किसी समय सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस, और जयमित्र नाम के सप्त ऋषि महामुनि अयोध्या नगरी में विधिपूर्वक भ्रमण करते हुये अर्हदत्त सेठ के घर पहुँचे। उन मुनियों को देखकर सेठ ने मन में सोचा कि इन मुनियों ने इस अयोध्या नगरी में वर्षायोग स्थापना नहीं की है पुन: ये मुनि वर्षा ऋतु में यहाँ कैसे आ गये? ये अनर्गल प्रवृत्ति करने वाले दिखते हैं। इस नगरी के आसपास पर्वत की कन्दराओं में, नदी के तट पर, वृक्ष के मूल में, सूने घर मेंं, जिनालय में तथा अन्य स्थानों पर जो भी मुनिराज स्थित हैं वे वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर भ्रमण नहीं करते हैंं इत्यादि रूप से विचार करके सेठ ने उन्हें आहार नहीं दिया किन्तु उनकी पुत्रवधू ने उन मुनियों को आहारदान देकर अक्षय पुण्य संपादन कर लिया।
आहार के बाद वे निर्दोष प्रवृत्ति वाले मुनि अनेक मुनियों से व्याप्त श्री मुनिसुव्रत भगवान के मंदिर मेंं दर्शनार्थ पहुँचे। ये पृथिवी से चार अंगुल ऊपर चल रहे थे। ऐसे इन ऋद्धिधारी मुनियों को मंदिर में विद्यमान द्युति भट्टारक अर्थात् द्युति नामक आचार्य ने देखा और खड़े होकर इनकी वंदना करके रत्नत्रय कुशल आदि पूछकर विनय भक्ति की। द्युति आचार्य के शिष्यों ने उन सप्तऋषियों की निंदा करते हुये मन में विचार किया कि अहो! ये हमारे आचार्य चाहे किसी की वंदना करने लग जाते हैं। पुन: वे सातों ऋषि जिनेंद्रदेव की स्तुति करके आकाशमार्ग से अपने स्थान को विहार कर गये। उन्हें आकाशमार्ग से जाता देख अन्य मुनियों ने उन्हें चारण ऋद्धिधारी समझकर उनके प्रति किये गये दुर्भावों की निंदा करते हुये अपने अपराध की शुद्धि की।
इसी बीच मंदिर में अर्हदत्त सेठ आ गये। द्युति भट्टारक ने उनसे पूछा कि आज आपने उत्तम महामुनि के दर्शन किये होंगे? वे मथुरा के निवासी, आकाश ऋद्धिधारी महातपस्वी थे। आचार्य के मुख से उन मुनियों की महिमा को सुनकर सेठ का हृदय पश्चात्ताप से संतप्त हो गया। वह विचार करने लगा कि यथार्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्यादृष्टी को धिक्कार हो। मेरे समान अनिष्ट, अनुचित आचरण युक्त अधार्मिक कौन होगा? मुझ से बढ़कर अन्य मिथ्यादृष्टी और कौन होगा? हाय! मंैने उठकर उन मुनियों की पूजा नहीं की तथा नमस्कार कर उन्हें आहार से संतुष्ट नहीं किया। जो मुनि को देखकर आसन नहीं छोड़ता है वरन् देखकर उनका अपमान करता है वह मिथ्यादृष्टी कहलाता है१। इत्यादि रूप से अपनी निन्दा करते हुए वह सोचता है कि जब तक मैं हाथ जोड़कर उन मुनियों की वंदना नहीं कर लेता तब तक मेरे मन की दाह शांत नहीं होगी। अहंकार से उत्पन्न हुये इस पाप का प्रायश्चित्त उन मुनियों की वंदना के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।
अनंतर कार्तिक सुदी पूर्णिमा को निकट जानकर उस महासम्यग्दृष्टी, वैभवशाली सेठ ने सप्तर्षियों की पूजा के लिए अपने बंधुओं के साथ मथुरा नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन वहाँ पहुँचकर मुनियों की वंदना करके पूजन हेतु महान उत्सव किया। इन सप्तर्षि मुनियों ने मथुरा नगरी के समीप वटवृक्ष के नीचे वर्षायोग धारण किया था। फिर भी ये ऋद्धि के प्रभाव से आकाशमार्ग से बहुत दूर पोदनपुर, विजयपुर, अयोध्या आदि स्थानों में जाकर पाणिपात्र में शुद्ध भिक्षा ग्रहण किया करते थे। इनके प्रभाव से मथुरा नगरी की महामारी शांत हो गई थी। उस समय वहाँ का राजा शत्रुघ्न था जो कि रामचन्द्र जी का लघु भ्राता था। आगे इन्हीं ‘‘सप्तर्षियों ने राजा शत्रुघ्न को जिन मंदिर बनवाने का एवं स्थल-स्थल पर सप्तर्षि प्रतिमा बनवाकर विराजमान करने का उपदेश दिया है तथा घर-घर में चैत्यालय बनवाने का भी उपदेश दिया है।”
(१) इस कथानक से हमें यह देखना है कि ऋद्धिधारी महामुनियों ने नगरी के समीप उद्यान में वर्षायोग किया था तथा श्रावकों को मूर्ति, मंदिर, मुनि प्रतिमा, घर में चैत्यालय आदि बनवाने का उपदेश दिया था।
(२) दूसरी बात यह देखनी है कि महान आचार्य द्युतिगुरूदेव अपने संघ सहित अयोध्या में मुनिसुव्रत भगवान के मंदिर में वर्षायोग धारण कर चातुर्मास कर रहे थे।
(३) तीसरी बात यह है कि चारण ऋद्धिधारी मुनि वर्षाकाल में भी आहार आदि निमित्त अन्यत्र विहार कर सकते हैं। कारण यही है कि उनके द्वारा आकाशमार्ग से गमन करने में पृथ्वीतल के जीवों को बाधा नहीं पहुँचती है।
अभिप्राय यह है कि जब ऐसे ऋद्धिधारी सप्तर्षि, जिनके प्रभाव से महामारी रोग समाप्त हो गया है, उन्होंने भी जब मथुरा नगरी के निकट उद्यान में चातुर्मास किया था, और द्युति आचार्य ससंघ अयोध्या के जिनमंदिर में चातुर्मास कर रहे थे, जबकि श्रीमुनिसुव्रत तीर्थंकर का तीर्थकाल था और मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इस पृथ्वी का पालन कर रहे थे, पुन: यदि आज के हीनसंहनन वाले मुनि ग्राम के मंदिर आदि में चातुर्मास करते हैं तो क्या बाधा है?