रचयित्री-गणिनी ज्ञानमती माताजी
-अथ स्थापना-
(तर्ज-गोमटेश, जय गोमटेश……)
आदिनाथ, जय आदिनाथ, मम हृदय विराजो-२
हम यही भावना करते हैं।
भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर नगर में प्रभु पूजा, सारी धरती भक्ति स्थल हो।।हम०।।१।।
युग की आदि में इन्द्रराज ने, नगरि अयोध्या रचवाई।
श्री नाभिराय मरुदेवि को पाकर, सारी जनता हरषाई।।
प्रभु आदिनाथ का जन्म याद कर, मेरा मन भी उज्ज्वल हो।।हम०।।२।।
श्री अजितनाथ अभिनंदन सुमती, जिन अनंत ने जन्म लिया।
इन्द्रों ने जिन शिशु को लेकर, मेरू गिरि पर अभिषेक किया।।
जिन जन्मभूमि का अर्चन कर, मेरा मन भी अति उज्ज्वल हो।।हम०।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
तर्ज-आवो बच्चों तुम्हें दिखायें…..
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
सरयूनदि का जल अति शीतल, पद्मपराग सुवास मिला।
रागभाव मल धोवन कारण, धार करें मनकंज खिला।।
जलधारा से पूजा करते, पावें उज्ज्वल कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।१।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
केशर घिस कर्पूर मिलाया, भ्रमर पंक्तियां आन पड़ें।
तीर्थक्षेत्र पूजन से नशते, कर्मशत्रु भी बड़े बड़े।।
चंदन से पूजा करते ही, पावें अविचल कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।२।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
चंद्र चन्द्रिका सम सित तंदुल, पुंज चढ़ायें भक्ती से।
अमृतकणसम निज समकित गुण, पायें अतिशय युक्ती से।।
अक्षत से जिनक्षेत्र पूजते, पावें अक्षय कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।३।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
वर्ण वर्ण के सुमन सुगंधित, पारिजात वकुलादि खिले।
काम व्यथा नश जाय तीर्थ को, अर्पण कर नवलब्धि१ मिले।।
पुष्पों से पूजा करते ही, पावें निजगुण कीर्ति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।४।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
रसगुल्ला रसपूर्ण अंदरसा, कलाकंद पयसार२ लिये।
अमृतपिंड सदृश नेवज से, तीर्थक्षेत्र को यजन किये।।
चरु से पूजा करते ही जन, हरते क्षुध् की भीति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।५।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
हेमपात्र में घृत भर बत्ती, ज्योति जले तम नाश करे।
दीपक से आरति करते ही, हृदय पटल की भ्रांति हरे।।
करें आरती भक्ति भाव से, पावें आतमज्योति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।६।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
धूपघड़े में धूप जलाकर, अष्टकर्म को दग्ध करें।
निजआतम के भावकर्म मल, द्रव्यकर्म भी भस्म करें।।
धूप खेयकर पूजा करते, पावें सुरभित कीर्ति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।७।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतम तीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
फल अंगूर अनंनासादिक, सरस मधुर ले थाल भरे।
आत्म अतीन्द्रिय सुख इच्छुक हो, फल अर्पें बहु भक्ति भरे।।
फल से पूजा करते ही हम, पावें निजपद तीर्थ को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।८।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल अर्घ्य लिया।
केवल ‘ज्ञानमती’ पद हेतू, जिनपद पंकज अर्प्य दिया।।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजा करते, पावें शिवपद तीर्थ को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।९।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
सरयूनदि का नीर, कंचन झारी में भरा।
मिले भवोदधि तीर, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा
वकुल कमल कल्हार, पुष्पांजलि करते यहाँ।
मिले सौख्य भंडार, यश सौरभ चहुंदिश भ्रमें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः
-जाप्य मंत्र-
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवादितीर्थंकरजन्मभूमिशाश्वत-अयोध्या-तीर्थक्षेत्राय नम:।
-शंभु छन्द-
हे नाथ! आपके गुणमणि की, जयमाल गूंथ कर लाये हैं।
भक्ती से प्रभु के चरणों में, गुणमाल चढ़ाने आये हैं।।
है धन्य अयोध्यापुरी जहाँ, श्री आदिनाथ ने जन्म लिया।
जिन अजितनाथ अभिनंदन सुमती, प्रभु अनंत ने धन्य किया।।
वैâलाशगिरी से वृषभदेव जिन, मोक्षधाम को पाये हैं।।हे०।।१।।
सम्राट् भरतचक्री ने दीक्षा ले, शिवपद को प्राप्त किया।
इक्ष्वाकुवंशि नृप चौदह लाख हि, लगातार शिवधाम लिया।।
ये पुरी विनीता के जन्में, परमात्मधाम को पाये हैं।।हे०।।२।।
बाहुबलि कामदेव ने जीत, भरत को फिर दीक्षा धरके।
प्रभु एक वर्ष थे ध्यान लीन, तन बेल चढ़ी अहि भी लिपटे।।
फिर केवलज्ञानी बनें नाथ, हम गुण गाके हर्षाये हैं।।हे०।।३।।
श्री अजितनाथ आदिक चारों, तीर्थंकर सम्मेदाचल से।
शिवधाम गये इन्द्रादिवंद्य, हम नित वंदें, मन वच तन से।।
धनि धन्य अयोध्या जन्मस्थल, शिवथल वंदत हर्षाये हैं।।हे०।।४।।
युग की आदी में आदिनाथ, पुत्री ब्राह्मी सुंदरी हुई।
पितु से ब्राह्मी औ अंकलिपी, पाकर विद्या में धुरी हुई।।
पितु से दीक्षा ले गणिनी थीं, इनके गुण सुर नर गाये हैं।।हे०।।५।।
इनके पथ पर अगणित नारी, ने चलकर स्त्रीलिंग छेदा।
आर्यिका सुलोचना ने ग्यारह, अंगों को पढ़ जग संबोधा।।
इन परम्परागत सभी आर्यिकाओं को शीश नमाये हैं।।हे०।।६।।
जय जय रत्नों की खान रत्नगर्भा, रत्नों की प्रसवित्री।
जय जय साकेतापुरी अयोध्यापुरी विनीता सुखदात्री।।
जय जयतु अनादिनिधन नगरी, हम वंदन कर हर्षाये हैं।।हे०।।७।।
बस काल दोष से इस युग में, यहाँ पांच तीर्थंकर जन्म लिये।
सब भूत भविष्यत् कालों में, चौबिस जिन जन्मभूमि हैं ये।।
हम इसका शत शत वंदन कर, अतिशायी पुण्य कमाये हैं।।हे०।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव-अजितनाथ-अभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्राय जयमाला पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-दोहा-
जन्मभूमि शाश्वत यही, तीर्थ अयोध्या धाम।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हितु, कोटि कोटि प्रणाम।।
।।इत्याशीर्वादः।।