तात्पर्यवृत्ति-प्रतिपादन के योग्य शिष्य चार प्रकार के होते हैं। व्युत्पन्न, अव्युत्पन्न, संदिग्ध और विपर्यस्त। उनमें से आदि के एवं अंत के-व्युत्पन्न और विपर्यस्त ऐसे दो प्रकार के शिष्य तो समझाने योग्य नहीं हैं क्योंकि उनमें व्युत्पन्न होने की-समझने की इच्छा का अभाव है। अव्युत्पन्न-अज्ञानी में तो लोभ, भय आदि से समझने की इच्छा उत्पन्न करके समझाना चाहिए अर्थात् स्वर्ग, मोक्ष आदि का लोभ और संसार आदि से भय दिखाकर उस अज्ञानी में समझने की इच्छा उत्पन्न करके समझाना योग्य है और जो संदिग्ध हैं, उन्हें अपने संदिग्ध अर्थ के विषय में प्रश्न करने पर समझाना योग्य है। (शास्त्र की प्रवृत्ति तीन प्रकार से होती है)। यहाँ पर अव्युत्पन्न और संदिग्ध इन दो प्रकार के शिष्यों के प्रति प्रमाण के उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा का प्रतिपादन करते हैं क्योंकि शास्त्र की प्रवृत्ति तीन प्रकार से होती है।
उनमें से अर्थ के नाम मात्र का कथन करना उद्देश है। जिसका उद्देश किया गया है उसके असाधारण स्वरूप का निरूपण करना लक्षण है और प्रमाण के बल से उस लक्षण के विसंवाद पक्ष का निराकरण करना परीक्षा है। उनमें प्रमिति-प्रमाण को कहना है इतना मात्र कथन उद्देश है क्योंकि सभी शून्यवादी भी अपने इष्ट के साधन और अनिष्ट के दूषण की अन्यथानुपपत्ति से प्रमाण को स्वीकार करते हैं, यह बात प्रसिद्ध है और वह प्रमाण ज्ञान ही होता है यह लक्षण निर्देश है क्योंकि यह लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोष से रहित है। प्रमाणत्व की अन्यथानुपपत्ति अन्य प्रकार से प्रमाणता नहीं हो सकती है। इस प्रकार हेतुवाद को परीक्षा कहते हैं क्योंकि उस परीक्षा से ही उस लक्षण के विसंवाद का निराकरण होता है। उसी को कहते है।