शरीर
द्वारा-आर्यिका सुद्रष्टिमति माताजी
प्र. ६१७ : शरीर का स्वरूप उदाहरण के द्वारा स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर : कविवर भूधरदासजी ने शरीर के स्वरूप का वर्णन करते हुये बताया है कि माता-पिता रजवीरज सों उपजी, सब धातु कुधातु भरी है। माखिन के पर माफिक बाहर चर्म की बेठन बेड़ धरी है। नाहि तो आय लगें की बकवायस जीव वचें न धरी है। देह दशा यहि दीखत भ्रात, घिनात नहीं बुद्धि हरी है।
यह शरीर माता के रज व पिता के वीर्य से मिलकर बना है। इसमें अस्थि, मांस, मज्जा, मेद आदि भरे हुये हैं। मक्खियों के पंख जैसा बारीक चमड़ा चारोंओर से लपेटा हुआ है। अन्यथा बिना चमड़े के मांस पिंड को क्या कौवे छोड़ देते? (रत्नाकर शतक पृष्ठ १०२ से)
प्र. ६१८ : शरीर से किस तरह काम लेना चाहिये?
उत्तर : इस शरीर को नौकर के समान आज्ञाकारी रखने के लिये सदैव नीरस आहार ही देना चाहिये। इस शरीर से आत्मसाधन का काम लेना, सात तत्वों के विचार में मन को लगाने, सदैव शास्त्र चर्चा, जिनागम में निरन्तर रुचि रहे ऐसा काम लेना चाहिये। इस प्रकार प्रवृत्ति करने वाले विवेकी के क्षण-क्षण में सचित कर्मों का नाश नहीं होगा क्या? अवश्य होगा।
H. ६१९ : रावण की मृत्यु हुई, उसके दाह-संस्कार के पश्चात् कितनी रानियों ने दीक्षा धारण क थी?
उत्तर : रावण के दाह-संस्कार के पश्चात् मन्दोदरी, चंद्रनखा आदि १८ हजार रानियों ने शशिकांत आर्थिका के पास दीक्षित हो कठोर तप किया, ज्ञान, ध्यान, तप के द्वारा स्त्री पर्याय का छेदन कर कल्पवाली देवपर्याय को प्राप्त हुई।
प्र. ६२०: तेजस, कार्मण शरीर के अंदर रहते हैं तो फिर बाहर का शरीर (औदारिक) तो उन कनॉ बाहर है, ऐसा अर्थ हुआ अर्थात् औदारिक शरीर के लिये कर्मों का कोई संबंध नहीं है?
उत्तर : सात कर्म तो अंदर के तेजस कार्मण शरीर से संबंध रखते हैं परन्तु नामकर्म तो बाहर व अंदर के दोनों शरीर से संबंध रखता है अर्थात् सात कर्म तो तेजस कार्मण में रहते हैं। परन्तु नामकर्म तो औदारिक व उन अंतरंग शरीरों से भी रहता है।
प्र. ६२१ : इस प्राप्त शरीर को छोड़कर आगे के शरीर को न लेने का उपाय क्या है?
उत्तर : बीज की अंकुरोत्पत्ति की सामर्थ्य जब तक मूल से नष्ट नहीं की जाती है, तब तक वह अंकुरोत्पत्ति का कार्य जरूर करेगा। मूल से उसकी शक्ति नष्ट करने पर फिर उसमें यह कार्य नहीं दिखेगा। इसी प्रकार शरीर की उत्पत्ति का कारण जो कर्म है, उस कर्मबीज का मूल से नाश करना चाहिये। इससे आगे का शरीर उत्पन्न नहीं हो सकता। यदि कर्मवीज को अच्छी तरह से जला दिया तो शरीर की उत्पत्ति होना असंभव है। परन्तु कौनसी अग्नि से जलना है? सम्यग्ज्ञान अथवा विवेकरूपी अग्नि से कर्म जलाया जा सकता है फिर देव की उत्पत्ति असंभव है। तब आत्म-मुक्ति स्थान को प्राप्त कर अनंत सुखी बन सकता है।
प्र. ६२२ : शरीर संबंधी सुख में पागल होकर आत्मसुख का स्वाद जो नहीं लेते, उनकी गति कैसी हैं |
उत्तर : जो लोग शरीर संबंधी सुख में पागल होकर आत्मसुख का स्वाद नहीं लेते हैं और इन्द्रिय सुख को ही भोगते हैं, उनकी गति ठीक वैसी ही है जैसे कोई पागल भूसे को बचाकर रखता हो और चांवल को फेंक रहा हो। यह अज्ञानी भी सारे आत्मसुख को छोड़कर असार इन्द्रिय सुख को ग्रहण करता है।
प्र. ६२३ : शरीर का स्वरूप बतलाइये।
उत्तर : भोगायतनं शरीरम् । अर्थ जो शुभ-अशुभ भोगों का स्थान है वह शरीर है।
प्र. ६२४ : प्रमत्त नाम के छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के आहारक शरीर होता है, ऐसे इस आहारक शरीर की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति कितनी है?
उत्तर : चैत्यवन्दना करने यात्रा करने या पदार्थों का निर्णय करने के लिये मस्तक से एक हाथ प्रमाण श्वेत पुरुषाकार प्रदेश निकलते हैं, केवली के दर्शन कर अथवा यात्रादि का अपना कार्य कर फिर वहीं आकर प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे आहारक शरीर की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है तथा आहारक शरीर पर्याप्ति की पूर्णता होने पर आहारक योग वाले छठे गुणस्थानवर्ती साधु की आहारक काययोग के समय में यदि साधु का अंत हो जाये तो उनका मरण भी हो जाता है।
प्र. ६२५ : आहारक शरीर का काल अंतर्मुहूर्त है, उस समय वह साधु अपने औदारिक शरीर से शमन करे या नहीं और उसे यदि विक्रिया ऋद्धि भी हो तो उस ऋद्धि शरीर की विक्रिया रूप चेष्टा कर सकता है या नहीं?
उत्तर : प्रमत्त संयत मुनिराज के एक काल में एक साथ ही वैक्रियिक काययोग की क्रिया में आहारक काययोग की किया नहीं होती है। इससे सिद्ध होता है कि आहारक योग के समय औदारिक वैक्रियिक शरीर शमनागमनादि का नियम से अभाव होता है, एक काल में ये दो क्रियाएँ नहीं होती है।
प्र. ६२६ : औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस व कार्मण शरीर की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति कितनी-कितनी है?
उत्तर: औदारिक शरीर की जघन्य स्थिति एक श्वास के १८वें भाग प्रमाण है। वैक्रियिक शरीर की जघन्य स्थिति देवनारकियों की अपेक्षा दस हजार वर्ष है, आहारक शरीर की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है, तेजस व कार्माण की जघन्य स्थिति अन्य गति के गमन की अपेक्षा एक दो तीन समय है।
पाँचो शरीर की उत्कृष्ट स्थिति भोगभूमि की अपेक्षा औदारिक शरीर की बंध रूप उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य है, देवनारकियों की अपेक्षा वैक्रियिक की ३३ सागर है। आहारक की अंतर्मुहूर्त है। तेजस शरीर की ६६ सागर है। कार्माण शरीर की उत्कृष्ट स्थिति सामान्य रीति से ७० कोड़ाकोड़ी सागर है तथा विशेष रीति से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय की स्थिति ३० कोड़ाकोडी सागर है। नाम और गोत्र की २० कोड़ाकोड़ी सागर है।
प्र. ६२७ : मरण और दुःख की जननी कौन है?
उत्तर: काया (शरीर) है।
प्र. ६२८ : शरीर में रोमों की संख्या बतलाओ।
उत्तर: शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम अर्थात् बाल है।
प्र. ६२९ : औदारिक शरीर में कितनी हड्डियाँ हैं?
उत्तर: औदारिक शरीर में ३०० हड्डियाँ हैं।
प्र. ६३० : औदारिक शरीर में कितनी संधियाँ हैं?
उत्तर: औदारिक शरीर में ३०० संधियाँ हैं।
प्र. ६३१ : औदारिक शरीर में कितनी त्वचा हैं?
उत्तर : औदारिक शरीर में ७ त्वचा हैं।
प्र. ६३२ : हमारा शरीर चेतन है या अचेतन?
उत्तर : हमारा शरीर तथा अन्य सभी प्राणियों के शरीर अचेतन हैं क्योंकि शरीर की रचना पुद्गल द्रव्य से होती है। परंतु चेतन आत्मा के साथ संबंध होने से जीवित मनुष्य के शरीर को व्यवहार से चेतन कहा जाता है।