प्रत्यावर्तत्रयं भक्तया नन्नमत् क्रियते शिर:।
यत्पाणिकुङ्भलाज्र् तत् क्रियायां स्याच्चतु: शिर: ।।१५।।
अर्थात्-तीन तीन आवर्त के प्रति जो भक्तिपूर्वक शिर झुकाना है वह चार शिर है। मुकुलित हाथ इसका चिन्ह है और ये चार शिर चैत्यभक्त्यादि कायोत्सर्ग के समय किये जाते हैं।
भावार्थ-सामायिकदण्डक के आदि में तीन आवर्त कर शिर झुकाना। अन्त में तीन आवर्त कर शिर झुकाना। इसी तरह स्तवदण्डक के आदि में तीन आवर्त कर शिर झुकाना और अन्त में भी तीन आवर्त कर शिर झुकाना एवं एक कायोत्सर्ग के प्रति चार शिरोनमन होते हैं।।१५।।
चैत्यभक्ति आदि में दूसरी तरह से भी आवर्त होते हैं सो दिखाते हैं-
प्रतिभ्रामरि वार्चादिस्तुतौ दिश्येकशश्चरेत् ।
त्रीनावर्तान् शिरश्चैकं तदाधिक्यं न दुष्यति ।।१६।।
अर्थात्-चैत्यभक्त्यादि के करते समय हर एक प्रदक्षिणा में एक एक दिशा में तीन तीन आवर्त और एक एक शिरोनमन करे ।
भावार्थ-एक प्रदक्षिणा देने में चारों दिशाओं में बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैं इसी तरह दूसरी तीसरी प्रदक्षिणा में तीन तीन आवर्त और चार चार शिरोनमन होते हैं एवं ये आवर्त और शिरोनमन पूर्वोक्त प्रमाण से अधिक हो जाते हैं सो दोष के लिये नहीं हैं।।१६।।