प्रत्येक वर्ष अनेकों पर्व आते हैं। ये पर्व प्राय: सामाजिक एवं धार्मिक प्रकृति के होते हैं लेकिन कुछ राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के भी होते हैं। ये पर्व हमें रोजमर्रा की आम जिन्दगी से हटकर कुछ विशेष सोचने, चिन्तन—मनन करने की प्रेरणा देते हैं। पर्व का अर्थ होता है गाँठ। जिस प्रकार गन्ना चूसते-चूसते बीच में गाँठ आ जाती है और उस वक्त तक हम रसास्वादन नहीं कर पाते हैं जब तक कि वह गाँठ रहती है, उसी प्रकार पर्व के दिन भी हमें कुछ हटकर सोचने की प्रेरणा देते हैं।
धार्मिक पर्वों को कुछ विशेष रूप से मनाया जाता है। इन दिनों प्राय: व्रत और उपवास रखा जाता है। व्रत का सामान्य अर्थ होता है संकल्प, नियम या उपवास और उपवास का सामान्य अर्थ होता है भोजन का त्याग। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्रत के दिनों में अर्थात् धार्मिक पर्व के दिनों में नियमपूर्वक या संकल्पपूर्वक भोजन का त्याग करा जाता है। भारतवर्ष में यदि सभी धर्मों के पर्वों को इकट्ठा करके देखा जाय तो प्रतिदिन अनेक पर्व आते हैं। अकेले जैनधर्म में इन पर्वों और व्रतों की संख्या प्रतिवर्ष २५० से अधिक ही बैठती है। चौबीस तीर्थंकरों के पाँच—पाँच कल्याणक के हिसाब से १२० पर्व (कुछ पर्व एक दिन में दो भी हो जाते हैं), अष्टमी—चतुर्दशी व्रत, अष्टान्हिका एवं दशलक्षण पर्व, सोलहकारण, रत्नत्रय व्रत आदि सभी इनमें सम्मिलित हैं।
हालांकि प्रत्येक धर्म में पर्व के दिनों में व्रत और उपवास के महत्व को स्वीकारा गया है लेकिन जैनधर्म में इन्हें जिस गहराई तक समझा गया है उतना अन्य धर्मों में नहीं समझा गया है। प्राय: सभी जैनेतर धर्मों में व्रत और उपवास का महत्व देवी—देवताओं को प्रसन्न करके भौतिक सुख प्राप्त करने तक ही सीमित रहा है जबकि जैन धर्मानुसार ये व्रत—उपवास मात्र भौतिक सुख ही नहीं बल्कि मोक्षरूपी अनन्त सुख को प्रदान करने वाले होते हैं बशर्तें कि इन्हें ठीक प्रकार से समझा गया हो तथा उनका ठीक प्रकार से पालन किया गया हो।
जैन धर्मानुसार पर्व के दिनों में चारों प्रकार के आहार का त्याग करके धर्मध्यान में दिन व्यतीत करना प्रोषधोपवास कहलाता है, उस दिन हिंसादि आरम्भ करने का भी त्याग होता है। एक बार भोजन करना प्रोषध कहलाता है तथा सर्वथा भोजन न करना उपवास कहलाता है। दो प्रोषधों के बीच एक उपवास करना ‘प्रोषधोपवास’ है। इसे श्रावकोें के चार शिक्षाव्रतों में से एक के रूप में लिया गया है। व्रत प्रतिमा में प्रोषधोपवास सातिचार होता है और प्रोषधोपवास प्रतिमा में निरतिचार यदि सामान्य गृहस्थ प्रोषधोपवास न कर सकता हो तो वह अपनी शक्ति के अनुसार उपवास, एकाशन या ऊनोदर आदि भी कर सकता है।
उपवास में प्रात:काल एवं सायंकाल में सामायिक, रात्रि में कायोत्सर्ग और दिन में स्वाध्याय करना चाहिए, हिंसादि आरम्भ से बचना चाहिए और ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए, दिन भर धर्मध्यान में ही अपने को लगाये रखना चाहिए। जैनधर्म में व्रत और उपवास की व्याख्या करते हुये कहा गया है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह से विरक्त होना व्रत है या प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है उसे व्रत कहते हैं और विषय कषायों को छोड़कर आत्मा में लीन रहना या आत्मा के निकट रहना उपवास है अत: विषय, कषाय और आरम्भ का संकल्पपूर्वक त्याग करना उपवास है, मात्र भोजन का त्याग करना और दिन भर विषय, कषाय, और आरम्भ आदि में प्रवर्त रहना तो मात्र लंघन है, उपवास नहीं।
जैनधर्म में कहा गया है कि व्रत—उपवास अनेक पुण्य का कारण है, स्वर्ग का कारण है, संसार के समस्त पापों का नाश करने वाला है। जो व्यक्ति सर्वसुखउत्पादक श्रेष्ठ व्रत धारण करते हैं, वे सोलहवें स्वर्ग के सुखों को अनुभव कर अनुक्रम से अविनाशी मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म में व्रत और उपवास का बहुत महत्त्व बताया गया है लेकिन व्रत-उपवास में भोजन के त्याग के साथ-साथ हिंसादि आरम्भ का त्याग, सामायिक, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय और धर्मध्यान को भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। अनेक चिन्तकों ने व्रत-उपवास के महत्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने का प्रयत्न किया है। कुछ इन्हें ध्यान और योग के लिए आवयश्यक बताते हैं तो कुछ स्वास्थ्य और आरोग्य के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। कुछ ने इनका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अध्ययन किया है।
ध्यान और योग का प्रचलन कुछ समय से अधिक हो गया है लेकिन इसका उपयोग बहुत सीमित कर रखा है। वस्तुत: योग एक प्राचीन साधना पद्धति है। पतंजलि ने योग की विस्तृत व्याख्या की है। योग साधना के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। यम का अर्थ है निग्रह अर्थात् छोड़ना। पतंजलि ने यम को योग की आधारशिला माना है। यम पाँच हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन तथा परिग्रह का त्याग। जीवन की वे प्रवृत्तियाँ जो योग के लिए अनिवार्य हैं तथा जो यम के पालन में सहायक हैं, नियम कहलाती हैं। ये नियम भी मुख्यत: पाँच हैं-शौच (मन, वचन, व काय की शुद्धता), संतोष, तप (बाह्य एवं अंतरंग), स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान (मन, वचन, व काय की वे प्रवृत्तियाँ जिससे आत्मा परमात्मा बन जाय।)
आसन शरीर की वह स्थिति है जिससे शरीर बिना किसी बेचैनी के स्थिर रह सके और मन को सुख की प्राप्ति हो। प्राणायाम श्वांस को नियन्त्रित रखने की प्रक्रिया है। बाह्य विषयों से मुक्त होकर अन्तर्मुखी होना प्रत्याहार कहलाता है। शांत चित्त को शरीर के किसी स्थान पर एकाग्र करने को धारणा कहते हैं और चित्त को उसी विषय में निरन्तर लगाए रखने को (ध्यान) कहते हैं। जब केवल ध्येय स्वरूप का ही भान रहे, ध्यान की उस अवस्था को समाधि कहते हैं।
लेकिन आजकल विश्व भर में प्रचलित योगाभ्यास प्राय: आसन और प्राणायाम करने तक ही सीमित है। ध्यान के अन्य अंगों का प्राय: पालन नहीं किया जाता है। हाँ! इतना अवश्य है कि आज भी योगाभ्यासी को सात्त्विक एवं सादा भोजन करने की सलाह दी जाती है।
पतंजलि ने यम, नियम आदि की जो व्याख्या की है तथा आसन और ध्यान की बात कही है वह वस्तुत: जैनधर्म में वर्णित पाँच पापों से विरक्ति (व्रत), कषायादि से बचने, आसनपूर्वक सामायिक, धर्मध्यान और कायोत्सर्ग के समकक्ष ही हैं अत: व्रत और उपवास वस्तुत: सामधि प्राप्त करने की दिशा में जाने का प्रयास ही है।
हमारे शरीर में आठ प्रमुख अन्त:स्रावी ग्रंथियाँ पाई जाती हैं। ये हैं-पीयूस, पिनियल, थायोराईड, पेरा-थायोराइड थायमर्स, एंड्रिनल, पैंक्रियाज और प्रजनन। ग्रंथियाँ निरन्तर रस का स्राव करती रहती हैं। इन ग्रंथियों से होने वाला रसस्राव जब तक संतुलित रहता है, मनुष्य स्वस्थ बना रहता है और जब इन स्रावों में असन्तुलन होने लगता है, रोग प्रकट होने लगते हैं। हमारी वृत्तियों और कामनाओं का उद्गम इनके द्वारा ही होता है। हमारा रहन-सहन, चिन्तन-मनन, खान—पान तथा आचार—विचार अन्त:स्रावी ग्रंथियों पर बहुत प्रभाव डालते हैं। व्रत—उपवास द्वारा इन ग्रंथियों को नियन्त्रण में रखा जा सकता है तथा इनसे होने वाले रसस्रावों में सन्तुलन रखा जा सकता है। व्रत—उपवास में भोजन, विचार और मन पर हमारा नियन्त्रण होने लगता है, फलत: शरीर भी स्वस्थ रहता है।
उपवास द्वारा चिकित्सा-मनुष्य को छोड़कर जितने भी प्राणी इस संसार में हैं, उनमें प्राय: एक विशिष्ट बात देखने में आती है। यदि उन्हें कुछ बीमारी हो जाय या कहीं उन्हें चोट लग जाय तो सबसे पहले उनका कदम होता है कि वे अपने भोजन का त्याग कर देते हैं। जब तक वे थोड़े स्वस्थ होना प्रारम्भ न कर दें वे आहार ग्रहण नहीं करते हैं। प्राय: यह देखा गया है कि वे शीघ्र ही ठीक हो जाते हैं लेकिन यदि मनुष्य को कुछ बीमारी हो जाय तो वह दवा के लिए भागता है वह अपने शरीर को प्राकृतिक रूप से ठीक ही नहीं होने देता है। यदि वह वैसा ही करे जैसा बीमारी के समय अन्य पशु-पक्षी करते हैं तो उसे नि:सन्देह लाभ तो होता ही है और यदि साथ में आत्मचिन्तन भी करे तो यह लाभ कई गुना हो जाता है।
एक बात नवजात छोटे बच्चोें में तो देखी गई है यदि उन्हें शरीर में कुछ परेशानी होती है तो वे प्राय: दूध आदि ग्रहण करना नहीं चाहते हैं। यदि कोई उन्हें चम्मच आदि से दूध देने का प्रयत्न करता है तो वे अपना मुँह बन्द कर लेते हैं। लगता है कि वे भी पशु-पक्षियों की तरह शारीरिक परेशानी के समय भोजन ग्रहण नहीं करना चाहते हैं। लेकिन हम बड़ी उम्र के लोग उन बच्चों का जबरदस्ती आहार कराना चाहते हैं।
वस्तुत: मनुष्य का शरीर एक अद्भुत और संपूर्ण यंत्र है। जब वह बिगड़ जाता है तो बिना किसी दवा के अपने आपको सुधार लेता है, बशर्ते उसे ऐसा करने का मौका दिया जाय। अगर हम अपनी भोजन की आदतों में संयम का पालन नहीं करते हैं या अगर हमारा मन आवेश, भावना या चिन्ता से क्षुब्ध हो जाता है तो हमारे शरीर में गंदगी इकट्ठी होने लगती है जो जहर का काम करती है तथा रोगों को पैदा करती है। इस गंदगी को दूर करने में उपवास से हमें बहुत मदद मिलती है तथा मनुष्य स्वस्थ हो जाता है।
जब से प्राकृतिक चिकित्सा की ओर लोगों का रुझान बढ़ने लगा है, तब से अष्टमी-चतुर्दशी के व्रतों का महत्व और अधिक महसूस होने लगा है। इन व्रतों के महत्व को समझने से पहले हम रोग के बारे में प्राकृतिक चिकित्सा के विचारों के बारे में जानें।
इन चिकित्सकों का मत है कि बुखार, खाँसी, उल्टी, दस्त आदि किसी रोगी को होते हैं तो वस्तुत: ये रोग नहीं हैं, रोग के लक्षण हैं। रोग के लक्षण कुछ भी हों, बीमारी की जड़ एक ही होती है और वह है हमारे शरीर में विष द्रव्यों (जहर) का इकट्ठा होना। अब प्रश्न यह है कि आखिर शरीर में जहर आता कहाँ से है ? इसके उत्तर में उनका कहना है कि हम जो कुछ आहार ग्रहण करते हैं एक प्रकार का विषद्रव्य (जहर) भी बनाता है जिसे अंग्रेजी में ऊर्देग्ह (टॉक्सिन) कहते हैं। यह टॉक्सिन रक्त में मिल जाता है तथा शरीर में प्राकृतिक रूप से निर्मित नौ मल द्वारों द्वारा बाहर फेंक दिया जाता है। विष द्रव्य का बनना और उन्हेंं स्वाभाविक रूप से रक्त द्वारा बाहर फेंक देना यह एक प्राकृतिक क्रिया है। यदि शरीर के अन्दर विष—द्रव्य इतनी अधिक मात्रा में जमा हो जायें कि रक्त उन्हें पूरी तरह बाहर न फेंक पाये तो वे शरीर के अन्दर ही इकट्ठे होने लगते हैं और विभिन्न रोगों के रूप में परिलक्षित होते हैं। विषद्रव्यों के जमाव को ऊर्देास्ग् कहते हैं।
आज के औद्यौगिक युग में हम विष द्रव्यों का कई अन्य रूपों में भी सीधा सेवन करने लगे हैं। अशुद्ध हवा, अशुद्ध पानी, खेती में प्रयोग आने वाली विभिन्न रासायनिक खादें, अंग्रेजी दवायें आदि ये सब हमारे शरीर में विष द्रव्य की मात्रा को सामान्य से अधिक कर देते हैं। और जो लोग अंडा, माँस आदि का सेवन करते हैं उनके शरीर में इन विषद्रव्यों की मात्रा और अधिक हो जाती है। अनियमित और अधिक भोजन तो इन्हें बढ़ाता है ही।
आधुनिक चिकित्सक जिन बीमारियों का कारण बैक्टीरिया और वायरस बताते हैं, वस्तुत: उनका मूल भी शरीर के अन्दर होने वाले विष द्रव्यों का जमाव (Toxemia) ही है। यूँ तो वातावरण में अनगिनत बैक्टीरिया और वायरस भरे पड़े हैं। इन्हें हम श्वांस द्वारा, पानी और भोजन द्वारा ग्रहण भी करते रहते हैं लेकिन ये बैक्टीरिया और वायरस उन्हें ही असर करते हैं जिनके शरीर में विष द्रव्यों का जमाव हो। वस्तुत: ये विष द्रव्य ही उन्हें शरीर के अन्दर पैâलने, फूलने और अपनी वंश वृद्धि करने का पूरा मौका देते हैं। यदि इन विष द्रव्यों के जमाव को हटा दिया जाय तो बीमारी ठीक हो जाती है।
इन विष द्रव्यों को दूर करने का सबसे अच्छा उपाय है उपवास करना। उपवास में हम भोजन तो करते नहीं हैं अत: नया विष द्रव्य तो हम शरीर में बनने नहीं देते हैं तथा जो पुराना अतिरिक्त विष द्रव्य बाकी रह गया होता है उसे बाहर निकलने का मौका मिल जाता है।
आयुर्वेद में भी उपवास के महत्व को स्वीकारा गया है। उपवास में आहार का त्याग करने में आमाशय खाली हो जाता है तथा जठराग्नि के रूप में जो ऊर्जा आहार को पचाने में कार्य करती है, उसका उपयोग पाचन तंत्र की सफाई में लग जाता है। जो अतिरिक्त विष द्रव्य शेष रह जाता है उसे जठराग्नि समाप्त कर देती है जिससे रक्त भी शुद्ध होने लगता है तथा शरीर में प्रतिरोध क्षमता बढ़ने लगती है। उपवास शरीर को आरोग्य और शुद्धि प्रदान करता है।
यहाँ यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि जठराग्नि का मुख्य कार्य तो भोजन पचाना है, लेकिन यदि उसे भोजन न मिले तो पहले वह अपनी शक्ति का उपयोग विषद्रव्य को नष्ट करने में लगा देती है। उसके नष्ट हो जाने के पश्चात् भोजन ठीक से पचने लगता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उपवास हमारे शरीर को आरोग्य और शुद्धि प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आजकल की भाग दौड़ की जिन्दगी में तथा फास्ट फूड के जमाने में हम विष द्रव्यों को पहले से अधिक इकट्ठा करते हैं। प्रदूषित वातावरण तथा ऊपर से अंग्रेजी दवायें (जो स्वयं विष होती हैं तथा उनके ऊपर कई बार लिखा भी होता है कि ये विष है, बच्चों से दूर रखो) इन्हें और अधिक बढ़ाते हैं। ऐसी स्थिति में सप्ताह में एक दिन का उपवास आरोग्य की दृष्टि से हितकर ही है। हमारे आचार्यों ने अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास रखने का निर्देश दिया है। संभवत: उनकी भी मूल भावना यही रही होगी कि विष द्रव्यों का जमाव शरीर में न होने पाए। यदि शरीर निरोगी होगा तो ध्यान अच्छी तरह लगाया जा सकता है तथा अन्तर्मुखी हुआ जा सकता है।
कुछ लोग प्राय: यह शंका करते हैं कि यदि उपवास ही रखना है तो अष्टमी और चतुर्दशी को ही क्यों ? किसी और दिन क्यों नहीं ? इस पर कुछ विचारकों ने अपना चिन्तन व्यक्त किया है कि इन दिनों सूर्य और चन्द्र की स्थिति कुछ ऐसी होती है जो हमारी जठराग्नि को मन्द कर देती हैं अत: इन दिनों हम जो भोजन करते हैं वह ठीक से पच नहीं पाता है। और जो मन्द प्रकृति की जठराग्नि उन दिनों होती है वह विषद्रव्य को जला देने के लिए पर्याप्त होती है।
गाँधीजी ने आत्मा और शरीर दोनों को निरोगी रखने के लिए उपवास को बहुत महत्वपूर्ण माना है, उन्होंने उपवास में भोजन त्याग करने के साथ—साथ रामनाम का जाप करने की सलाह भी दी है। यहाँ रामनाम से उनका तात्पर्य था कि यह कुछ भी हो सकता है-ईश्वर, अल्लाह, गॉड या फिर कुछ भी, जिस पर आप श्रद्धा रखते हों। कुदरती (प्राकृतिक) उपचार के दौरान भी भोजन त्याग के साथ-साथ रामनाम जपने से स्वास्थ्य जल्दी से अच्छा होता है। उनका यह विश्वास था कि स्वास्थ्य के बारे में सादे नियमों को पालन करके मानव शरीर, मन और आत्मा को पूर्ण स्वस्थ स्थिति में रखा जा सकता है।
उपवास के दौरान अहंकार आदि के अभाव की बात भी उन्होंने कही है। यदि इन कषायों का त्याग हो, रामनाम का जाप करता हो और भोजन का त्याग कर दिया हो तो निरोगी बनने में बहुत मदद मिलती है। वे लिखते हैं-‘‘ मैं मानता हूँ कि निरोग आत्मा का शरीर निरोग होता है अर्थात् ज्यों—ज्यों आत्मा निरोगी—निर्विकार होती जाती है, त्यों—त्यों शरीर भी निरोग होता जाता है लेकिन यहाँ निरोग शरीर के माने बलवान शरीर नहीं है। बलवान आत्मा क्षीण शरीर में भी वास करती है। ज्यों-ज्यों आत्मबल बढ़ता है, त्यों-त्यों शरीर की क्षीणता बढ़ती है। पूर्ण निरोग शरीर क्षीण भी हो सकता है’’।
यह सर्वविदित है कि गाँधीजी ने स्वयं कई-कई दिनों के उपवास किये थे। इन उपवासों के दौरान उन्हें जो अनुभव हुए उन्हें लोगों के सम्मुख रखा। उन्होंने अपने आत्मचरित ‘सत्य के प्रयोग’ नामक पुस्तक में भी इनकी चर्चा की है।
अनेक चिकित्सकों ने लम्बे समय तक उपवास करने के दौरान होने वाली प्रक्रियाओं का गहन अध्ययन किया। उन्होंने जो अनुभव प्राप्त किये उन्हें संक्षेप में निम्न प्रकार से कहा जा सकता है—
१. भोजन न लेने से पाचन तंत्र को पाचन क्रिया से मुक्ति मिलती है जिससे सम्पूर्ण पाचन तंत्र में शुद्धि का कार्य प्रारंभ हो जाता है।
२. सम्पूर्ण शरीर में अब पोषक तत्व (आहार) न मिलने से रचना कार्य रुक जाते हैं और पूरे शरीर में स्व—शुद्धिकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। डॉ. लिण्डनार के शब्दों में कहें तो पचे हुए आहार का पेशियों में आत्मसात् होना रुक जाता है। जठर और आँतों की अन्तर्त्वचा, जो हमेशा पचे हुए आहार को चूसती है, वह अब जहर को बाहर फेंकने की शुरूआत कर देती है।
३. शरीर में किसी जगह गाँठ या विषद्रव्यों का जमाव हुआ हो तो उपवास के दौरान ऑटोलिसिस (Autolysis) की प्रक्रिया द्वारा वह विसर्जित होने लगता है। उसमें रहने वाला उपयोगी भाग शरीर के महत्वपूर्ण अंगों (हृदय, मस्तिष्क आदि) को पोषण प्रदान करने के काम आता है, जबकि जहर शरीर से बाहर फिंकने लगता है। गाँठों आदि का विसर्जन होने के बाद कम उपयोगी पेशियाँ विसर्जित होकर महत्व के अंगों के पोषण कार्य में उपयोगी होने लगती हैं।
रोग दो प्रकार के होते हैं-तीव्र रोग तथा हठीले रोग। तीव्र रोग अपना असर तुरन्त दिखाते हैं एवं अधिक तीव्रता के साथ प्रकट होते हैं जब कि हठीले रोग सालों साल चलते हैं। दोनों प्रकार के रोगों से मुक्त होने के लिए उपवास लाभदायक होते हैं। अलग-अलग तरह के बुखार, दस्त, सर्दी, जुकाम जैसे रोग तीव्र होते हैं; इन रोगों की स्थिति में उपवास जरूरी ही नहीं, बल्कि अनिवार्य माना गया है। हठीले रोगों में भी उपवास से लाभ होना देखा गया है। यह कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं जिनका वैज्ञानिकों / चिकित्सकों ने स्वयं निरीक्षण किया है-
१. क्षय रोग में उपवास से फेफड़ों को बहुत लाभ होता है तथा फेफड़े ठीक हो जाते हैं। फेफड़ों के रोगों में थोड़े दिन का उपवास बहुत लाभकारी होता है।
२. उपवास से हृदय को खूब शक्ति मिलती है तथा हृदय मजबूत होता है।
३. उपवास से हृदय का बोझ हल्का हो जाता है तथा उच्च रक्तचाप निश्चित ही कम हो जाता है।
४. उपवास से जठर को खूब आराम मिलता है और स्वयं ठीक होने लगता है। इससे पाचन सुधरता है, पैâला हुआ जहर संकुचित होकर स्वाभाविक स्थिति में आ जाता है, अल्सर मिट जाता है, सूजन और जलन दूर हो जाती है।
५. वैंâसर जैसे रोगों को भी उपवास द्वारा ठीक करने के कई उदाहरण मिलते हैं।
६. दमा, सन्धिवात, आधाशीशी, अतिसार, दाद, खाज, पौरुष ग्रंथि की वृद्धि, जननेन्द्रिय के रोग, लकवा, मूत्र पिण्ड के रोग, पित्ताशय की पथरी, छाती की गाँठ, बाँझपन आदि को भी उपवास द्वारा ठीक करने के कई उदाहरणों को डा. एच.एम.शेल्टन ने अपनी पुस्तक Fasting can save your life में लिखा है।
७. श्री गिदवाणी ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है कि अपने आहार को नियन्त्रित अथवा कम करने से घुटने के दर्द तथा आँख की खुजली को ठीक करा जा सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न रोगों के उपचार में उपवास का बहुत महत्त्व है। रोग होने पर उपचार करना एक बात है और कुछ ऐसे उपाय करना जिससे रोग ही उत्पन्न न हो दूसरी बात है। एक कहावत है-“Precaution is better than cure” इलाज से अच्छा सावधानी है अत: अपने शरीर को निरोगी बनाये रखने के लिए समय-समय पर उपवास करते रहना चाहिए।
उपवास के पश्चात् हमें एक विशेष बात का ध्यान रखना चाहिए। उपवास तोड़ने पर हमें तुरन्त खाने पर टूट नहीं पड़ना चाहिए बल्कि बहुत ही हल्के भोजन के साथ ही उपवास तोड़ना चाहिए। यदि उपवास अधिक दिनों का है तो पहले हल्के पेय पदार्थ, जैसे-फलों के रस आदि, फिर दाल या दलिया का सूप या खिचड़ी आदि लेना चाहिए। फिर क्रमश: हल्के और कम भोजन से प्रारंभ करके सामान्य भोजन पर आना चाहिए। यदि कोई अधिक दिनों के उपवास के पश्चात् सीधे सामान्य भोजन पर उतर आता है तो उसे लाभ होने के बजाय हानि होने की पूरी संभावना होती है।
कुछ समाजशास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों ने व्रत और उपवास का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया है। उनका मानना है कि पर्व, व्रत और उपवास मनुष्य मन पर एक सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। ये मानव की मनोवृत्तियों एवं विचारधाराओं में परिवर्तन लाते हैं। ये मन को शुद्ध करने के सशक्त साधन हैं।
कई व्रतों से सम्बन्धित कुछ प्रेरणादायक कथायें जुड़ी रहती हैं। जब हम इन कथाओं को प़ढ़ते हैं तो हमारे भाव भी शुभ कार्यों की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं। कुछ व्रत-कथाओं में वर्णन आता है कि व्रतों का ठीक प्रकार से पालन किया जाय तो वे स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाले होते हैं। इस प्रकार इन कथाओं से इच्छित फल प्राप्ति के लिए व्रत-उपवास करने की प्रेरणा मिलती है।
इस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि आरोग्य एवं रोगमुक्ति के लिए भी व्रत और उपवास का बहुत महत्व है। साथ ही पारलौकिक सुख, शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति में भी ये बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। यदि कोई इनके बारे में अधिक खोजबीन करे बगैर मात्र श्रद्धावश सम्यक् प्रकार से व्रत-उपवास करता है तो भी उसका शरीर तो निरोगी बनेगा ही, साथ में वह स्वयं अनन्त सुख प्राप्त करने का अधिकारी भी बनता है।