इस नश्वर संसार में अनन्त प्राणी सदा जन्म-मृत्यु की गोद में झूला करते हैं अत: किसी का जन्म लेना और मरण करना प्राकृतिक नियमानुसार कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है किन्तु जिन्होंने ऐसा अपूर्व जन्मधारण किया हो, जिसके बाद पुन: जन्म ही न लेना पड़े, जिन्हें सुर-नर-असुर-खगेन्द्र आदि नमस्कार कर स्वयं को धन्य समझते हों, ऐसे तीर्थंकर भगवान का जन्म अलौकिक एवं अपूर्वता सम्पन्न होता है। सारा संसार उनके जन्म की बेला में अद्भुत आनन्द का अनुभव करता है।
अनादिनिधिन एवं शाश्वत जैनधर्म में अनन्त तीर्थंकर होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे, ऐसा वर्णन शास्त्र-पुराणों में आया है। वर्तमान युग में जन्में २४ तीर्थंकर भगवन्तों मेंं जहाँ प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या नगरी में जन्म लेकर उसे सनाथ किया वहीं जैनधर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने आज से २६०० वर्ष पूर्व भारतवर्ष के बिहार प्रान्त के नालंदा जिले में स्थित कुण्डलपुर नगरी में जन्म लेकर उसे जगत्पूज्य बना दिया था।
आचार्यश्री गुणभद्र स्वामी ने उत्तरपुराण नामक ग्रंथ में भगवान महावीर के जन्म का वर्णन करते हुए कहा कि-भगवान आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन सिद्धार्थ राजा की महारानी प्रियकारिणी के गर्भ में नंद्यावर्त नाम के सप्ततलयुक्त राजप्रसाद में आये और चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर का जन्म हुआ। भगवान की माता प्रियकारिणी-त्रिशला देवी वैशाली नगर के स्वामी राजा चेटक की पुत्री थीं। उत्तरपुराण नामक ग्रंथ में उसे सिंधुदेश में बताते हुए राजा चेटक की सात पुत्रियों एवं दशपुत्रों का वर्णन किया गया है। भगवान जैसी लोकोत्तर आत्मा की जननी होने के कारण प्रियकारिणी देवी विश्वपूज्य हो गर्इं।
वस्तुत: भगवान का जन्म दया के अवतार, विश्वप्रेम की दिव्यमूर्ति का ही जन्म था अर्थात् यह कहना कोई अतिश्योक्ति की बात नहीं है साक्षात् अिंहसा ने ही नर-नारायण का रूप धारण कर जन्म लिया था। जीवों को अहिंसा का उपदेश देकर उन्हें विकारी जीवन से विमुख कराकर अपने आदर्श चरित्र एवं वाणी द्वारा प्राकृतिक पथ पर प्रवृत्त कराने वाले उन प्रभु के जन्म के साथ सचेतन एवं अचेतन प्रकृति का समस्त परिकर रमणीय और सुन्दर हो गया था।
महाकवि जिनसेन के अनुसार- दिश: प्रसत्तिमासेदु: आसीन्निर्मलमम्बरम् ।
गुणानामस्य वैमल्यं अनुकर्तुमिव प्रभो:।।महापुराण।।५-१३।।
उन वीरप्रभू के ५ नाम जगप्रसिद्ध हैं। महावीर चरित्र में वर्णन आया है कि सौधर्मेन्द्र ने कर्म शत्रु पर विजय प्राप्त करने के कारण उनका नाम वीर रखा और सद्गुणों की वृद्धि होने के कारण दूसरा नाम वर्धमान रखा। एक बार संजय-विजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों के मन मेें सूक्ष्म शंका होने पर मार्ग से जाते समय प्रभु वीर पर उनकी दृष्टि पड़ी और उसी क्षण ही उनकी शंका दूर हो गई जिससे सन्मतिदाता जान उन्होंने उनका नाम ‘सन्मति’ रखा।
पुन: एक बार सौधर्मेन्द्र की सुधर्म सभा में वर्धमान के पराक्रम और वीरता की चर्चा सुन संगमदेव प्रभु की वीरता की परीक्षा हेतु भयंकर नागराज का रूप धारणकर क्रीड़ा करते हुए वीरप्रभू को डराने आया किन्तु प्रभु को अद्भुत धैर्यमूर्ति देखकर हर्षित हो त्रिलोकपूज्य आत्मा जान ‘महावीर’ यह सार्थक नामकरण कर उनकी स्तुति कर चला गया। इसी प्रकार दीक्षित अवस्था में प्रभु महावीर एक बार उज्जयिनी नगरी आए और अतिमुक्तक नामक श्मशान में प्रतिमायोग धारण कर तप में स्थित हो गये वहाँ पर निवास करने वाले रुद्र ने रुद्रतम रूप धारण कर प्रभु के चित्त में भय उत्पन्न कर विचलित करने का प्रयत्न किया किन्तु उपसर्ग की इस घड़ी में भी वे भगवान अविचल धैर्यमूर्ति रहे। इससे प्रभावित हो रुद्र ने सौम्यताधारणकर उन तपोमूर्ति की स्तुति की और उन्हें ‘‘महति-महावीर’’ कहा।
इस प्रकार पंचपरावर्तन रूप संसार से उद्धार करने वाले उन प्रभु के ५ नाम विख्यात हैं। भगवान महावीर दिव्यदृष्टि सम्पन्न एवं आध्यात्मिक ज्योति पुंज थे। वे जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञान के धारक थे। वे स्वयं ही विश्व के गुरुदेव थे अर्थात् उन्हें दूसरों के पास जाकर अध्ययन योग्य कोई बात शेष नहीं बची थी। माता के गर्भ में आने से जब उनकी आयु के आठ वर्ष बीत गए। तब उन महावीर भगवान ने स्थूूल रूप में हिंसा पापों के त्याग का व्रत धारण किया और वे संयमी हो गए। बाल्यावस्था के अनन्तर यौवनश्री ने उनके शरीर को समलंकृत किया तब उनका सौंदर्य शरद्काल के चन्द्रमा के सदृश मनोरम लगता था ऐसा वर्णन महापुराण में आया है। आचार्य कहते हैं कि-
अथास्य यौवने पूर्णे वपुरासीन्मनोहरम् ।
प्रकृत्यैव शशी कान्त: किं पुनश्शरदागमे।।१५-१।।
माता त्रिशला और महाराजा सिद्धार्थ ने अनुकूल समय देख भगवान के विवाह की चर्चा चलाई, तब उन वीरप्रभु ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक निवेदन किया और कहा कि हमारे पूर्व तीर्थंकर पाश्र्वनाथ ने विवाह बंधन को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि उनकी आयु केवल सौ वर्ष थी फिर मेरी आयु तो मात्र ७२ वर्ष है। इस अल्प जीवन में मैं विषयों की दासता का परित्याग कर पूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना करना चाहता हूँ इसलिए आपके द्वारा प्रदर्शित राग के पथ पर प्रवृत्ति करने में मैं असमर्थ हूँ। इस प्रकार वे बालब्रह्मचारी रहे और आध्यात्मिक चिंतन द्वारा वचनागोचर सुख का आस्वादन करने लगे।
शनै:-शनै: ३० वर्ष व्यतीत हो गए, एक दिन उन प्रभु की दृष्टि अपने पूर्वजन्मों की ओर चली गई और उससे उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि किस प्रकार वे इस विश्व के रंगमंच पर एक नट के समान नाना रूपों को धारण करते हुए कर्मों के कुचक्र में फसे हुए अपने जीवन कोे व्यतीत कर चुके हैं।
बस उन्होंने अपने माता-पिता को येन-केन-प्रकारेण समझाकर तपश्चर्या द्वारा कर्मचक्र का क्षय कर विश्व को शांतिपथ पर लगाने की भावना प्रगट कर दी और माता-पिता का मोहजाल सुदृढ़ निश्चय वाले महावीर की विचारधारा में तनिक भी परिवर्तन नहीं कर सका फिर तो अपने तरकमयी परिशुद्ध वाणी द्वारा सभी के मोहान्धकार को दूर कर मगशिर कृष्णा दशमी की शुभ तिथि में उन्होंने सर्वपरिग्रह का त्यागकर दिगम्बर दीक्षा ले ली।
दीक्षा के पश्चात् भगवान का प्रथम आहार कूल ग्राम के राजा वकुल के घर खीर का हुआ। पुन: एक बार भगवान कौशाम्बी नगरी भी पहुँचे जहाँ कर्मों के द्वारा सताई गई महासती चंदना की भक्ति के प्रभाव से उसके बंधन टूट गए, मिट्टी का सकोरा स्वर्णपात्र बन गया, कोदों का भात शालि तंदुल रूप परिणमन हुआ और चंदना ने उन्हें विधिपूर्वक आहार दिया उससे देवकृत पंचाश्चर्य हुए। यही चंदना भगवान के समवसरण में मुख्य गणिनी हुई हैं। महाश्रमण महावीर नामक ग्रंथ में पं. सुमेरचंद दिवाकर ने लिखा है कि-दिगम्बर मुद्रा को धारणकर ज्ञानत्व में ध्यान करने वाले भगवान महावीर ने मोहनीय कर्म के विरुद्ध अपना युद्ध छेड़ दिया और महान उग्र तपश्चर्या करने लगे, उस काल में उन्होंने अनेक स्थानों पर भ्रमण किया।
उनके दिव्य प्रभाव से जन्म विरोधी जीवों में मैत्री की भावना उत्पन्न हो जाती थी, उनका जीवन अनेक सिद्धियों का केन्द्र बन गया था; किन्तु वे उन चमत्कारों से पूर्णत: विमुख थे। उनकी द्वादशविधि तपश्चर्या के १२ वर्ष पूर्ण हो रहे थे और वैशाख सुदी दशमी की लोकोत्तर एवं पावन बेला समीप आ गई, उस समय का वर्णन करते हुए उत्तरपुराण में आचार्यश्री कहते हैं कि- ‘‘वे जगद्बन्धु भगवान बारह वर्ष तपश्चर्या को व्यतीत कर जृम्भिका गाँव के समीप ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में महारत्न शिला पर प्रतिमायोग धारणकर विराजमान थे। वैशाख शुक्ल दशमी के दिन संध्या के समय हस्त और उत्तरनक्षत्र के मध्यभाग में चन्द्रमा के आ जाने पर प्रभु क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो शुक्लध्यान में विराजमान हो गये।’’
धीरे-धीरे उन्होंने घातिया कर्मों का क्षय किया और ४६ गुणों के अधीश्वर बन गए अर्थात् अब वे सर्वज्ञ अर्हन्त हो गए। भगवान का समवसरण ऋजुकूला के तट से चलकर राजगिरी के विपुलाचल पर्वत पर आ गया। कुशल सुरराज इन्द्र के सप्रयत्न से गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण भगवान के समीप पहुँचे, मानस्तंभ के दर्शन से उनका अहंकार दूर हो गया और दिगम्बर मुद्रा धारण कर भावोें की विशुद्धता के फलस्वरूप इन्द्रभूति विप्रराज सात ऋद्धियों से समन्वित गौतम गणधर बन गए। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के मंगल प्रभात में मेघध्वनी का अनुकरण करती हुई भगवान की दिव्यध्वनि प्रगट हुई।
गौतम स्वामी उनके प्रथम गणधर एवं दस अन्य गणधर रूप मुख्य शिष्य थे। उन प्रभुवर के दिव्य उपदेशों को पाकर मानो सारी धरती सनाथ हो उठी और सर्वत्र सुख-शांति, प्रेम-मैत्री व अिंहसा की लहर चल पड़ी। इस प्रकार विहार करते-करते लगभग ३० वर्ष व्यतीत हो गए, अब भगवान पावापुरी पहुँच गए और कमलवापिका से युक्त रमणीक उद्यान में कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हो गए जहाँ उनकी अंतिम दिव्यदेशना खिरी और उन्होंने योग निरोध करना प्रारंभ कर दिया, उनके योग निरोध का समय मात्र २ दिन था। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि का अंतिम प्रहर और ब्रह्म मुहूर्त था जब भगवान शेष अघातिया कर्मों का नाशकर अयोगी जिन हो गए और सिद्ध भगवान बन गए तब सबने निर्वाण कल्याणक का जय-जयकार आरंभ किया।
उस समय वह नगर परमपूज्य बन गया। अग्निकुमार देवों के इन्द्रों ने आकर उनके शरीर का अंतिम संस्कार किया और पवित्र भस्म लगाकर स्वयं को पवित्र किया। भगवान के निर्वाण के उपलक्ष्य में देव, देवेन्द्रों ने दीपावली उत्सव मनाया था, ऐसा वर्णन हरिवंशपुराण में आता है आज भी लोग भगवान के निर्वाणकल्याणक की स्मृति में दीपावली पर्व मनाकर अगणित दीपपंक्तियाँ सजाकर उन महामानव को नमस्कार करते हैं।
ऐसे आध्यात्मिक ज्योति के पुंज भगवान महावीर हम सभी की आत्मा में भी दिव्यज्ञान की ज्योति जलावें और उनके शासनकाल में रहने वाले प्रत्येक भव्यप्राणी उनके द्वारा बताए गए अहिंसामयी-सर्वोदयी सिद्धान्तों को अपने जीवन में अपनाते हुए निज-पर का उत्थान करें, यही मंगलभावना है।