हे भव्य आत्माओं ! यह अपना भगवान् स्वरूपी आत्मा अनादिकाल से इस संसार में फुटबॉल के समान जन्म—मरण की लातें खा रहा है। अथवा बहती नदी के समान जैसे बहती नदी जंगलों, पहाड़ों, पत्थरों में टकराते—टकराते समुद्र में जाकर मिलती, फिर समुद्र का पानी भाप बनकर मेघ बनाता, मेघ बनकर बरसता फिर नदी में आकर वही हालत। उसी प्रकार अपनी आत्मा सम्यग्दर्शन के अभाव में निज स्वरूप की पहचान न होने से,
(१) चौरासी लाख योनियों में जन्म—मरण कर रहा है ‘‘पिस्ट पेसण’’ के समान घोर दु:ख उठा रहा है अगर इन दु:खों से बचना है तो सम्यग्दर्शन करने का सतत प्रयास कीजिये। अगर वो सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया तो सच्चे—देव—शास्त्र—गुरु धर्म के प्रति आपको अटूट विश्वास हो जायेगा और अपनी आत्मा के स्वरूप का भी अच्छी तरह निर्णय हो जायेगा।
आत्मा के स्वरूप का निर्णय होते ही संसार शाश्वत दु:ख का खजाना है, और मोक्ष शाश्वत सुख का खजाना है, यह ज्ञान हो जाएगा। यह ज्ञान होते ही आत्मा अवश्य ही मोक्ष मार्ग में लग जायेगा। जितनी अनुचित खान—पानादिक प्रवृत्तियाँ हैं, वह सब शान्त हो जायेंगी, और यथा शक्ति आत्मा उचित प्रवृत्ति में लग जायेगा। जैसे मोक्ष मार्ग की साधना दो प्रकार से होती है,
(१) श्रावक धर्म, (२) मुनिधर्म
(वास्तविक मोक्षमार्ग मुनिधर्म से ही है, लेकिन किसी में योग्यता न हो तो पैसेन्जर गाड़ी के समान श्रावक धर्म का पालन करें। देखों शिवपुर जाने के लिए चार स्टेशन हैं।)
अब चलिये अपने प्रथम स्टेशन श्रावक धर्म की चर्चा करते हैं। श्रावक तीन प्रकार के होते हैं—
(१) उत्तम, (२) मध्यम, (३) जघन्य।
उत्तम श्रावक जो मुनिधर्म के निकट पहुँच चुका है। क्षुल्लक, ऐलक जिनके प्रत्याख्यान कषाय मन्द हो चुकी हैं। राग—द्वेष बढ़ाने वाले संसार के सभी वैभव का त्याग करके सिर्पक लंगोट या लंगोट चादर ही रखते हैं।
मध्यम श्रावक
दूसरी प्रतिमा से दसवीं प्रतिमा तक के श्रावक जिनके क्रम—क्रम से प्रत्याख्यान कषाय मन्द होती जा रही है, त्यों—त्यों पहले चेतन दूसरे अचेतन तीसरे मिश्र परिग्रह का प्रमाण करता जाता है।
विशेष जानने के लिए रत्नकरण्डश्रावकाचार, छहढाला, रयणसारादि ग्रंथों को देखो, जघन्य श्रावक व्रत रहित सम्यग्दृष्टि जिसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव हो गया और अप्रत्याख्यान कषाय का उदय चल रहा है, इसीलिए वह सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का तो अनन्य भक्त होता है, सप्त तत्व छह द्रव्यादि का जानकार होता है।
जैनागम के अनुसार श्रद्धा भी करता है, लेकिन चारित्र मोह के उदय से त्याग नहीं कर पाता। लेकिन अष्ट मूलगुण का धारी, सप्त व्यसन का त्यागी, धूम्रपानादि का त्यागी अवश्य होता है। अगर इसमें कमी है, तो समझना सम्यग्दर्शन की कमी है, यह तो व्यवहार सम्यग्दर्शन की बाह्य पहचान है लेकिन परमार्थ से निश्चयनय से सम्यग्दर्शन की बाह्य पहचान नहीं होती सूक्ष्म अन्तरंग का विषय है और भी श्रावक को षट्कर्म प्रतिदिन करना चाहिए। जो निम्न हैं—
(१) वीतराग प्रभू की पूजा अभिषेक, (२) वीतराग गुरु की पूजा, (३) स्वाध्याय,
(४) संयम, (५) तप, (६) त्याग (दान)
इन षट कर्मों को यथाशक्ति पालन करना चाहिए, इनमें से कम से कम दान, पूजा तो करना ही चाहिये। दान देने वाले श्रावक का द्वार मुनिराज दिगम्बर चर्तुिवध संघ के लिए मोक्ष का द्वार है, अथवा श्रावक का द्वार पेट्रोल पम्प के समान है। जैसे बस के मालिक को बस को पेट्रोल पम्प पर ले जाना पड़ता ही है, उसी प्रकार साधु को अपने शरीर रूपी बस को मोक्ष मार्ग में चलाने के लिए उसे श्रावक के द्वार पर ले जाना पड़ता है।
क्योंकि इसके कारण साधु ध्यान, अध्ययन, तपस्या, अच्छी तरह कर सकता है एवं मोक्ष जा सकता है। इस तपस्या का छठा हिस्सा श्रावक को मिल सकता है, अगर निदान रहित ईमानदारी से कमाये हुए धन को शुभ भाव से चारों प्रकार का दान करे तो श्रेष्ठ फल मिलता है।
ज्ञानी और अज्ञानी दोनों षटकर्म करते हैं, लेकिन देखिए, क्रिया समान करते हैं, लेकिन फल भिन्न—भिन्न मिलता है। कैसे? परिणामों की भिन्नता होने से अज्ञानी जीव कुछ धर्म क्रिया करता है, वह सब ख्याति, पूजा, सम्मान एवं भोगादि प्राप्ति हेतु करता है अथवा पर का मैं करता—हरता हूँ, इस बुद्धि से करता है, और ज्ञानी सम्यग्दृष्टि आत्मा इससे विपरीत भाव से करता है।
जैसे समयसार में गाथा नं. २७० तो ज्ञानी के लिए कहा, और २७५ अज्ञानी के लिए कहा देख लेना। इसलिए हे भव्य जीवों ! सच्चे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी श्रावक बनो। श्रावक धर्म से मुनिधर्म का अभ्यास होता है, क्योंकि श्रावक और श्रमण का जोड़ा है, श्रावक—श्रमण के बॉडीगार्ड के समान है, श्रावक हर प्रकार से मुनियों की सेवा—सुरक्षा करेगा तो मुनियों के सन्निकट रहेगा ही।
उसी से प्रत्यक्ष शिवगामी साधुओं की क्रियाओं को देखेगा, उससे अभ्यास होगा, वैराग्य ज्ञानादि बढ़ेगा। मेरा अन्तिम आशीर्वाद है, भव्य जीवों, सीधा श्रमण बनना चाहिए। अगर सीधा श्रमण न बन सके तो श्रावक तो अवश्य बनो, उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनों में से यथाशक्ति जो आप में योग्यता हो। और आप एक ख्याल अवश्य रखें, यह विज्ञान का युग है, कलिकाल है, काल के अनुसार विज्ञान का सहारा लें लेकिन हिताहित का पूर्ण ख्याल रखें।