दुष्प्रयुक्त शस्त्र, विष, भूत तथा दुष्प्रयुक्त यन्त्र तथा क्रुद्ध सर्प आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नहीं करते, जितना अनिष्ट समाधिकाल में मन में रहे हुए माया, मिथ्यात्व व निदान शल्य करते हैं। इसी से बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा संसार का अन्त नहीं होता। तदुद्धरन्ति गौरवरहिता, मूलं पुनर्भवलातानाम्। मिथ्यादर्शनशल्यं, मायाशल्यं निदानं च।।
अत: अभिमानरहित साधक पुनर्जन्म रूपी लता के मूल अर्थात् मिथ्यादर्शन—शल्य, मायाशल्य व निदानशल्य को अंतरंग से निकाल पेंâकते हैं।