आजकल कुछ पत्र— पत्रिकाओं में शासनदेवी—देवताओं की मान्यता के विरोध में लेखादि छप रहे हैं उनमें जोर इस बात पर दिया जा रहा है कि हमारे लिए उपासक या वन्दनीय केवल वीतराग जिनेन्द्र देव ही हो सकते हैं। यह ठीक भी है। जैन सिद्धान्त का ‘क—ख—ग’ जानने वाला भी यही कहेगा। हमें भी यही इष्ट है। इससे असहमति व्यक्त करने का अर्थ तो अपने ‘जैनत्व’ पर ही प्रश्न चिह्न लगाना है। कोई शासनदेवों को माने या नहीं भी माने तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? जोर—जबर्दस्ती से न तो कोई किसी को उन्हें मानने के लिए विवश कर सकता है और न ही वह अहिंसक मार्ग ही है। ऐसे लेखों को पढ़कर चौंकते हम तब हैं, जब यह पाते हैं कि शासनदेवों का बहाना बनाकर महासभा और मुनियों को कोसा जाता है । क्या शासनदेवों की उत्पत्ति महासभा या मुनियों ने की है? महासभा ने तो अभी अपने जीवन में सौ वसन्त ही पूरे किये हैं, जबकि शासनदेवों, दिक्पालों आदि का अस्तित्व हजारों सालों से मान्य है। अठारहवीं सदी तक किसी ने उन्हें चुनौती भी नहीं दी। यह विवाद भी इधर के दो सौ वर्षों की ही उपज है। जहाँ तक मुनियों की बात है, उनमें भी सभी तो पद्मावती आदि के प्रचारक नहीं हैं और जो हैं भी, क्या वे शासनदेवों को जिनेन्द्र देव के समकक्ष मानने के लिए कहते हैं अथवा अर्हन्त और सिद्ध भगवान की उपासना को गौण करते हुए शासनदेवादि की मान्यता को मुख्यता देते हैं ? इस सन्दर्भ में तटस्थ भाव से चिन्तन करने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम तो हमे उनके अस्तित्व के बारे में निर्णय करना है। आचार्य पूज्यपाद (चौथी शताब्दी) तथा उनके बाद हुए आचार्य गुणभद्र, आचार्य सोमदेवसूरि एवं पं. आशाधर जी ने अपने प्रतिष्ठा—पाठों में शासनदेव, दिक्पालादि का उल्लेख किया है। आचार्य श्री इन्द्रनन्दि, बसुनन्दि एवं नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठा—वधानों में, भी इनके आहवान के लिए मंत्र और सूत्र हैं। ‘मंगलाष्टक’ में हम प्रतिदिन तथा विभिन्न उत्सवों पर जयादिक आठ देवियों, सोलह विद्या—देवताओं, चौबीस यक्ष—यक्षिणियों, बत्तीस इन्द्रों, आठ दिक्कन्याओं, दस दिक्पालों आदि देव—समूह से अपने और सबके कल्याण की कामना करते हैं। मथुरा में कंकाली टीला के उत्खनन से प्राप्त पुरातत्व —सम्पदा में चव्रेश्वरी एवं सरस्वती की मूर्तियाँ भी हैं, जो ईसा पूर्व की कृतियाँ है। उड़ीसा स्थित खण्डगिरि—उदयगिरि की गुफाओं में दो हजार सालों से भी पहले की बनी अम्बिका, गोमेद, गान्धारी,धरणेन्द्र, पद्मावती, रोहिणी इत्यादि की मूर्तियाँ मिलती हैं। सितम्बर १९८२ में बम्बई में श्रीमान् साहू श्रेयांसप्रसादजी द्वारा भारतीय ज्ञानपीठ के अवधान में आयोजित संगोष्ठी में श्री नीरज जी ने अपने आलेख में सप्रमाण कहा था— ‘‘प्राचीन काल में तीर्थंकर मूर्तियाँ जितनी संख्या में बनीं, उससे कई गुनी संख्या, शासनदेवों, अप्सराओं, किन्नर, गन्धर्व, दिक्पाल, नवग्रह आदि की मूर्तियों की पाई जाती हैं।’’ डा. भागचन्द्र भास्कर ने गुप्तोत्तरकालीन प्रतिमा—कला पर बोलते हुये एलोरा में उत्कीर्ण इन्द्रसभा का विशेष रूप में उल्लेख किया था। इस इन्द्रसभा में शासनदेवों की मूर्तियाँ भी हैं। अन्य भी सभी प्राचीन क्षेत्रों तथा चम्पापुरी, कौशाम्बी, श्रीवस्ती, पभोसा, देवगढ़, गंजपथा, हुम्मच, नरसिहंपुरा आदि में शासनदेव—देवियों की मूर्तियाँ प्रचुर मात्रा में ट्टष्टव्य हैं और उनमें से अधिकांश प्राचीन हैं। श्रवणबेलगोल की विश्वविख्यात गोमेटश्वर प्रतिमा के सहस्राब्दी समारोह की स्मृति अभि धूमिल नहीं हुई है। साहित्य और काल के क्षेत्र में विद्यमान इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के रहते हुये भी इनके अस्तित्व को नकारना क्या इतिहास के साथ अन्याय नहीं होगा ? अब रहा शासनदेवी—देवताओं की पूजा का प्रकरण तो इस सन्दर्भ में भ्रान्तियाँ उत्पन्न करने की बहुत कोशिशें की जाती रहीं हैं। पहली गड़बड़ तो ‘पूजा’ शब्द के अर्थ को लेकर ही हो रही है। संस्कृत की ‘पूज’ धातु से यह शब्द बना है। यह धातु वन्दना करने और सत्कार करने, इन दोनों अर्थों में प्रयुक्त होती है। जिन—पूजा और देवता—पूजा में अन्तर है। पूजा शब्द का वन्दना—समर्थक अर्थ देवता— पूजा में अभिप्रेत ही है । यहाँ पूजा से प्रयोजन सत्कार करने से है। जिस प्रकार माता—पिता और विद्या—गुरूओं का सम्मान किया जाता है, उसी प्रकार जिनभक्त, धर्मवत्सल एवं प्रभावक शासनदेवों का सम्मान करने की बात कही जाती है। उनके प्रति आदर व्यक्त करना है, श्रद्धा नहीं। श्रद्धान तो वीतराग परमेष्ठी के प्रति ही हो सकता है। ‘यशस्तिलक’ में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है:—
देव जगत्रयी नेत्रं व्यंतराद्याश्य देवता:। सभा पूजा विधानेषु पश्यन् दूरं व्रजेदध:।।
अर्थात्—देवाधिदेव जिनेन्द्रप्रभु और व्यन्तरादि शासनदेवों को जो समान कोटि में मानता है,वह दुर्गति का पात्र होता है। अन्य भी किसी आचार्य ने शासनदेवों की वन्दना -सहित पूजा करने की बात नहीं कही है । आचार्यों की वाणी के आधार पर ही स्व. ब्र. शीतलप्रसाद जी ने ‘जैन मित्र’ में लिखा था— जिन शासनदेव अर्हन्ततुल्य नहीं होते। वे हर दशा में साधर्मी — समान मानने योग्य हैं।’ साधर्मी का सम्मान करना क्या कोई गुनाह है ?धरणेन्द्र, पदमावती, चक्रेश्वरी, क्षेत्रपालादि शासनदेव, धर्म, धर्मात्मा और धर्मायतनों के रक्षक के रूप में चर्चित हैं। राजकुमार नमि—विनमि, महासती सीता, जीवन्धरकुमार, धन्य कुमार, अनन्तमती, तपस्वी पार्श्वनाथ, सुदर्शन सेठ, स्वामी समन्तभद्र, पात्रकेसरी, विद्यानन्दि, आचार्य मानतुंग, श्रीमद्भट्टाकलंकदेव, वादिराज सूरि आदि के जीवन—प्रसंगों में इन देवों आदि के द्वारा की गई सहायता—वार्ता पुराण प्रसिद्ध है। प्रथमानुयोग ऐसे प्रसंगों से भरा पड़ा है। ऐसे धर्मबुद्धि शासनदेवों को साधर्मी मानकर आदर देना सम्यग्दर्शन के वात्सल्य अंग का ही परिचायक है। शासनदेवों को आदर देने से सम्यक्तव दूषित हो जायेगा, ऐसी कल्पना ही हास्यास्पद है। धर्मात्माओं की पूजा—प्रशंसा करना शास्त्रानुमोदित है। पं. सदासुखलालजी ने विनयसम्पन्नता भावना का वर्णन करते हुए लिखा है कि अपमान तो किसी भी जीव का नहीं करना चाहिए। दूसरों को सम्मान देने वाला स्वयं सम्मान पाता है। जो दूसरों का अपमान करता है वह स्वयं भी अपमानित होता है। अपमान तो मिथ्यादृष्टि का भी नहीं करना चाहिए। एक सद्गृहस्थ के लिए परमार्थ विनय और व्यवहार विनय दोनों का ही निर्वाह करना उचित है। ‘पूजा’ शब्द की तरह ही ‘देव’ शब्द से भी कभी—कभी लोग उलझन में पड़ जाते हैं। जैन ग्रन्थों में ‘देव’ शब्द का प्रयोग वीतरागी जिनेन्द्र भगवान् तथा देवगति के संसारी जीव दोनों के लिए होता है। पंच परमेष्ठी, चैत्य, चैत्यालय, शास्त्र और तीर्थक्षेत्र,ये भी नवदेवता माने गए हैं। इसीलिए प्रकरण के अनुसार ही ‘देव’ शब्द का अर्थ ग्रहण करना चाहिये। आचार्य सकलकीर्ति ने अपने ‘धर्म’—प्रश्नोत्तर’ ग्रन्थ में देव चार प्रकार के (देवाश्चतुर्विधा:) बताये हैं:—
(१) देवाधिदेव अर्थात् धर्म—प्रवर्तक लोकनायक तीर्थंकरदेव
(२) सुदेव अर्थात् चतुर्निकायों के सम्यग्दृष्टि एवं जिनभक्त इन्द्रादि देव तथा
(३) कुदेव अर्थात् सभी मिथ्यादृष्टि देव तथा
(४) अदेव अर्थात् परवंचक एवं धूर्त जिन्न, प्रेत आदि देव।
जैन कथा— साहित्य में शासनदेवों की चर्चा जिस रूप में आई है, उससे उन्हें सुदेव मानना ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं अन्य विविध विधि विधानों में सम्भावित विघ्नों की शान्ति के लिए हमारे आचार्यगणों के द्वारा मिथ्यादृष्टि देवी—देवताओं का आह्वान किये जाने की बात हमारी समझ से परे है। स्व. डा. हीरालालजी एक अन्वेषक विद्वान थे। वह ‘भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान’ पुस्तक में लिखते है। ‘भगवती सूत्र के आधार पर ऐसा अनुमान होता है कि विवाह के पश्चात् प्रत्येक कुटुम्ब में शासनदेवों की प्रतिमायें कुलदेवता के रूप में प्रतिष्ठित की जाती थी। भारत के प्राय: सभी दि.जैन मंदिरो में प्राचीन काल से ही जिनशासन देवता की स्थापना का प्रचलन था, आर्ष ग्रन्थों से यह सिद्ध होता है।’’ डा. साहब के इस कथन को चुनौती देने योग्य बुद्धि हमारे पास तो कम—से कम नहीं है। यह सही है कि भवनवासी, व्यन्तर एवं ज्योतिषी (भवनत्रिक) देवों में सम्यग्दृष्टि जीव जन्म नहीं लेते, किन्तु पर्याप्तियों के पूर्ण होने पर उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता, ऐसा भी नियम नहीं है। जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन, समवसरणविभूति—दर्शन आदि निमित्तों से उन्हें सम्यग्दर्शन हो सकता है, ऐसा तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में वर्णन मिलता है।जो शासनदेव सच्चे जिनभक्त हैं तथा अपने उत्कट धर्मानुराग से अभ्य साधर्मियों के उपसर्ग —नवारण तथा आचार्य को अभय प्रदान करने में सदैव अग्रसर रहते हुये जिनधर्म की प्रभावना करते हैं, उनके मिथ्यादृष्टि होने की बात मन को जँचती नहीं है। शासनदेव—देवियों का यथा योग्य सत्कार करने वाला मिथ्यादृष्टि हो जाएगा, ऐसी कल्पना करना भी उचित नहीं है। आगम में देवमूढ़ता को मिथ्यात्व कहा गया है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं:—
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसा:। देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते।।
अपने समय के महान् नैयायिक एवं विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्र जी ने टीका करते हुए लिखा है— ‘‘ ऐहिक फल की इच्छा रखने वाला जो पुरूष वांछित फल की आशा से रागी—द्बेषी देवों की उपासना करता है— उसका वैसा करना देवमूढ़ता है। शासनदेवों के बारे में अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हुए वह आगे लिखते हैं— जैन शासन में निरत देवता होने के कारण जब उनकी उपासना की जाती है अर्थात् उनका यथायोग्य सत्कार किया जाता है, तब वह सम्यग्दर्शन की मलिनता का कारण नहीं होता।’’ सम्यग्दृष्टि का धर्माचरण कर्मक्षय के उद्देश्य से होता है। मेरा धर्म—कार्य ठीक से सधता रहे, उसके सम्पादन में विघ्न न आए, मात्र इस सदाशय से वह शासनदेवों को सत्कार करता है। उनसे भोगोपभोग—सामग्री की याचना उसके लिए प्रयोजनीय नहीं होती। दो नम्बर की दौलत मांगना अवश्य ही मिथ्यात्वबंध का कार्य है। ऐसा उद्देश्य अभव्य जीव का ही हो सकता है। भव्य जीव तो आजीविका में भी निष्कपटता एवं न्यायोपार्जन का ही लक्ष्य रखता है। पापाचार से वह भयभीत रहता है। सम्यग्दृष्टि का तो यह दृढ़ विश्वास होता है कि हमारे पूर्वोपार्जित कर्म के अनुसार ही शुभाशुभ फल की प्राप्ति होती है। कोई दूसरा न हमें कुछ दे सकता है। और न कुछ हमसे ले सकता है । यही कारण है कि कुदेवों की उपासना से वह अपने सांसारिक मनोरथ को पूर्ण करना नहीं चाहता। एक प्रश्न यह भी पूछा जाता है कि किसी व्रती का अव्रती को सम्मान देना कहाँ तक उचित है ? शासनदेव, दिक्पाल तथा यक्ष— यक्षिणी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती होने से अव्रती ही होते हैं। देवपर्याय में वैसे भी संयम नहीं होता। इसलिए पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक को अपने से नीचे पदवाले का सम्मान नहीं करना चाहिए। इसका समाधान यह है कि एक सम्यग्दृष्टि जीव दूसरे सम्यग्दृष्टि जीव का सत्कार कर सकता है। एक देशसंयत सम्यग्दृष्टि लोक व्यवहार में अन्य असंयतों तक का सत्कार करता हुआ देखा जाता है या नहीं ? महापुराण में एक प्रसंग आता है, जिसके अनुसार सोलहवें स्वर्ग का अच्युतेन्द्र दूसरे ऐशान स्वर्ग के ललितांग नामक सामान्य देव का सत्कार करता है। अपने से छोटे का सत्कार करने से क्या उसके सम्यग्दर्शन में कुछ कमी आ गई ? आचार्य सोमदेव ने ‘ततो यज्ञांशदानेन माननीया सुट्टष्टिभि:’ लिखकर इस सम्बन्ध में अपना निर्देश दे दिया है।
आचार्य श्री अकलंकदेव ने ‘राजवार्तिक’ में लिखा है
शरणं द्विविधम् लौकिकं लोकोत्तरं च। तत्र राजा देवता लौकिक—जीवशरणम् । पंचगुरव: लोकोत्तरजीव— शरणम।
इस निष्पत्ति के अनुसार शासन देवताओं को लौकिकशरण ही मानना चाहिए। लोकोत्तशरण तो पंचपरमेष्ठी ही हैं। श्री कानजी भाई को जो उनके भक्त ‘सद्गुरूदेव’ कहते हैं, उनका वह कथन लौकिक दृष्टि से ही तो है। पारमार्थिक दृष्टि से तो सग्रन्थ होने से वह ‘सद्गुरू’ हो ही नहीं सकते । यही व्यवस्था यहाँ शासनदेवोंके सम्बन्ध में लगा लेनी चाहिए। स्व. पं. गोपालदासजी बरैया ने लिखा है—‘‘ जिनका सम्यग्दर्शन शुद्ध है, वे आपदाकुलित होने पर भी शासनदेवों की आराधना नहीं करते और जिनका सम्यग्दर्शन सदोष है, वे करते भी हैं।’’ जहाँ तक साधुओं की बात है, वे शासनदेवताओं को धर्म—वृद्धिरूप आशीर्वाद देते हैं। उनकी धर्मरूचि का उनके द्वारा यही सत्कार करना कहलाएगा। आचार्य महावीरकीर्ति महाराज पद्मावती की मूर्ति को पीछी लगाकर आशीष देते थे। इस सन्दर्भ में श्रीमान पं. सुमेरचंदजी दिवाकर की एक पुस्तक ‘अध्यात्मिक ज्योति’ से हम एक मनभावन एवं मार्मिक प्रसंग को प्रस्तुत करने का लोभ — संवरण नहीं कर पा रहे हैं। आचार्य शान्तिसागर जी के स्वर्गारोहण के बाद अपने संस्मरण सुनाते हुए उनके सुयोग्य शिष्य श्री नेमिसागर महाराज ने कहा—हम सदा आचार्य महाराज को प्रणाम करते हैं। उनके चरणयुगल हमारे हृदय में विराजमान हैं। हम उनकी संयमयुक्त पर्याय को ध्यान में रखकर प्रणाम करते हैं। उनकी संयमरहित देव पदवी हमारी दृष्टि में नहीं रहती। हम अव्रती देवपर्यायवाली आत्मा को कैसे प्रणाम करेंगे? आगम की जैसी आज्ञा है, वैसा हम करते हैं।’’ दिवाकर जी ने उनसे पूछा— ‘महाराज! यदि आचार्य महाराज का जीव यहाँ प्रत्यक्ष देवरूप में दर्शन दे तो क्या आप उनको नमस्कार नहीं करेंगे ?’ महाराज ने कहा— हाँ, हम उन्हें नमस्कार नहीं करेंगे। इस पर पण्डित जी ने पूछा— ‘ अच्छा यह बताइये कि वह सुरराज की पर्याय वाली आचार्य महाराज की आत्मा आपको प्रमाण करेगी या नहीं ?’ उन्होंने कहा— ‘अवश्य आगम की आज्ञा में आचार्य महाराज का सदा विश्वास रहा।इसलिए वह सकल संयम की वंदना अवश्य करेंगे, अन्यथा उनकी विशुद्ध श्रद्धा को दोष लगेगा।’ क्या इस इतने स्पष्ट कथन के बाद भी कुछ आलोच्य हो सकता है, सुधीजन कृपया इस पर विचार करें। जैसे विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता से दान में अन्तर पड़ता है जैसे ही पूजक, पूज्य, पूजा— सामग्री और पूजा — विधि के अनुसार वहाँ भी अन्तर मानना चाहिए। शासनदेवों की पूजा तीर्थंकर—पूजा के समान अष्ट द्रव्यों से नहीं होती, उन्हें केवल अर्घ्य चढ़ाया जा सकता है। स्व.पं. मक्खनलाल जी शास्त्री के अनुसार भी एक राजा और एक भृत्य के सत्कार में जैसा अन्तर है, वैसा ही जिनेन्द्र भगवान् और शासनदेवों के सत्कार में मानना चाहिए। इन शब्दों के साथ हम प्रस्तुत लेख को विराम देते हैं। यह निवेदन करना शायद अनुचित नहीं होगा कि हम स्वयं शासनदेव—पूजा के प्रति आग्रही नहीं हैं और न इसे धार्मिकता का राजमार्ग ही मानते हैं, किन्तु इस प्रकरण को लेकर विसंवाद उत्पन्न करने के प्रयासों को भी उचित नहीं समझते। वस्तुस्थिति को तो़ड़—मरोड़कर पेश करना, उसे अतिरंजित रूप देना या शासन देवों के अस्तित्व को ही न मानना बुद्धिसम्मत नहीं हैं। शासनदेव—पूजा के बारे में कहीं—कहीं चल रही विकृतियों का हम कदापि समर्थन नहीं करते। विवेकशून्य क्रियाओं का अनुमोदन करना भी नहीं चाहिए। विवेक तो धर्म का प्राण है।‘भगवती आराधना’ के अनुसार जिसके द्वारा या जिसके विषय से अशुभ उपयोग हुआ है, उसका निराकरण करने और उससे अलग होने को विवेक कहते हैं। श्रावक को अपनी हर क्रिया में इसका ध्यान रखना ही होगा। शासनदेव जिनशासन के सेवक हैं, स्वामी नहीं। स्वामी तो त्रिभुवननाथ श्री मज्जिनेन्द्रदेव ही हैं।शासनदेवों का दर्जा एक साधर्मी का है और एक साधर्मी के रूप में ही उनका सत्कार करने की बात आगम सम्मत है। इसमें और इतने में कोई गुनाह भी नहीं है। इत्यलम्।