर ही प्राय: उत्तरभारत में किया जाता था। ऋषिपुत्र की संहिता के कुछ उद्धरण भी इस मत में समाविष्ट हैं। हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्ररूपित नियम भी हिमाद्रि मत में गिनाये गये हैं। गर्ग, वृद्ध गर्ग और पाराशर के वचन भी हिमाद्रि मत में शामिल हैं। कुलाद्रि मत दक्षिण भारत में प्रचलित था। इस मत की द्रविड संज्ञा भी पायी जाताी है। दिगम्बर जैनाचार्यों की गणना भी इस मत में की जाती थी, किन्तु प्रधानरूप से केरलपक्ष ही इसमें शामिल था। इस मत में वही तिथि व्रत के लिए ग्राह्य मानी जाती थी, जो सूर्योदय काल में छ: घटी हो। यों तो इस मत में भी कई शाखा—उपशाखाएँ प्रचलित थीं, जिनमें व्रततिथिकी भिन्न—भिन्न घटिकाएँ परिगणित की गयी हैं।
ज्योतिष शास्त्र में वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष और दिवस ये छ: काल के भेद बताये गये हैं । वर्ष के सावन, सौर, चान्द्र, नाक्षत्र और बार्हस्पत्य ये पाँच भेद हैं । हेमाद्रिमत में सौर, चान्द्र और बार्हस्पत्य ये तीन वर्ष के भेद माने गये हैं । सावन वर्ष में ३६० दिन, सौर वर्ष में ३६६ दिन, चान्द्र वर्ष में ३५४—१२/१३ दिन तथा अधिक मास सहित चान्द्रवर्ष में ३८३ दिन २१—१८/६२ मुहूत्र्त और नक्षत्र वर्ष में ३२७—५१/६७ दिन होते हैं । बार्हस्पत्य वर्ष का प्रारम्भ ई. पू. ३१२८ वर्षों से हुआ है । यह माघ से लेकर प्राय: माघ तक माना जाता है । इसकी गणना बृहस्पति की राशि से की जाती है, बृहस्पति एक राशि पर जितने दिन रहता है, उतने दिनों का बार्हस्पत्य वर्ष होता है । गणना करने पर प्राय: यह १३ महीनों का आता है । व्यवहार में चान्द्रवर्ष ही ग्रहण किया जाता है ।१ इसका आरम्भ चैत्रशुक्ल प्रतिपदा से होता है । अयन के सम्बन्ध में ज्योतिष शास्त्र में बताया है कि तीन सौर ऋतुओं का एक अयन होता है । सूर्य आकाशमण्डल में जिस पथ से जाते हुए देखा जाता है वही भूकक्ष अथवा अयनमण्डल है । यह चक्राकार है परन्तु बिल्कुल गोल नहीं, कहीं—कहीं कुछ वक्र भी है । इसके उत्तर दक्षिण कुछ दूर तक फैला हुआ एक चक्र है जो राशिचक्र कहलाता है । राशिचक्र और अयनमण्डल दोनों तीन सौ साठ ( ३६० ) अंशों में विभक्त हैं क्योंकि एक वृत्त में चार समकोण होते हैं और प्रत्येक समकोण में ९० अंश माने जाते हैं । इस प्रकार तीन सौ साठ ( ३६० ) अंश को १२ राशियों में विभक्त करने पर प्रत्येक राशि का ३० अंश प्रमाण आता है । इन विभक्त राशियों के नाम ये हैं—मेष, वृष, मिथुन, कर्व, िंसह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन। राशि चक्र का कल्पित निरक्षवृत्त विषुव रेखा कहलाता है । इस रेखा के उत्तर दक्षिण तेईस ( २३ ) अंश अट्ठाईस ( २८ ) कला के अन्तर पर दो बिन्दुओं की कल्पना की जाती है । इनमें एक बिन्दु उत्तरायणान्त—उत्तर जाने की अन्तिम सीमा, और दूसरा िंबदु दक्षिणायनान्त—सूर्य के दक्षिण जाने की अंतिम सीमा है । इन दोनों बिन्दुओं के मध्य जो एक कल्पित रेखा है उसी का नाम अयनान्तवृत्त है । सूर्य जिस पथ से उत्तर की ओर जाता है उसे उत्तरायण और जिस पथ से दक्षिण की ओर जाता है उसे दक्षिणायन कहते हैं । व्यवहार में कर्वâ राशि के सूर्य से लेकर धनुराशि के सूर्य पर्यन्त दक्षिणायन और मकर से लेकर मिथुन पर्यन्त सूर्य का उत्तरायण होता है । कुछ कार्यों में अयनशुद्धि ग्राह्य समझी जाती है । माङ्गलिक कार्य प्राय: उत्तरायण में ही सम्पन्न होते हैं । दो महीने की एक ऋतु होती है । सौर और चान्द्र ये दो ऋतुओं के भेद हैं । चैत्र महीने से आरम्भ की जाने वाली गणना चान्द्र ऋतु गणना होती है अर्थात् चैत्र—बैशाख में बसन्त ऋतु, ज्येष्ठ आषाढ़ में ग्रीष्मऋतु, श्रावण—भाद्रपद में वर्षा़ऋतु, आश्विन—र्काितक में शरद् ऋतु, अगहन—पौष में हेमन्त ऋतु और माघ—फाल्गुन में शिशिरऋतु होती है । सौर ऋतु की गणना मेष राशि के सूर्य से की जाती है अर्थात् मेष—वृष राशि के सूर्य में बसन्तऋतु, मिथुन—कर्वâ राशि के सूर्य में ग्रीष्मऋतु, िंसह—कन्या राशि के सूर्य में वर्षाऋतु, तुला—वृश्चिक राशि के सूर्य में सरद ऋतु, धनु—मकर राशि के सूर्य में हेमन्तऋतु और कुम्भ—मीन राशि के सूर्य में शिशिरऋतु होती है । विवाह, प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्य और मास के हिसाब से ही किये जाते हैं । मासगणना चार प्रकार की होती है—सावन, सौर, चान्द्र और नाक्षत्र। तीस दिन का सावनमास होता है । सूर्य की एक संक्रान्ति से लेकर अगली संक्रान्तिपर्यन्त सौरमास माना जाता है । कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से लेकर र्पूिणमा पर्यन्त चान्द्रमास माना जाता है । अश्विनी नक्षत्र से लेकर रेवती पर्यन्त नाक्षत्रमास माना गया है, यह प्राय: २७—२१/६७ दिन का होता है । व्यवहार में शुभाशुभ के लिए चान्द्र और सौरमास ही ग्रहण किये जाते हैं । कई आचार्यों का मत है कि विवाह और व्रत में सौरमास, शान्ति—पौष्टिक में सावनमास, सांवत्सरिक कार्य में चान्द्रमास ग्राह्य माने गये हैं१। अधिमास और क्षयमास सभी शुभ कार्यों में त्याज्य हैं । हेमाद्रिके मत से कोई भी शुभकार्य इन दोनों मासों में नहीं करना चाहिए; किन्तु कुलाद्रिमत में अधिकमास और क्षयमास की अन्तिम तिथियाँ त्याज्य हैं । मध्यभाग इन दोनों महीनों का ग्राह्य बताया गया है ।
विवाहव्रतयज्ञेषु सौरं मानं प्रशस्यते । पार्वणे त्वष्टकाश्राद्धे चान्द्रमिष्टं तथाद्विके ।। आयुर्दायविभागश्च प्रायश्चित्तक्रिया तथा । सावनेनैव कत्र्तव्या शत्रूणां चाप्युपासना ।।
निर्णयिंस. पृ. ६ पक्ष के दो भेद हैं—शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष। प्राय: सभी मांगलिक कार्यों में शुक्लपक्ष ही ग्रहण किया जाता है । कृष्णपक्ष में पञ्चमी तिथि के पश्चात् पञ्चकल्याणकप्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा जैसे शुभ कृत्य नहीं होते हैं । प्रतिपदादि तिथियों के नाम प्रसिद्ध हैं । अमावस्या तिथि के आठ प्रहरों में से पहले प्रहर का नाम सिनी सिनिवाली, मध्य के पाँच प्रहरों का नाम दर्श और सातवें तथा आठवें प्रहर का नाम कुहू है । किन्हीं—किन्हीं आचार्यों का मत है कि तीन घटी रात्रि शेष रहने के समय से रात्रि के समाप्ति तक सिनीवाली, प्रतिपदा से विद्ध अमावास्या का नाम कुहू, चतुर्दशो से विद्ध अमावस्या दर्श कहलाती है । सूर्यमण्डल समसूत्र से अपनी कक्षा के समीप में स्थित परन्तु शरवश से पृथक््â स्थित चन्द्रमण्डल जब हो तो सिनीवाली, सूर्यमण्डल में आधे चन्द्रमा का प्रवेश हो तो दर्श और जब सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल समसूत्रों में हों तो कुहू होती है । प्रतिपदासंयुक्त अमावस्या भी कुहू मानी जाती है । दिनक्षय या दिनवृद्धि होने पर समस्त अमावास्या दर्श संज्ञक मानी जाती है । प्रतिपदा सिद्धि देनेवाली, द्वितीया कार्य साधन करने वाली, तृतीया आरोग्य देने वाली, चतुर्थी हानिकारक, पंचमी शुभप्रद, षष्टी अशुभ, सप्तमी शुभ, अष्टमी व्याधि नाशक, नवमी मृत्युदायक, दशमी द्रव्यप्रद, एकादशी शुभ, द्वादशी और त्रयोदशी कल्याणप्रद, चतुर्दशी उग्र, र्पूिणमा पुष्टिप्रद एवं अमावास्या अशुभ है । व्यवहार के लिए द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, अष्टमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी तिथियाँ सभी कार्यों में प्रशस्त बतायी गयी हैं । व्रतों के लिए भिन्न—भिन्न आचार्यों ने तिथियों का भिन्न—भिन्न प्रमाण बताया है ।
सोदयं दिवसं ग्राह्यं कुलाद्रिघटिकाप्रमम्। व्रते वटोपमागत्यं गुरु: प्राह त्विति स्पुटम्।।९।।
अर्थ —छ: घटी प्रमाण तिथि के होने पर दिनभर के लिए वही तिथि मान ली जाती है, अत: व्रतग्रहण, उपनयन, प्रतिष्ठा आदि कार्य उसी तिथि में करने चाहिए। इस प्रकार पूर्वोक्त प्रश्न के उत्तर में गुरु ने स्पष्ट कहा है।
प्राचीन भारत में तिथिज्ञान के लिए दो मत प्रचलित थे—हिमाद्रि और कुलाद्रि। हिमाद्रि मत उदयकाल में तिथि के होने पर ही तिथि को ग्रहण करता था, पर कुलाद्रि मत छ: घटी प्रमाण उदयकाल में तिथि के होने पर ही तिथि को ग्रहण करता था। षट् कुलाचल होने के कारण छ: घटी प्रमाण उदयकाल में तिथि का प्रमाण मानने से ही इस मत का नाम कुलाद्रि मत या कुलाद्रिघटिका मत पड़ गया था। कुछ लोग हिमाद्रि मत का प्रमाण दसघटी भी मानते थे। ज्योतिषशास्त्र में तिथियाँ दो प्रकार की बतायी गयी हैं—शुद्धा और विद्धा। ‘दिने तिथ्यन्तरसम्बन्ध—रहिता शुद्धा’ अर्थात् दिनमान में एक ही तिथि हो, किसी अन्य तिथि का सम्बन्ध न हो तो शुद्धा तिथि होती है। ‘तत्सहिता विद्धा’ एक ही दिन में दो तिथियों का सम्बन्ध हो तो विद्धा तिथि कहलाती है। आरम्भसिद्धि ग्रंथ में विद्धा तिथि का विश्लेषण करते हुए कहा गया है—‘‘जो तिथि तीन बारों में वर्तमान रहे वह वृद्धि तिथि कहलाती है, मतान्तर से इसका नाम भी विद्धा तिथि है। जब एक ही दिन में तीन तिथियाँ या दो तिथियाँ वर्तमान रहें, वहाँ पर भी विद्धा तिथि मानी जाती है। जब एक दिन में तीन तिथियाँ वर्तमान रहती हैं तो मध्यवाली तिथि का क्षय माना जाता है१ तथा जब एक दिन में दो तिथियाँ रहती हैं तो उत्तर वाली तिथि का क्षय माना जाता है२। उदाहरण—जैसे रविवार की रात में तीन घटी रात शेष रहने पर पञ्चमी आरम्भ हुई, सोमनवार को साठ घटी पञ्चमी है तथा मंगल को प्रात:काल में तीन घटी पञ्चमी है, पश्चात् षष्ठी तिथि आरम्भ होती है। यहाँ पञ्चमी तिथि रविवार, सोमवार और मंगलवार इन तीनों दिनों में व्याप्त है अत: वृद्धि तिथि मानी जायगी। यह वृद्धितिथि प्रतिष्ठा, गृहारम्भ, उपनयन आदि समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य है। तीन तिथियों की स्थिति एक ही दिन इस प्रकार रहती है कि शुक्रवार को प्रात:काल अष्टमी १ घटी १५ पल है, नवमी ५२ घटी ४० पल है और दशमी ६ घटी ५ पल है तथा शनिवार को दशमी ४९ घटी २० पल है। इस प्रकार की स्थिति में शुक्रवार को अष्टमी, नवमी और दशमी तीनों तिथियाँ रहीं। इन तीनों में से नवमी तिथि क्षयतिथि मानी जायगी। अत: नवमी को प्रत्येक शुभ कार्य के करने का निषेध रहेगा। जैनाचार्यों ने प्रतिष्ठा, गृहारम्भ, व्रतोपनयन प्रभृति मांगलिक कार्यों के लिए तिथि—वृद्धि और तिथिक्षय दोनों को त्याज्य बताया है। प्रात:काल में जब तक ६ घटी प्रमाण तिथि नहीं हो, कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। विष्णुधर्मपुराण, नारदसंहिता, वशिष्ठसंहिता, मुहूत्र्तदीपिका, मुहूत्र्तमाधवीय आदि वैदिक ज्योतिष के ग्रंथों में भी धर्मकृत्य के लिए तीन मुहूत्र्त अर्थात् छ: घटी प्रमाण तिथि का प्रमाण तिथि का विधान किया गया है। विद्धातिथि होने पर किसी किसी आचार्य ने तीन मुहूत्र्त प्रमाण तिथि को भी अग्राह्य बताया है। समस्त शुभ कार्यों में व्यतीपात योग, भद्रा, वैधृति नाम का योग, अमावास्या, क्षयतिथि, वृद्धितिथि, क्षयमास, कुलिक योग, अद्र्धयाम, महापात, विष्कम्भ और वङ्का के तीन—तीन दण्ड, परिघ योग का पूर्वाद्र्ध, शूलयोग के पाँच दण्ड, गण्ड और अतिगण्ड के छ: छ: दण्ड एवं व्याघात योग के नौ दण्ड समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य हैं। प्रत्येक शुभकार्य के लिए पञ्चाङ्गशुद्धि देखी जाती है—तिथि, नक्षत्र, वार, योग और करण। इन पाँचों के शुद्ध होने पर ही कोई भी शुभ कार्य करना श्रेष्ठ होता है। यों तो भिन्न—भिन्न कार्यों के लिए भिन्न—भिन्न तिथियाँ ग्राह्य की गयी हैं, परन्तु समस्त शुभ कार्यों में प्राय: १ / ४ / ९/१२/१४/३० तिथियाँ त्याज्य मानी गयी हैं। ग्राह्य तिथियों में भी क्षय और वृद्धि तिथियों का निषेध किया गया है। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्र्रा, पुनर्वसु, पुथ्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उप्तराषाढा श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती ये २७ नक्षत्र हैं। घनिष्टा से रेवती तक पाँच नक्षत्रों में पञ्चक माना जाता है। इन पाँचों नक्षत्रों में तृण—काष्ठ का संग्रह करना, खटिया बनाना एवं झोंपड़ी छवाना निषिद्ध है। अश्विनी, रेवती, मूल, आश्लेषा और ज्येष्ठा इन पाँच नक्षत्रों में जन्मे बालक को मूलदोष माना जाता है। कोई—कोई मघा नक्षत्र को भी मूल में परिगणित करते हैं। उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उrत्तराभाद्रपद और रोहिणी ध्रुव एवं स्थिर संज्ञक हैं। इनमें मकान बनवाना, बगीचा लगाना, जिनालय बनवाना, शान्ति और पौष्टिक कार्य करना शुभ होता है। स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्टा और शतभिषा नक्षत्र चर या चल संज्ञक हैं। इनमें मशीन चलाना, सवारी करना, यात्रा करना शुभ है। पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी और मघा उग्र अथवा व्रूर संज्ञक हैं। इनमें प्रत्येक शुभ कार्य त्याज्य है। विशाखा और कृत्तिका मिश्र संज्ञक हैं, इनमें सामान्य कार्य करना अच्छा होता है। हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित् क्षिप्र अथवा लघु संज्ञक हैं। इनमें दुकान खोलना, ललितकलाएँ सीखना या ललितकलाओं का निर्माण करना, मुकदमा दायर करना, विद्यारम्भ करना, शास्त्र लिखना उत्तम होता है। मृगशिरा, रेवती, चित्रा और अनुराधा मृदु या मैत्र संज्ञक हैं। इनमें गायन वादन करना, वस्त्र धारण करना, यात्रा करना, क्रीड़ा करना, आभूषण बनवाना आदि शुभ हैं। मूल, ज्येष्ठा, आद्र्रा और आश्लेषा तीक्ष्ण या दारुण संज्ञक हैं। इनका प्रत्येक शुभ कार्य में त्याग करना आवश्यक है। विष्कम्भ, प्रीति, आयुष्मान् , सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वङ्का, सिद्धि, व्यतीपात, वरीयान् , परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृति ये २७ योग होते हैं। इन योगों में वैधृति और वयतीपात योग समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य हैं, परिघ योग का आधा भाग वज्र्य है। विष्कम्भ और वङ्कायोग की तीन—तीन घटिकाएँ, शूलयोग की पाँच घटिकाएँ एवं गण्ड और अतिगण्ड की छ: छ: घटिकाएँ शुभ कार्यों वज्र्य हैं। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनी, चतुष्पद, नाग और िंकस्तुघ्न ये ११ करण होते हैं। बव करण में शान्ति और पौष्टिक कार्य; बालव में गृह निर्माण, गृह प्रवेश, निधि स्थापन, दान—पुण्य के कार्य; कौलव में पारिवारिक कार्य, मैत्री, विवाह आदि; तैतिल में नौकरी, सेवा, राजा से मिलना, राजकार्य आदि; गरमें कृषि कार्य; वणिज में व्यापार, क्रय—विक्रय आदि कार्य; विष्टि में उग्र कार्य; शकुनी में मन्त्र तन्त्र सिद्धि, औषधनिर्माण आदि; चतुष्पद में पशु खरीदना—बेचना, पूजा पाठ करना आदि; नाग में स्थिर कार्य एवं िंकस्तुघ्न में चित्र खींचना नाचना, गाना आदि कार्य करना श्रेष्ठ माने गये हैं। विष्टि—भद्रा१ समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य है। वारों में रविवार, मंगलवार और शनिवार व्रूर माने गये हैं। इनमें शुभ कार्य करना प्राय: त्याज्य है। मतान्तर से रविवार ग्रहण भी किया गया है, किन्तु मंगलवार और शनिवार को सर्वथा त्याज्य बताया है। शुक्र, गुरु और बुधवार समस्त शुभ कार्यों में ग्राह्य माने गये हैं। सोमवार को मध्यम बताया है। राज्याभिषेक, नौकरी, मन्त्रसिद्धि, औषधनिर्माण, विद्यारम्भ, संग्राम, अलंकार—निर्माण, शिल्प—निर्माण, पुण्यकृत्य, उत्सव, यान—निर्माण, सूतिका—स्नान आदि कार्य रविवार को करने से; कृषि, व्यापार, गान, चाँदी—मोती का व्यापार, प्रतिष्ठा आदि कार्य सोमवार को करने से; व्रूâरकार्य, खान खोदना, ऑपरेशन कराना, सूति का स्नान आदि काम मंगल को करने से; अक्षरारम्भ, शिलान्यास, कर्णवेध, काव्य—निर्माण, काव्य—तर्वâ—कला आदि का अध्ययन, व्यायाम करना, कुश्ती लड़ना आदि कार्य बुध को करने से; दीक्षारम्भ, विद्यारम्भ, औषधनिर्माण, प्रतिष्ठा गृहारम्भ, गृहप्रवेश, सीमन्तोन्नयन, पुं सवन जातकर्म, विवाह, स्तनपान, सूतिका—स्नान, भूम्युपवेशन एवं अन्नप्राशन आदि माङ्गलिक कार्य गुरुवार को करने से; विद्यारम्भ, कर्णवेध, चूड़ाकरण, वाग्दान, विवाह, व्रतोपनयन, षोडश संस्कार आदि कार्य शुक्रवार को करने से एवं गृह प्रवेश, दीक्षारम्भ तथा अन्य व्रूâर कार्य शनिवार को करने से सफल होते हैं। विशेष विचार के लिए तो प्रत्येक कार्य के विहित मुहूत्र्त को ही ग्रहण करना चाहिए। सामान्य से उपर्युक्त तिथि, नक्षत्र, योग, करण और वारसिद्धि का विचार कर जो तिथि आदि जिस कार्य के लिए ग्राह्य बताये गये हैं, उन्हीं में उस कार्य को करना चाहिए। शुभ समय पर किया गया कार्य ज्यादा फल देता है।
इत्यादिमतमालोक्यनियतं रसघटीप्रमम्। अयं श्रीपद्मदेवादिसूरिभिज्र्ञानधारिभि:।।७।।
इस प्रकार व्रत—तिथि के प्रमाण के लिए नाना मत—मतान्तरों का अवलोकन कर ज्ञानवान् श्रीपद्मदेव आदि मर्हिषयों ने रस—घटी—छ: घटी प्रमाण तिथि के मत को ही प्रमाण माना है। अर्थात् जैन मान्यता में उदया—तिथि व्रत के लिए ग्राह्य नहीं है, किन्तु छ: घटी प्रमाण तिथि होने पर ही व्रत के लिए ग्राह्य मानी गयी है।
पद्मदेवाचार्योत्तं रसघटीमतं व्रतविधाने ग्राह्यम्। धर्मप्रमाणं मतं न ग्राह्यमिति।।
व्रत विधान के लिए छ: घटी प्रमाण ही पद्मदेव आचार्य के मत से ग्रहण करना चाहिए। दस घटी प्रमाण व्रततिथि को नहीं मानना चाहिए। श्रीकुन्दकुन्दचार्य तथा मूल संघ के अन्य आचार्यों का मत भी छ: घटी प्रमाण तिथि ग्रहण करने का है।
प्रश्न विविधातिथिसमायाते क्रियते हि व्रतं कथम्। पप्रच्छेति गुरं शिष्यो विनयावनतमस्तक:।।८।।
एक ही दिन कई तिथियों के आ जाने पर व्रत कब करना चाहिए अर्थात् कभी—कभी एक ही दिन तीन तिथियाँ रह सकती हैं, ऐसी अवस्था में व्रत कब करना चाहिए ? इस प्रकार का प्रश्न विनम्र एवं नतमस्तक होकर शिष्यों ने गुरु से पूछा। मध्यम मान तिथि का यद्यपि ६० घटी है, परन्तु स्पष्ट मान तिथि का सदा घटता—बढ़ता रहता है। कोई भी तिथि ६० घटी प्रमाण एकाध बार ही आती है। कभी—कभी ऐसा अवसर भी आता है, जब एक ही दिन तीन तिथियाँ पड़ जाती हैं। उदाहरण—ज्येष्ठ सुदी द्वितीया प्रात: काल १ घटी १५ पल है, इसी दिन तृतीया का प्रमाण ५२ घटी ३० पल पञ्चाङ्ग में लिखा है। सूर्योदय ५ बजकर १५ मिनट पर होता है अत: इसदिन ५ बजकर ४५ मिनट तक द्वितीया रही इसके पश्चात् रात के २ बजकर ४५ मिनट तक तृतीया तिथि रही। तदुपरान्त चतुर्थी तिथि आ गयी। इस प्रकार एक ही दिन तीन तिथियाँ पड़ गयीं। जिस व्यक्ति को तृतीया का व्रत करना है, वह इस प्रकार की बिद्ध तिथियों में वैâसे व्रत करेगा। यदि इस दिन व्रत करना है तो तीन तिथियाँ रहने से व्रत का फल नहीं मिलेगा तथा इसके पहले व्रत करेगा तो तृतीया तिथि नहीं मिलती है, अत: किस प्रकार व्रत करना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र में व्रत—तिथि के निर्णय के लिए अनेक प्रकार से विचार किया है। तिथियों के क्षय और वृद्धि के कारण ऐसी अनेक शंकास्पद स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जब श्रद्धालु व्यक्ति पशोपेश में पड़ जाता है कि अब किस दिन व्रत करना चाहिए। क्योंकि व्रत का फल तभी यथार्थ रूप से मिलता है, जब व्यक्ति व्रत को निश्चित तिथि पर करे। तिथि टालकर करने से व्रत का पूरा फल नहीं मिलता। जिस प्रकार असमय की वर्षा कृषि के लिए उपयोगी होने के बदले हानि कर होती है, उसी प्रकार असमय पर किया गया व्रत भी फलप्रद नहीं होता। यों तो व्रत सदा ही आत्मशुद्धि का कारण होता है, कर्मों की निर्जरा होती ही है, पर विधिपूर्वक व्रत करने से कर्मों की निर्जरा अधिक होती है तथा पुण्य प्रकृतियों का बन्ध भी होता है।
वेधातिथि का लक्षण वेधाया: लक्षणं किमिति चेदाह; सूर्योदयकाले त्रिमुहूत्र्ताभावात् , क्षयाभावाच्च विद्धा सा वेधा ज्ञेया। सूर्योदयकालर्वितन्या तिथ्या वेधत्वात्।
वेधा तिथि का लक्षण क्या है ? आचार्य कहते हैं कि सूर्योदय समय में जो तिथि तीन मुहूत्र्त—छ: घटी से कम होने अथवा उसका क्षय—अभाव होने के कारण अन्य तिथि के साथ सम्बद्ध रहती है वेधा या विद्धतिथि कहलाती है। सूर्योदयकाल के रहने वाली तिथि के साथ वेध—सम्बन्ध करने के कारण वेधातिथि कहलाती है।
तिथिह्रासे सति किं विधानमिति चेत्तदाह—
अर्थ — तिथिह्रास होने पर व्रत करने का क्या नियम है, इस प्रश्न का आचार्य उत्तर देते हैं—
तिथिह्रासे प्रकत्र्तव्यं सोदये दिवसे व्रतम्। तदादिदिनमारभ्य व्रतान्तं क्रियते व्रतम्।।१।।
अर्थ- तिथि के क्षय होने पर जिस दिन उदयकाल में छ: घटी तिथि हो, उसी दिन से व्रत आरम्भ करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि दशलक्षण एवं आष्टाह्लिका आदि व्रतों में तिथिक्षय होने पर एक दिन पहले से व्रत करना चाहिए।
तिथिह्रास से क्षये सति वा कुलाद्रिघटिकाप्रमाणहीने सति सोदये दिवसे व्रतं कार्यम्। सोदयस्य लक्षणं किमिति चेत्तर्हि ‘सोदंय दिवसं ग्राह्यं कुलाद्रिघटिकाप्रममिति वक्तव्यम्’ व्रत प्रारम्भस्यादिदिनमारभ्य व्रतान्तं व्रतं क्रियते। यथाष्टाह्निकदिवसेषु मध्ये काचित्तिथि: क्षयंगता अतो व्रतस्यादिदिनं सप्तमी दिनं ग्राह्यम्। एवं दशलक्षणिकदशदिनेषु मुख्यपञ्चमी चतुर्दशीपर्यन्तेषु तिथिक्षयवशाञ्चतुर्थी ग्राह्या। तथैव सर्वत्रापि ग्राह्यम्। परञ्चैतावान् विशेष:, अय नियम: दैवसिकनियतावधिकनैशिकेषु भवति ग्राह्य:। न तु मासिकादिषु मासिकादीनि मेघमालाषोडशकार—णादीनि। तत्रापि यथा षोडशकारणव्रतं प्रतिपद्दिनमारभ्य षोडशभिरुपवासै: पञ्चदशपारणाभिश्चैकत्री—कृतैरेकिंत्रशद्दिवसै: प्रतिपत्पर्यन्तं समाप्तिमुपगच्छति। यदि प्रतिपदमारभ्य तृतीयप्रतिपत्पर्यन्तं तिथिक्षयव—शाद्दिनसंख्याहानि: स्यात् ; तदा यस्मिन्दिने प्रतिपदमारभ्य प्रतिपत्र्यन्तं कार्य, तस्य प्रतिपत्त्रयमेव ग्राह्यं कथितम् , न तु मासिकजातस्य दिनं त्वपरमासे ग्राह्यं भवति, तदा व्रतकत्र्तु: व्रतहानिर्भवति।
अर्थ-तिथि के क्षय होने पर अथवा उदयकाल में छ: घटी प्रमाण तिथिक न होने पर सोदय में—एक दिन पहले व्रत करना चाहिए। सोदय का लक्षण क्या है ? आचार्य कहते हैं—जिस दिन कम से कम छ: घटी प्रमाण तिथि हो, वही दिन सोदय कहलाता है। अत: तिथिक्षय होने पर या उदयकाल में छ: घटी प्रमाण तिथि के न होने पर व्रत प्रारम्भ होने के एक दिन पहले से ही व्रत करना चाहिए और व्रत की समाप्ति पर्यन्त व्रत करते रहना चाहिए। जैसे आष्टाह्लिका व्रत अष्टमी से आरम्भ होकर पूर्णिमा को समाप्त होता है, इन आठ दिनों के मध्य में दशमी तिथि का अभाव है, अत: यहाँ आठ दिन के बदले सात ही दिन व्रत करना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में मध्य में तिथि के क्षय होने पर सप्तमी से ही व्रतारम्भ किया जायगा। इसी प्रकार दशलक्षणिकव्रत के दिनों में भी यदि तिथि का अभाव हो तो पञ्चमी के बदले चतुर्थी से ही व्रत आरम्भ करने चाहिए। क्योंकि पर्यूषण पर्व का आरम्भ भाद्रपद शुक्ला पञ्चमी से लेकर भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तक माना जाता है। यह दशलक्षणव्रत दस दिनों तक किया जाता है, यदि इसमें किसी तिथि की हानि होने से दिन संख्या कम हो तो यह व्रत चतुर्थी से ही कर लिया जायेगा। हाँ, जिन्हें पञ्चमी, अष्टमी, चतुर्दशी आदि का व्रत करना होगा, उन्हें तो इन तिथियों के आने पर ही करना होगा।
तिथि का अभाव होने पर एक दिन पहले से व्रत करना चाहिये—में इतनी विशेषता है कि यह सर्वत्र लागू नहीं होता। नियत अवधि वाले दैवसिक और नैशिक व्रतों में ही लागू होता है मासिक व्रत मेघमाला और षेड़शकारण आदि में नहीं लगता है। जैसे षोड़शकारण व्रत प्रतिपदा से आरम्भ होकर सोलह उपवास और पन्द्रह पारणाएँ, इस प्रकार इकतीस दिन तक करने के उपरान्त प्रतिपदा को समाप्त होता है। इस व्रत में तीन प्रतिपदाएँ पड़ती हैं—पहली भाद्रपद कृष्णपक्ष की, द्वितीय भाद्रपद शुक्लपक्ष की और तृतीय आश्विन कृष्णपक्ष की। यदि पहली प्रतिपदा—भाद्रपद कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से लेकर तीसरी प्रतिपदा—आश्विन कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तक किसी तिथि की हानि होने से दिन संख्या कम हो तो भी प्रतिपदा से आरम्भ कर तीसरी प्रतिपदा अर्थात् भाद्रपद कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ कर आश्विन मास की कृष्ण प्रतिपदा तक व्रत करना चाहिए। यहाँ तीनों प्रतिपदाओं के ग्रहण करने का विधान किया गया है। मासिक व्रतों में दूसरे महीने के दिन ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं। भाद्रपद से आरम्भ होने वाला व्रत श्रावण से आरम्भ नहीं किया जा सकता है। ऐसा करने से व्रत हानि है, और व्रत करने वाले को फल नहीं मिलता। वर्व व्रतों के अतिरिक्त नियत अवधि वाले भी व्रत होते हैं। पर्व व्रतों के लिए आचार्य ने तिथि का प्रमाण छ: घटी निर्धारित किया है, जिस दिन छ: घटी प्रमाण व्रत तिथि होगी, उसी दिन व्रत किया जायेगा। नियत अवधि वाले व्रतों के लिए यह निश्चय करना है कि व्रत की निश्चित अवधि के भीतर यदि कोई तिथि नष्ट—क्षय हो जाय तो कब व्रत करना चाहिए। क्योंकि तिथि क्षय हो जाने से नियत अवधि में एक दिन घट जाएगा, पूरे दिन व्रत नहीं किया जा सकेगा। ऐसी अवस्था में व्रत करने के लिए क्या व्यवस्था करनी होगी ? आचार्य ने इसके लिए नियम बताया है कि नियत अवधि वाले दशलाक्षणिक व्रत और आष्टाह्लिक व्रतों के लिए बीच में किसी तिथि का क्षय होने पर एक दिन पहले से व्रत करना चाहिए, जिससे व्रत दिनों की संख्या कम न हो सके। ज्योतिषशास्त्र में व्रतों के लिए तिथियों का प्रमाण निश्चित किया गया है। यद्यपि व्रतों के लिए तिथियों का प्रतिपादन करना आचारशास्त्र का विषय है, परन्तु उन तिथियों का समय निर्धारित करना ज्योतिषशास्त्र का विषय है। प्राचीनकाल में प्रधान रूप से ज्योतिष शास्त्र का उपयोग तिथि और समय निर्णय के लिए ही किया जाता था। इस शास्त्र का उत्तरोत्तर विकास भी कत्र्तव्य कर्मों के समय निर्धारण के लिए ही हुआ है। उदयप्रभसूरि, वसुनन्दि आचार्य और रत्नशेखरसूरि ने शुभाशुभ समय का निर्धारण करते हुए बताया है कि व्रतों के लिए प्रतिपादित तिथियों को यथार्थरूप से व्रत के समयों में ही ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा असमय में किये गये व्रतों का फल विपरीत होता है। जो श्रावक नैमित्तिक व्रतों का पालन करता है, वह अपने कर्मों की निर्जरा असमय में ही कर लेता है। समस्त आरम्भ और परिग्रह छोड़ने में असमर्थ गृहस्थ को अपनी समाधि सिद्ध करने के लिए नित्य नैमित्तिक व्रतों का पालन अवश्य करना चाहिए। आष्टाह्निका और दशलक्षणी व्रत के लिए जो नियम बताया गया है कि एक तिथि घट जाने पर एक दिन पहले से व्रत करना चाहिए, यह नियम षोड़शकारण व्रत में लागू नहीं होता है। यह व्रत बीच में तिथि के घट जाने पर भी प्रतिपदा से ही प्रारम्भ किया जायगा। मासिक व्रत होने के कारण भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ कर आश्विनमास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तक यह किया जाता है। बीच में एक तिथि का अभाव होने पर यह श्रावण मास की र्पूिणमा से आरम्भ करना होगा, जिससे तीन महीनों में यह व्रत सम्पन्न हुआ माना जायगा। आगम में दो ही मास—भाद्रपद और आश्विन का विधान है, अत: एक दिन पहले षोड़शकारण व्रत करने से मासच्युति नाम का दोष आवेगा, जिससे पुण्य के स्थान में व्रत करने वाले को पाप का फल भोगना पड़ेगा। प्रचलित व्रतों में लगातार कई दिनों तक चलने वाले प्रधान तीन ही व्रत हैं—दशलक्षण, अष्टाह्निका और सोलहकारण। इनमें पहले के दो व्रतों के लिए एक तिथि घटने पर एक दिन पहले से व्रत करने का विधान है, पर अन्तिम तीसरे व्रत के लिए यह विधान नहीं है। इस व्रत में तीन प्रतिपदाओं का पड़ना आवश्यक है। तीनों पक्ष की तीन प्रतिपदाओं के आ जाने पर ही व्रत पूर्ण माना जाता है। जैनेतर ज्योतिष के आचार्यों ने भी नियत अवधिवाले व्रतों की तिथियों का निर्णय करते हुए बताया है कि एक तिथि की हानि होने पर एक दिन पहले और एक तिथि की वृद्धि होने पर एक दिन बाद तक व्रत करने चाहिए। तिथि की हानि होने पर सूर्योदयकाल में थोड़ी भी तिथि हो तो नियत अवधि के भीतर ही व्रत की समाप्ति हो जाती है। जैन एवं जैनेतर तिथि—निर्णय में इतना अन्तर है कि जैन सिद्धान्त सूर्योदयकाल में तिथि का प्रमाण छ: घटी मानता है, अत: सूर्योदय समय में इससे अल्पप्रमाण तिथि के होने पर तिथिक्षय या तिथि—हासवाली बात आ जाती है। जैनेतर सिद्धान्त में उदयकाल में अल्पप्रमाण भी तिथि होने पर उस दिन वह तिथि व्रतोपवास के लिए ग्राह्य मान ली गयी है; जिससे नियत अवधिवाले व्रतों को एक दिन पहले करने की नौबत नहीं आती है। हाँ, कभी—कभी समग्र तिथिका अभाव होने पर एक दिन पहले व्रत करने वाली स्थिति उत्पन्न हो सकती है। प्रोषधोपवास करने के लिए तो आचार्य ने छ: घटी प्रमाण तिथि बतलायी है तथा दैवसिक एवं नैशिक व्रतों के लिए भी छ: घटी प्रमाण उदय और अस्तकालीन तिथियाँ ग्रहण की गयी हैं, परन्तु एकाशन के लिए तिथि कैसे ग्रहण करनी चाहिए और एकाशन करने वाले श्रावक को कब एकाशन करना चाहिए, इसके लिए क्या नियम बताया है ? ज्योतिष शास्त्र में एकाशन के लिए बताया गया है कि ‘मध्याह्नव्यापिनी ग्राह्या एकभत्तेâ सदा तिथि:’ अर्थात् दोपहर में रहने वाली तिथि एकाशन के लिए ग्रहण करनी चाहिए। एकाशन दोपहर में किया जाता है, जो एक भुक्तिका—एक बार भोजन करने का नियम लेते हैं, उन्हें दोपहर में रहने वाली तिथि में करना चाहिए। एकाशन करने के सम्बन्ध में कुछ विवाद है। कुछ आचार्य एकाशन दिन में कभी भी कर लेने पर जोर देते हैं और कुछ दोपहर के उपरान्त एकाशन करने का आदेश देते हैं। ज्योतिष शास्त्र में एकाशन का समय निश्चित करते हुए बताया गया है कि ‘दिनार्धसमयेऽ—तीते भुज्यते नियमेन यत्’ अर्थात् दोपहर के उपरान्त ही भोजन करना चाहिए। यहाँ दोपहर के उपरान्त का अर्थ अपराण्हकालका पूर्व उप्ल भाग नहीं है, किन्तु अपराण्हकाल का पूर्व भाग लिया गया है। जो लोग एकाशन दस बजे करने की सम्मति देते हैं, वे भी ज्योतिषशास्त्र की अनभिज्ञता के कारण ही ऐसा कहते हैं। आजकल के समय के अनुसार एकाशन एक बजे और दो बजे के बीच में कर लेना चाहिए। दो बजे के बीच में कर लेना चाहिए। दो बजे के उपरान्त एकाशन करना शास्त्र विरुद्ध है। एकाशन के लिए तिथि का निर्णय इस प्रकार करना चाहिए कि दिनमान में पाँच का भाग देकर तीन से गुणा करने पर जो गुणनफल आवे, उतने घट्यादि मान के तुल्य एकाशन की तिथि का प्रमाण होने पर एकाशन करना चाहिए। उदाहरण—किसी को चतुर्दशी का एकाशन करना है, इस दिन रविवार को चतुर्दशी २३ घटी ४० पल है और दिनमान ३२ घटी ३० पल है। क्या रविवार को चतुर्दशी का एकाशन किया जा सकता है ? दिनमान ३२ / ३० में पाँच का भाग दिया—३२!३० ´ ५ · ६ / ३० इसको तीन से गुणा किया—६/३० ² ३० · १९ / ३० गुणनफल हुआ। मध्याह्नकाल का प्रमाण गणित की दृष्टि से १९ / ३० घट्यादि हुआ। तिथि का प्रमाण २३ / ४० घट्यादि है। यहाँ मध्याह्न काल के प्रमाण से तिथि का प्रमाण अधिक है अर्थात् तिथि मध्याह्न काल के पश्चात् भी रहती है, अत: एकाशन के लिए इसे ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् चतुर्दशी का एकाशन रविवार को किया जा सकता है। क्योंकि रविवार को मध्याह्न में चतुर्दशी तिथि रहती है। दूसरा उदाहरण—मंगलवार को अष्टमी ७ घटी १०पल है, दिनमान ३२/३० पल है। एकाशन करने वाले को क्या इस अष्टमी को एकाशन करना चाहिए ? पूर्वोक्त गणित के नियमानुसार ३२ /३० ´ ५ · ६ /३० इसको तीन से गुणा किया तो—६/३० ² ३ · १९ /३० घट्यादि गुणनफल आया, यही गणितागत मध्याह्नकाल का प्रमाण हुआ। तिथि का प्रमाण ७ घटी १० पल है, यह मध्याह्नकाल के प्रमाण से अल्प है, अत: मध्याह्नकाल में मंगलवार को अष्टमी तिथि एकाशन के लिए ग्रहण नहीं की जायेगी, क्योंकि मध्याह्नकाल में इसका अभाव है। अत: अष्टमी का एकाशन सोमवार को करना होगा। एकाशन करने के तिथि—प्रमाण में और प्रोषधोपवास के तिथि प्रमाण में बड़ा भारी अन्तर आता है। प्रोषधोपवास के लिए मंगलवार को अष्टमी तिथि ७ /३० होने के कारण ग्राह्य है। क्योंकि छ: घटी से अधिक प्रमाण है, अत: उपवास करने वाला मंगल को व्रत करे और एकाशन करने वाला सोमवार को व्रत करे; यह आगम की दृष्टि से अनुचित सा प्रतीत होता है। जैनाचार्यों ने इस विवाद को बड़े सुन्दर ढंग से सुलझाया है। मूलसंघ के आचार्यों ने एकाशन और उपवास दोनों के लिए ही कुलाद्रि—छ: घटी प्रमाण तिथि ही ग्राह्य बतायी है। आचार्य िंसहनन्दि का मत है कि एकाशन के लिए विवादस्थ तिथि का विचार न कर छ: घटी प्रमाण तिथि ही ग्रहण करनी चाहिए। िंसहनन्दि ने एकाशन की तिथि का विस्तार रूप से विचार किया है, उन्होंने अनेक उदाहरण और प्रति उदाहरणों के द्वारा मध्याह्नव्यापिनी तिथि का खण्डन करते हुए छ: घटी प्रमाण को ही सिद्ध किया है। अतएव एकाशन के लिए पर्वतिथियों में छ: घटी प्रमाण तिथियों को ही ग्रहण करना चाहिए। ‘तिथिर्यथोपवासे स्यादेकभत्तेपि सा तथा’ इस प्रकार का आदेश रत्नशेखर सुरि ने भी दिया है। जैनाचार्यो ने एकाशन की तिथि के सम्बन्ध में बहुत कुछ ऊहापोह किया है। गणित से भी कई प्रकार से आनयन किया है। प्राकृत ज्योतिष के तिथि विचार प्रकरण में विचार—विनिमय करते हुए बताया है कि सूर्योदयकाल में तिथि के अल्प होने पर मध्याह्न में उत्तर तिथि रहेगी। परन्तु एकाशन के लिए रसघटी प्रमाण होने पर पूर्व तिथि ग्रहण की जा सकती है। यदि पूर्व तिथि रसघटी१ प्रमाण से अल्प है तो उत्तर—तिथि लेनी चाहिए। यद्यपि उत्तर—तिथि मध्याह्न में व्याप्त है, पर कुलाद्रि२ घटि का प्रमाण से अल्प होने के कारण उत्तर तिथि ही व्रततिथि है। अतएव संक्षेप में उपवास तिथि और एकाशन तिथि दोनों एक ही प्रमाण ग्रहण की गयी हैं। यद्यपि जैनेतर ज्योतिष में एकाशन—तिथि को व्रत तिथि से भिन्न माना है, तथा गणित द्वारा अनेक प्रकार से उसका मान निकाला गया है, परन्तु जैनाचार्यों ने इस विवाद को यहीं समाप्त कर दिया है। इन्होंने उपवास—तिथि को ही व्रत तिथि बतलाया है। एकाशन की पारणा मध्याह्न में एक बजे के उपरान्त करने का विधान किया गया है। यद्यपि काष्ठासंघ और मूलसंघ में पारणा के सम्बन्ध में थोड़ा—सा मतभेद हैं, फिर भी दोपहर के बाद पारणा करने का उदयत: विधान है।