जैनाचार्य पूज्यपाद, श्रुतकीर्ति, वीरसेन, कुमारसेन, पात्रकेसरी, कुमारसेन, सिद्धसेन, दशरथगुरु मेघनाद, समन्तभद्र एवं जटाचार्य आदि ने वैद्यक संबंधी ग्रंथ रचकर ‘कायशुद्धि’ की शल्य चिकित्सा का विस्तृत वर्णन किया है। ‘कल्याणकारक’ ग्रंथ में उग्रादित्य आचार्य ने भी कुछेक आचार्यों के नाम व उनके रचित ग्रंथों के विषय को उद्धृत किया है। यथा—
‘‘शालाक्यं पूज्यपादप्रकटितमधिवं शल्यतंत्रं च पात्र— स्वामिप्रोत्तं विषोग्रग्रहशमनविधि: सिद्धसेनै: प्रसिद्धै:।
काये यो सा चिकित्सा दशरथगुरुभिर्मेघनादै: शिशूनां, वैद्यं वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथितं सिंहनादैर्मुर्नीद्रै:।।’’
(कल्याणकारण, २०—८५)
अर्थात् पूज्यपाद आचार्य ने शालाक्य—शिराभेदन नामक ग्रंथ बनाया है। पात्रस्वामी ने शल्यतंत्र नामक ग्रंथ की रचना की है। सिद्धसेनाचार्य ने विष व उग्रग्रहों की शमनविधि का निरूपण किया है। दशरथ गुरु व मेघनाद आचार्य ने बाल रोगों की चिकित्सा संबंधी ग्रंथ का प्ररूपण किया है। सिंहनादि आचार्य ने शरीर बलवर्धक प्रयोगों का निरूपण किया है। उग्रादित्याचार्य ने लघुता प्रकट करते हुए कहा है कि श्री समन्तभद्राचार्य ने अष्टांक नामक ग्रंथ में विस्तृत व गम्भीर विवेचन किया है। उसका अनुकरण कर मैंने यहाँ पर संक्षेप से यथाशक्ति सम्पूर्ण विषयों से परिपूर्ण इस कल्याणकारक को लिखा है। यथा
दिगम्बराचार्यों ने स्वास्थ्य को दो प्रकार से बतलाया है। एक पारमार्थिक स्वास्थ्य और दूसरा व्यावहारिक स्वास्थ्य। ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों के नाश से उत्पन्न अविनश्वर अतींद्रिय व अद्वितीय आत्मीय सुख को पारमार्थिक स्वास्थ्य कहते हैं। देह स्थित सप्त धातु, अग्नि व वात पित्तादि दोषों में समता, इन्द्रियों में प्रसन्नता, मन में आनन्द एवं शरीर निरोग रहना इसे व्यावहारिक स्वास्थ्य कहते हैं। स्वास्थ्य के स्वस्थ न होने में आगम में असातावेदनीय कर्म को मुख्य बतलाया है और वात, पित्त, कफ में विषमता आदि को बाह्य कारण ग्रहण किया है। इसी प्रकार रोग के शान्त होने में भी मुख्यकारण असातावेदनीय कर्म की उदीरणा व साता वेदनीय का उदय एवं धर्म सेनादि है। अंतरंग स्वस्थता के लिए श्रवण व श्रावक को जप—तपादि शुभ/शुद्धोपयोग रूप कार्य करना चाहिए व बहिरंग स्वस्थता के लिए शरीर विज्ञान काे जानकर कुशल वैद्यकों की सलाह लेकर शुद्ध औषधि पूर्वक कायोपचार कराना चाहिए। उग्रादित्याचार्य इसी ग्रंथ में मुनि के लिए कहते हैं–
‘‘आरोग्यशास्त्रमधिगम्य मुनिर्विपश्चित् । स्वास्थ्यं स साधयति सिद्धसुखैकहेतुम् ।।
जो विद्वान् मुनि आरोग्यशास्त्र को अच्छी तरह जानकर उसी प्रकार आहार, बिहार, निहार रखते हुए स्वास्थ्य रक्षा कर लेते हैं, वह सिद्धसुख के मार्ग को प्राप्त कर लेते हैं। जो स्वास्थ्य रक्षा विधान को न जानकर अपने आरोग्य की रक्षा नहीं कर पाता है वह अनेक दोषों से उत्पन्न रोगों से पीड़ित होकर अनेक प्रकार के दुष्परिणामों से कर्मबंध कर लेता है। आरोग्य की क्या आवश्यकता है इस पर पुन: आचार्य कहते हैं—
‘‘न धर्मस्य कर्ता न चार्थस्य हर्ता, न कामस्य भोक्ता न मोक्षस्य पाता।
बुद्धिमान् मनुष्य दृढ़मनस्क होने पर भी यदि रोगी हो तो वह न धर्म कर सकता है, न धन कमा सकता है न मोक्ष साधन कर सकता है अर्थात् रोगी धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चतु: पुरुषार्थ का साधन नहीं कर सकता। जो पुरुषार्थ को प्राप्त नहीं कर पाता है। वह मनुष्यभव में जन्म लेने पर भी मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है क्योंकि मनुष्यभव की सफलता, पुरुषार्थ प्राप्त करने से ही होती है। चिकित्सा करने वाला वैद्य कैसा होना चाहिए इस विषय पर कल्याणकारककार ने जो प्रतिपादन किया है वह प्रत्येक वैद्यों को ध्यान में रखने लायक है।
स्वयं कृती दृष्टमहाप्रयोग: समस्तशास्त्रार्थविदप्रमादी।।’’
—(वहीं, ७—३८)
वैद्य सत्यनिष्ठ, धीर, क्षमासम्पन्न, हस्त लाघवयुक्त स्वयं औषधि तैयार करने में समर्थ बड़े—बड़े रोगों पर किए गए प्रयोगों को देखा हुआ, सम्पूर्ण शास्त्रों को जानने वाला व आलस्यरहित होना चाहिए। वैद्य वही सफल होता है जो रोगियों को अपने पुत्र के सामान मान कर चिकित्सा करता है। शास्त्रकारों ने कहा कि अज्ञानी वैद्य यदि लोभ व स्वार्थवश किसी की चिकित्सा करता है तो वह रोगियों को मारता है। ऐसे मूर्ख वैद्यों से दूर रहना चाहिए। इस संबंध में उग्रादित्याचार्य का कहना है कि—
अज्ञानी के द्वारा प्रयुक्त अमृततुल्य औषधि भी विष व शस्त्र के समान होते हैं। अज्ञान, लोभ व मोह से शास्त्र को नहीं जानते हुए भी चिकित्सा कार्य में जो प्रवृत्त होता है वह सभी प्राणियों को मारता है। राजाओं को उचित है कि वे ऐसे वैद्यों की चिकित्सा करने से रोकें। अनेक जैनाचार्यों ने मन, वचन और काय की चिकित्सा के लिए अहिंसात्मक दृष्टि से उपाय व उपचार हेतु अनेक ग्रंथ लिखे। जैनधर्म अहिंसा प्रधान होने से उन महाव्रतधारी मुनियों ने इस बात का भी प्रयत्न किया कि औषधि निर्माण के कार्य में किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं होना चाहिए। आयुर्वेद ग्रंथकारों ने वनस्पतियों को औषधि में प्रधान स्थान दिया। पुष्पायुर्वेद में ग्रंथकार ने अट्टारह हजार (१८,०००) जाति के कुसुम (पराग) रहित पुष्पों से ही रसायनौषधियों के प्रयोगों को लिखा है। पुष्पायुर्वेद का निर्माण जैनाचार्यों के सिवाय और किसी ने भी नहीं किया है।