रचयित्री-आर्यिका चन्दनामती
स्थापना (शंभु छंद)
तेइसवें जिनवर पार्श्वनाथ, उपसर्गविजयि कहलाते हैं।
इनकी पूजन से भक्तों के, उपसर्ग दूर हो जाते हैं।।
ये कालसर्प का योग नष्ट कर, सबको सुखी बनाते हैं।
चिन्तामणि पारसनाथ की महिमा, इसीलिए हम गाते हैं।।१।।
-दोहा-
शिर्डी के पारस प्रभू, का कर लूँ आह्वान।
स्थापन सन्निधिकरण, कर पूजूँ भगवान।।२।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक (नंदीश्वर चाल)
गंगा का प्रासुक नीर, कलश में भर करके।
हो जाऊँ भवदधि तीर, प्रभु पूजन करके।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।१।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर कर्पूर सुगंध, घिस करके लाया।
पारसप्रभु पद में चर्च, आतम सुख पाया।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।२।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती सम धवल सुपुञ्ज, प्रभु पद में अर्पूं।
मिल जावे अक्षय पुंज, निज सुख में रम लूँ।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।३।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
ले विविध कुसुम की माल, पूजन को आया।
विषयाशा होवे शान्त, ऐसा मन भाया।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।४।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य थाल भर लाय, जिनवर को पूजूँ।
मम क्षुधाव्याधि नश जाय, भवदुख से छूटूँ।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।५।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक थाल सजाय, प्रभु आरति कर लूँ।
मम मोहतिमिर नश जाय, ज्ञानप्रभा भर लूँ।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।६।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सम्मुख धूप जलाय, कर्म दहन कर लूँ।
पूजन का शुभ फल पाय, आतमसुख वर लूँ।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।७।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेब बादाम, फल का थाल लिया।
मिल जावे शिवसुख धाम, ऐसा मान लिया।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।८।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
धरूँ अष्टद्रव्य का थाल, प्रभु पारस के पद।
‘‘चन्दनामती’’ तत्काल, पाऊँ पूजन फल।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।९।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ले जल की झारी हाथ, शान्तीधार करूँ।
मिल जावे आतमशान्ति, ऐसा भाव करूँ।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।१०।।
शान्तये शांतिधारा।
ले बेला पुष्प गुलाब, पुष्पांजलि कर लूँ।
हो आत्मगुणों का लाभ, भौतिक सुख वर लूँ।।
शिरडी के पारसनाथ, हैं अतिशयकारी।
इन पूजत भव्य सनाथ, हों गुणभण्डारी।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
पंचकल्याणक अर्घ्य
वैशाख वदी दुतिया को पारस-नाथ गर्भ में आये थे।
वाराणसि में वामा माता को, सोलह स्वप्न दिखाये थे।।
धनपति ने छह महिने पहले से, रत्न बहुत बरसाये थे।
उस गर्भकल्याणक को पूजूँ, जिसे इन्द्र मनाने आये थे।।१।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वितीयायां श्रीपार्श्वनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नौ मंजिल ऊँचे वैजयंत, महलों में बजी बधाई थी।
थी पौष वदी ग्यारस तिथि जब, वामा माता हर्षाई थीं।।
पितु अश्वसेन का कोष खुला, इन्द्रों की टोली आई थी।
जन्माभिषेक मेरू पर कर, सबके मन खुशियाँ छाई थीं।।२।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णा एकादश्यां श्रीपार्श्वनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृषभेश्वर नगरि अयोध्या से, इक राजदूत जब आया था।
उससे नगरी का वैभव सुन, मन में वैराग्य समाया था।।
बन गये बालयति पौष वदी-ग्यारस को ही पारसप्रभु जी।
उस ही क्षण इन्द्रों ने आकर, दीक्षाकल्याणक पूजन की।।३।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीपार्श्वनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमठोपसर्गविजयी पारसप्रभु, को अहिच्छत्र में ज्ञान हुआ।
बस चैत्रवदी सुचतुर्थी नभ में, समवसरण निर्माण हुआ।।
प्रभु की दिव्यध्वनि सुन करके, उस कमठ का भी कल्याण हुआ।
उस ज्ञानकल्याणक की पूजन से, मुझमें भी श्रुतज्ञान हुआ।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीपार्श्वनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप करते करते पार्श्वनाथ, सम्मेदशिखर पर पहुँच गये।
वहाँ स्वर्णभद्र की टोंक से कर्मों, को नाशा शिव पहुँच गये।।
श्रावणशुक्ला सप्तमि तिथि को, सब मोक्षकल्याण मनाते हैं।
प्रभु पार्श्वनाथ के तीर्थों पर, लाडू निर्वाण चढ़ाते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां श्रीपार्श्वनाथजिननिर्वाणकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानतीर्थ का अर्घ्य
जब कालसर्प का योग कुण्डली, में जीवों को सताता है।
शिर्डी के ज्ञानतीर्थ पर तब, प्रभु पार्श्व को पूजा जाता है।।
उस तीर्थ तथा तीर्थाधिपति को, मेरा अर्घ्य समर्पण है।
‘‘चन्दनामती’’ सब कष्ट मिटाने, हेतु नाथ पद वंदन है।।६।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथसमन्वितज्ञानतीर्थाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेरछंद-
जय जय जिनेन्द्र पार्श्वनाथ जगत् वंद्य हैं।
जय जय जिनेन्द्र पार्श्वनाथ सतत वंद्य हैं।।
जय जय जिनेन्द्र पार्श्वनाथ बालयति हैं।
जय जय जिनेन्द्र पार्श्वनाथ त्रिजगपति हैं।।१।।
वाराणसी में राजा अश्वसेन महल में।
सोलह सुपन देखे थे महारानी वामा ने।।
तीर्थेश शिशु को जन्म दे वे धन्य हुई थीं।
इन्द्रों से पूज्य प्रभु से कृतकृत्य हुई थीं।।२।।
पाण्डुकशिला पे इन्द्र ने प्रभु का न्हवन किया।
पश्चात् पार्श्वनाथ नामकरण कर दिया।।
ये बालयती बन गये विवाह नहिं किया।
दश भव से कमठ का बहुत उपसर्ग सह लिया।।३।।
हैं सर्प चिन्हयुक्त पार्श्वनाथ की प्रतिमा।
इनका चरित पढ़ो तो जानो धैर्य की महिमा।।
सब मंदिरों में मिलती हैं प्रभु पार्श्व की प्रतिमा।
इनके अनेक तीर्थ की भी सुनते हैं महिमा।।४।।
उन तीर्थों में ही ज्ञानतीर्थ इक प्रसिद्ध है।
शिर्डी के पार्श्वनाथ का अतिशय प्रसिद्ध है।।
प्रतिदिन वहाँ इक सर्प देता प्रभु प्रदक्षिणा।
लेकिन कभी भक्तों को देता दु:ख रंच ना।।५।।
ये कालसर्पयोग निवारक कहाते हैं।
ग्रहकेतु के नाशक प्रभू पारस कहाते हैं।।
जब कुण्डली में कालसर्पयोग सतावे।
शिर्डी के पार्श्वनाथ जी को हृदय में ध्यावें।।६।।
सब कष्ट नष्ट होेंगे सुख व शांति मिलेगी।
जिनवर की भक्ति से सभी अशांति टलेगी।।
जयमाला का पूर्णार्घ्य प्रभु पारस को चढ़ाऊँ।
शिर्डी के पार्श्वनाथ ज्ञानतीर्थ को ध्याउâँ।।७।।
गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात प्रेरणा।
प्रभु पार्श्वनाथ कमल जिनालय की देशना।।
देकर उन्होंने भव्यों पे उपकार कर दिया।
सम्यक्त्व का उपदेश दे शिव सुख का पथ दिया।।८।।
निज ज्ञानज्योति हेतु ज्ञानतीर्थ को नमूँ।
निज आत्मसौख्य हेतु पार्श्वनाथ को प्रणमूँ।।
है ‘चन्दनामती’ मेरी इक प्रार्थना प्रभु से।
भव-भव का भ्रमण नष्ट हो शिवसुख मिले झट से।।९।।
ॐ ह्रीं कालसर्पयोगनिवारकश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
पार्श्वनाथ की भक्ति से, भवसागर हो पार।
भौतिक सुख-संपत्ति भी, मिले सौख्य भंडार।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।