पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का व्यक्तित्व आदर्श क्यों है ?
प्रिय पाठक बंधुओं! शरदपूर्णिमा के पावन अवसर पर पूरे देश ने जैन समाज की अमूल्य निधि पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के त्याग की षष्ठीपूर्ति एवं ७९वीं जन्मजयंती को विशेष हर्षोल्लाासपूर्वक मनाया है। इसी संदर्भ में यहाँ मैं भी अपनी विनयांजलिस्वरूप पूज्य माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको किञ्चित् परिचित कराना चाहता हूँ।
किसी भी परिस्थिति को बदलने के लिए विचारों में नई ऊर्जा एवं क्रांति की आवश्यकता होती है। इस शृँखला में इस बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में सर्वप्रथम युग के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज का जन्म भारत की धरती पर हुआ और उन्होंने जैनधर्म एवं संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और विकास हेतु समाज के मध्य ऐसे विचारों को प्रवाहित किया, जिसके बल पर जैनधर्म का दिगम्बरत्व अपना धर्म संरक्षण प्राप्त करके आगम परख बन सका।
उन महामुनि की सूझ-बूझ और चिंतन अद्भुत होने के साथ दूरगामी शुभ संकेतों को प्रदर्शित करता था, यही कारण रहा कि उनके विचारों ने समाज को अत्यन्त प्रभावित करके अपने अनुरूप नई गति प्रदान की, जिसका परिणाम यह रहा कि साधु समाज हो या श्रावक समाज हो, सभी के जीवनवृत्त को प्राचीन जैनधर्म, संस्कृति के आधार पर नई रेखाओं ने अभिसिंचित किया और प्राचीन परम्परा, मान्यता व संस्कृति जीवन्त हो गई, ऐसे महापुरुष यथा-कदा जन्म लेते हैं, जिनके आश्रय से देश और समाज को नई दिशा प्राप्त होती है और विकास का क्रम आसमान को छूता है।
जैन समाज का यह अत्यन्त सौभाग्य रहा कि इसी बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी के संक्रमण काल में एक और महान आत्मा का जन्म इस धरती पर हुआ और उन्होंने जैन, संस्कृति के उत्थान हेतु सारे देश में अद्भुत अलख जगाकर श्रावकों को अपने कर्तव्यों से परिचित कराया, विस्मृत होते प्राचीन तीर्थों की स्मृति को पुर्नस्थापित किया और कठिन परिश्रम के साथ अपनी लेखनी से पुष्पदंत और भूतबली जैसे महान आचार्यों का युग दिखाने का भी सत्प्रयास किया। वे महान आत्मा हुर्इं ‘‘युगप्रवर्तिका, चारित्रचन्द्रिका, सिद्धान्तचव्रेश्वरी, गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी’’।
पूज्य माताजी ने अपने जीवन काल में जो भी लक्ष्य बनाया, उन लक्ष्यों ने न सिर्फ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समाज के बीच स्थापित किया, अपितु समस्त श्रावक समाज व संस्कृति को भी इस सदी के बहुमूल्य लाभ प्राप्त हुए। साथ ही पूज्य माताजी के जीवन में अप्रत्याशितरूप से कुछ घटनाएँ भी ऐसी हुई, जिनके कारण समाज को सदैव महान गौरव और स्वर्णिम इतिहास देखने का अवसर प्राप्त हुआ है। ये अप्रत्याशित घटनाएँ कुछ इस प्रकार हैं-
(१) जन्म एवं वैराग्य की तिथियों का अद्भुत संयोग
अपनी जन्मतिथि ‘शरदपूर्णिमा’ के दिन ही पूज्य माताजी ने सन् १९५२ में वैराग्य का पथ अपनाकर समस्त गृहबंधन आदि का त्याग किया और आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत तथा सप्तम प्रतिमा के व्रत स्वीकार करके उन्होंने अपने मनुष्य जीवन को सार्थक कर लिया।
देवयोग से यह संयोग अनायास ही बन गया, क्योंकि पूज्य माताजी स्वयं भी नहीं जानती थीं कि उनकी जन्मतिथि भी शरदपूर्णिमा ही है। इस संयोग की बात उनकी माँ ने व्रत लेने के उपरांत स्वयं ही बताई।
(२) उत्कृष्ट वैराग्य भावना
बाराबंकी (उ.प्र.) में सन् १९५२ में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज की केशलोंच सभा के मध्य कु. मैना के रूप में पूज्य माताजी ने स्वयं ही दर्शक दीर्घा में बैठे-बैठे अपना भी केशलोंच प्रारंभ कर दिया और १८ वर्ष की उम्र में ही दीक्षा की ओर कदम बढ़ा दिये। वैराग्य भावनाओं का उत्कृष्ट उदाहरण इस घटना से अधिक और क्या हो सकता है।
(३) प्रथम कुंवारी कन्या का वैराग्य मार्ग में प्रवेश
इस बीसवीं सदी में गुलामी और आजादी की चल रही लड़ाई जैसे विकट माहौल में पूज्य माताजी द्वारा सर्वप्रथम कुंआरी कन्या के रूप में अल्पायु में ही मोक्षमार्ग पर कदम बढ़ाने का इतिहास भी उनकी उत्कृष्ट वैराग्य भावनाओं के फलस्वरूप स्वर्णाक्षरित हो गया। पुन: यहीं से अन्य कुंआरी कन्याओं के लिए भी मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सका।
(४) ज्ञान का अद्भुत क्षयोपशम
लौकिक शिक्षा अर्थात् जैन स्कूल में मात्र प्राइमरी कक्षा तक अध्ययन किया लेकिन ज्ञान के उत्कृष्ट क्षयोपशम के आधार पर हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, मराठी जैसी भाषाओं पर अधिकार प्राप्त करके जैनधर्म के अनेकश: कठिन से कठिन दुरूह ग्रंथों का स्वयं अध्ययन किया और निष्णातरूप से आद्योपांत ग्रंथों के मर्म को समझकर अपने शिष्य-शिष्याओं तथा अनेक मुनि-आर्यिकाओं को भी गुरु आदेश के अनुसार गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, कातंत्र रूपमाला, अष्टसहस्री, नियमसार, समयसार, पंचास्तिकाय, राजवार्तिक, मूलाचार आदि महान ग्रंथों का अध्यापन भी कराया।
(५) साहित्य सृजिका के रूप में इतिहास की प्रथम आर्यिका माता
चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के उपरांत २६०० वर्षों के अंतराल में पूज्य माताजी एक ऐसी प्रथम महिला साध्वी हैं, जिन्होंने ग्रंथ लेखन का कार्य किया है। अनेक प्राचीन ग्रंथागारों व पाण्डुलिपि भण्डारों में कोई ऐसी पाण्डुलिपि प्राप्त नहीं हो सकी, जिसका लेखन किसी आर्यिका अथवा महिला के द्वारा किया गया हो अपितु प्राचीनकाल के समस्त ग्रंथों, पाण्डुलिपियों में किसी आचार्य अथवा पुरुष विद्वानों द्वारा ही लेखन का इतिहास प्राप्त होता है।
ऐसे अनूठे इतिहास को भी पूज्य माताजी द्वारा अनायास ही रचा गया और उन्होंने अपने जीवनकाल में जिनेन्द्र भगवान के १००८ गुणों में अनुराग करते हुए सर्वप्रथम सन् १९५५ म्हसवड़-महाराष्ट्र में जिनसहस्रनाम स्तोत्र की रचना करके अपनी लेखनी का शुभारंभ किया।
पुन: इसके पश्चात् उनकी लेखनी से चारों अनुयोगों के अनेकानेक ग्रंथों का सूत्रपात हुआ। इनमें षट्खण्डागम ग्रंथ की १६ पुस्तकों पर संस्कृत भाषा में सिद्धान्तचिंतामणि टीकाओं का लेखन, अष्टसहस्री जैसे अत्यन्त कठिन न्याय ग्रंथ के भाग १-२-३ की भाषा टीका, नियमसार प्राभृत ग्रंथ की संस्कृत-हिन्दी टीका का लेखन, मूलाचार भाग १ व २, ज्ञानामृत, कातंत्र रूपमाला व्याकरण, गोम्मटसार जीवकाण्ड सार, कर्मकाण्ड सार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह आदि अनेक आगम ग्रंथों का लेखन/टीका/अनुवाद/संकलन आदि अत्यन्त सरल भाषा में स्वाध्यायी महानुभावों के लिए प्रदान किया।
इसके साथ ही भक्तिमान श्रावकों के लिए इन्द्रध्वज मण्डल विधान, कल्पद्रुम मण्डल विधान, सिद्धचक्र मण्डल विधान, सर्वतोभद्र मण्डल विधान, त्रैलोक्य विधान, तेरहद्वीप विधान, जम्बूद्वीप मण्डल विधान, विश्वशांति महावीर विधान, तीनलोक विधान आदि विधानों की रचना तथा युवा व नव पीढ़ी के लिए बालविकास, जैन बाल भारती तथा आटे का मुर्गा, जीवनदान, भरत का भारत, परीक्षा-जैन रामायण, प्रतिज्ञा आदि जैसे उपन्यासों की रचना की।
इस प्रकार ऐतिहासिक रूप में उनकी कलम से २७५ से अधिक ग्रंथों का सृजन संस्कृति संरक्षण की दिशा में किया गया। इन ग्रंथों की प्रतिवर्ष लाखों-लाख प्रतियाँ प्रकाशित हो रही हैं, जो जैनधर्म की अद्भुत धर्मप्रभावना में महान सहकारी हैं।
(६) कालजयी रचनाओं की प्रदात्री
कालजयी रचनाओं के रूप में पूज्य माताजी द्वारा लिखित नवदेवता पूजा आज देश के प्रत्येक जैन श्रावक द्वारा प्रतिदिन प्रात:काल नित्य पूजा में की जाती है। इस पूजा से भक्तों को कितनी उत्कृष्ट भावविशुद्धि प्राप्त होती होगी इसकी कल्पना इसकी प्रसिद्धि से स्वयं की जा सकती है। साथ ही पूज्य माताजी द्वारा कन्नड़ भाषा में रचित ‘‘बारह भावना’’ भी ऐसी ही रचना सिद्ध हुई है, जो विगत ४६ वर्षों से प्रत्येक दक्षिण प्रान्तीय जैन कन्नड़भाषियों के कंठ को पवित्र कर रही है और सभी को यह रचना कंठस्थ याद रहती है।
(७) तीर्थंकर जन्मभूमियों का विकास
पूज्य माताजी ने सदैव अपने जीवन में जो लक्ष्य बनाया है, उसकी सफलता हेतु उन्होंने इतना अधिक प्रयास किया कि उस प्रत्येक लक्ष्य की पूर्ति समाज के लिए स्वर्णमयी बनकर महान उपकारी सिद्ध हो गई।
उन्होंने साहित्य लेखन का लक्ष्य बनाया और वर्तमान में उनकी लेखनी से जैन दर्शन व सिद्धान्त के ऐसे अद्भुत लेखन कार्य सम्पन्न हुए, जिनको यह समाज युगों तक भुला नहीं सकता।
इसी प्रकार उन्होंने अपने जीवन में तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों के विकास का लक्ष्य बनाया और वे इस लक्ष्य में इतनी सफल हुई कि जिसकी कल्पना करके मानों विश्वास नहीं होता है कि यह केवल एक साध्वी की प्रेरणा का प्रतिफल है। भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की जन्मभूमि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप तीर्थ का निर्माण आज सारे देश में तीर्थों के माथे पर तिलक के समान जगमगाता है और इसे तीर्थशिरोमणि के रूप में समाज पूजती है।
जम्बूद्वीप जैसे आदर्श तीर्थ की वृहद् कल्पना को संजोना और योजनाबद्ध तरीके के साथ उसके विकास का पल-पल स्वर्णिम बनाना, यह पूज्य माताजी की दूरदृष्टि, आगमनिष्ठता एवं जैनधर्म में विज्ञान के प्रति विशेष अभिरुचि को प्रदर्शित करता है। तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास की शृँखला में ही आपकी दृष्टि अयोध्या जैसे शाश्वत तीर्थ पर पड़ी और वर्तमान में भगवान ऋषभदेव आदि ५ तीर्थंकरों की उस जन्मभूमि का नाम राम जन्मभूमि के साथ ही भगवान ऋषभदेव जन्मभूमि के नाम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गुंजायमान होता है।
पुन: वहाँ प्रथम टोंक पर विशाल जिनमंदिर का निर्माण किया जाना एवं अनंतनाथ भगवान की टोंक पर नूतन जिनमंदिर का शिलान्यास होना भी आपका पुण्य प्रताप एवं लक्ष्य सिद्धि का सूचक है। इसी प्रकार भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) बिहार के विकास हेतु पूज्य माताजी के मुख से उद्घोष किया जाना समाज के लिए विशेष जागृति का केन्द्र बना और मात्र २६०० वर्षों में देखते ही देखते जीर्ण-शीर्ण होती वर्तमान शासनपति भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि का मात्र २२ वर्षों में ऐतिहासिक विकास कार्य सम्पन्न हुआ और बिहार सरकार का पर्यटन विभाग भी वहाँ बने नंद्यावर्त महल जैसी प्रतिकृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।
इसी शृँखला में वर्तमान में भगवान महावीर स्वामी की प्रथम देशनाभूमि के रूप में विख्यात राजगृही की प्राचीनता को भी पूज्य माताजी ने प्रकाशित करते हुए समाज को यह बताया कि राजगृही तीर्थभूमि को भगवान महावीर स्वामी से लगभग १२ लाख वर्ष पूर्व हुए २०वें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि होने का भी गौरव प्राप्त है।
इस विशेष निर्देश के साथ पूज्य माताजी की प्रेरणा पर राजगृही में मुनिसुव्रतनाथ की विशाल प्रतिमा से समन्वित सुन्दर कमल मंदिर भी निर्मापित किया गया। आपके विशेष सान्निध्य एवं आशीर्वाद में अनेक वर्षों से अड़चनों को प्राप्त हो रही भगवान श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि सिंहपुरी-सारनाथ में भी भगवान की विशाल प्रतिमा का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव जनवरी २००५ में सानंद सम्पन्न हुआ और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जन्मभूमि सिंहपुरी-सारनाथ में गौरव के साथ जैनत्व का विकसित दृश्य समाज के बीच उपस्थित हो सका।
आगे, ९वें तीर्थंकर भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि का विकास कार्य पूज्य माताजी की प्रेरणा पर सम्पन्न हुआ और प्राचीन मंदिर की ऐसी मूलवेदी जिसकी समस्त जिनप्रतिमाएं ही दुर्भाग्यशाली लोगों द्वारा अपहृत कर ली गई हो, ऐसी उस जीर्ण-शीर्णता को प्राप्त जन्मभूमि काकंदी (देवरिया-निकट गोरखपुर) उ.प्र. में ९ फुट उत्तुंग विशाल प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करके भव्य जिनमंदिर व कीर्तिस्तंभ का निर्माण किया गया।
इस प्रकार नितप्रति ही पूज्य माताजी समाज को तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास की प्रेरणा प्रदान करती रहती हैं और निकट भविष्य में ही अन्य जन्मभूमियों का विकास भी सम्पन्न होगा, इस बात के लिए हम पूर्ण आशान्वित हैं।
(८) युगादि तीर्थ भूमि पर विकास का कदम
युगादि तीर्थभूमि, जिसका गुणगान तो परे ही सही, जिसकी तरफ समाज के किसी व्यक्तित्व व साधुओं का ध्यान भी नहीं गया हो, ऐसी युग की प्रथम तीर्थभूमि प्रयाग-इलाहाबाद का विकासकार्य होना निश्चित ही पूज्य माताजी जैसी महान दृष्टि को धारने वाली विरली साधिका ही हो सकती हैं।
इस युग के प्रथम तीर्थंकर जिन्होंने इस युग में जैनधर्म का प्रवर्तन किया, ऐसे भगवान श्री ऋषभदेव जी ने प्रयाग-इलाहाबाद में दीक्षा ली थी, प्रयाग में ही उन्होंने युग का प्रथम केशलोंच किया था, प्रयाग में ही उन्हें केवलज्ञान हुआ था, प्रयाग में ही उनका दिव्य समवसरण रचा गया था और प्रयाग में ही उनकी सुपुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी को युग की प्रथम आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था
ऐसी अत्यन्त प्राचीन एवं महान तीर्थभूूमि का विकास पूज्य माताजी की प्रेरणा पर सम्पन्न हुआ और ‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ’ का निर्माण करके कैलाशपर्वत की भव्य प्रतिकृति, समवसरण जिनमंदिर, भगवान ऋषभदेव दीक्षा मंदिर आदि बनाये गये। पूज्य माताजी के जीवन का यह आदर्श चिंतन समाज में प्रत्येक श्रावक और साधुओं को प्राचीन तीर्थभूमियों की स्थिति और विकास की ओर दृष्टिपात करने के लिए विशेष प्रेरित करता है।
(९) आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती को पूर्ण करने वाली प्रथम साधिका
बीसवीं-इक्कीसवीं सदी में समस्त दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों के मध्य पूज्य माताजी ऐसी प्रथम साध्वी हुर्इं, जिन्होंने अपने मूल आर्यिका दीक्षा जीवन काल के स्वर्णिम ५० वर्षों को सर्वप्रथम पूरा किया।
पूज्य माताजी ने सन् १९३४ में टिकैतनगर (बाराबंकी) उ.प्र. में जन्म लिया पुन: सन् १९५२ में गृहत्याग करके आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत व सप्तम प्रतिमा के व्रत धारण किए, सन् १९५३ में महावीर (राज.) में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा प्राप्त की और सन् १९५६ में माधोराजपुरा (जयपुरा) राज. में आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के करकमलों से आर्यिका दीक्षा के व्रतों को धारण किया।
अत: सन् २००६ में आपकी आर्यिका दीक्षा का स्वर्ण जयंती महोत्सव देश में प्रथम बार विशाल स्तर पर आयोजित हुआ, जिसमें समाज के सभी गणमान्य महानुभावों तथा हजारों-हजार श्रद्धालुओं ने भाग लेकर महान पुण्य अर्जित किया।
(१०) अपनों को सिखाया वैराग्य
माँ मोहिनी से जन्म लेकर पुन: वैराग्य पथ की ओर स्वयं कदम बढ़ाना और फिर अपने साथ अन्य छोटे भाई-बहनों को भी मोक्षमार्ग के लिए प्रेरित करके उनका प्रवेश वैराग्य पथ पर कराना, इतना ही नहीं स्वयं अपनी जननी माँ को भी पूर्व में दी गई वचनबद्धता के साथ स्वयं केशलोंच करके पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज द्वारा आर्यिका दीक्षा के संस्कारों से संस्कारित कराना आपके जीवन का महत्वपूर्ण आदर्श रहा है।
(११) प्रत्येक कार्य की हुई सिद्धि और प्रसिद्धी
पूज्य माताजी के जीवन में बने किसी भी छोटे या बड़े लक्ष्य की सम्पूर्ति इतनी उचित योजना-संयोजना के साथ कार्यकुशलतापूर्वक सम्पन्न हुई कि प्रत्येक लक्ष्य की सिद्धि कार्य से पूर्व ही अवश्यंभावी सिद्ध हो गई और सफलतापूर्वक उनके हर लक्ष्य अत्यन्त प्रसिद्धि को प्राप्त हुए।
उदाहरणार्थ-जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति रथ प्रवर्तन, भगवान ऋषभदेव समवरण श्रीविहार रथ प्रवर्तन, भगवान महावीर ज्योति रथ प्रवर्तन, जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन, न्यायाधीश सम्मेलन, अनेक शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर, भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव, चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान, विश्वशांति अहिंसा सम्मेलन, विभिन्न तीर्थों का निर्माण, साहित्य सृजन आदि।
(१२) एक सूत्रीय अनुशासन
पूज्य माताजी का एक और महत्वपूर्ण आदर्श गुण हैं-अनुशासनप्रियता। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में शिष्यों को सदा अत्यन्त स्नेह, वात्सल्य देकर उनकी योग्यता का पूर्ण मूल्यावंâन किया और अपने अनुशासन की डोर में सभी को बांधे रखा। इसी कारण से पूज्य माताजी का संघ सदैव एकसूत्रीय अनुशासन की डोर में बंधे हुए मोती माला की तरह अपनी आभा को सदा बिखेरता रहा है।
(१३) अद्भुत जिनेन्द्रभक्ति
पूज्य माताजी के हृदय में व्याप्त जिनेन्द्र भक्ति को आज श्रावक और साधु समाज में अत्यन्त आदर्श स्वरूप माना जाता है। उनके परिणामों की उत्कृष्ट भावविशुद्धि एवं मुखमण्डल से निकलता संयम का तेज पग-पग पर पूज्य माताजी की आत्मा में समाहित जिनमंदिर, जिनप्रतिमाओं और गुरुओं के प्रति अनन्य श्रद्धा एवं समर्पण के संस्कारों को प्रदर्शित करता है।
उनकी त्याग, तपस्या, साधना एवं अद्भुत जिनेन्द्र भक्ति का यह तेज ही आने वाले समस्त श्रद्धालु भक्तों को आध्यात्मिक एवं लौकिक उन्नति प्रदान करने में विशेष वरदान स्वरूप बन जाता है। निश्चित ही ऐसी उज्ज्वल आत्माओं का दर्शन एवं उनकी सन्निधि हमारी आत्मा से असंख्य कर्मों की निर्जरा में निमित्त बनता होगा।
(१४) कभी कोई दान प्रेरणा नहीं दी
पूज्य माताजी का यह उत्कृष्ट आदर्श रहा कि उन्होंने अपने जीवन काल में चाहे जितने भी तीर्थों के निर्माण आदि की प्रेरणा प्रदान की, लेकिन कभी समाज के किसी भक्त को स्वयं दान देने के लिए प्रेरित नहीं किया।
आपने जम्बूद्वीप निर्माण के प्रारंभ में ही अपने शिष्य ब्र. मोतीचंद जी से लिखित पत्र द्वारा यह नियम कराया था कि ‘माताजी! आप केवल हमें रचना के विषय में बताएंगी, लेकिन कभी किसी कार्य की सम्पन्नता के लिए किसी से भी दान के लिए प्रेरणा नहीं देंगी।’ पूज्य माताजी ने पूर्व में ही शिष्यों को कह दिया था कि यदि ‘आप लोगों की हिम्मत होवे, तो कार्य को करना, वरना कभी मुझे किसी श्रावक को पैसे के लिए कहने की बात मत कहना’।
इस प्रकार यह उनकी त्याग-तपस्या का अद्भुत चमत्कार रहा कि उनके द्वारा सोचे गये प्रत्येक कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुए और कभी उन्हें किसी भक्त से दान हेतु कहने की जरूरत नहीं पड़ी। इस नियम के निर्वहन में अवश्य ही उनके शिष्यगण ब्र. मोतीचंद जी (मोतीसागर जी), ब्र. रवीन्द्र कुमार जी (रवीन्द्रकीर्ति जी) व ब्र. माधुरी जी (आर्यिका चंदनामती माताजी) का महान योगदान रहा और उन्होंने गुरुभक्तिपूर्वक अपने कर्तव्यों का सदैव पालन करते हुए पूज्य माताजी की हर योजना को साकार करने में हर संभव प्रयास करके सफलता प्रदान कराई।
(१५) संघ संचालन में कभी किसी संस्था के धन का उपयोग नहीं होने दिया
पूज्य माताजी के अनेक नियमों में एक यह भी अखण्ड नियम सदैव संघ द्वारा पालन किया गया कि संस्थान में किसी भी भक्त द्वारा दिये गये दान की राशि का उपयोग संघ के संचालन में कभी नहीं किया गया। पूज्य माताजी के नियमानुसार सदैव किसी न किसी संघ भक्त श्रावकों द्वारा संघ का संचालन किया गया।
लेकिन किसी संस्थान की कोई राशि कभी संघ के संचालन में खर्च नहीं की गई। इस नियम के पालन में संघस्थ शिष्यों के साथ ही महान गुरुभक्त श्रावकों का महनीय योगदान रहता है।
(१६) वृहद् दृष्टिकोण
पूज्य माताजी ने यथाशक्ति अपने धर्मसूर्य का प्रकाश जैन समाज के अतिरिक्त सम्पूर्ण जन समाज में भी फैलाने का उत्तम प्रयास किया और जैन चिंतन धारा से जैनेतर साधु समाज एवं भक्तों को भी प्रभावित करने में वे सफल हुर्इं।
मुख्यरूप से इस दिशा में आपने भारत देश के सबसे बड़े अनुष्ठान के रूप में सम्पन्न होने वाले प्रति १२ वर्षीय महाकुंभ प्रयाग-इलाहाबाद के मेले में सन् २००१ में जैन व जैनेतर संत-महंतों का सम्मानजनक समन्वय स्थापित करने का सफल प्रयास किया तथा वहाँ विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित की गई नवम धर्म संसद में आपके मुखारविन्द से लाखों श्रद्धालुु भक्तों एवं संतों की उपस्थिति में जैनधर्म का उद्घोष गुंजायमान हुआ।
इसी प्रकार हरिद्वार के अर्ध महाकुंभ मेले में अपने शिष्यों की उपस्थिति कराकर जैनधर्म की प्रभावना, भगवान ऋषभदेव एवं भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या में अनेक दिग्गज एवं ज्ञानी हिन्दू संतों के साथ जैनधर्म की परिचर्चा एवं प्रभावना करना तथा न्यूयार्क (अमेरिका) में विश्व शांति शिखर सम्मेलन में अपने शिष्य ब्र. रवीन्द्र कुमार जी को जैन धर्माचार्य के रूप में भेजकर जैनधर्म के सिद्धान्तों को विश्वव्यापी जन समाज में प्रचारित-प्रसारित करना पूज्य माताजी का सर्वोपरि आदर्श गुण रहा है, ऐसी सर्वोदयी प्रतिभा सम्पन्न पूज्य माताजी के चरणों में शत-शत नमन।
आर्ष परम्परा की सम्पोषिका एवं संरक्षिका, बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में जैनधर्म की महान उन्नायिका परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के प्रत्यक्ष जीवन दर्शन से संकलित
कतिपय लोक व्यवहारी, आवश्यक एवं महत्वपूर्ण शिक्षाएँ-प्रेरणाएँ
(१) तीर्थंकर भगवन्तों की पंचकल्याणक तिथियों पर विशेष आयोजनों का होना आवश्यक है- उत्सव-महोत्सव की शृँखला में अपने-अपने स्थानीय जिनमंदिरों अथवा तीर्थक्षेत्रों पर जाकर २४ तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मकल्याणक आदि कल्याणक तिथियों पर विशेष आयोजन करना चाहिए। यदि किसी भी तीर्थंकर भगवान का जन्मकल्याणक उनकी साक्षात् जन्मभूमि में जाकर मनाया जाये, तो वह अति उत्तम फल प्रदायक सिद्ध होगा।
(२) पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में भगवान का ‘नाथ’ पूर्वक नामोल्लेख करना उचित है- समाज में कहीं भी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, तब विभिन्न कल्याणकों के समय तीर्थंकर भगवान के नामोच्चार में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए अर्थात् यदि भगवान महावीर का पंचकल्याणक हो रहा है तब जन्मकल्याणक के अवसर पर उनका नाम ‘महावीर कुमार’ उच्चारित नहीं करना चाहिए अपितु तीर्थंकर महावीर स्वामी का उद्बोधन दिया जाना चाहिए।
इसी प्रकार दीक्षाकल्याणक के अवसर पर अनेकश: लोग भगवान के नाम के आगे ‘सागर’ का उच्चारण करने लगते हैं अत: चूँकि तीर्थंकर भगवान तो जन्म से ही तीनलोक के नाथ की उपमा से सुसज्जित होते हैं, जिनके गर्भ में आने के पहले ही सौधर्म आदि इन्द्रों तथा धनकुबेर द्वारा विशेष उत्सव सम्पन्न किया जाता है अत: किसी भी तीर्थंकर के दीक्षाकल्याणक में किसी सामान्य मुनि की तरह नाम में ‘‘सागर’’ लगाकर उनका उद्बोधन करना उचित नहीं है अत: भगवान का नाम ज्यों का त्यों ही दीक्षाकल्याणक के अवसर पर उच्चारित करना चाहिए।
(३) पंचमकाल में भगवान का अभिषेक, पूजन, जाप्य, स्वाध्याय आदि कर्म निर्जरा के प्रबल साधन हैं- इस पंचमकाल में ध्यान साधना करके अपने मन को एकाग्र करना अत्यन्त कठिन होता है अत: ध्यानाग्नि से कर्मों की निर्जरा करने के प्रयास करना उचित है लेकिन बहुलता से सभी को भगवान की पूजा भक्ति, अभिषेक, जाप्यानुष्ठान, स्वाध्याय, स्तोत्र आदि का पाठ, गुरु भक्ति जैसे कार्यों में सदैव निमग्न रहकर शुभोपयोग में अपना समय व्यतीत करना चाहिए, यह इस पंचमकाल में आत्मा को पवित्र करके उत्तम गति दिलाने में मुख्य कारण है।
(४) सदैव निर्धारित लक्ष्य पर केन्द्रित रहना उन्नति एवं सफलता का सूचक है- एक लक्ष्य की पूर्णता होने के पहले ही दूसरे लक्ष्य की योजनाएँ निर्धारित कर ली जाना चाहिए। इससे व्यक्ति का मन-मस्तिष्क सदैव उचित कार्य में निर्धारित लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है अत: स्वयं की उन्नति के साथ परिवार, समाज, देश व संस्कृति की उन्नति में भी हम अपना कुछ सहयोग प्रदान कर पाते हैं।
(५) रात्रि सोने से पहले अत्यन्त आवश्यक है शुभोपयोग- जैनधर्म में निहित कर्म सिद्धान्त के अनुसार आत्मा के साथ कर्मों का आस्रव सदा चला करता है। अत: विशेषरूप से प्रत्येक व्यक्ति को रात्रि में सोते समय सदैव चिंतन के द्वारा तीर्थों-जिनमंदिरों की वंदना, गुरुओं का दर्शन तथा भगवान की भक्ति का स्मरण करना चाहिए, जिससे कि नींद में भी सोते समय शुभ कर्मों का आस्रव हो सके, क्योंकि जैसा चिंतन सोने से पूर्व होता है, वैसे ही स्वप्नों का दर्शन मन के अंदर सुप्त अवस्था में भी देखा जाता है।
(६) बिना सोचे कुछ करना नहीं और इतना भी नहीं सोचना कि कुछ कर ही न पाएँ- किसी भी कार्य को कभी बिना सोचे नहीं करना चाहिए लेकिन उस कार्य को करने के लिए इतना भी नहीं सोचना चाहिए कि वह कार्य ही प्रारंभ न हो सके। अर्थात् थोड़ा सोच-विचार करके कार्य को प्रारंभ कर देना चाहिए।
(७) मंदिर का मूल आधार है ‘मूर्ति’, जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा तीर्थ/ मंदिर विकास से पूर्व की जा सकती है- अक्सर ऐसा होता है कि समाज में जिनमंदिर का व्यवस्थित निर्माण करने के उपरांत ही वहाँ जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई जाती है।
इस विषय में मेरी मान्यता यह रहती है कि भगवान की मूर्ति मंदिर अथवा तीर्थ स्थल पर आने के बाद सर्वप्रथम उस मूर्ति को यथोचित स्थान पर विराजमान करने हेतु व्यवस्था करके उस जिनबिम्ब का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कर दिया जाना चाहिए। पुन: मंदिर के निर्माण में चाहे जितना समय लगे, आगे उसका कार्य किया जाना चाहिए। इससे भक्तों को तीर्थ/मंदिर की पूज्यता का लाभ मिलना प्रारंभ से ही शुरू हो जाता है। अर्थात् मूर्ति को अधिक दिन अप्रतिष्ठित नहीं रखना चाहिए।
(८) सैद्धान्तिक विषयों पर कभी न करें समझौता- अपने सच्चे धर्म, शास्त्र सम्मत मान्यता, परम्परा व सिद्धान्तों में जीवन के किसी भी मोड़ पर समझौता नहीं करना चाहिए। सिद्धान्तवादी व्यक्तित्व की सदैव समाज में प्रतिष्ठा होती है और वह समाज के लिए विशेष प्रेरणादायी बनता है।
(९) बहुत अच्छा करने की महत्वाकांक्षा में समय पर छोटे रूप में भी कार्य न हो पावे, यह उचित नहीं है- किसी भी कार्य को बहुत बड़ा और बहुत अच्छा करने का लक्ष्य बनाना उचित है, लेकिन इस लक्ष्य के साथ ऐसा न हो जाये कि हम वह कार्य छोटे रूप में भी न कर सके और समय व्यतीत हो जाये, इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए। इसलिए ज्यादा बड़े कार्य की अपेक्षा छोटे-छोटे कार्यों से ही अपना कार्य शुरू कर देना चाहिए क्योंकि समय पर सम्पन्न हुआ कार्य अधिक महत्वपूर्ण होता है।
(१०) तीर्थंकर निर्वाणभूमियों के समान तीर्थंकर जन्मभूमियाँ भी महान पूज्य हैं- जहाँ से सम्पूर्ण कर्मों का नाश करके महान आत्माओं ने मोक्ष को प्राप्त किया, उन्हें सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र कहते हैं। वे तीर्थ अत्यन्त महान होते हैं, लेकिन उन महान आत्माओं ने जिस भूमि पर जन्म लिया, वह जन्मभूमि भी उतनी ही पूज्यनीय होती है जितनी कोई निर्वाणभूमि।
क्योंकि जन्म के बिना निर्वाण संभव नहीं हो सकता अत: तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियाँ भी महान पूज्य हैं, इनकी एक नहीं अनेक बार वंदना करना अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। प्राय: सभी तीर्थंकरों ने अपनी जन्मभूमि में दीक्षा ली और जन्मभूमि में ही केवलज्ञान प्राप्त किया है अत: वहीं समवसरण की प्रथम रचना हुई हैं।
(११) सरस्वती पुत्रों का सम्मान आवश्यक है- समाज में आर्ष परम्परानुयायी सरस्वती पुत्रों का सदैव सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि विद्वानों ने सदा ही समाज की रीढ़ बनकर धर्म की प्रभावना, संस्कृति का संरक्षण और सिद्धान्तों के प्रति कटिबद्धता का धर्म निभाया है।
कुछ समय पहले ही जब प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के समय में समस्त दिगम्बर जैन पिच्छीधारियों की कुल संख्या १०० भी नहीं थी, तब ऐसे समय में एवं उससे पूर्व के समय में निश्चित ही विद्वानों ने महान प्राचीन ग्रंथों का लेखन, टीकाकरण, अनुवाद आदि कार्य सम्पन्न करके अपनी आर्ष परम्परा को जीवंत रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और आज भी इस दिशा में तथा विधिविधान, प्रतिष्ठा आदि के क्षेत्र में विद्वानों की भूमिका परम आवश्यक होती है।
अत: समाज के लिए सरस्वती पुत्रों का योगदान एवं उनकी भूमिका सदैव सम्मान की पात्र होना चाहिए।
(१२) आत्म साधना हेतु स्वास्थ्य के प्रति भी सजग रहना आवश्यक है- निश्चित ही हमारी यह पुद्गल काया अजीव द्रव्य है और तीनों लोकों का सम्पूर्ण सार आत्मा में ही केन्द्रित होता है लेकिन मनुष्य जीवन को प्राप्त करके आत्मा को परमात्मा के मार्ग पर लगाने में इस पुद्गल काया का उपकार कभी भूलना नहीं चाहिए। क्योंकि शरीर ही आत्मा को मोक्ष तक की यात्रा कराने का प्रमुख साधन है अत: इस जीवन में स्वास्थ्य के प्रति सदैव सजग एवं अनुवूâल रहने का सत्प्रयास भी रखना चाहिए।
(१३) सदा समय की कीमत अवश्य करना चाहिए- समय बीतते ही बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापा कब आ जाता है, इस बात का यथार्थ ज्ञान व्यक्ति को अपनी अकर्मण्य स्थिति में पता लगता है अत: जब हमारा बल, पौरुष एवं इन्द्रियाँ भली प्रकार कार्यरत हों, तभी से समय की कीमत करना सीखकर प्रतिक्षण धर्म मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने उचित कर्तव्यों के निर्वहन का दृढ़ लक्ष्य मन में रखना चाहिए।
(१४) बीते को भूल जाना और कुछ पाने के लिए आगामी अवसर खो नहीं देना- जीवन के वास्तविक लक्ष्य में बीते समय में प्राप्त सफलता या विफलता महत्वपूर्ण नहीं होती अपितु आगामी पल अर्थात् भविष्य में क्या उचित किया जा सकता है, उसे सोचकर आगे बढ़ना चाहिए। ‘‘जो बीत गया, सो बीत जाने दो, आगे की सुध रखियो’’। यह सोचकर भविष्य में कुछ अच्छा करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
(१५) गतिमान रहना जीवन का लक्ष्य होना चाहिए- चलते रहना जीवन का प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए अर्थात् सदैव अपने मन, वचन, काय की स्थिति को गतिमान रखते हुए नये-नये लक्ष्यों की ओर कितनी भी धीमी गति अथवा तेज गति से, लेकिन सदा बढ़ते रहना चाहिए। एक घटक पर स्थिर हो जाना, हमें जीवन की अनेक ऊँचाईयों एवं उपलब्धियों से वंचित कर सकता है।
(१६) कार्यकर्ता पर अविश्वास और अतिविश्वास, दोनों ही उचित नहीं हैं- किसी भी कार्य को सम्पन्न करने वाले योग्य कार्यकर्ता की योग्यता पर अविश्वास और अतिविश्वास दोनों ही उचित नहीं है। अर्थात् योग्यतानुसार कार्य की जिम्मेदारी सौंपने के उपरांत उस कार्यकर्ता पर विश्वास करके कार्य के प्रति उसका उत्साह वृद्धिंगत करना चाहिए। लेकिन किसी कार्यकर्ता को अति विश्वास करके पूरी बागडोर छोड़ भी नहीं देना चाहिए।
(१७) संस्कृति, समाज व परिवार के उद्धारक पूर्ववर्ती व्यक्तित्वों एवं गुरु को कभी न भूलें- आर्ष परम्परा का संरक्षण करने वाले पूर्वाचार्यों, पूर्ववर्ती विद्वानों, समाजसेवियों एवं कार्यकर्ताओं के प्रति सदैव सम्मान एवं उपकार की भावनाएं समाज में व्याप्त होना चाहिए और विशेषरूप से अपने परम्परा गुरु का गुणानुवाद एवं उनकी कीर्ति को दिग्दिगंत व्यापी करने का सत्प्रयास करना चाहिए।
(१८) अपने धर्म एवं आगम परम्परा के लिए सदा समर्पित रहना आवश्यक है- अपने अहिंसा परमोधर्म: और आगम परम्परा के प्रति सदैव समर्पण भाव रखकर उसके सम्पोषण, विकास एवं उन्नति में अग्रिम भूमिका निभाना चाहिए।
(१९) धर्म की अभिवृद्धि हेतु अन्य भाषाओं का प्रयोग भी उचित है- भाषाओं की महत्ता के आधार पर सदा धर्म, गुरु एवं शास्त्र के वचन आवश्यकतानुसार विभिन्न भाषाओं में अनुवादित कर उनका प्रचार-प्रसार करना चाहिए। विशेषरूप से वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में विख्यात आंग्ल (अंग्रेजी) भाषा का ज्ञानार्जन एवं जैनधर्म की शिक्षाओं, सिद्धान्तों एवं विभिन्न ग्रंथों का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में करके विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार करना चाहिए।
(२०) मन में स्व प्रभावना का लक्ष्य कभी न रक्खें- धर्म, गुरु एवं संस्कृति के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के भावों में इतना समर्पण होना चाहिए कि कभी मन में स्व-अपनी प्रभावना के भाव उत्पन्न न होवे, अपितु सदा धर्म, गुरु और संस्कृति के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उन्हीं की प्रभावना में अपना जीवन न्यौछावर करें।
(२१) धर्म प्रभावना हेतु आधुनिक उपकरणों का उपयोग भी उचित है-” धर्म की प्रभावना यथासंभव करने का प्रयास रखना चाहिए। इसके लिए वर्तमान में उपलब्ध आधुनिक उपकरणों में टी.वी. चैनल, वी.सी.डी., इंटरनेट, कम्प्यूटर आदि के माध्यम से धर्मप्रभावना का यथोचित प्रयास करना चाहिए।
(२२) तर्क विवेचना हेतु प्रथमानुयोग के सच्चे उदाहरणों का उपयोग ही सर्वोचित है- विद्वानों को अपने प्रवचनों-संभाषणों में किसी तर्क को समझाने हेतु समाज के समक्ष आगम ग्रंथों के आधार पर प्रथमानुयोग के वास्तविक उदाहरणों का उपयोग करना चाहिए। काल्पनिक एवं मिथ्या उदाहरणों से धर्म को समझाने का प्रयास करना उचित नहीं है।
(२३) आत्म विकास के लिए आवश्यक है चारों अनुयोगों की ज्ञान प्राप्ति- यद्यपि समयसार आत्मोत्थान का अंतिम सत्य है लेकिन सम्पूर्ण जैन वाङ्मय का ज्ञान प्राप्त करना और नियमित उस ज्ञान के आधार पर अपने जीवन की चर्याओं को निर्धारित करना व अपने आत्मप्रकाश को विकसित करते रहने का प्रयास परम आवश्यक है। इसके लिए चारों अनुयोगों के ग्रंथों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
(२४) शुभोपयोग और ध्यान-चिंतन के लिए परम आवश्यक है जैन करणानुयोग का ज्ञान- दैनिक स्वाध्याय में करणानुयोग के ग्रंथों का अध्ययन आत्म विकास तथा मनन-चिंतन के लिए अत्यन्त सदुपयोगी होता है।
इस संदर्भ में जैन भूगोल का अध्ययन करके नियमित ध्यानपूर्वक मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि के कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयों, अष्टान्हिका में नंदीश्वर द्वीप के शाश्वत जिनमंदिरों, ढ़ाई द्वीप के पंचमेरु पर्वतों व तीनलोक के समस्त जिनबिम्बों का दर्शन करना चाहिए
इससे असंख्य कर्मों की निर्जरा होती है और अपनी आत्मा में चिंतन का अद्भुत विषय प्राप्त होता है। इसी प्रकार निगोद, नरक, मध्यलोक की संरचना, ज्योतिर्लाेक, स्वर्ग, नव ग्रैवेयक, नवअनुदिश, पंच अनुत्तर आदि की व्यवस्थाएँ व साक्षात् मोक्ष का स्थान अर्थात् सिद्धशिला आदि के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करने से मनुष्य जीवन में उचित कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त करके उच्च गति में जाने का भाव बंधता है।
(२५) पढ़कर भूल जाना भी अच्छा है, न पढ़ने की अपेक्षा- मेरी समस्त शिष्यों को यह विशेष प्रेरणा रहती है कि स्वाध्याय अथवा अध्ययन किया हुआ विषय पढ़कर यदि भूल भी गये, तो भी वह व्यर्थ नहीं है, बजाय कि भूलने के भय से पढ़ाई ही नहीं की जाये। वर्तमान में पढ़ा हुआ जैन वाङ्गमय का एक भी अक्षर भले ही इस भव में हमारी स्मृति से बाहर हो जाये, लेकिन कभी न कभी किसी अन्य भव में विकट परिस्थितियों का सामना होने पर कदाचित् पुण्योदय स्वरूप वह पढ़ा हुआ ज्ञान जातिस्मरण बनकर हमें संसार भ्रमण से मुक्ति दिलाने में सहायक बन सकता है।
अत: विषय कितना भी कठिन अथवा गूढ़ हो, जो समझ में आवे या न आवे, उसको भी पढ़ना अवश्य चाहिए, क्योंकि वर्तमान में हमारा यह कृत्य कर्मनिर्जरा में तो अत्यन्त सहायक होता ही है और अन्य भवों में यह ज्ञानोदय कभी भी फलदायी सिद्ध होता ही है।
(२६) फुर्सत की अपेक्षा सदा व्यस्तता का इंतजार होना चाहिए- काम करता आदमी ही भला लगता है, फुर्सत में बैठा व्यक्ति न किसी को अच्छा लगता है और न वह स्वयं उन्नति की दिशा प्राप्त कर सकता है अत: काम करने से भागने का प्रयास कभी उन्नतिदायक नहीं हो सकता है। अत: कोई भी काम करने से कभी बचे नहीं। व्यस्तता हमारे मानसिक एवं शारीरिक संतुलन व विकास के लिए भी परम आवश्यक है।
(२७) गृह के मुख्य द्वार पर अवश्य अंकित होवे णमोकार महामंत्र-” णमोकार महामंत्र अत्यन्त शक्तिशाली मंत्र है। इस मंत्र से चौरासी लाख अन्य मंत्रों की उत्पत्ति बतलाई गई है अत: जितने भी जैन महानुभाव हैं, उन सबको अपने घर के मुख्य द्वार पर, शयन कक्ष के मुख्य द्वार पर या अन्य किसी भी आवश्यक स्थान पर अर्थात् दूकान, ऑफिस, फैक्ट्री आदि के मुख्य द्वार पर णमोकार महामंत्र अवश्य लिखना चाहिए। यह रक्षा कवच मंत्र सदैव किसी भी आपत्ति-विपत्ति में हमें समाधान प्रदान करने की मदद करता है।
(२८) व्यक्तिगत, सामाजिक निर्माण कार्य में जैन चिन्हों का उपयोग अवश्य करें-” अपने घरों, बंगलों, ऑफिस आदि के निर्माण में प्रत्येक जैन व्यक्ति को सदैव खिड़की, दरवाजे, रोशनदान आदि स्थानों पर किसी भी जैन चिन्ह की डिजाइन से समन्वित जाली आदि लगाना चाहिए। जैसे-लकड़ी के दरवाजों पर डिजाइन अथवा खिड़की, रोशनदान में लगने वाले लोहे के जाल में तीनलोक का नक्शा, सुमेरु का नक्शा, स्वस्तिक चिन्ह, भरतक्षेत्र-आर्यखण्ड का नक्शा आदि जैन चिन्ह बनाये जा सकते हैं। दीवारों पर भी इस प्रकार के जैन चिन्हों की कारविंग की जा सकती है।
(२९) किसी भी निर्माण कार्य के शुभारंभ में विधि-विधान एवं यंत्र स्थापना अवश्य करें- मंदिर, मकान, ऑफिस आदि किसी भी निर्माण के समय विधानाचार्य को बुलाकर जैन विधि-विधान अवश्य कराना चाहिए। विशेषरूप से किसी भी नये निर्माण की नींव अथवा नई दीवार, छत आदि के शुभारंभ में जैन रक्षा यंत्र अवश्य रखना चाहिए। यह आध्यात्मिक शक्ति प्रदायक तथा भविष्य में जैनत्व के संरक्षण के हित में रहता है और सभी की रक्षा में निमित्त बनता है।
(३०) पिच्छीधारी दिगम्बर जैन मुद्रा का सदा सम्मान करें- मंदिर में, सड़क पर अथवा किसी धर्मशाला में कोई भी पिच्छीधारी साधु-साध्वी दिखने पर उनके प्रति सदैव सम्मान से माथा झुकाकर यथायोग्य विनयपूर्वक नमन करना चाहिए। क्योंकि मुद्रा सदैव पूज्य होती है।
(३१) आवश्यक है बुराई को गौण करना और अच्छाई को प्रकट करना- जिस प्रकार बुरे समय को भूलकर अच्छा समय याद रखा जाता है, उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति की बुराई को भूलकर सदा उसकी अच्छाई याद रखना चाहिए। ऐसा करने से सकारात्मक कार्यशक्ति बढ़ती है और मानसिक रूप से हमें किसी भी कार्य को प्रगति प्रदान करने में कोई अवरोध नहीं आता है।
(३२) व्यक्ति विशेष की प्रतिभा का सदा मूल्यावंâन करना गुणग्राहकता है- प्रतिभा का सदैव मूल्याकंन किया जाना चाहिए, फिर प्रतिभा चाहे किसी बालक में हो, युवा में हो या किसी भी अन्य वर्ग में। क्योंकि दूसरों की उत्कृष्ट प्रतिभा को जानने, उसकी अनुमोदना करने एवं उसका यथायोग्य सम्मान करने से स्वत: हमें अपनी प्रतिभा विकसित करने का बहुमूल्य अवसर प्राप्त होता है। गुणग्राहकता का यह गुण प्रत्येक व्यक्ति में होना आवश्यक है।
(३३) पाश्चात्य नहीं भारतीय संस्कृति के अनुसार मनाएँ जन्मदिवस आदि विशेष अवसर- लौकिक व्यवहार में बच्चों के जन्मदिन अथवा शादी की सालगिरह आदि को तिथि से मनाना चाहिए, न कि तारीखों से। पुन: इन अवसरों पर केक काटना, मोमबत्ती बुझाना, गुब्बारे फोड़ना जैसी पाश्चात्य परम्परा (काटना, बुझाना, फोड़ना) में कभी विश्वास न रखकर भारतीय संस्कृति पर आधारित लड्डू (मिठाई) बनाना, खाना एवं बाँटना, भगवान के समक्ष दीप समूह को प्रज्ज्वलित करके आरती करना तथा रंग-बिरंगे गुब्बारे फुलाकर उन्हें नील गगन में छोड़ना जैसे शुभ लक्षणी एवं हर्ष प्रदायी कार्य करना चाहिए, ऐसा करना हमारे व्यक्तित्व की धनात्मक ऊर्जा व चिंतन को प्रदर्शित करता है। प्रसन्नता के जितने दिवस अथवा वर्ष बीत गये, उसकी गिनती में एक बढ़ाकर उतने दीपों से भगवान की मंगल आरती करना चाहिए तथा उतने ही फल चढ़ाना चाहिए।
(३४) धार्मिक मंच पर नाटक मंचन हेतु एक ही लिंगधारी पात्रों का चयन करना उचित है- किसी भी धार्मिक मंच पर नाटक के मंचन के दौरान यदि पति-पत्नी का रोल करना होवे, तो सदा एक ही लिंग धारी (लड़का-लड़का या लड़की-लड़की) पात्रों को पति-पत्नी, स्त्री-पुरुष आदि का रोल करना चाहिए। अर्थात् अपनी-अपनी वेशभूषा में दोनों ही तरह के पात्र या तो स्त्री ही होवें या पुरुष ही होवें। क्योंकि किसी स्त्री-पुरुष को पति-पत्नी बना देने से दोष लगता है। यदि सच्चे पति-पत्नी को पति-पत्नी बनाते हैं, तो अति उत्तम है।
(३५) अपने बच्चों के नामकरण हेतु अच्छे अर्थ वाले शब्दों का चयन आवश्यक है- बच्चों के जन्मोपरांत नामकरण करते समय उनके नाम देश के महापुरुषों, तीर्थंकर भगवन्तों अथवा किसी उच्च अर्थ वाले शब्दों/नामोेंं का चयन करना चाहिए। क्योंकि किसी बच्चे का नाम ‘राम’ रखने पर निश्चित ही उसके जीवन में उसे सदा राम का चरित्र याद रखने की इच्छा उत्पन्न होगी और स्वत: ही उसे अपने कार्यकलाप भी सदा उसी अनुरूप करने की प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी।
(३६) अंतर्जातीय, विजातीय एवं विधवा विवाह या पुनर्विवाह न करें, यह आगम विरुद्ध है। जैन समाज में प्राचीनकाल से ८४ जातियाँ प्रचलित हैं। उनमें जन्म लेने वाले सभी जाति के लोगों को अपनी-अपनी जैन जाति में विवाह करना चाहिए। इससे सज्जातित्व की रक्षा होती है। इसके अतिरिक्त कोई भी जैन द्वारा किसी भी जैन जाति के लड़के-लड़कियों के साथ विवाह करना अन्तर्जातीय विवाह कहलाता है। जैन से अतिरिक्त जातियों में विवाह विजातीय विवाह है। पति से तलाक लेकर स्त्री द्वारा दूसरे पुरुष के साथ विवाह करना पुनर्विवाह है तथा विधवा नारी द्वारा दूसरा विवाह करना विधवा विवाह कहलाता है। ये प्राचीन आगम परम्परा के विरुद्ध हैं अत: सज्जातित्व की रक्षा करते हुए ऐसे विवाह संबंध नहीं करना चाहिए, ताकि भविष्य में अपनी कुल-परम्परा में तीर्थंकर आदि महापुरुषों का जन्म होता रहे और सतत मोक्ष परम्परा चलती रहे।
(३७) राजनीति के साथ धर्मनीति उचित है लेकिन धर्मनीति के साथ राजनीति अनुचित है- राजनीति सदैव धर्मनीति से संयुक्त होना चाहिए ताकि कूटनीति न बनने पाए। लेकिन धर्मनीति सदा राजनीति से पृथक् ही होना चाहिए। अन्यथा धर्मनीति विकृत हो जाएगी।
(३८) राजनीति में धर्मनीति के समावेश हेतु धर्म मंच पर राजनेताओं का आगमन आवश्यक है- धार्मिक मंचों पर राजनेताओं को आमंत्रित करना अपने धर्म की प्रभावना का प्रमुख अंग है। राजनेताओं के आगमन पर हम अपने मंच से अपने धर्म की शिक्षा उन राजपुरुषों तक पहुँचा सकते हैं, जिनके प्रयास से शासन-प्रशासन संचालित होता है। हमारी धर्म शिक्षा का एक अंश भी यदि उनकी राजनीति में घुल जाये, तो निश्चित ही राजनीति में धर्मनीति के इस समावेश से नागरिकों, समाज एवं देश का न्यायपूर्ण उत्थान संभव हो सकता है। अत: धार्मिक क्षेत्र में राजनेताओं का आगमन निरर्थक नहीं मानकर सार्थक मानना चाहिए।
(३९) शिक्षाविदों का सदा बहुमान करें- समाज में सदा शिक्षाविदों-डॉक्टर, प्रोफैसर और कुलपति आदि का उचित सम्मान किया जाना चाहिए। क्योंकि विकास के विरले चिंतन की धाराएं इन्हीं के मन-मस्तिष्क में बहती हैं।
(४०) धर्म क्षेत्र में आधुनिक शोध की मान्यता नव पीढ़ी के लिए भ्रामक सिद्ध हो सकती है- वर्तमान में देखा जा रहा है कि आधुनिक शोधकर्ताओं द्वारा प्राचीन सदियों में महान जैनाचार्यों द्वारा लिखित जैन आगम में उल्लेखित साक्ष्यों पर पृथक दृष्टिकोण से शोध करके नई-नई अवधारणाएँ एवं निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाता है, यह कदापि उचित नहीं है। अत: शोध करने वाले शोधार्थियों को प्रस्तावित शोध ग्रंथ का सूक्ष्मता से अध्ययन करके ही लेखनी चलानी चाहिए। जैसे-कुछ लोग ऋषभ जन्मभूमि, राम जन्मभूमि अयोध्या को थाईलैण्ड में कह देते हैं आदि।
(४१) धार्मिक स्थल-तीर्थ-मंदिर की प्राचीन मान्यताओं को कभी न बदलें-” किसी भी धार्मिक स्थल/तीर्थ/मंदिर की परम्पराओं व मान्यताओं को अपनी मान्यतानुरूप बदलना अथवा बदलने का प्रयास करना अनुचित है। प्रत्येक तीर्थ पर प्राचीनकाल से चली आ रही मान्यता अर्थात् बीसपंथ, तेरहपंथ परम्परा सभी को ग्राह्य होना चाहिए।
(४२) संस्कृति संरक्षण हेतु तीर्थों पर लगे शिलालेखों को कभी न हटावें- किसी भी तीर्थ पर लगे प्राचीन शिलालेखों को हटाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। यदि तीर्थ का जीर्णोद्धार भी किया जाये, तब भी उन शिलालेखों को सुरक्षित निकालकर पुन: जीर्णोद्धार के उपरांत यथास्थान लगा देना चाहिए, यही प्राचीन संस्कृति के संरक्षण हेतु हमारा परम कर्तव्य है।
(४३) मूल सिद्धान्तों की रक्षा करते हुए धर्मप्रभावना करना चाहिए-” अपने जीवन में कतिपय सिद्धान्तों के प्रति सदैव कड़ा अनुशासन रखना चाहिए। पुन: उस अनुशासन की सीमा से स्वयं बंधकर रहना चाहिए और अन्यों की भूमिका भी उसी के अनुवूâल स्वीकार्य होना चाहिए।
(४४) शासन जयंती पर्व अवश्य मनाएँ-” प्रत्येक तीर्थंकर भगवन्तों के केवलज्ञानकल्याणक की तिथि को शासन जयंती पर्व के रूप में उद्घोषित करके उल्लासपूर्वक उसका उत्सव-महोत्सव समाज में अवश्य करना चाहिए। विशेषरूप से प्रतिवर्ष फाल्गुन कृ. ग्यारस को युग का प्रथम दिव्यध्वनि दिवस मनाते हुए भगवान ऋषभदेव शासन जयंती पर्व, धर्मविच्छेद काल के उपरांत पुन: उदित हुए धर्म सूर्य के अविच्छिन्न रहने वाले पौष शुक्ला दशमी को भगवान शांतिनाथ शासन जयंती पर्व तथा वर्तमान शासनपति अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का दिव्यध्वनि दिवस श्रावण कृ. एकम् को अवश्य मनाना चाहिए।
(४५) रात्रि विश्राम की अवस्थिति में आवश्यक परिग्रह छोड़कर अन्य परिग्रहों का त्याग करना उचित है- धार्मिक दृष्टिकोण से कोई व्यक्ति किसी कार्य विशेष को करने अथवा नहीं करने के लिए जब कटिबद्ध हो जाता है, तब जैनधर्म के कर्म सिद्धान्त के अनुसार उसके संयम के प्रति पुण्य योग का बंध प्रारंभ हो जाता है। अत: बिना किसी प्रयास के अत्यन्त सरलतापूर्वक एक विशेष नियम का पालन प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है, वह है-रात्रि विश्राम की अवस्थिति में आवश्यक अर्थात् अपने ओढ़ने-बिछाने के परिग्रह को छोड़कर अन्य समस्त परिग्रह का त्याग कर देना। अर्थात् रात्रि सोने के उपरांत तथा उठने से पहले तक के लिए आवश्यक परिग्रह के अलावा अन्य सभी परिग्रह तथा चतुर्विध आहार का भी नियमपूर्वक त्याग कर देना। इस नियमपूर्वक अनायास किसी घटना-दुर्घटना में प्राण निकलने पर समाधिपूर्वक मरण से उच्च गति प्राप्त होती है।
(४६) बच्चों में प्रारंभ से सोने व उठने के समय नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ने के संस्कार अवश्य डालें-” संसारी प्राणी के सदा ही आर्तध्यान और रौद्रध्यान लगा रहता है, लेकिन रात्रि सोते समय एवं प्रात:काल उठते समय ९ बार णमोकार महामंत्र पढ़ने से सम्पूर्ण रात्रि एवं सम्पूर्ण दिवस दोनों ही मांगलिक होते हैं तथा मन मेें सदा शुभ भावों का परिणमन होता है। इससे बुरे कर्मों का आस्रव कम होता है, व्यक्तित्व भी महान बनता है तथा अनिष्ट की संभावना भी समाप्त होती हैं अत: प्रत्येक माता-पिता को अपने घर में बच्चों को प्रारंभ से ही रात्रि सोने व सुबह उठने के समय ९ बार णमोकार महामंत्र पढ़ने के संस्कार अवश्य देना चाहिए।
(४७) रत्नत्रयधारी एवं मोक्षमार्गी जीवों के लिए यह पंचमकाल, चतुर्थ काल की अपेक्षा भी श्रेयस्कर है- पंचमकाल में यद्यपि मोक्ष नहीं जा सकते, लेकिन यह पंचमकाल हम सबके लिए चतुर्थकाल से भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उस चतुर्थ काल के आने पर हम कुछ नहीं कर पाए होंगे, तभी आज तक इस संसार में भटक रहे हैं अत: वर्तमान में इस पंचमकाल में जिन्होंने संयम को धारण कर लिया है तथा सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को प्राप्त कर लिया है, ऐसे मोक्षमार्गी जीवों के लिए चतुर्थ काल की अपेक्षा यह पंचमकाल भी अत्यन्त श्रेयस्कर है अत: हमें इस पंचमकाल में ही भगवान की अत्यधिक भक्ति करके मोक्ष प्राप्ति का पुरुषार्थ अवश्य करते रहना चाहिए।
(४८) शरीर को नौकर मानकर इससे अधिक से अधिक काम लेना चाहिए-” यह शरीर नाशवान है अंत में एक दिन माटी में ही मिल जायेगा अत: जितना अधिक से अधिक कठोर परिश्रम करने की आपमें सामथ्र्य है, उतना कार्य इस शरीर को नौकर मानकर इससे लेना चाहिए। आवश्यक राशन-पानी (भोजन) देकर सदा ही इस शरीर का उपयोग धर्म आदि अच्छे पुरुषार्थ के लिए करते रहना चाहिए।
(४९) पठितव्यं खलु पठितव्यं अग्रे अग्रे स्पष्टं भविष्यति- जैन शास्त्रों का कोई विषय समझ में नहीं आने पर भी उसे एक बार पूरा अवश्य पढ़ना चाहिए। पढ़ने के उपरांत उस विषय से संदर्भित बुद्धि का विकास अपने आप होता है और एक बार, दो बार अथवा तीन बार में वह विषय हमारे गम्य बन जाता है। अत: कोई विषय कठिन महसूस होने पर उससे दूर भागना उचित नहीं है।
(५०) कल्पद्रुम विधान सभी अनुष्ठानों में सर्वश्रेष्ठ है- संसार में तीर्थंकर भगवन्त समस्त पूज्य पुरुषों में सबसे महान और पूज्य हैं, चक्रवर्ती सम्राट् सबसे अधिक वैभवशाली पूजक हैं, उनके द्वारा किया गया महान पूजा अनुष्ठान ‘‘कल्पद्रुम महा विधान अनुष्ठान’’ कहलाता है। सभी श्रावकों को जीवन में एक बार कल्पद्रुम विधान अवश्य करना चाहिए।
मेरी जुबानी शरदपूर्णिमा महोत्सव की कहानी
बीसवीं सदी में जैन समाज की सर्वप्राचीन दीक्षित महासाधिका, लौकिक जीवन के ७८ बसंत सफल करने वालीं तथा वैराग्य जीवन की षष्ठीपूर्ति करके बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में साधुत्व की मिसाल बनने वाली युगप्रवर्तिका चारित्रचन्द्रिका, सिद्धान्तचव्रेश्वरी परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के ७९वें जन्मजयंती एवं ६१वें वैराग्य दिवस के अवसर पर जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा ‘‘शरदपूर्णिमा महोत्सव’’ के अतिविशिष्ट आयोजनपूर्वक गुरुचरणों में भावभीनी अंतरंग विनयांजलि समर्पित की गई।
संस्थान द्वारा त्रिदिवसीय शरदपूर्णिमा महोत्सव का आयोजन दिनाँक २७-२८-२९ अक्टूबर २०१२ को अत्यन्त हर्षोल्लासपूर्वक किया गया। महोत्सव में संस्थान द्वारा भारतवर्ष के समस्त धर्मनिष्ठ गुरुभक्तों को आमंत्रित किया गया तथा जम्बूद्वीप तीर्थ के समस्त जिनमंदिरों व बगिया की एक-एक कलियों को विद्युत साजोसाज के साथ दुल्हन की तरह सजा-धजा कर गुरुभक्ति की उत्तम भावभंगिमा को प्रस्तुत करने का सुन्दर प्रयास किया गया।
इस अवसर पर अनेक गणमान्य विभूतियों एवं विशिष्ट अतिथियों के आगमन से महोत्सव की गरिमा विशेष वृद्धिंगत हुई और वैराग्यमयी इस मंच की सुरभि ने राष्ट्रीय स्तर प्राप्त किया। महोत्सव में २९ अक्टूबर, शरदपूर्णिमा के उज्ज्वल दिवस पर उत्तरप्रदेश सरकार के मंत्रियों ने भी जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर पधारकर पूज्य माताजी की ज्ञानरश्मियों से स्वयं को धन्य करने का अवसर प्राप्त किया।
मुख्य अतिथि के रूप में समाज कल्याण व सैनिक कल्याण कैबिनेट मंत्री माननीय श्री अवधेश प्रसाद जी तथा कृषि राज्य व धर्मार्थ मंत्री माननीय श्री राजा राजीव कुमार सिंह जी तथा सभाध्यक्ष के रूप में श्री जे.के. जैन, पूर्व सांसद-दिल्ली का आगमन हुआ। विशिष्ट अतिथि के रूप में माननीय श्री सुरेश जैन, कुलाधिपति-तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद, माननीय श्री जे.सी. जैन, चेयरमैन-रुड़की इंजीनियंरिंग कॉलेज-हरिद्वार, माननीय श्री कपूरचंद जैन, घुवारा-टीकमगढ़ (म.प्र.) तथा हस्तिनापुर के विधायक माननीय श्री प्रभुदयाल जी ने पधारकर गुरुभक्ति का पुण्य अर्जित किया।
विशेषरूप से इसी अवसर पर विभिन्न प्रतिष्ठित विद्वानों ने भी पधारकर पूज्य माताजी के प्रति अपनी विनयांजलि समर्पित की। महोत्सव में जम्बूद्वीप संस्थान के समस्त पदाधिकारी व सदस्यगणों के साथ ही गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती दीक्षा तीर्थ
माधोराजपुरा (जयपुर) राज.,गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती भक्तमण्डल महाराष्ट्र,अवध प्रान्तीय गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती भक्तमण्डल, गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती जन्मभूमि टिकैतनगर भक्तमण्डल, तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय-मुरादाबाद, णमोकार धाम तीर्थ-सनावद,जैन बाल संघ सरधना तथा दिगम्बर जैन उत्तर प्रान्तीय गुरुकुल-हस्तिनापुर, हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र कमेटी व अन्य स्थानों में जयपुर, दूदू, दिल्ली, पटना, हैदराबाद, भोपाल, खण्डवा, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बड़ौत, खतौली तथा विभिन्न प्रान्तों के अनेक स्थानों से हजारों श्रद्धालुओं ने भाग लेकर पूज्य माताजी के प्रति अपनी गुरुभक्ति समर्पित करके शरदपूर्णिमा के अवसर पर उनका मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।
त्रिदिवसीय महोत्सव में विशेषरूप से विभिन्न पुरस्कार समर्पण, राष्ट्रीय संस्थाओं के अधिवेशन, विनयांजलि सभा, विशेष विभूतियों के सम्मान तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि सम्पन्न हुए। अत: प्रस्तुत है महोत्सव की कहानी अपनी जुबानी-
विभिन्न अधिवेशन आदि कार्यक्रम
२५ अक्टूबर, आश्विन शु. ११ को शरदपूर्णिमा महोत्सव का झण्डारोहण होकर सर्वप्रथम चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के ८९वें आचार्य पदारोहण के उपलक्ष्य में आचार्य शांतिसागर विधान सम्पन्न हुआ तथा आचार्य श्री वीरसागर महाराज के ८९वें मुनि दीक्षा की स्मृति में २६ अक्टूबर को आचार्य वीरसागर पूजा-आराधना हुई।
ज्ञातव्य है कि सन् १९२४ में आश्विन शु. एकादशी को समडोली नगर में श्री शांतिसागर महाराज ने अपने शिष्य क्षुल्लक वीरसागर जी को दीक्षा देकर मुनि वीरसागर बनाया था। उसी दिन शांतिसागर मुनिराज को समाज एवं चतुर्विध संघ ने आचार्य की पदवी प्रदान की थी। चूँकि इससे पूर्व कोई मुनि आचार्य नहीं बने थे, इसीलिए इन्हें प्रथमाचार्य शांतिसागर जी के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार २५-२६ अक्टूबर को दोनों सन्तों के प्रति विनयांजलि समर्पित की गर्ई।
२७ अक्टूबर २०१२, शनिवार
इस दिन सर्वप्रथम प्रात:काल ७ बजे गुरूणांगुरु चारित्रचकव्रर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज तथा पूज्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के प्रति अघ्र्य समर्पण के साथ परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की महापूजा सम्पन्न की गई, जिसमें पूज्य माताजी का गुणानुवाद करते हुए भक्तों ने श्रीफल आदि से समन्वित अघ्र्य समर्पित करके विशेष पुण्य अर्जित किया। मध्यान्हकाल में २ बजे अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन तथा भारतवर्षीय दिगम्बर जैन युवा परिषद के अधिवेशन आयोजित किये गये, जिसका संयुक्त दीप प्रज्ज्वलन पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी तथा संस्थाओं के पदाधिकारियों द्वारा सम्पन्न हुआ।
अधिवेशन में श्रीमती रजनी कासलीवाल (दिल्ली प्रदेश महासभा अध्यक्ष) तथा विशिष्ट अतिथि डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल-पैठण (महामंत्री-मांगीतुंगी मूर्ति निर्माण कमेटी) पधारे तथा सभा की अध्यक्षता स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी ने की।
इस अवसर पर पूज्य माताजीद्वय के उद्बोधन के साथ ही महिला संगठन की राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमती मनोरमा जैन, विकासपुरी-दिल्ली तथा अन्य पदाधिकारियों में श्रीमती निर्मल जैन, न्यू रोहतक रोड-दिल्ली, श्रीमती निगम जैन, रोहिणी-दिल्ली, श्रीमती प्रभा जैन, चांदनी चौक-दिल्ली, श्रीमती पूनम जैन, विकासपुरी-दिल्ली, श्रीमती सुमतिबाई कासलीवाल-पटना तथा युवा परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री श्री बिजेन्द्र जैन, शाहदरा-दिल्ली, दिल्ली प्रदेश कार्याध्यक्ष श्री प्रद्युम्न जैन, ऋषभविहार-दिल्ली, संगठन मंत्री-प्रतिष्ठाचार्य पं. नरेश जैन शास्त्री-जम्बूद्वीप आदि महानुभावों ने पधारकर अपनी-अपनी समितियों की गतिविधियों व उद्देश्यों के बारे में विचार व्यक्त किये। रात्रि में संस्थान द्वारा णमोकार महामंत्र बैंक के लेखकों का सम्मान किया गया,
जिसमें हीरक पदक सहित प्रमाणपत्र, स्वर्ण पदक प्रमाणपत्र तथा रजत पदक वाले प्रमाणपत्र प्रदान करके प्रतीकचिन्ह आदि भेंट किये गये।
२८ अक्टूबर २०१२, रविवार
इस दिन प्रात:काल तीनमूर्ति मंदिर में भगवान आदिनाथ, भरत, बाहुबली की प्रतिमाओं का भव्य पंचामृत मस्तकाभिषेक सम्पन्न हुआ, जिसमें प्रथम कलश एवं अंतिम शांतिधारा का सौभाग्य श्रीमती मनोरमा महेशचंद जैन, विकासपुरी-दिल्ली ने तथा पंचामृत अभिषेक का सौभाग्य श्री सरोज जैन-तह. फतेहपुर (उ.प्र.) ने प्राप्त किया।
पूर्ण कलश डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल-पैठण परिवार तथा फूलमाल का सौभाग्य श्री इन्दरचंद गंगवाल, डोंबीवली-मुम्बई परिवार ने प्राप्त करके पुण्य अर्जित किया। मध्यान्हकाल २ बजे दक्षिण भारत जैन सभा एवं भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के अधिवेशन सम्पन्न हुए। इस अवसर पर सर्वप्रथम आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के चित्र का अनावरण श्री राजाभाऊ पाटनी-नासिक द्वारा, दीप प्रज्ज्वलन श्री विजय कुमार पाटनी-घाटनांद्रा वाले, औरंगाबाद द्वारा तथा मंगलाचरण आर्यिका श्री सुव्रतमती माताजी द्वारा किया गया।
विशेषरूप से इस अवसर पर दक्षिण भारत जैन सभा के चेयरमैन प्रो. डी.ए.पाटिल-सांगली (महा.) व श्री जे.बी. चौगुले तथा भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री निर्मल कुमार सेठी-दिल्ली, महामंत्री श्री प्रकाशचंद जैन बड़जात्या-चेन्नई, कार्याध्यक्ष-तीर्थ संरक्षिणी महासभा श्री मणीन्द्र जैन-दिल्ली, वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री-तीर्थ संरक्षिणी महासभा श्री पवन जैन तथा जैन राजनैतिक चेतना मंच के महानुभाव ने अपने-अपने वक्तव्य के माध्यम से सभी संस्थाओं के कार्यकलाप आदि के बारे में विशेष जानकारी प्रस्तुत की।
इस दिन रात्रि में विनयांजलि सभा का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न विद्वानों में डॉ. अनुपम जैन-इंदौर, डॉ. भागचंद जैन ‘भागेन्दु’-दमोह, पं. खेमचंद जैन-जबलपुर, प्रो. टीकमचंद जैन-दिल्ली, पं. पदमचंद जैन-साहिबाबाद, पं. शिखरचंद जैन साहित्याचार्य-सागर, पं. शीतलचंद जैन-ललितपुर, श्री आर.के. जैन, वास्तु शास्त्री-मुम्बई, डॉ. देव कुमार जैन-रायपुर, पं. विजय जैन-मुम्बई, ब्र. पं. सुनील जैन शास्त्री आदि ने पधारकर पूज्य माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए विनयांजलि प्रस्तुत की।
२९ अक्टूबर २०१२, शरदपूर्णिमा, सोमवार
इस दिन प्रात:काल ७.३० बजे से पारस चैनल पर सीधा प्रसारण के माध्यम से पूज्य माताजी की जन्मजयंती महोत्सव का कार्यक्रम प्रसारित किया गया। सभा का शुभारंभ आर्यिका श्री सुदृढ़मती माताजी के मंगलाचरणपूर्वक हुआ। विशेषरूप से इस अवसर पर संस्थान द्वारा आह्वान पर भक्तों में पूज्य माताजी के करकमलों में शास्त्र भेंट करने की होड़ लग गई और अनेक भक्तजन जो जम्बूद्वीप न पधार सके, उन्होंने भी घर बैठे ही पारस चैनल पर कार्यक्रम को देखकर पूज्य माताजी को शास्त्र भेंट का सौभाग्य प्राप्त किया।
विशेषरूप से इस दिन दिगम्बर जैन महासमिति का अधिवेशन सम्पन्न हुआ, जिसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सुकुमालचंद जैन-देहरादून, महामंत्री श्री विपिन कुमार जैन-मेरठ, विशिष्ट सदस्य श्री दयाचंद जैन-जगवार तथा महासमिति पत्रिका के प्रधान सम्पादक-श्री नवनीत जैन-मेरठ ने पधारकर महासमिति के बारे में जानकारी प्रदान की।
विशेषरूप से इस अवसर पर प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की प्रेरणा से महामंत्री महोदय ने महासमिति के सभी साठ हजार सदस्यों का एक महा अधिवेशन हस्तिनापुर में करने हेतु तथा पूज्य माताजी के सान्निध्य में महासमिति के संस्कार शिविर आयोजित करने हेतु प्रयास की घोषणा भी की।
इस अवसर पर प्रात: १०.३० बजे रथ एवं ऐरावत हाथी पर भगवान को विराजमान करके बाजे-गाजे के साथ विशाल शोभायात्रा निकाली गई, जिसमें पधारे सैकड़ों श्रद्धालुओं ने भाग लेकर आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति की। मध्यान्हकाल में १ बजे से महोत्सव की मुख्य विनयांजलि सभा का आयोजन किया गया, जिसका मंगलाचरण आर्यिका श्री स्वर्णमती माताजी द्वारा किया गया तथा संघस्थ ब्रह्मचारिणी बीना जैन, ब्र. सारिका जैन, ब्र. इन्दू जैन, ब्र. अलका जैन, ब्र. प्रीति जैन तथा ब्र. कु. दीपा जैन द्वारा मंगल गीत के माध्यम से सभा का शुभारंभ हुआ।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे उत्तरप्रदेश सरकार के मंत्रीद्वय तथा सभाध्यक्ष व विशिष्ट अतिथियों ने सभा का दीप प्रज्ज्वलन किया। पश्चात् संस्थान द्वारा सभी अतिथियों का जम्बूद्वीप प्रतीकचिन्ह, तीनलोक प्रतीकचिन्ह, शॉल, श्रीफल आदि द्वारा विशेष सम्मान किया गया।
प्रारंभिक वक्तव्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी द्वारा किया गया तथा सभा में पूज्य माताजी का पादप्रक्षाल श्रीमती साधना जैन ध.प. श्री अजय कुमार जैन-मेरठ परिवार द्वारा किया गया और पूज्य माताजी के करकमलों पिच्छी भेंट करने का सौभाग्य श्री जे.सी. जैन-श्रीमती सुनीता जैन, हरिद्वार द्वारा, कमण्डलु भेंट का सौभाग्य श्री सुनील कुमार जैन सर्राफ-श्रीमती मीनाक्षी जैन-मेरठ द्वारा तथा शास्त्र भेंट करने का सौभाग्य श्री प्रदीप कुमार जैन, खारीबावली व उनकी बहन श्रीमती सोमा जैन-दिल्ली द्वारा भेंट किया गया।
विशेषरूप से इस अवसर पर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर एवं भगवान ऋषभदेव मूर्ति निर्माण कमेटी मांगीतुंगी का संयुक्त अधिवेशन भी सम्पन्न हुआ, जिसमें दोनों संस्थाओं के राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी ने ओजस्वी भाषण के साथ दोनों संस्थाओं की प्रगति के बारे में विस्तार से वर्णन किया और आगामी ५ दिसम्बर २०१२ को मांगीतुंगी में १०८ फुट उत्तुंग शिला में भगवान ऋषभदेव प्रतिमा के चेहरा निर्माण का कार्य प्रारंभ करने की घोषणा भी की।
अधिवेशन में जम्बूद्वीप संस्थान तथा मांगीतुंगी कमेटी के अनेक वरिष्ठ पदाधिकारीगण व सदस्य भी उपस्थित रहे। रात्रि में तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ का अधिवेशन हुआ, जिसमें महामंत्री डॉ. अनुपम जैन-इंदौर ने महासंघ की पूर्ण रिपोर्ट सुनाकर लेखा-जोखा व प्रगति के बारे में विस्तार से वर्णन किया।
इस अवसर पर महासंघ के कार्याध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा सदस्यगण आदि उपस्थित थे। विशेषरूप से इस अधिवेशन में ही तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ द्वारा चंदारानी जैन स्मृति पुरस्कार डॉ. देवकुमार जैन-रायपुर को प्रदान किया गया। पश्चात् देर रात्रि तक श्रीमती सुमन सेठी के नेतृत्व में खण्डवा से पधारे लगभग ४० लोगों की टीम ने पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की जीवनी पर सुन्दर सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसे देखकर भक्तजन भावविभोर हो गये।
महोत्सव में हुए विशेष विभूतियों के सम्मान
(१) महोत्सव में संस्थान द्वारा देश की विशिष्ट विभूतियों के सम्मान भी सम्पन्न किये गये। इनमें दिनाँक २८ अक्टूबर को मध्यान्ह भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री निर्मल कुमार सेठी-दिल्ली के हीरक जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में संस्थान द्वारा विशाल प्रशस्तिपत्र भेंट करके उन्हें ‘‘जैन रत्न’’ की उपाधि से विभूषित किया गया तथा पदाधिकारियों द्वारा तिलक, माल्यार्पण, शॉल आदि से सेठी जी का भव्य अभिनंदन सम्पन्न किया गया।
(२) इसी क्रम में दिनाँक २९ अक्टूबर को मध्यान्ह में भारतवर्षीय तीर्थक्षेत्र कमेटी की उपाध्यक्ष एवं दिगम्बर जैन महिला महासभा की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सरिता जैन-चेन्नई को संस्थान द्वारा उनके अतिविशिष्ट धार्मिक, सामाजिक व पारमार्थिक कार्यकलाप को देखते हुए उन्हें ‘‘दिव्य नारी रत्न’’ उपाधि अलंकरण की विशाल प्रशस्ति भेंटकर सम्मानित किया गया।
समारोह में तिलक, माल्यार्पण, शॉल आदि से सम्मानित होने के उपरांत उन्हें पूज्य माताजी ने विशेष मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। ज्ञातव्य होवे कि सरिता जी द्वारा तमिलनाडु आदि भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में लगभग ३५० तीर्थों एवं मंदिरों का जीर्णोद्धार कराकर जैन संस्कृति का ऐतिहासिक संरक्षण-संवर्धन किया गया है। साथ ही विपुल धनराशि का दान कर वे प्रतिवर्ष समाज में उच्च शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए तथा आर्थिक कमजोर व बीमार-दु:खी लोगों की मदद में सहयोग प्रदान करती हैं।
(३) पूज्य माताजी की प्रेरणा से वर्ष २०११-२०१२ को ‘‘प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर वर्ष’’ के रूप में घोषित किया गया था। पश्चात् इस शरदपूर्णिमा के अवसर पर इस वर्ष का समापन करते हुए आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के गृहस्थ पौत्र (उनके चचेरे भाई के पौत्र) डोंबीवली-मुम्बई निवासी श्री इन्दरचंद-राजकल गंगवाल व उनके सुपुत्रगण श्री नवनीत-संजय गंगवाल को विशाल प्रशस्ति पत्र भेंट करके सम्मानित किया गया। ज्ञातव्य होवे कि इन्दरचंद गंगवाल आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के संस्कारों को गृहस्थ में अभी तक जीवंत रखते हुए स्वयं श्रावकों के कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं तथा उनके दोनों पुत्रगणों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर मानव जीवन को सार्थक किया है।
(४) २९ अक्टूबर को ही विशेषरूप से जैन मूर्ति निर्माण की प्रसिद्ध फर्म-मूलचंद रामचंद नाठा फर्म के प्रमुख श्री सूरजमल नाठा-जयपुर को भी संस्थान द्वारा प्रतीक चिन्ह आदि भेंट करके सम्मानित किया गया। मुख्यत: इस अवसर पर उन्हें पूज्य माताजी के आशीर्वादस्वरूप मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर्वत पर बनने वाली भगवान ऋषभदेव की १०८ फुट उत्तुंग मूर्ति निर्माण के लिए जिम्मेदारी भी सौंपी गई। इसी शुभ मुहूर्त में मूर्ति निर्माण करने वाले कारीगरों, स्टॉफ आदि का भी प्रतीक चिन्ह भेंटकर कमेटी द्वारा सम्मान किया गया।
इंटरनेट पर जैन इन्साइक्लोपीडिया निर्माण के कार्यालय
का उद्घाटनमहोत्सव में विभिन्न पुरस्कार समर्पण
महोत्सव में संस्थान द्वारा प्रतिवर्ष शरदपूर्णिमा के अवसर पर दिये जाने वाले विभिन्न पुरस्कारों का समर्पण भी विभिन्न विभूतियों के करकमलों में किया गया। इनमें से संस्थान का सर्वोच्च पुरस्कार ‘गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती पुरस्कार’ देश के वरिष्ठ विद्वान् डॉ. श्रेयांस कुमार जैन-बड़ौत (अध्यक्ष-अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद) को २९ अक्टूबर को मध्यान्ह की प्रमुख सभा में प्रदान किया गया, जिसमें उन्हें एक लाख रुपये की नगद राशि के साथ प्रशस्ति पत्र, शॉल, श्रीफल आदि से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार वीरा फाउण्डेशन ट्रस्ट के चेयरमैन श्री राजकुमार जैन ‘वीरा बिल्डर्स’, दिल्ली की ओर से पधारे उनके भाई श्री शिव कुमार जैन द्वारा दिया गया,
जिसमें मंत्रीद्वय तथा अतिथिगण भी शामिल हुए। इसी प्रकार २५००० रुपये की राशि वाले चार पुरस्कारों में जम्बूद्वीप पुरस्कार श्रीमती अर्चना जयंचद कासलीवाल-चांदवड़ (महा.) को, श्री कमल कुमार जैन-श्रीमती अनुपमा जैन, आरा (बिहार) के सौजन्य से नंद्यावर्त महल पुरस्कार डॉ. कल्याण गंगवाल-पुणे को, श्री कोमलचंद जैन-महमूदाबाद (उ.प्र.) परिवार की ओर से आर्यिका श्री रत्नमती पुरस्कार सौ. अरुणा विजय कुमार पाटनी-औरंगाबाद को तथा श्री शुभचंद सुभाषचंद जैन-टिकैतनगर (उ.प्र.) परिवार की ओर से श्री छोटेलाल जैन स्मृति पुरस्कार श्री महेन्द्र कुमार जैन-भोपाल (म.प्र.) को प्रदान किया गया।
११०००/-रुपये की राशि वाले तीन पुरस्कारों में जम्बूद्वीप बाल प्रतिभा पुरस्कार चि. उज्ज्वल उदय जैन-बाराबंकी (उ.प्र.) को, श्रीमती ज्ञाना देवी जैन-टिकैतनगर (उ.प्र.) परिवार की ओर से श्री प्रकाशचंद जैन स्मृति पुरस्कार चि. पुलकित जैन-दिल्ली को व श्री वैâलाशचंद जैन सर्राफ-लखनऊ परिवार के सौजन्य से तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ द्वारा प्रतिवर्ष दिये जाने वाला श्रीमती चंदारानी जैन स्मृति पुरस्कार डॉ. देवकुमार जैन-रायपुर (छत्तीसगढ़) को प्रदान किया गया।
समस्त पुरस्कारों में पुरस्कृत विभूतियों को प्रशस्ति पत्र, शाल, माल्यार्पण, तिलक, श्रीफल, साहित्य, प्रतीकचिन्ह आदि के साथ भव्यतापूर्वक सम्मानित किया गया। पुरस्कार प्रदान करने में जम्बूद्वीप संस्थान के पदाधिकारियों ने भी सहभागिता निभाई।
आरती
प्रतिदिन सायंकाल में पंचपरमेष्ठी भगवन्तों की आरती के उपरांत भक्तों ने अत्यन्त भक्तिभाव के साथ पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की मंगल आरती का भी सौभाग्य प्राप्त किया, जिसमें २७ अक्टूबर को श्री सरोज जैन-तह. फतेहपुर (उ.प्र.) ने, २८ अक्टूबर को श्रीमती राजरानी मणि जैन-गोण्डा (उ.प्र.) ने तथा २९ अक्टूबर को श्री सुनील कुमार जैन सर्राफ-श्री मनोज जैन-मेरठ ने पूज्य माताजी की आरती का विशेष पुण्य अर्जित किया।
महोत्सव में आगन्तुक समस्त महानुभावों के प्रीतिभोज का सौजन्य श्री प्रमोद कुमार मनोज कुमार कासलीवाल-औरंगाबाद, श्री अभय कुमार संजय कुमार कासलीवाल-औरंगाबाद, श्री मुकेश शाह-मुम्बई, श्री सुधीर जैन ‘ठेकेदान’-मुजफ्फरनगर, श्री विनय कुमार सेठी-डीमापुर, श्री आनंद प्रकाश जैन-दिल्ली के सौजन्य से किया गया। महोत्सव में अनेक भक्तों द्वारा पूज्य माताजी की ७९वीं जन्मजयंती के उपलक्ष्य में ८०-८० विभिन्न प्रकार के गिफ्ट भी भक्तों में वितरित करके पूज्य माताजी के प्रति अपनी भावांजलि प्रस्तुत की।
विशेषरूप से महोत्सव में संस्थान के प्रमुख संघपति श्री महावीर प्रसाद जैन-दिल्ली, श्री कमलचंद जैन, खारीबावली-दिल्ली, श्री सतेन्द्र कुमार जैन, प्रीतविहार-दिल्ली, श्री अनिल कुमार जैन, प्रीतिविहार-दिल्ली, श्री दीपक जैन-बनारस, वीरा बिल्डर्स परिवार के शिवकुमार जैन-दिल्ली, श्री महेश जैन-विजय जैन-राजपुर रोड, दिल्ली, श्री प्रदीप जैन, खारीबावली-दिल्ली, श्री वैâलाशचंद जैन, करोलबाग-दिल्ली, श्री हंसराज जैन-प्रियदर्शनी विहार, दिल्ली, श्री अजय जैन-प्रीतविहार-दिल्ली,
श्री अमरचंद जैन-टिकैतनगर, श्री सुनील जैन-श्री राकेश जैन-मेरठ, इंजी. श्री गुणसागर जैन-दिल्ली, श्रीमती मनोरमा-श्री महेशचंद जैन, विकासपुरी-दिल्ली, श्री अध्यात्म जैन-लखनऊ, श्री शुभचंद जैन-लखनऊ, सनावद के श्री कैलाशचंद जैन चौधरी, श्री सुधीर चौधरी, श्री विशाल वैभव जैन आदि, माधोराजपुरा के श्री भागचंद जैन कासलीवाल आदि, सरधना के श्री सतीशचंद जैन, श्री मंगलसेन जैन आदि, डॉ. देवेन्द्र जैन-भोपाल, खण्डवा के श्री सुरेशचंद जैन आदि,
श्री विजय पाटोदी-हैदराबाद, श्री चिरंजीलाल कासलीवाल-पटना तथा महाराष्ट्र भक्तमण्डल से डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल, श्री प्रमोद कासलीवाल, श्री राजाभाऊ पाटनी, श्री कस्तूरचंद बड़जाते, श्री विजय पाटनी, श्री अभय कासलीवाल, श्री राजमल कासलीवाल, श्री पवन पापड़ीवाल वास्तुशास्त्री, इंजी. श्री सी.आर.पाटिल, श्री सुभाषचंद साहू-जालना आदि, दूदू (जयपुर) से श्री फूलचंद झांझरी आदि, भरतसेना टिकैतनगर के श्री आदेश जैन, श्री अतुल जैन, श्री पंकज जैन, श्री राजू जैन, श्री अखिलेश जैन, श्री वीर कुमार जैन, श्री राजन जैन, श्री शरद जैन-बहराइच, सौ. श्रीमती-कुमुदनी-मालती-कामिनी-त्रिशला जैन आदि महानुभावों ने पधारकर विनयांजलि अर्पित की।
शरदपूर्णिमा महोत्सव के अवसर पर राष्ट्रीय संस्थाओं के अधिवेशन में
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा व्यक्त उद्गारतीन तरह के मंच से होना चाहिए समाज का विकासपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने देश की शीर्षस्थ राष्ट्रीय संस्थाओं के अधिवेशन में समाज के वरिष्ठ पदाधिकारियों को विशिष्ट सामाजिक विभाजन के साथ विशेष प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि सामाजिक विकास के लिए सदैव तीन तरह के मंच के माध्यम से कार्यकलाप किये जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पहला मंच ऐसा होना चाहिए,
जिसमें समुदाय या सम्प्रदाय विशेष की महत्ता न होकर भारतीयता की महत्त्वता होना चाहिए। इस मंच पर विभिन्न समाज व धर्म के सभी बंधुओं को एक जुट होकर भारतीय संस्कृति की रक्षा, विकास एवं उसकी प्रभावना के कार्य सम्पन्न करना चाहिए। उन्होंने कहा कि पुन: दूसरे प्रकार का मंच ऐसा होना चाहिए, जिसके अंतर्गत सभी दिगम्बर जैन संस्थाओं तथा सभी दिगम्बर जैन जातियों के भक्तजन व सामाजिक कार्यकर्ता एक जुट होकर दिगम्बर जैन संस्कृति का संरक्षण, संवर्धन व विकास कर सके।
पुन: तीसरे मंच के रूप में हमें अपने-अपने जातिगत संगठनों की भी आवश्यकता समाज विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पूज्य माताजी ने कहा कि जैनधर्म में सप्तपरमस्थान बताये गये हैं, जिनमें पहला परमस्थान ‘‘सज्जातित्व’’ कहलाता है। इसके अंतर्गत प्रत्येक जाति की विवाह परम्परा उसी जाति के अन्तर्गत की जानी चाहिए, यह पिण्डशुद्धि के लिए प्राचीन शास्त्रों का कथन कहा जाता है।
जैन आगम में तो इस बात पर विशेष प्रकाश डाला गया है कि तीर्थंकर जैसे महापुरुष भी उसी कुल परम्परा व जाति में जन्म लेते हैं, जिस कुल में सज्जातित्व नाम का परमस्थान सदैव सुरक्षित रहता है। अत: वर्तमान में बिगड़ती परिस्थितियों को देखते हुए आगमोक्त विवाह परम्परा के निर्वहन के लिए वर्तमान में विभिन्न जातिगत संगठनों की भी महती आवश्यकता प्रतीत होती है।
उन्होंने कहा कि जैनधर्म में ८४ जातियाँ कही गई हैं अत: इनमें से अनेक जातियों के संगठन तो अवश्य रूप से बने हुए हैं, लेकिन और भी जातियों के लोगों को मिल-जुलकर अपने-अपने जातिगत संगठनों के माध्यम से सामाजिक विकास में अग्रणी होना चाहिए।
सामाजिक सामंजस्य व उन्नति के लिए विभिन्न तीर्थों व
मंदिरों में चल रही परम्परा को कभी न छेड़ें
इस प्रकार पूज्य माताजी ने अपने वक्तव्य में एक अन्य महत्वपूर्ण बात बताते हुए कहा कि वर्तमान में सामाजिक संगठन की मजबूती के लिए कार्यकर्ताओं व श्रावकों को वर्तमान में चल रही विभिन्न परम्पराओं के भेद में नहीं जाते हुए सदैव एक-दूसरे के साथ सौहार्द एवं सहयोग की भावनाएँ रखना चाहिए। उन्होंने कहा कि दिगम्बर जैन समाज में बीसपंथ, तेरहपंथ के नाम पर दो परम्पराएँ वर्तमान में प्रचलित हैं अत: सामंजस्य की भावनाओं के साथ जिस दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र पर या मंदिर जी में जो परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है,
वह परम्परा निरन्तर चलती रहना चाहिए, चाहे तेरहपंथ की परम्परा हो या बीसपंथी की परम्परा। मंदिर जी में पद्मावती-क्षेत्रपाल देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ विराजमान हों या न हों, जहाँ जैसी व्यवस्था चली आ रही है, उसमें फैर-बदल नहीं करना चाहिए और किसी प्रकार से कभी विरोध की भावनाएँ भी मन में नहीं लाना चाहिए।
अपितु सामंजस्य की भावनाएँ रखकर सभी परम्पराओं और मान्यताओं के श्रावकों को एक जुट होकर समाज के बीच संगठन की शक्ति प्रस्तुत करना चाहिए। उन्होंने उदारहण देकर कहा कि जम्बूद्वीप तीर्थ पर २५-३० साल पहले से ही उनकी प्रेरणा से समिति में एक प्रस्ताव पारित किया गया था,
जो प्रस्ताव भी आज जम्बूद्वीप में तीनमूर्ति मंदिर के दीवार पर पत्थर पर अंकित है। उस प्रस्ताव में यही पास किया गया था कि ‘‘जम्बूद्वीप तीर्थ पर बीसपंथ और तेरहपंथ दोनों ही आम्नाओं के श्रद्धालुजनों को अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार पूजन-अनुष्ठान-अभिषेक करने का अधिकार रहेगा।’’ इस प्रस्ताव के अनुरूप आज तक इस तीर्थ पर ऐसे अनेक बार मौके आते हैं, जहाँ एक ही मण्डल विधान के दो-दो, तीन-तीन माण्डलों पर दोनों ही मान्यताओं के भक्तजन अपने-अपने अनुरूप पूजन-अनुष्ठान करके सामंजस्य का एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
अत: ऐसी परम्परा और प्रथा दिगम्बर जैन समाज की सभी राष्ट्रीय संस्थाओं को अपनाकर भक्तों के मन में भेदभाव को मिटाने का प्रयास करना चाहिए, इसी से समाज का विकास एवं इसकी शक्ति का संग्रहण किया जा सकता है, जो सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज-आगम-धर्म-संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और विकास के लिए उज्ज्वल भविष्य का सूचक होगा।
मनुष्य जीवन में आत्म विकास के लिए त्याग की विशेष महिमा
पूज्य माताजी ने और भी विभिन्न महत्वपूर्ण बातों को बताकर सभी श्रावकों को उनके ६१वें त्यागदिवस व ७९वीं जन्मजयंती अवसर पर मनाए जा रहे शरदपूर्णिमा महोत्सव में यही प्रेरणा दी कि सभी भक्तों को इस अवसर पर अपने जीवन में त्याग की महिमा को स्वीकार करते हुए कुछ न कुछ अवश्य ही त्याग करके अपनी आत्मा को परिष्कृत करने का प्रयास करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि मनुष्य जीवन में सामाजिक व पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने के साथ ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपनी आत्मा के विकास हेतु जिम्मेवारी का निर्वहन सही रूप से कर सके। अपनी आत्मा का उत्थान व्यक्ति स्वयं ही कर सकता है। किसी आत्मा का उत्थान करने के लिए कोई दूसरा व्यक्ति कभी भी समर्थ नहीं हो सकता है अत: अपने द्वारा किये गये पुण्यवर्धक कर्म ही स्वयं को पवित्र कर सकते हैं।
इसलिए सभी श्रावकों को अपनी आत्मा के प्रति भी कर्तव्य का पालन करते हुए मनुष्य जीवन में त्यागमार्ग को प्रशस्त करने का सफल प्रयास अवश्य करना चाहिए। उन्होंने शरदपूर्णिमा महोत्सव के अवसर पर सभी धर्मनिष्ठ एवं गुरुभक्त श्रावकों के प्रति आत्मीय मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए भारतवर्ष में पारस चैनल के माध्यम से कार्यक्रम को देखने वाले लाखों जैन श्रावकों को भी अपना शुभाशीर्वाद प्रदान किया।
शरदपूर्णिमा महोत्सव के मध्य हुए विमोचन
शरदपूर्णिमा महोत्सव में उ.प्र. सरकार के मंत्रियो का आगमन – २९ अक्टूबर
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय ख्याति को प्राप्त हो रहे दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के कतिपय स्वर्णिम पृष्ठ ४० वर्षीय ऐतिहासिक कार्यकलाप : एक झलक
(सन् १९७२ में दीपावली के दिन राजधानी दिल्ली में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से इस संस्थान की स्थापना हुई और ४० वर्षों में संस्थान ने विश्वव्यापी कार्यकलापों से जो ख्याति अर्जित की है। उनमें से ही यहाँ प्रस्तुत है कतिपय प्रमुख कार्यकलाप)
(१) फरवरी १९७५ में निर्माणाधीन जम्बूद्वीप परिसर में भगवान महावीर की अवगाहना प्रमाण प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा (वर्तमान कमल मंदिर में विराजमान)।
(२) अप्रैल १९७९ में जम्बूद्वीप तीर्थ पर १०१ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत के भगवन्तों का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव।
(३) अक्टूबर १९८१ में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर स्थल पर ‘जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति सेमिनार’ का आयोजन।
(४) सन् १९८२ से १९८५ तक तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उद्घाटित ‘जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति रथ’ का भारत भ्रमण।
(५) अक्टूबर १९८२ में ‘‘जम्बूद्वीप सेमिनार’’ श्री राजीव गांधी (तत्कालीन सांसद) द्वारा दिल्ली में उद्घाटित
(६) अप्रैल-मई १९८५ में जम्बूद्वीप जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठापना महोत्सव।
(७) अप्रैल सन् १९८५ में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर स्थल पर ‘जैन गणित और त्रिलोक विज्ञान’ विषय पर अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन।
(८) सन् १९८७ में जम्बूद्वीप के पीठाधीश एवं गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के प्रमुख शिष्यों में एक क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज की जम्बूद्वीप स्थल पर क्षुल्लक दीक्षा।
(९) सन् १९८९ में जम्बूद्वीप स्थल पर पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की पथ-अनुगामिनी एवं आज्ञाकारिणी शिष्या बाल ब्र. माधुरी जैन की आर्यिका दीक्षा, जिनका नाम आर्यिका श्री चंदनामती माताजी हैै।
(१०) सन् १९९२ में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में ‘अंतर्राज्यीय चरित्र निर्माण संगोष्ठी’ का आयोजन।
(११) सन् १९९३ में संस्थान द्वारा अयोध्या में ‘भारतीय संस्कृति के आद्यप्रणेता भगवान ऋषभदेव’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन।
(१२) सन् १९९४ में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या में बड़ी मूर्ति स्थल पर विराजमान ३१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा का महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव। प्रति १० वर्षानुसार यहाँ सन् २००५ में भी महाकुंभ मस्तकाभिषेक सम्पन्न किया गया।
(१३) अक्टूबर १९९५ में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में ‘गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती साहित्य संगोष्ठी’ का आयोजन।
(१४) अक्टूबर १९९७ में ४ से १३ अक्टूबर तक राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा उद्घाटित ‘चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान’ का ऐतिहासिक आयोजन।
(१५) अप्रैल १९९८ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा तालकटोरा स्टेडियम-दिल्ली से ‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार रथ’ का भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तन।
(१६) अक्टूबर १९९८ में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में ‘राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’ का आयोजन।
(१७) फरवरी २००० में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा लालकिला मैदान-दिल्ली में ‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष’ का उद्घाटन।
(१८) जून २००० में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में ‘जैनधर्म की प्राचीनता’ विषय पर राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन।
(१९) अगस्त २००० में यू.एन.ओ.-न्यूयार्क (यू.एस.ए.) में आयोजित ‘विश्वशांति शिखर सम्मेलन’ में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर की ओर से संस्थान के अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन द्वारा धर्माचार्य के रूप में प्रतिनिधित्व।
(२०) फरवरी २००१ में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान भूमि प्रयाग-इलाहाबाद में ‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ’ का ऐतिहासिक नवनिर्माण।
(२१) जनवरी २००१ में प्रयाग-इलाहाबाद के महाकुंभ मेले में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित नवम धर्मसंसद में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ द्वारा जैनधर्म का अद्भुत शंखनाद।
(२२) सन् २००३-२००४ में भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) बिहार में ‘नंद्यावर्त महल तीर्थ’ का भव्य निर्माण एवं ‘भगवान महावीर ज्योति रथ’ का भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तन।
(२३) दिसम्बर २००३ में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि राजगृही (नालंदा) बिहार व भगवान महावीर स्वामी की निर्वाणभूमि पावापुरी (नालंदा) बिहार में जिनमंदिरों के निर्माण एवं विशाल प्रतिमाओं की स्थापना।
(२४) नवम्बर २००४ में गणधर गौतम स्वामी की निर्वाणभूमि गुणावां जी सिद्धक्षेत्र में जिनमंदिर का निर्माण।
(२५) सन् २००५-२००७ में ‘भगवान पाश्र्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’ का ६ जनवरी २००५ को बनारस में उद्घाटन एवं ४ जनवरी २००८ को अहिच्छत्र में समापन।
(२६) जनवरी २००५ में भगवान श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि सिंहपुरी (सारनाथ) में पूज्य माताजी ससंघ के सान्निध्य मेें भगवान श्रेयांसनाथ की विशाल प्रतिमा का भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव।
(२७) दिसम्बर २००५ में शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर जी में ९ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की पद्मासन प्रतिमा से समन्वित सुन्दर कमल मंदिर का निर्माण।
(२८) अप्रैल २००६ में पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के ‘आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव’ का राष्ट्रीय स्तर पर भव्य आयोजन।
(२९) अप्रैल-मई २००७ में तेरहद्वीप जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव।
(३०) अक्टूबर २००८ में पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के हीरक जन्मजयंती महोत्सव का भव्य आयोजन।
(३१) दिसम्बर २००८ में २१ दिसम्बर को जम्बूद्वीप स्थल पर पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल द्वारा ‘विश्वशांति अहिंसा सम्मेलन’ का उद्घाटन।
(३२) अगस्त २००९ में संसद भवन-दिल्ली में गृहमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी द्वारा उद्घाटित ‘‘श्री जे.के. जैन अभिनंदन समारोह” का आयोजन।
(३३) वर्ष २००९ से इस संस्थान के अन्तर्गत भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर दिगम्बर जैन समिति के सहयोग से प्रतिवर्ष बिहार सरकार के पर्यटन एवं संस्कृति विभाग तथा जिला प्रशासन नालंदा द्वारा भगवान महावीर जन्मजयंती के अवसर पर ‘कुण्डलपुर महोत्सव’ का आयोजन किया जा रहा है।
(३४) फरवरी २०१० में जम्बूद्वीप स्थल पर ‘जम्बूद्वीप रजत जयंती महोत्सव’ के साथ भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की ३१-३१ फुट उत्तुंग विशाल खड्गासन प्रतिमाओं तथा नवनिर्मित तीनलोक रचना के भगवन्तों का ‘अंतर्राष्ट्रीय पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं तीर्थंकरत्रय महामस्तकाभिषेक महोत्सव’।
(३५) मार्च २०१० में शोभित युनिवर्सिटी-मेरठ एवं जम्बूद्वीप संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में ‘इंटरनेशनल कॉन्प्रेंस ऑन इण्डियन सिविलाइजेशन थ्रू मिलेनिया’ का सफल आयोजन।
(३६) जून २०१० में भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि काकंदी (देवरिया, निकट-गोरखपुर) उ.प्र. का ऐतिहासिक विकास कार्य करके विशाल जिनमंदिर एवं कीर्तिस्तंभ का निर्माण तथा मंदिर जी में सवा ९ फुट उत्तुंग भगवान पुष्पदंतनाथ की पद्मासन प्रतिमा का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, शिखर कलशारोहण एवं ध्वजारोहण समारोह।
(३७) अक्टूबर २०१० में शरदपूर्णिमा महोत्सव के शुभ अवसर पर विश्व में प्रथम बार निर्मित तीनलोक रचना का भव्य उद्घाटन समारोह।
(३८) नवम्बर २०१० में गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की दीक्षा भूमि माधोराजपुरा (जयपुर) राज. में ‘गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी दीक्षा तीर्थ’ पर सम्मेदशिखर की अति सुन्दर प्रतिकृति का निर्माण करके चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमाओं से समन्वित चौबीस चैत्यालय एवं सबसे ऊपर भगवान पाश्र्वनाथ की १५ उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा का विशाल स्तर पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव।
(३९) सन् २०१०-२०११ में राष्ट्रीय स्तर पर ‘‘प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर वर्ष’’ की घोषणा। जिसके उपरांत सफलतापूर्वक देशभर में इस वर्ष को मनाते हुए विभिन्न स्थानों पर बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य महाराज का गुणगान कर उनके अवदानों को याद किया।
(४०) फरवरी २०११ में भगवान ऋषभदेव के जन्मस्थान प्रथम टोंक-अयोध्या जी में अत्यन्त सुन्दर एवं कलात्मक जिनमंदिर का निर्माण करके विशाल स्तर पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव एवं भगवान ऋषभदेव महामस्तकाभिषेक का आयोजन।
(४१) सन् २०११-२०१२ में राष्ट्रीय स्तर पर ‘‘प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर वर्ष’’ के उपलक्ष्य में सफलतापूर्वक देशभर में विभिन्न स्थानों पर आचार्य महाराज का गुणगान किया गया।
(४२) फरवरी २०१२ में श्री महावीर जी (राज.) के महावीर धाम परिसर में पंचबालयति दिगम्बर जैन मंदिर का भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कर संस्थान द्वारा निरंतर मंदिर जी का संचालन।
अन्य विशेष गतिविधियाँ
वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला-इस संस्थान द्वारा सन् १९७२ में स्थापित वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला के माध्यम से प्रतिवर्ष लाखों ग्रंथों का प्रकाशन किया जाता है। इस ग्रंथमाला द्वारा जैनधर्म पर आधारित लगभग ३५० प्रकार के ग्रंथ/किताबें प्रकाशित हो चुके हैं। सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका-सन् १९७४ से संस्थान द्वारा जैन आगम ग्रंथों पर आधारित चारों अनुयोगों के आलेखों से संबद्ध सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया जाता है।
३८ वर्षीय यह पत्रिका आध्यात्मिक स्वाध्याय हेतु पाठकोें में लोकप्रियता को प्राप्त है। णमोकार महामंत्र बैंक-इस संस्थान के द्वारा सन् १९९५ में स्थापित णमोकार महामंत्र बैंक का भी संचालन किया जाता है, जिसमें प्रतिवर्ष देश-विदेश के भक्तों द्वारा करोड़ों णमोकार महामंत्र लिखकर जमा कराये जाते हैं।
णमोकार महामंत्र लेखकों को संस्थान द्वारा प्रतिवर्ष शरदपूर्णिमा के अवसर पर हीरक, स्वर्ण एवं रजत पदक से सम्मानित किया जाता है। संस्थान संचालन एवं सहभागिता-इस संस्थान की स्थापना पूज्य माताजी की प्रेरणा से राजधानी दिल्ली में सन् १९७२ में की गई थी, जिसके उपरांत सन् १९७४ से संस्थान का मुख्य कार्यालय जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में संचालित हो रहा है।
इस संस्थान के अन्तर्गत नंद्यावर्त महल तीर्थ, कुण्डलपुर (नालंदा) एवं भगवान ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ, प्रयाग-इलाहाबाद का संचालन किया जाता है तथा पूज्य माताजी की प्रेरणा से स्थापित तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ, अ.भा. दि. जैन महिला संगठन, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थंकर जन्मभूमि विकास कमेटी व मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र में बन रही १०८ फुट उत्तुंग मूर्ति निर्माण कमेटी आदि की समस्त गतिविधियों में भी यह संस्थान महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान करती है। इन सभी संस्थाओं का मुख्य कार्यालय जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर तीर्थ पर संचालित किया जाता है।
पूज्य माताजी के आशीर्वाद से महावीर जी (राज.) में महावीर धाम परिसर में पंचबालयति दिगम्बर जैन मंदिर का संचालन भी इस संस्थान द्वारा ही किया जा रहा है तथा गणिनी ज्ञानमती दीक्षा तीर्थ-माधोराजपुरा (जयपुर) राज. के निर्माण एवं विकास में भी संस्थान का महत्वपूर्ण सहयोग है।
इसके साथ ही अ.भा.दि. जैन युवा परिषद का प्रधान कार्यालय जम्बूद्वीप से संचालित होता है व शाश्वत तीर्थ अयोध्या जी में दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी-अयोध्या के अन्तर्गत विभिन्न टोंक का जीर्णोद्धार, विकास भी इस संस्थान के सहयोग से सम्पन्न हो रहा है।
पुरस्कार समर्पण-संस्थान द्वारा प्रतिवर्ष शरदपूर्णिमा के अवसर पर विशिष्ट महानुभावों को गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार (१०००००/-रु.), आर्यिका रत्नमती पुरस्कार (२५०००/-रु.), जम्बूद्वीप पुरस्कार (२५०००/-रु.), नंद्यावर्त महल पुरस्कार (२५०००/-रु.), श्री छोटेलाल जैन स्मृति पुरस्कार (२५०००/-रु.), श्री प्रकाशचंद जैन स्मृति पुरस्कार (११०००/-रुपये), जम्बूद्वीप बाल प्रतिभा पुरस्कार (११०००/-रु.) व संस्थान के अन्तर्गत विद्वत् महासंघ द्वारा चंदारानी जैन स्मृति पुरस्कार (११०००/-रु.) से भी सम्मानित किया जाता है।
तथा पूर्व में विशेष पुरस्कारों में गणिनी ब्राह्मी पुरस्कार (११०००/-रुपये), रूपाबाई जैन स्मृति पुरस्कार (११०००/-रुपये), महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर पुरस्कार (२५०००/-रुपये), भगवान ऋषभदेव नेशनल अवार्ड (२५१०००/-रु.), गणिनी ज्ञानमती हीरक जयंती पुरस्कार (७५०००/-रु.), आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती पुरस्कार (५१०००/-रु.) आदि भी समय-समय पर प्रदान किये जा चुके हैं। इस प्रकार यह संस्थान अपनी विभिन्न सर्मिपत कार्य योजनाओं द्वारा समाज की सेवा में प्रतिक्षण संलग्न है।
मानसिक शांति, आध्यात्मक विकास, प्राकृतिक सौन्दर्य एवं अन्य अनेक लाभ एक साथ प्राप्त करने हेतु यह संस्थान जंबूद्वीप आदि जैन भूगोल की रचनाओं के दर्शन हेतु आपको हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप तीर्थ पर सादर आमंत्रित करती है।
ज्ञान की शरद चाँदनी
-श्रीमती सुरेखा रायनाडे, भोज (कर्नाटक)
शरदपूर्णिमा की ये चाँदनी।
मुख से बरसे सदा जिनवाणी।।
मूरत आप हो सरस्वती की।
वंदन आपको आर्यिका ज्ञानमती जी।।
भारतीय संस्कृति विश्व की महान संस्कृतियों में सर्वश्रेष्ठ संस्कृति मानी जाती है। इस संस्कृति की महानता का कारण शांति, त्याग, अहिंसा और चारित्र है। इस भारतीय संस्कृति में महिलाओं का विशेष स्थान है। क्योंकि भारतीय नारी शील, चारित्र और त्याग का प्रतीक है। यहाँ महिलाओं को सभी क्षेत्र में समानता का हक मिलता है। प्राचीन काल से धार्मिक कार्य और उत्सव में तीर्थंकरों के समवसरण से लेकर आज के प्रत्येक धार्मिक क्षेत्र और उत्सव में पुरुषों की संख्या को लेकर महिलाओं की उपस्थिति अधिकतम होती है। ये महिलाओं के लिए एक स्वाभिमान की बात है। इस दुनिया में धार्मिक परम्परा को चलाने की प्रवृत्ति पुरुषों से अधिकतम महिलाओं में पाया जाता है।
ऐसी ही गुरुभक्ती में सदा लीन रहकर और अपने गुरु के नाम पर ११ अक्टूबर २०११ से २९ अक्टूबर २०१२ तक ‘‘आचार्य श्री वीरसागर वर्ष’’ मनाने का गुरु के प्रति आदर रखने वाली सुप्रतिष्ठ आदरणीय साध्वी शिरोमणि के बारे में लिखना चाहती हूँ। जिनका जन्म शरदपूर्णिमा की सफेद चांदनी मेें होकर पूरे संसार को रोशन कर रहा है। इसलिए हमें अभिमान है इस महान और ज्ञानी मैना बेटी पर, जिसने मोहिनी देवी (आर्यिका रत्नमती) की कोख से जन्म लेकर छोटेलाल पिता के नाम के साथ टिकैतनगर का नाम रोशन कर दिया।
हमें गर्व है उस बहन पर जिनकी चारित्रश्रमणी आर्यिका अभयमती माताजी, प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती और स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी पीठाधीश जैसे भाई हों। हमें नाज है उस त्याग की मूरत पर, जिन्होंने प्रथमाचार्य शांतिसागर जी महाराज की परम्परा से गुरु परमपूज्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से दीक्षित होकर उनकी परमपरा को संभालते-संभालते आर्ष परम्परा का कठिन व्रत अपनाया है। इतना ही नहीं हमारा सर झुकता है उस माँ के सामने, जिन्होंने अपना त्रियोग अर्पण किया है तीर्थक्षेत्र की रक्षा में, तीर्थक्षेत्र के जीर्णोद्धार में और तीर्थक्षेत्र के निर्मिती में।
हम वंदन करते हैं उस गुरु माँ को जो रोज-रोज प्रसार माध्यम से प्रवचन देकर अध्यात्म की ओर हमारा ध्यान लगाके आत्मचिंतन का मार्ग बताते हैं। आपके निमित्त से आपका पूरा परिवार तो त्यागमय हो गया, उसके साथ संसार के कितने लोगों को आप आत्मकल्याण के मार्गदर्शक हो गये। इसलिए हम त्रिबार वंदामि करते हैं उस परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री १०५ ज्ञानमती माताजी को जो अपने नाम की शोभा बढ़ाने जैसा महान कार्य किया है।
‘‘यथा नाम तथा काम’’ सच कहूँ तो शरदपूर्णिमा के दिन घने बादल छा जाये, तो चाँदनी और चंद्रमा रहते हुए भी अंधेरा छा जाता है। चांदनी और चंद्रमा ढक जाते हैं। लेकिन इतनी वयोवृद्ध होने के बाद भी इस ज्ञान की चांदनी के ज्ञान का उजाला कभी घने बादल से छा जाता नहीं, वो दिन ही दिन बढ़ता और फैलता जा रहा है।
इस शरदपूर्णिमा के आल्हाददायक चांदनी में बैठकर मंत्र पठन, जिनवाणी आराधना करते समय कुछ खाने की चीजे इस प्रकाश में रखकर लोग शरीर की पीड़ा नष्ट करने के लिए ये चीजें खाते हैं। आपका जन्म ऐसे महान घड़ी में हुआ, जिस घड़ी में लोगों की शारीरिक (पुद्गल) पीड़ा दूर होने का अवसर है। आपने ऐसे आल्हादकारक घड़ी में जन्म लेकर लोगों की शारीरिक पीड़ा के साथ-साथ उनके भवभव के फैरे से मुक्ती पाने का मार्ग बतलाने का महान कार्य किया है।
हमें ये नहीं मालुम की उस चांदनी के प्रकाश से मानो पुद्गल की पीड़ा नष्ट होगी या नहीं होगी। लेकिन हमें जरूर यकीन है की आपके बताये हुए मार्ग पर चलने से जरूर हमारा आत्मकल्याण होगा। इस संसार में होने वाले दु:खों से हमें मुक्ती मिल जायेगी। हमारी अज्ञानता को नष्ट करने वाली आप ही एक ज्ञान की ज्योति हो। आपका आशीर्वाद ही हमें इस भवसागर से पार करेगा। इसलिए माँ हम परमपूज्य प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के गृहस्थ परिवार से आपको आपकी जन्मजयंती पर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आपको दीर्घायु और आरोग्य की प्राप्ति हो। हमारे परिवार से आपको तथा सभी संघस्थ त्यागीगणों को बारम्बार नमोऽस्तु, वंदामि, वंदामि, वंदामि।
माँ! तुम्हें नमन
हे गणिनी माता ज्ञानमती, तुमको है नमन, हे विश्व वंदनीय माँ! जीवन तुम्हें अर्पण।
विष-भोगों में आसक्त जहाँ सर्व जगत है, जड़-पुद्गलों के गुणन-फलन में ही व्यस्त है,
ऐसे में भी ये मात अमृत-वृष्टि कर रहीं, वैराग्य और ज्ञान की ही वर्षा कर रहीं।
शत वंदनों को इसलिए ही मात! हम करें। गुण-रश्मियों से आपकी हम तृप्त ही रहें।।१।।
आचार्य कुंद-कुंद आदि पूर्वाचार्यों के, आगम के ग्रंथों को गुना है मात आपने,
तलस्पर्शी ज्ञान आपका है विश्वकोश ही, फिर भी तो निरभिमानिता है आपमें सही।।२।।
शत वंदनों ……. सुज्ञान और चारित्र में हैं नि-रत सर्वदा,
पर तीर्थ-जीर्णो-द्धार में अतिशायी सफलता,
मांगीतुंगी में प्रगट होंगे बड़े बाबा, फहरायेगी जिनधर्म के यश की ही पताका,
मुद्रा दिगम्बरत्व की ही मोक्षदायिनी, जानेगा पुन: विश्व, तुम्हीं प्रेरणादायिनी।।३।।
शत वंदनों ……. सज्जातियत्व आदि जिन सिद्धांत-तथ्यों को, जमाना नया कह रहा, निर्मूल आज वो,
पर आप अडिग हैं सदा गुरुओं की वाणी में, है गम नहीं खो जायें ख्याति लाभ भी इसमें,
साठ वर्षों की नहीं तपस्या आपकी, हे मात! हज्जार साठ वर्ष साधना की ये है बात।
जीवंत रहें मात आप शताधिक वर्षों तक, हर रोम कह रहा है मात! मानिए है सच।।४।।
शत वंदनों को इसलिए ही मात! हम करें। गुण रश्मियों से आपकी हम तृप्त ही रहें।। हे गणिनी……
संस्थान का सर्वोच्च पुरस्कार
गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती पुरस्कारगणिनीप्रमुख आर्यिका-शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा में दीक्षित वर्तमान काल की वरिष्ठतम सर्वोच्च साध्वी हैं। आपने अपने दीर्घकालीन दीक्षित जीवन में सम्पूर्ण भारत वर्ष में सहस्रों किलोमीटर की पदयात्राएँ कर नैतिक मूल्यों, साम्प्रदायिक सहिष्णुता, शाकाहार एवं जैन संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार किया है।
अध्यात्म, साहित्य, व्याकरण, न्याय, भूगोल, खगोल एवं अन्य विविध विषयक २५० ग्रंथों की सृजनकत्र्री पूज्य माताजी को डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद द्वारा फरवरी १९९५ में तथा तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय मुरादाबाद द्वारा अप्रैल २०१२ में डी.लिट्. की मानद उपाधि प्रदान कर कृतज्ञता ज्ञापित की गई।
पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९७२ में स्थापित दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान नाम की संस्था ने जम्बूद्वीप रचना आदि के निर्माण, वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला के अन्तर्गत सैकड़ों ग्रंथों का लाखों की संख्या में प्रकाशन एवं अनेकों अन्य अकादमिक, साहित्यिक/सांस्कृतिक गतिविधियों को सफलतापूर्वक संचालित कर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है।
सन् १९९५ में प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी की प्रेरणा से संस्थान द्वारा ‘‘गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती पुरस्कार’’ की स्थापना की गई। इस पुरस्कार के अन्तर्गत चयनित व्यक्तित्व को १,००,०००/-(एक लाख) रुपये की नगद राशि, शॉल, श्रीफल, प्रशस्ति आदि भेंटकर सम्मानित किया जाता है। यह पुरस्कार जैन धर्म/साहित्य/संस्कृति/कला/समाजसेवा अथवा किसी भी विशिष्ट विधा के विद्वान/साहित्यकार/समाजसेवी अथवा समर्पित सामाजिक व्यक्तित्व को प्रदान किया जाता है।
वर्ष १९९५ में यह प्रथम पुरस्कार जैन गणित के क्षेत्र में उत्कृष्ट शोध कार्य करने हेतु युवा विद्वान डॉ. अनुपम जैन, इंदौर को प्रदान किया गया, वर्ष २००१ में जैन दर्शन के उद्भट विद्वान पं. शिवचरनलाल जैन, मैनपुरी को प्रदान किया गया तथा वर्ष २००५ में डॉ. शेखरचंद जैन, अहमदाबाद को दिया गया।
सन् २००५ तक यह पुरस्कार प्रति पाँच वर्ष में एक-एक विद्वान को प्रदान किया गया है, किन्तु अप्रैल २००६ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव के अवसर पर संस्थान ने इस पंचवर्षीय पुरस्कार को वार्षिक पुरस्कार के रूप में घोषित किया तब वर्ष २००६ का पुरस्कार दिगम्बर जैन समाज के वरिष्ठतम विद्वान् प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन, फिरोजाबाद को प्रदान किया गया
पुन: वर्ष २००७ का पुरस्कार मांगीतुंगी में निर्माणाधीन १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव प्रतिमा निर्माण के विशिष्ट सहयोगी इंजीनियर श्री सी.आर.पाटिल-पुणे (महा.) को, वर्ष २००८ का पुरस्कार श्री जे.के. जैन, दिल्ली (पूर्व सांसद) को, वर्ष २००९ का पुरस्कार श्री जे.सी. जैन-हरिद्वार (उत्तराखंड) को, २०१० का पुरस्कार संगीत सम्राट श्री रवीन्द्र जैन-मुम्बई (महा.) को एवं वर्ष २०११ का पुरस्कार मांगीतुंंगी मूर्ति निर्माण के विशेष सहयोगी इंजी. श्री हीरालाल तात्या जैन मेंढेगिरी, मुम्बई को प्रदान किया गया।
अब वर्ष २०१२ में संस्थान का यह सर्वोच्च पुरस्कार ‘‘वीरा फाउण्डेशन ट्रस्ट, दिल्ली’’ के सौजन्य से वरिष्ठ विद्वान् डॉ. श्रेयांस कुमार जैन-बड़ौत (उ.प्र.) को प्रदान किया जा रहा है। इस अवसर पर बहुत सारी बधाई के साथ हम उनके दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की मंगल कामनाएं करते हैं। शरदपूर्णिमा महोत्सव में गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती पुरस्कार-२०१२ से सम्मानित डॉ. श्रेयांस कुमार जैन-बड़ौत (अध्यक्ष-अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद) संक्षिप्त परिचय कुल दीपक-मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ मण्डलान्तर्गत एक लघुग्राम दुमदुमा के धर्मनिष्ठ परिवार के जमींदार श्रीमान् जोरावल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती रजनदेवी की कुक्षि से जन्मलब्ध आप अपनी बाललीलाओं से ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ कहावत को चरितार्थ करते हुए
‘‘सुपुत्र: कुलदीपक:’’ के मिशाल बन गये हैं। विद्या सरोवर के राजहंस-प्रथमवय से उत्कट ज्ञान पिपासावश पूज्य श्री गणेशप्रसादवर्णी संस्थापित बरुआसागर के पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन संस्कृत विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा उच्चतम अंकों में उत्तीर्ण कर राजकीय योग्यता छात्रवृत्तिपूर्वक आपने शिक्षा की राजधानी काशी के स्याद्वाद महाविद्यालय तथा बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी के मानविकी संकाय में श्रेष्ठ गुरुजनों के सान्निध्य में कठोर अध्यवसाय एवं अप्रतिम प्रज्ञाबल से सिद्धान्तशास्त्री, व्याकरणाचार्य, एम.ए. आदि परीक्षाओं में उच्च कोटिक साफल्य अधिगत कर विश्वविद्यालयों में नये कीर्तिमान स्थापना के साथ विविध शास्त्रों में प्रकाण्डता अधिगत की और विद्वत्जगत् में सप्तसन्धान महाकाव्य पर गहन-अनुशीलन, अनुसंधान कर डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की उपाधि से अलंकृत हुए।
विद्या महोदधि चन्द्र-श्री दिगम्बर जैन (पी.जी.) कॉलेज, बड़ौत में एसोसिएट प्रोपेâसर पद को अलंकृत करते हुए संस्कृत एवं संस्कृति की शिक्षा करके आपने एक दर्जन से अधिक शोधार्थियों को पीएच.डी. की उपाधिनिमित्त शोध-निर्देशन व दो दशक से अधिक ग्रंथों के सृजन, अनूदन और सम्पादन के साथ देश की प्रख्यात पत्रिकाओं और स्मारिकाओं के लिए गहनानुशीलनपरक शतकाधिक आलेखों के लेखन द्वारा माँ शारदा के श्रीकोष को समृद्ध किया है।
आर्ष-परम्परा के प्रबुद्ध प्रहरी-श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के उपाध्यक्ष एवं अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद के अध्यक्ष पद को समलंकृत करते हुए अपनी सतत सावधान सूक्ष्मेक्षिका, व्याख्यानों में सिंह गर्जना, शास्त्र-प्रवचन, संस्कृति संरक्षी योजनाओं में मार्गदर्शन विद्वत्प्रशिक्षण-अधिवेशनों-संगोष्ठियों के संयोजन आदि के द्वारा आपने आर्षपरम्परागत विकृतियाँ-विसंगतियों का निरसन करते हुए निर्मल जिनशासन की पताका को दिग्दिगन्त में फहराने हेतु अपनी अविस्मरणीय संघर्षपूर्ण सेवाएँ प्रदान की हैं।
समाज रत्न-आप देव-शास्त्र-गुरु के अनन्य उपासक और सेवक, ओजस्वी वाणी के अधिकारी, सात्त्विकता, सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति, माधुर्य और गाम्भीर्य के अद्भुत धनी, जिनभाषित मुक्ता के प्रसारक देश के ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ प्रज्ञा पुंज पण्डित प्रवर हैं। प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे डॉ. श्रेयांस जैन गोलालारे दिगम्बर जैन समाज के रत्न हैं।
उस समाज और जाति के भूषण हैं, जिसमें क्षुल्लक श्री मनोहरलाल वर्णी ‘‘सहजानंद’’, पं. श्री वंशीधर न्यायालंकार आदि विभूतियाँ हुई हैं। इस प्रकार नाना गुणों के महोदधि, विविध राजकीय, सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा आप उच्च स्तर पर व्याख्यान वाचस्पति, विद्वत् तिलक आदि अनेक उपाधियों से अलंकृत और सम्मानित हैं।
ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा सन् २०१२ में संस्थान के सर्वोच्च पुरस्कार ‘‘गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार’’ से डॉ. श्रेयांस कुमार जी को सम्मानित करते हुए हम अत्यन्त अभिभूत हैं तथा उनके दीर्घ, यशस्वी जीवन की मंगलकामना करते हैं।