मगध देश में राजगृह नगर के पास विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर का समवसरण आया है। उस मगध देश में महाराजा श्रेणिक रानी चेलना के साथ राज्य करते थे, यह समाचार जब वनमाली को ज्ञात हुआ तो वह प्रसन्न होकर महाराज को समाचार देने के लिए गया—
(१)
वनमाली—महाराज की जय हो, महाराज आपकी र्कीित सर्वत्र यूं ही व्याप्त होती रहे।
राजा—कहो वनमाली ! क्या समाचार लाए हो ?
वनमाली—हे कृपानिधान ! विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर का समवसरण आया है।
राजा—अरे वाह ! ये तो तुमने बहुत ही सुखद समाचार सुनाया है। (पुन: रानी व सभासदों से) आप सब भगवान के दर्शन करने के लिए शीघ्र ही तैयारी करिए।
सभी—जो आज्ञा महाराज !
रानी—मैं अभी पूरे परिकर को यह खबर देती हूँ, हम सब साथ में चलेंगे। (सभी चले जाते हैं। महाराजा श्रेणिक, रानी चेलना, समस्त परिवारीजन एवं सभासदों के साथ वहाँ पहुँचते हैं और बड़ी भक्तिभाव से भगवान की जय—जयकार कर तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान को त्रिबार नमस्कार करते हैं। तब भगवान की दिव्यध्वनि ऊंकारमयी भाषा में खिरती है जिसे गौतम गणधर स्वामी प्रतिपादित करते हैं)
—अगला दृश्य—
समवसरण में बारह सभाएँ लगी हैं।
राजा आदि अपनी—२ सभा में बैठे हैं। दिव्यध्वनि का पान करने के बाद
राजा—रानी भक्तिभाव से कहते हैं—
राजा—हे भगवान् ! संसार में दम्पत्ति को अखण्ड सौभाग्य प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए ?
रानी—हाँ प्रभो ! इस विषय में कोई कथा हमको सुनाइए। भगवान जिनेन्द्र की वाणी—ऊँ ……………. गौतम स्वामी—हे भव्यात्मन् ! सुनो ! प्राचीनकाल में सौराष्ट्र देश में परिभद्रपुरी नाम का एक नगर था। वहाँ विकारमाप्ता नाम का एक पराक्रमी, धर्मवत्सल एवं न्यायी राजा राज्य करता था। उन राजा की बहुत सारी रानियाँ थीं जिनमें भूमि भुजादेवी नाम की पट्टरानी बहुत चतुर, कुशल एवं पतिव्रता थी इसलिए वह राजा को मंत्री की भाँति सलाह दिया करती थी। दोनों ने अपने राज्य में धर्म की खूब प्रभावना की। उसी नगरी में श्रुणुयात नाम का एक दरिद्र व्यापारी रहता था जिसकी पत्नी का नाम रुक्मावती था, उसकी जैनधर्म पर बहुत श्रद्धा थी। वह हमेशा अच्छे कार्य करती थी परन्तु दरिद्रता की वजह से बहुत दुखी रहती थी इसलिए उसे किसी के पास जाकर बैठना बुरा लगता था। उसके पास जो कुछ भी था वह उसी में संतुष्ट थी, अपनी बुरी स्थिति के कारण वह किसी से बोलती भी नहीं थी। एक बार वह बहुत ज्यादा परेशान थी—
—गरीब घर का दृश्य—
(३)
रुक्मावती—हे भगवान ! क्या करूं, कहां जाऊं ? इतनी बुरी स्थिति में कैसे तो इतनी सारी सन्तानों का पेट भरूं, सारा दिन तो इन्हीं के पीछे निकल जाता है, अलग से कुछ करने का टाइम भी नहीं है, मैं तो इन बेचारों का ठीक से पालन—पोषण भी नहीं कर पाती हूँ। कुछ भी समझ नहीं आता है कि क्या करूँ ? (तभी पड़ोस की एक स्त्री आकर कहती है)
स्त्री—बहन रुक्मावती ! अरी ओ बहन रुक्मावती।
रुक्मावती—हाँ बहन ! बताओ क्या बात है ? आज मुझ गरीब से क्या काम आ पड़ा ? (उदास हो जाती है)
पड़ोसी स्त्री—देखो बहन ! उदास मत होओ। आज हम सबका भाग्य उदय हो आया है, मैं कोई बढ़ा—चढ़ाकर बात नहीं कर रही हूँ।
रुक्मावती—तुम क्या कह रही हो, मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।
स्त्री—अरी बहन ! गांव के बाहर बगीचे में श्री विजयाभिनन्दन नामक मुनीश्वर आए हैं। उनके दर्शनों के लिए गांव के स्त्री—पुरुषों की भीड़ लगी हुई है। वे बहुत ज्ञानी हैं तथा भक्तों को हित का उपदेश देते हैं। क्यों न हम भी चलकर उनके दर्शन का लाभ लेवें और अपने इस लोक और परलोक को सुधारें, हमारी ये परेशानियाँ तो चलती ही रहेंगी।
रुक्मावती—(लम्बी सांस लेकर) सही कह रही हो बहन ! पर ……..
स्त्री—पर वर कुछ नहीं, बस तू चल मैं तुझे बुलाने आयी हूँ, अगर तू न गई तो मैं तो जरूर जाऊंगी, पता नहीं, अपने सारे संकट मिट जाएं।
रुक्मावती—(हर्षित होकर) ठीक है बहन ! मैं अवश्य चलूंगी। तुम्हारी बातों से ही मेरे मन को बहुत शान्ति हुई है। क्या पता, इन घरेलू परेशानियों से ही छुटकारा मिल जावे। चलो, चलते हैं। (दोनों चली जाती हैं, वहाँ पहुंचकर देखती हैं कि अपार जनसमूह मुनिराज की जय–जयकार कर रहा है। विमान से पुष्पवृष्टि हो रही है। यह देख रुक्मावती बहुत ही प्रसन्न हो जाती है और वह भी सभी श्राविकाओं के साथ मुनिराज को नमोस्तु कर श्राविकाओं की सभा में बैठ जाती है। तब मुनिराज का उपदेश प्रारम्भ होता है। वे अपनी अमृतमयी वाणी से सात तत्त्वों का वर्णन कर जीव तत्त्व तथा अनादि संसार के सुख—दु:खों का वर्णन करते हैं और साथ ही जीवों के हित का मार्ग भी दिखाते हैं। उसे सुनकर रुक्मावती खुशी में अपने सारे दुख, बाल— बच्चे, घर—परिवार को ही भूल गई। पुन: मुनिराज ने अखण्ड शोभा को बढ़ाने वाली संपत शुक्रवार व्रत की कथा सुनाना प्रारम्भ किया—
(४)
मुनिराज—हे भव्यात्माओं ! यह संपत् शुक्रवार व्रत श्रावण माह में प्रत्येक शुक्रवार को किया जाता है। इस दिन शक्ति के अनुसार उपवास या एकाशन करें, शक्ति अनुसार ही पूजा सामग्री ले जाकर भगवान का अभिषेक पूजन करें। श्री पार्श्वनाथ भगवान, धरणेन्द्र—पद्मावती सहित पंचामृत अभिषेक पूर्ण करके पद्मावती देवी की मूर्ति को दूसरे एक ऊंचे आसन पर विराजित करें और नाना प्रकार के वस्त्रालंकारों से सुसज्जित कर दीप, धूप, मेवा, मीठा आदि चढ़ावें, पुन: पूजन करके जयमाला करते हुए तीन प्रदक्षिणा देकर पूर्णाघ्र्य चढ़ावें और महादेवी की आरती करके शांति विसर्जन करें। बाद में इस व्रत की कथा सुनें। पद्मावती देवी के सहस्रनाम कर एक—एक चुटकी कुंकुम या लवंग चढ़ावें, प्रत्येक शतक में अघ्र्य चढ़ावें। आखिरी शुक्रवार को सभी क्रिया पूर्ण कर पद्मावती देवी का वृहत् शृंगार करें और सुवासिनी स्त्रियों की गोद भरें। उसके बाद कुटुम्बीजनों को प्रसाद वितरण करें। एकत्रित सौभाग्यवती स्त्रियों को कुंकुम लगावें और बाजे–गाजे से घर वापस आवें। इस प्रकार पाँच वर्ष तक यह व्रत कर इसे पूर्ण करें। (पुन: महाराज ने व्रतोद्यापन की भी विधि बतलाई और व्रत का फल भी बतलाया, तब रुक्मावती के मन में आया)
रुक्मावती—(मन में) क्यों न मैं भी यह व्रत ले लूं (पुन: मुनिराज से अपनी दरिद्रता की परवाह किए बिना कहती है)—हे मुनिवर ! नमोऽस्तु !
मुनिराज—सद्धर्मवृद्धिरस्तु ! कहो देवी ! क्या कहना चाहती हो।
रुक्मावती—हे मुनिराज ! मुझे भी यह व्रत प्रदान करें, मैं भी शक्ति अनुसार पूर्णरूपेण इसका पालन करूंगी।
महाराज—अवश्य पुत्री अवश्य ! (पिच्छी लगाकर उसे व्रत प्रदान करते हैं। प्रसन्नमना रुक्मावती अपने घर आ गई और शक्ति के अनुसार पूर्ण श्रद्धा से व्रत करना प्रारम्भ कर दिया। उसी गांव में उसका गुरुदेव नाम का भाई रहता था, वह बहुत बड़ा सेठ था। एक बार उसने अपने पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के निमित्त से गांव के पूरे नागरिकों को एक सप्ताह का भोज का आयोजन रखने के लिए सभी को निमन्त्रण पत्र भेजा। जिसकी चर्चा पूरे गांव में हुई, परन्तु उस सेठ ने अपनी गरीब बहन को निमन्त्रण नहीं भेजा। सीधी—सादी बहन ने सोचा कि शायद भाई भूल गया परन्तु भाई उसकी गरीबी की वजह से उसे नहीं बुला रहा था।)
(५)
गुरुदेव—(मन में)—मैंने सभी को तो निमन्त्रण भेज दिया पर बहन को नहीं भेजूंगा। दीन—गरीब वह न जाने किस हाल में आएगी। उसके आने से तो लोक में मेरी निन्दा होगी। (छोड़ो, उसे याद करने से कोई लाभ नहीं। (अपने कार्य में मग्न हो जाता है।) (उधर गांव के छोटे—बड़े सभी लोग खा—पीकर जब डकार लेते हुए उस रुक्मावती के दरवाजे के आगे से निकलने लगे तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वह सोचने लगी)—
रुक्मावती—(मन में) मैं और मेरा भाई दोनों एक ही हाड़—मांस, रक्तपिण्ड के होते हुए भी उसने सब लोगों को तो संतुष्ट किया परन्तु मुझे पता नहीं क्यों नहीं बुलाया, आखिर मैंने उसका कोई अहित तो किया नहीं है। हाँ, हो सकता है कि अधिक काम के चक्कर में वह मुझे बुलाना भूल गया हो इसलिए मैं अपने सोने जैसे भाई को क्यों दोष दूं, मेरा बिना मतलब रोष करना ठीक नहीं है। निमन्त्रण नहीं भेजा तो क्या हुआ, आखिर मेरे भाई का ही तो घर है, भला फिर जाने मैं क्या हरज है (पुन: बच्चों को पुकारती है) अरे बच्चों ! कहां हो सब। सभी बच्चे (५-६) हाँ माँ, क्या कह रही हो ?
रुक्मावती—चलो, चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ। आज मामा के यहाँ चलेंगे, वहाँ तुम्हें अच्छे—अच्छे पकवान खाने को मिलेंगे।
सभी—(खुश होकर) अरे वाह ! चलो, चलो, आज तो पेट भरकर खाएंगे, मजे आ जाएंगे। (सभी तैयार होकर जाते हैं। रुक्मावती बच्चों को लेकर स्त्रियों भी पंगत में बैठ जाती है, तभी थोड़ी देर बार उसका भाई आता है और कहता है)—
गुरुदेव—जरा देखूं तो सब आ गए या फिर गांव का कोई व्यक्ति रह गया (घूम—घूमकर देखता है पुन: बहन को देखकर पास आकर गुस्से में कहता है)—बहन ! तू आज यहाँ कैसे आयी? तेरी गरीबी के कारण मैंने जान बूझकर तुझे यहाँ नहीं बुलाया था, कपड़े देखे हैं तूने अपने, ना तो तेरे पास अच्छे कपड़े हैं और ना ही गहने, तेरी ऐसी दरिद्रता देख लोग मुझ पर हंसेंगे। देख ! अब आज आ गई तो आ गई, कल मत आना, समझी ? (बहन बेचारी लज्जित होकर गर्दन नीची कर लेती है और भोजन करके बच्चों को लेकर वापस घर चली जाती है। दूसरे दिन भी बच्चे जिद करने लग जाते हैं)—
बच्चा (१)—माँ, माँ ! हम आज भी मामा के यहाँ जाऐंगे ना।
बच्चा (२)—हाँ, हाँ, हमें खूब पकवान खाने को मिलेंगे।
बच्ची (३)—हाँ भइया, कल कई दिन बाद जाकर पेट भरकर भोजन किया था। सभी एक साथ—माँ, जल्दी चलो ना, चलो ना माँ !
रुक्मावती—(घबराकर) नहीं, नहीं बच्चों ! आज हम बिल्कुल नहीं जाऐंगे, कल तुम सबने देखा नहीं था, तुम्हारे मामा कितने नाराज हो रहे थे।
बच्चा (४)—तो क्या हुआ ? हम सब फिर भी जाऐंगे, आखिर मामा हैं वो हमारे।
रुक्मावती—(नाराज होकर) खबरदार, जो अब किसी ने जाने का नाम लिया, कोई भी नहीं जाएगा वहाँ।
बच्चे—(जिद करते हुए)—माँ, चलो ना, हम आपसे कभी किसी चीज के लिए नहीं कहते। भला मामा के यहाँ जाने में क्या, चलो ना माँ (माँ का हाथ पकड़कर) चलो ना माँ, चलो ना।
रुक्मावती—(पुन: उसका मन पिघल जाता है, सोचती है) चलो ! कैसा भी हो है, तो अपना भाई ही, खरी—२ बोल भी दिया तो क्या हुआ, हम गरीब हैं तो सुनना तो पड़ेगा ही, मगर आज का निर्वाह तो होगा, कम से कम इन्हें पेट भर खाना तो मिल जाएगा। (वह फिर से बच्चों को लेकर जाकर खाने के लिए बैठ जाती है। भाई पुन: बहन को देखकर चिल्लाता है)—
भाई—अरी बेशर्म ! कैसी भिखारिन है तू ! कल तुझे मना किया था तो भी आज सुअरनी जैसी बच्चों को लेकर आ गई ? तुझे शर्म नहीं आई। आज आई तो आई, अगर कल आई तो हाथ पकड़कर निकाल दूंगा। (बहन ने सब चुपचाप सुन लिया और खाने के बाद उठकर घर चली आई। तीसरे दिन भी जब इसी प्रकार हुआ तो भाई को अत्यधिक गुस्सा आया और उसने उसको धक्के देकर बाहर निकाल दिया तब उसे बड़ा दुख हुआ। घर आकर वह बहुत फूट—फूटकर रोई और उसके मन में विचार आया)
(६)
घर का दृश्य—(वह रोती—रोती सोचती है)
रुक्मावती—(मन में)—हे भगवन् ! मैंने किस जन्म में ऐसा कौन सा पाप किया था जिससे इस जन्म में मुझे घोर दरिद्रता की मार पड़ी है। अब यह दुख और नहीं सहा जाता, इससे तो मैं मर जाऊं तो ही अच्छा। धिक्कार है मेरे जीवन को ! (पुन: पद्मावती माता का स्मरण करती है)— हे पद्मावती माता ! हे अम्बिका माता ! तू ही मेरी सहायता कर। तेरे सिवा इस दुनिया में मेरा कोई भी आधार नहीं है, अब तो तू ही मेरा सहारा है। (इस प्रकार करुण क्रन्दन कर वह रोती रही और रोते—रोते उसे नींद आ गई। नींद में उसे स्वप्न आया, रुदन सुनकर देवी पद्मावती देवी सुन्दर वस्त्राभूषण में आकर खड़ी हो गयीं और बोलीं)
देवी पद्मावती—पुत्री ! तू दु:खी न होना। बिल्कुल भी घबराना नहीं, तू जो आचरण करती है उस संपत शुक्रवार व्रत को मैं अच्छी तरह जानती हूँ, आज तुझे दरिद्रता सम्बन्धी भारी दुख हुआ है फिर भी तेरा कष्ट अत्यन्त तेजयुक्त है। तू एकमात्र जिनेन्द्रदेव पर अटल श्रद्धान रख, उससे तेरा कल्याण होगा (ऐसा कहकर वह देवी अदृश्य हो गयी। रुक्मावती ने नींद से जागकर देखा तो वहाँ कोई नहीं था।
रुक्मावती (नींद से जागकर)—अरे कहां गई माता ! यहां तो कोई भी नहीं है, जरूर यह कोई चमत्कार था। पर अब मैं क्या करूं, मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है (वह जिनमंदिर में जाकर शांतचित्त से श्री पद्मावती महादेवी का मुख देखने लगी) तब उसे वह मूर्ति हंसती हुई दिखाई दी। उस समय रुक्मावती दोनों हाथ जोड़कर विनती करने लगी— हे देवी ! हे महामाता ! हे पद्मावती माता ! मैंने आपकी शरण ली है, मेरी रक्षा करो, मुझे सन्मार्ग पर लगाओ। तुम्हारी बेटी अनाथ है, इस संसार में मेरा कोई रक्षक नहीं रह गया है। भाई, भाई कहती हुई अब मैं कहां जाऊं, मैंने आपको ही अपने मन में धारण कर लिया है। (जब बहुत देर तक वह इसी प्रकार भक्ति करती रही तब उसे ध्यान आया कि घर में बच्चे भूख से व्याकुल हो रहे होंगे)— हे भगवान् ! मुझे तो कुछ याद ही नहीं रहा, बेचारे बच्चे, भूख से व्याकुल हो रहे होंगे, जल्दी चलूं और उन्हें कुछ बनाकर खिलाऊं (चली जाती है पर घर आकर क्या देखती है कि उसके बच्चे कामदेव के अवतार के समान दिख रहे हैं। घर में धन—धान्य की भरमार हो गई है। हर कार्य में वृद्धि हो रही है, सामने हवेली खड़ी तैयार है, घर में लक्ष्मी की बाढ़ आई हुई है। मेज पर पकवान आदि की थालियाँ सजी हैं और उसकी कीर्ति दूर—दूर तक फैल जाती है जिसे सुनकर उसका भाई भी आश्चर्यचकित रह जाता है।)
(यहाँ एक नृत्य दिखावें)
(७)
सब तरफ उसी की चर्चा है—एक स्त्री—(दूसरी से) अरे बहन ! सुना कुछ तुमने । चमत्कार हो गया, अपनी रुक्मावती के भाग्य खुल गए।
दूसरी—हाँ सुना तो मैंने भी है, अचानक ही उसके बड़े ठाट हो गए, जरूर कोई लाटरी वाटरी लग गई होगी।
पहली—नहीं, नहीं, कोई चमत्कार हुआ है, सब कुछ अचानक अपने आप आ गया।
दूसरी—कुछ भी हो, वह रुक्मावती है बड़ी सीधी। अरे ! यह अपने सेठ गुरुदत्त की बहन ही तो है।
पहली—हाँ बहन ! (यह चर्चा जब गुरुदत्त सुनता है तो वह सोचता है)—
गुरुदत्त—यह तो सचमुच ही चमत्कार हो गया, अचानक वह इतनी धनवान कैसे बन गई? चलो, अच्छा है, चलकर उसका आदर—सत्कार करना चाहिए। (स्वयं उसके घर आता है और कहता है)— बहन रुक्मावती ! ओ बहन रुक्मावती।
रुक्मावती—अरे ! आज इतने बड़े सेठजी ! मेरे घर पर।
गुरुदत्त—बहन ! अब सेठ—वेठ ना बोलो, मैं तो तुम्हारा भाई था और भाई ही रहूंगा। देखो! तुम मेरी बड़ी बहन हो, मैं तुम्हें खाने का निमन्त्रण देने आया हूं, कल तुम मेरे घर खाने के लिए आना।
रुक्मावती—पर भाई ………………………………….
गुरुदत्त—ना मत करना बहन, तुम आओगी तभी मैं खाना खाऊंगा, समझ गई।
रुक्मावती—ठीक है भइया । (बहन ने सोचा कि चलो कोई बात नहीं, भाई बड़े सम्मान से बुला रहा है, अब हम श्रीमंत हो गए तो नहीं करना ठीक नहीं है, वर्ना इन्हें अपमान महसूस होगा। सिर्फ इनको अपने किए पर पछतावा होवे और यह अहंकार करना छोड़ दें ऐसा विचार कर अच्छे गहने तथा वस्त्र आदि द्वारा शृंगार करके सम्मान से वह भाई के घर गई। भाई बहुत देर से उसकी राह देख रहा था। उसके आते ही उसने उसे पांव धोने के लिए गरम जल दिया, फिर रुमाल दिया। जब थाली परोसी गई तो दोनों भाई—बहन बड़े प्रेम से आस—पास खाने के लिए बैठे। उस बिछे हुए पाटे पर बहन ने पहले अपना दुपट्टा रखा फिर शरीर पर से गहने उतारकर रखे, तब भाई ने सोचा उसे गरमी लग रही होगी इसलिए वह ऐसा कर रही है परन्तु जब बहन ने पहला ग्रास उठाकर दुपट्टे पर रखा तो वह बोल पड़ा)
गुरुदत्त—अरे रे बहन ! यह क्या कर रही है तू । बहन कुछ भी नहीं बोली और हंसकर पूरणपोली हार पर रख दी। सब्जी कण्ठी पर रख दी, लाडू उठाकर भुजबन्द पर रख दिया, जलेबी उठाकर मोती के कंगन पर रख दी, तब भाई ने पूछा— (यहां यह सब करते हुए दिखावें)
गुरुदत्त—अरी बड़ी बहन! यह तुम कर क्या रही हो ?
बहन (शांत मुद्रा में)—मैं जो कर रही हूं वह ठीक ही है, जिनको तुमने खाने के लिए बुलाया है उनको मैं खाना दे रही हूँ। (गुरुदत्त को जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो वह फिर बोला)—
गुरुदत्त—(विनती करते हुए) बहन ! अब तो तुम खाना खाओ।
बहन—भइया ! आज मेरा खाना नहीं है, आज तो इस लक्ष्मी बहन का खाना है। मेरा खाना तो मैं पहले ही खा चुकी हूँ।
भाई—(अत्यधिक पश्चाताप से उसके पांव पकड़कर) बहन ! मुझे माफ कर दो, मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई, मैं धन के मद में अंधा हो गया था। क्या अपने इस पापी भाई को माफ नहीं करोगी (रोने लगता है, बहन भी यह देखकर दुखी हो जाती है और उसके आंसू पोछती है दोनों आपस में गले मिलते हैं और बाद में आनन्द से बैठकर खाना खाते हैं। उनके मन की शल्य निकलती है। जिनकी कृपा से अपार सम्पत्ति की प्राप्ति हुई उन पद्मावती माता की दोनों कुल के प्रत्येक सदस्य सेवा करने लगे और अपनी सम्पत्ति का उपयोग दान, जिनमंदिर निर्माण, तीर्थयात्रा आदि में करने लगे। इन सभी दृढ़ परिणामों को देखकर वहाँ के राजा ने भी दृढ़ होकर धर्म की खूब ठाठ—बाट से प्रभावना की। बाद में सभी कुटुम्बीजनों ने राजा के साथ दीक्षा ले कर घोर तपश्चरण किया और चतुर्गति का नाशकर अन्त में मोक्ष गए। इस प्रकार राजा श्रेणिक आदि भी उस पवित्र कथा को सुनकर धर्म की महिमा का गुणानुवाद करते हुए वापस अपने राज्य में आकर राज्य संचालन करने लगे।
जय बोलो पार्श्वनाथ भगवान की जय जय बोलो पद्मावती माताजी की जय जय बोलो जैनधर्म की जय