मालिनी– जयति समयसार: सर्वतत्त्वैकसार:।
सकलविलयदूर: प्रास्तदुर्व्वारमार:।।
दुरिततरुकुठार: शुद्धबोधावतार:।
सुखजलनिधिपूर: क्लेशवाराशिपार:।।५४।।
अर्थ-जो सर्व तत्त्वों में एक सारभूत है, सकल विलय-नष्ट होने योग्य भावों से दूर है, जिसने दुर्वार काम को नष्ट कर दिया है, जो पापरूप वृक्ष को काटने के लिये कुठारस्वरूप है, शुद्ध ज्ञान का अवतार है, सुख समुद्र का पूर है और जो क्लेशरूपी समुद्र का तट है ऐसा समयसार (शुद्ध आत्मा) जयशील हो रहा है।
भावार्थ-मूल ग्रंथकार ने गाथा में हेय-उपादेय तत्त्व का वर्णन करते हुए बतलाया है कि कर्मोपाधि से जन्य विभाव भावों से रहित शुद्ध आत्मा ही अपने को उपादेय है, बाकी सभी जीवादि तत्त्व हेय हैं क्योंकि परम योगीजन अपने हृदय में शुद्ध आत्मा का ध्यान करके अपनी कारण परमात्मा रूप आत्मा को कार्य परमात्मा बना लेते हैं अर्थात् देह रूपी देवालय में शक्तिरूप से कारण पर आत्मा विराजमान है वही व्यक्त रूप से कार्य परमात्मा बन जाता है।
शार्दूलविक्रीडित-प्रीत्यप्रीतिविमुक्तशाश्वतपदे नि:शेषतोऽन्तर्मुख-
निर्भेदोदितशर्मनिर्मितवियद्िंबबाकृतावात्मनि।
चैतन्यामृतपूरपूर्णवपुषि प्रेक्षावतां गोचरे
बुिंद्ध िंक न करोषि वांछसि सुखं त्वं संसृतेर्दु:कृते:।।५५।।
अर्थ-जिसका प्रीति और अप्रीति से रहित शाश्वत स्थान है, जो सर्व प्रकार से अंतर्मुख होने से भेद रहित निर्विकल्प उत्पन्न हुए सुख से निर्मित आकाशिंबब के आकार वाला है-आत्मिक सुख से निर्मित निराकार है, चैतन्यरूपी अमृत के प्रवाह पूर्ण भरित ही जिसका शरीर है, जो बुद्धिमानों के गोचर है ऐसे आत्मतत्त्व में बुद्धि क्यों नहीं करता है ? प्रत्युत दुष्कृत रूप संसार के सुखों की वांछा करता है।
भावार्थ-मूल गाथा में ग्रंथकार ने बतलाया है कि आत्मा का शुद्ध स्वभाव मान, अपमान, हर्ष, विषाद आदि से रहित है। टीकाकार ने इसी बात को कलश में बतलाया है कि वास्तव में आत्मा हर्ष-विषाद से रहित अविनाशी है, आत्मा से उत्पन्न हुए निराकुल सुख से बनी हुई मूर्ति होते हुए भी निराकार है, चैतन्यामृत के प्रवाह से लबालब भरी हुई है। ऐसी आत्मा में तो तू अपनी बुद्धि को नहीं लगाता है और इन सभी विशेषणों से विपरीत पापों के स्थानस्वरूप ऐसे सांसारिक सुखों को तो चाहता है सो क्या बात है ? वास्तव में तुझे सांसारिक सुखों को छोड़कर आत्मा में बुद्धि लगानी चाहिये।
अनुष्टुप्– नित्यशुद्धचिदानंदसंपदामाकरं परम्।
विपदामिदमेवोच्चैरपदं चेतये पदम्।।५६।।
अर्थ-नित्य, शुद्ध, चिदानंदमयी, संपत्तियों की श्रेष्ठ खान स्वरूप तथा विपत्तियों का अत्यन्त रूप से यही अपद-अस्थानरूप है ऐसे पद का मैं अनुभव करता हूँ।
भावार्थ-जो अपना उत्कृष्ट पद है वह चिच्चैतन्यमयी संपत्तियों का स्थान है और विपत्तियों से सर्वथा दूर है उसी का अनुभव करना चाहिये।
बसंततिलका– य: सर्वकर्मविषभूरुहसंभवानि ।
मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि।।
भुंक्तेऽधुना सहजचिन्मयमात्मतत्त्वं।
प्राप्नोति मुक्तिमचिरादिति संशय: क:।।५७।।
अर्थ-जो सर्व कर्मरूपी विषवृक्ष से उत्पन्न हुए, निज आत्मतत्त्व से विलक्षण फलों को छोड़कर इस समय सहज चिन्मय आत्मतत्त्व का अनुभव करता है वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इसमें क्या संशय है ?
विशेषार्थ-ग्रंथकार ने मूलगाथा में यह बताया है कि जीव के चार प्रकार के बंधस्थान एवं उदयस्थान नहीं हैं। टीकाकार ने इसी बात को कलश में बतलाया है कि कर्म तो विषवृक्ष के समान हैं उनसे उत्पन्न हुये फल भी कडुवे ही होंगे इसलिये इन कर्म के उदय रूप सुख-दु:ख फलों को छोड़कर आत्मतत्त्व का अनुभव करने से ही मुक्ति मिलती है अभिप्राय यह है कि कर्म के उदय से उत्पन्न हुए सुख-दु:ख फल छोड़े नहीं जा सकते हैं किन्तु उस समय उन हर्ष-विषाद परिणति को न करते हुये परम समता भाव को धारण करके उन सुख-दु:खों से अपने उपयोग को हटाकर अपने परमानंदस्वरूप आत्मतत्त्व में स्थिर कर लेना ही उनको छोड़ना है और तभी कर्मों की निर्जरा होकर मुक्ति होती है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है, ऐसा इस कलश का अभिप्राय है।
आर्या– अंचितपंचमगतये पंचमभावं स्मरंति विद्वान्स:।
संचितपंचाचारा: िंकचनभावप्रपंचपरिहीणा:।।५८।।
अर्थ-पाँच आचारों से सहित और िंकचनभाव-परिग्रह भाव के प्रपंच से सहित विद्वान् साधु पूज्य पंचमगति को प्राप्त करने के लिए पंचम पारिणामिक भाव का स्मरण करते हैं।
भावार्थ-मूलगाथा में ग्रंथकार ने जीव के स्वभाव को चार भावों से रहित बताया है। टीकाकार ने टीका में पाँचों भावों के उत्तर भेदों को स्पष्ट कह दिया है। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव हैं। इनमें औपशमिक के २, क्षायिक के ९, क्षायोपशमिक के १८, औदयिक के २१ पारिणामिक और के ३ भेद, ऐसे ५३ भाव होते हैं। कर्मों के उपशम से होने वाला भाव औपशमिक, क्षय से क्षायिक, क्षयोपशम से क्षायोपशमिक और कर्मों के उदय से होने वाला भाव औदयिक कहलाता है। इन चारों भावों में कर्मों के उपशम, क्षय आदि की अपेक्षा है अत: ये अपेक्षा की दृष्टि से औपाधिक होने से जीव के स्वभाव नहीं हैं। शुद्ध निश्चयनय से जीव का त्रैकालिक शुद्ध, नित्य, निरंजन रूप जो सहज परिणाम स्वभाव है वह कर्मों के उदय आदि की अपेक्षा न रखने से पारिणामिक भाव कहलाता है। उसी के अवलंबन से साधु निर्विकल्प होकर अपने आत्मस्वरूप में तन्मय हो जाते हैं और पंचमगति को प्राप्त कर लेते हैं, यहाँ यह अभिप्राय है किन्तु जिन्होंने परिग्रह का त्याग नहीं किया है गृहस्थ हैं वे इस पारिणामिक भाव का श्रद्धान तो कर सकते हैं लेकिन पंचमभाव का आश्रय लेकर निर्विकल्प ध्यान नहीं कर सकते हैं ऐसा समझना चाहिये।
मालिनी– सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं।
त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्त:।
उभयसमयसारं सारतत्त्वस्वरूपं।
भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीश:।।५९।।
अर्थ-परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्त वाले मुनीश, भोगीजनों के भोगों के मूल ऐसे सम्पूर्ण पुण्य को भी छोड़ें और भव से मुक्त होने के लिये सार तत्त्व स्वरूप उभय प्रकार के समयसार का आश्रय लेवें, इसमें क्या दोष है ?
भावार्थ-निज आत्मतत्त्व के अभ्यास में कुशल साधुओं को उपदेश दिया गया है कि आप अब समस्त पुण्य को भी छोड़ो और कारण समयसार रूप शुद्धोपयोग को प्राप्त करके कार्य समयसार रूप शुद्ध परमात्मा को प्राप्त करो। तुम्हारे लिए इसमें कोई दोष नहीं है किन्तु जो अभी पापरूप क्रिया से निवृत्त नहीं हुए हैं उनके लिए पुण्य क्रिया के छोड़ने का उपदेश नहीं है।
मालिनी– अनवरतमखण्डज्ञानसद्भावनात्मा
व्रजति न च विकल्पं संसृतेर्घोररूपम्।
अतुलमनघमात्मा निर्विकल्प: समाधि:।
परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेष:।।६०।।
अर्थ-सतत रूप से अखंडज्ञान की सद्भावना रूप आत्मा संसार के घोर दु:खरूप विकल्प को प्राप्त नहीं होता है किन्तु निर्विकल्प समाधिस्वरूप यह आत्मा अतुल, निर्दोष पर परिणति से दूर चिन्मात्र को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-ग्रंथकार ने मूलगाथा में बतलाया है कि जीव के शुद्ध निश्चयनय से चार गति के भवभ्रमण से जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि नहीं हैं। टीकाकार ने इसी आशय को लेकर कहा है कि शुद्ध निश्चयनय का अवलम्बन लेकर यह आत्मा अपने को अखंड ज्ञान स्वरूप भावित करते हुए संसार के दु:खरूप जन्म,मरण, कुल, योनि आदि विकल्पो को नहीं करता है। पुन: निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर निर्दोष, चिन्मात्र भगवान आत्मा को प्राप्त कर लेता है।
स्रग्धरा– इत्थं बुद्ध्वोपदेशं जननमृतिहरं यं जरानाशहेतुं
भक्तिप्रह्वामरेन्द्रप्रकटमुकुट-सद्रत्नमालार्चितांघ्रे:।
वीरात्तीर्थाधिनाथाद्दुरितमलकुलध्वांतविध्वंसदक्षं।
एते संतो भवाब्धेरपरतटममी यांति सच्छीलपोता:।।६१।।
अर्थ-भक्ति से नमस्कार करते हुए सुरेन्द्र के मुकुटों की उत्कृष्ट रत्नों की मालाओं द्वारा जिनके चरणयुगल अर्चित हैं ऐसे तीर्थ के अधिनायक भगवान् महावीर से जन्म, जरा, मरण के नाशक उपदेश को प्राप्तकर सम्यक््âचारित्र रूपी नौका पर बैठे हुए ये संत पुरुष संसार समुद्र के दूसरे तट को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ-जो भव्य जीव भगवान महावीर के निश्चय, व्यवहाररूप उभय नयात्मक उपदेश को प्राप्त कर सम्यक््âचारित्र को धारण कर लेते हैं वे संसार समुद्र से पार हो जाते हैं, यहाँ यह अभिप्राय है।
मालिनी– दुरघवनकुठार: प्राप्तदु:कर्मपार:।
परपरिणतिदूर: प्रास्तरागाब्धिपूर:।।
हतविविधविकार: सत्यशर्म्माब्धिनीर:।
सपदि समयसार: पातु मामस्तमार:।।६२।।
अर्थ-जो दुष्ट पापों के वन को काटने में कुठार है, दुष्ट कर्मों के पार को प्राप्त हो चुका है, परपरिणति से दूर है, रागरूपी समुद्र के प्रवाह को जिसने नष्ट कर दिया है, जिसने विविध विकारों का घात कर दिया है, जो वास्तविक सुख रूपी समुद्र का जल है और जिसने कामदेव को अस्त-समाप्त कर दिया है, ऐसा वह समयसार-शुद्ध आत्मा का स्वरूप शीघ्र ही मेरी रक्षा करो।
भावार्थ-मूल ग्रंथकार ने गाथा में आत्मा को निर्दंड, निर्द्वंद्व, निर्मम, निष्कल, निरालंब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ और निर्मम कहा है। टीकाकार ने शुद्ध निश्चयनय से आत्मा को मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप दण्ड से रहित होने से निर्दंड, परपदार्थ से संपर्क रूप द्वंद्व-द्वैत से रहित होने से निर्द्वंद्व, प्रशस्त, अप्रशस्त मोहादि से रहित होने से निर्मम,पाँच प्रकार के शरीरों से रहित होने से निष्कल, पर के अवलंबन से रहित होने से निरालंब, मिथ्यात्वादि अभ्यंतर १४ परिग्रहों से रहित होने से नीराग, कर्म पंक रहित होने से निर्दोष परम तत्त्व के जानने में समर्थ होने से निर्मूढ अथवा केवलज्ञान स्वरूप होने से निर्मूढ, शुद्धात्मतत्त्वरूप महादुर्ग में निवास करने से निर्भय ऐसा सिद्ध किया है। पुन: कलश काव्यों में शुद्धात्म तत्त्व का ही स्वरूप स्पष्ट कर रहे हैं।
मालिनी– जयति परमतत्त्वं तत्त्वनिष्णातपद्म-
प्रभमुनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम्।
हतविविधविकल्पं कल्पनामात्ररम्याद्।
भवभवसुखदु:खान्मुक्तमुक्तं बुधैर्यत्।।६३।।
अर्थ-जो परम तत्त्व, तत्त्व में निष्णात ऐसे पद्मप्रभ मुनि के हृदयकमल में विराजमान हैं, निर्विकार हैं, जिसने विविध विकल्पों को नष्ट कर दिया है, जो कल्पना मात्र से रम्य ऐसे भव-भव के सुख-दु:खों से रहित है, जो बुद्धिमानों के द्वारा कहा गया है वह परम तत्त्व जयशील होता है।
भावार्थ-यहाँ टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव मुनिराज शुद्धात्म तत्त्व का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि तत्त्व में प्रवीण ऐसे हृदयकमल में यह परम तत्त्व विराजमान है। वास्तव में महामुनि हमेशा छठे-सातवें गुणस्थान में परिवर्तन करने वाले होते हैं इसलिए वे आत्मतत्त्व के अभ्यास में निपुण ही रहते हैं, ऐसा अभिप्राय है।
मालिनी– अनिशमतुलबोधाधीनमात्मानमात्मा।
सहजगुणमणीनामाकरं तत्त्वसारम्।।
निजपरिणतिशर्म्माम्भोधिमज्जन्तमेनं।
भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो य:।।६४।।
अर्थ-आत्मा अतुल ज्ञान के आधीन है, स्वाभाविक गुणरूपी मणियों की खान है, तत्त्वों का सार है, निज परिणति के सुखसागर में मग्न है। जो आत्मा भव्यता से प्रेरित हो भव से मुक्त होने के लिए ऐसी आत्मा को भजो।
द्रुतविलंबित– भवभोगपराङ्मुख हे यते।
पदमिदं भवहेतुविनाशनम्।।
भज निजात्मनिमग्नमते पुन-
स्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया।।६५।।
अर्थ-भव भोगों से पराङ्मुख हे यतिराज ! भव के कारणों को विनाश करने वाले इस पद को तुम भजो-इस आत्मा के स्थिर पद का तुम आश्रय लेवो। हे निजात्म तत्त्व में निमग्न बुद्धि वाले साधु ! पुन: तुम्हें अध्रुव, अनित्य वस्तु में िंचता से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
द्रुतविलंबित– समयसारमनाकुलमच्युतं ।
जननमृत्युरुजादिविवर्ज्जितम्।।
सहजनिर्मलशर्म्मसुधामयं ।
समरसेन सदा परिपूजये।।६६।।
अर्थ-अनाकुल, अच्युत, जन्म, मृत्यु और रोगादि से रहित, सहज निर्मल सुख सुधामय, समयसार शुद्धात्म तत्त्व को मैं सदा समरस भाव से पूजता हूँ।
इंद्रवङ्काा– इत्थं निजज्ञेन निजात्मतत्त्व-
मुक्तं पुरा सूत्रकृता विशुद्धम्।
बुद्ध्वा च यन्मुक्तिमुपैति भव्य-
स्तद्भावयाम्युत्तमशर्मणेऽहम्।।६७।।
अर्थ-इस प्रकार से आत्मज्ञानी सूत्रकार (श्री कुंदकुंददेव) ने विशुद्ध-निज आत्मतत्त्व को पहले कहा है, जिसको जानकर भव्य जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। मैं भी उत्तम सुख की प्राप्ति के लिए उस आत्मतत्त्व की भावना करता हूँ।
बसंततिलका– आद्यन्तमुक्तमनघं परमात्मतत्त्वं।
निर्द्वन्द्वमक्षयविशालवरप्रबोधम्।।
तद्भावनापरिणतो भुवि भव्यलोक:।
सिद्धिं प्रयाति भवसंभवदु:खदूराम्।।६८।।
अर्थ-परमात्म तत्त्व आदि अंत से रहित है, निर्दोष है, निर्द्धंद्व-द्वैत अथवा कलह से रहित है, अक्षय विशाल श्रेष्ठज्ञान स्वरूप है। इस संसार में उस परमात्मतत्त्व की भावना से परिणत हुए भव्य जीव, भव से जनित दु:खों से दूर ऐसी सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् जो इस परमात्म तत्त्व की भावना में परिणत-तन्मय हो जाते हैं वे संसार के दु:खों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
मंदाक्रांता–ज्ञानज्योति:प्रहतदुरितध्वांतसंघातकात्मा।
नित्यानन्दाद्यतुलमहिमा सर्वदा मूर्तिमुक्त:।
स्वस्मिन्नुच्चैरविचलतया जातशीलस्य मूलं।
यस्तं वन्दे भवभयहरं मोक्षलक्ष्मीशमीशम्।।६९।।
अर्थ-जिसने ज्ञानज्योति से पापरूपी अंधकार के समूह को समाप्त कर दिया है, जो नित्य आनंद आदि अतुल महिमा का धारण करने वाला है जो हमेशा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण रूप मूर्ति से रहित है, अपने स्वरूप में अत्यंत रूप से स्थिर होने से उत्कृष्ट शील का मूल है, ऐसे उस भवभय को हरण करने वाले मोक्षलक्ष्मी के सुख के स्वामी भोक्ता को मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-गाथा में आत्मा को शुद्ध निश्चयनय से ग्रंथ, राग, राज्य, सकल दोष, काम, क्रोध, मान और मद से रहित शुद्ध कहा गया है। टीकाकार ने उसी अभिप्राय से यहाँ शुद्धात्म तत्त्व को नमस्कार करके अपने आत्मतत्त्व की भावना भाई है।
मालिनी– असति च सति बंधे शुद्धजीवस्य रूपाद् ,
रहितमखिलमूर्त्तद्रव्यजालं विचित्रम्।।
इति जिनपतिवाक्यं वक्ति शुद्धं बुधानां।
भुवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम्।।७०।।
अर्थ-बंध होवे चाहे न होवे, अखिलमूर्त-पुद्गल द्रव्य का समूह जो कि विचित्र नाना प्रकार का है वह शुद्ध जीव के स्वरूप से भिन्न है। जिनेन्द्र भगवान् के वचन इस प्रकार से कहते हैं कि वह शुद्ध है, बुद्धिमानों को भुवन में प्रसिद्ध है, इस तत्त्व को हे भव्य! तुम हमेशा जानो।
भावार्थ-मूल गाथा में श्री भगवान कुंदकुंददेव ने बताया है कि जीव के वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, गुण, स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदरूप पर्यायें और संस्थान-संहनन भी नहीं है।
यह जीव अरस, अरुप, अगंध और अव्यक्त है। चेतना गुण से सहित है, अशुद्ध है, िंलग से ग्रहण करने योग्य नहीं है और इसका संस्थान भी निर्दिष्ट नहीं है, ऐसा तुम जानो। उसी की टीका करते हुये टीकाकार ने तीन चेतनाओं का भी खुलासा कर दिया है। चेतना के तीन भेद हैं-कर्म चेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञान चेतना। एकेन्द्रिय स्थावर जीवों में मुख्य रूप से कर्मफल चेतना ये दोनों मानी गईं हैं। त्रस जीवों में कर्म चेतना और कर्मफल चेतना ये दोनों मानी गई हैं तथा कार्य परमात्मा और कारण परमात्मा में शुद्ध ज्ञान चेतना को माना है, कार्य परमात्मा का अर्थ है-एक परमात्मा और कारण परमात्मा से शक्ति रूप परमात्मा विवक्षित है। जैसे बीज और वृक्ष में कारण कार्य भाव विवक्षित है वैसे ही वहाँ भी विवक्षित है। यह कारण परमात्मा शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीवों के शरीर में विराजमान है। शुद्धोपयोगी महामुनि अपने वीतराग निर्विकल्प ध्यान में तत्पर होकर अपनी आत्मा को सिद्ध सदृश शुद्ध ध्याते हुए इस कारण परमात्मा को कार्य परमात्मा बना लेते हैं और सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव इन दोनों के स्वरूप को समझकर अपने शुद्धोपयोग परिणाम रूप कारण परमात्मा को प्राप्त करने की इच्छा से उसे कारण के लिए कारणभूत देशव्रत-महाव्रत रूप व्यवहार चारित्र का अवलंबन ले करके शुद्धात्मतत्त्व के ध्यान का अभ्यास करते हैं तब कारण परमात्मा को कार्य परमात्मा बना लेते हैं।
पुन: टीकाकार ने कलश काव्य में कहा है कि भले ही कर्म का बंध होवे तो भी श्ाुद्ध निश्चयनय से शुद्ध जीव परद्रव्य के संबंध से रहित है, ऐसा समझकर शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करना चाहिये और प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिये।
अनुष्टुप्– प्रागेव शुद्धता येषां सुधियां कुधियामपि।
नयेन केनचित्तेषां भिदां कामपि वेद्म्यहम्।।
अर्थ-जिन सुबुद्धि-सिद्ध परमेष्ठी और कुबुद्धि-संसारी जीवों में भी पहले से ही शुद्धता है। उनमें कुछ भी भेद को मैं किसी नय से जानता हूँ अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव सिद्धों के सदृश शुद्ध ही हैं, कभी अशुद्ध हुए ही नहीं हैं।
भावार्थ-इस सैंतालीसवीं गाथा में श्रीकुंदकुंददेव ने कहा है कि जैसे सिद्ध हैं वैसे ही संसार में संसारी जीव हैं और जिस हेतु अर्थात् जिस अपेक्षा से वे सिद्ध सदृश शुद्ध हैं उसी हेतु-अपेक्षा से वे जन्म, जरा, मरण से रहित तथा सम्यक्त्वादि आठ गुणों से सहित हैं। टीकाकार ने नयों की विवक्षा को खोलते हुये कहा है कि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय से संसारी जीव और मुक्त जीव में कोई अंतर नहीं है। आगे कलश काव्य में कहा है कि मैं इनके अंतर को किसी नय के बल से जानता हूँ, क्योंकि ऊपर टीका में स्वयं टीकाकार ने ‘जेण’ शब्द का ऐसा अर्थ किया है कि जिस कारण से अर्थात् जिस अपेक्षा से-जिस नय विवक्षा से वे सिद्ध सदृश शुद्ध हैं उसी कारण-विवक्षा से वे जन्म, मरण, जरा से रहित और अष्ट गुण सहित हैं तथा गाथा की टीका की अंतिम पंक्ति में भी उन्होंने कहा है कि ‘‘विशुद्धात्मान: यथैव लोकाग्रे भगवन्त: सिद्ध परमेष्ठिनस्तिष्ठंति तथैव संसृतावपि अमी केनचित् नयबलेन संसारि जीवा: शुद्धा: इति‘‘ जिस प्रकार से लोक के अग्रभाग में विशुद्धात्मा भगवान सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं उसी प्रकार से संसार में भी ये संसारी जीव किसी नय के बल से शुद्ध हैंं। यहाँ ‘केनचित् नयबलेन’ का अर्थ यही किया है कि किसी नय की अपेक्षा से शुद्ध हैं अतएव मुझे भी यहाँ ‘नयेन केनचित्’ का अर्थ यही प्रतीत होता है कि किसी नय से उनमें मैं भेद करता हूँ अथवा सिद्ध के समान संसारी जीव पहले से ही शुद्ध हैं पुन: उनमें मैं किस नय से भेद समझूँ? यहाँ प्रश्नवाची अर्थ कर देने से ऐसा अर्थ प्रतिभासित होता है कि वे आचार्य शिष्यों को दोनों नयों से परे ऐसी निर्विकल्प रूप तृतीय अवस्था को प्राप्त करने का संकेत कर रहे हैं। यही बात अगले कलश काव्य में स्पष्ट हो रही है। देखिये-
शार्दूलविक्रीडित-शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं।
शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहम्।
इत्थं य: परमागमार्थमतुलं जानाति सद्दृक् स्वयं।
सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम्।।७२।।
अर्थ-जो शुद्ध-अशुद्ध की कल्पना है वह मिथ्यादृष्टि जीवों में हमेशा हुआ करती है किन्तु कार्यतत्त्व और कारणतत्त्व दोनों शुद्ध हैं, इस प्रकार की कल्पना हमेशा सम्यग्दृष्टि को होती है। जो सम्यग्दृष्टि जीव इस प्रकार से परमागम से अतुल अर्थ को स्वयं जानता है। सारासार विचार से सहित सुन्दर बुद्धि वाले हम उसकी वंदना करते हैं।
भावार्थ-भगवान श्री कुंदकुंददेव ने ४८वीं गाथा में यह कहा है कि जैसे अंशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल, विशुद्धात्मा सिद्ध परमेष्ठी लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं संसार में जीवों को वैसे ही जानना चाहिये। यहाँ गाथा में नय विवक्षा नहीं खोली है। पुन: तत्काल ही अगली ४९ वीं गाथा में स्वयं श्री कुंदकुंददेव ने नयों की विवक्षा घटित कर दी है, जिससे कि कोई एकांत को न पकड़ लेवे।टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव मुनिराज ने यह कहा है कि निश्चयनय से कार्य समयसार और कारण समयसार में कोई अंतर नहीं है। समय-आत्मा की सार-शुद्धावस्था के व्यक्त हो जाने को कार्य समयसार कहते हैं तथा आत्मा की शुद्धावस्था के शक्तिरूप में रहने को कारण समयसार कहते हैं। पुन: यह भी स्पष्ट किया है कि संसारी जीव संसार में भी सिद्ध के समान ही शुद्ध हैं। आगे कलश काव्य में जो बतलाया है कि ‘‘सिद्ध जीव शुद्ध हैं और संसारी जीव अशुद्ध हैं’’ इस प्रकार की कल्पना मिथ्यादृष्टि को ही रहती है। उसका अभिप्राय यह है कि जिसने नयों की विवक्षा समझी नहीं है, जो निश्चयनय से जीव के शुद्ध स्वरूप को नहीं जानते हैं। एकांत से मात्र सिद्धों को शुद्ध और संसारी को अशुद्ध मान रहे हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं तथा जो निश्चयनय से संसार अवस्था में भी जीव के स्वभाव को तथा सिद्धों के स्वभाव को इन दोनों अवस्थाओं को शुद्ध समझते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं तथा वे ही शुद्ध निश्चयनय और व्यवहारनय से होने वाली शुद्ध, अशुद्ध कल्पना रूप विकल्पों से आगे बढ़कर निर्विकल्प रूप ध्यान अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं, वे वीतराग सम्यग्दृष्टि होते हैं। उन्हें ही टीकाकार महामुनि ने नमस्कार किया है क्योंकि छठे, सातवें गुणस्थान में परिवर्तन करने वाले मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव चतुर्थ या पंचम गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि को नमस्कार नहीं कर सकते हैं।इसलिये जो शुद्ध-अशुद्ध की कल्पना से दूर शुद्ध आत्मतत्त्व का आस्वादन कर रहे हैं वे सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान वाले वीतराग चारित्र के साथ अविनाभावी वीतराग सम्यक्त्व से सहित महामुनि ही हैं यहाँ ऐसा अभिप्राय है, क्योंकि यदि यह उपर्युक्त लक्षण चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवर्ती जीवों में घटित हो सकता तो पद्मप्रभ मुनिराज को उनके नमस्कार का सवाल नहीं हो सकता था।
स्वागतां– शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्तौ,
संसृतावपि च नास्ति विशेष:।
एवमेव खलु तत्त्वविचारे,
शुद्धतत्त्वरसिका: प्रवदन्ति।।७३।।
अर्थ-शुद्ध निश्चयनय से मुक्ति में और संसार में भी अंतर नहीं है। इस प्रकार ही निश्चित रूप से तत्त्व के विचार के समय में शुद्ध तत्त्व के रसिकजन कहते हैं।
भावार्थ-मूलगाथा में भगवान श्री कुंदकुंददेव ने कहा है कि ये सभी भाव (विभाव) व्यवहारनय के आश्रय से कहे गये हैं, शुद्धनय से संसार में सभी जीव सिद्ध स्वभाव वाले हैं। टीकाकार कहते हैं कि निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों की ही उपादेयता को यहाँ प्रकाशित किया गया है। व्यवहारनय के आदेश से सभी विभाव पर्याय होती हैं व्यवहारनय से संसार सभी में जीव इन विभाव पर्यायों से परिणत हो रहे हैं किन्तु शुद्धनय के आदेश से भगवान सिद्धों की गुण१ पर्यायों के सदृश हैं।
यहाँ उन लोगों को सोचना चाहिये कि जो कहते हैं कि द्रव्य त्रैकालिक शुद्ध हैं, पर्यायें ही अशुद्ध हैं। जिस नय से द्रव्य त्रैकालिक शुद्ध है अर्थात् सिद्धों के सदृश है उसी नय से गुण और पर्यायें भी त्रैकालिक शुद्ध हैं क्योंकि गुण पर्यायें आधेय रूप हों और द्रव्य आधारभूत हो ऐसा तो है नहीं प्रत्युत् गुण और पर्याय के समुदाय का नाम ही द्रव्य है इसलिये जब व्यक्त रूप में सिद्ध अवस्था में द्रव्य शुद्ध हो जाता है तब उस द्रव्य की सभी गुण और सभी पर्यायें शुद्ध हो जाती हैं किन्तु जब संसार अवस्था में द्रव्य अशुद्ध रहता है तब तक गुण और पर्यायें भी अशुद्ध रहती हैं। हाँ, शुद्ध निश्चयनय के आदेश से द्रव्य सिद्ध सदृश शुद्ध है और उसकी गुण पर्यायें भी सिद्ध सदृश शुद्ध हैं, ऐसा अभिप्राय समझना।
शालिनी– न ह्यस्माकं शुद्धजीवास्तिकाया
दन्ये सर्वे पुद्गलद्रव्यभावा:।
इत्थं व्यक्तं वक्ति यस्तत्त्ववेदी
सििंद्ध सोयं याति तामत्यपूर्वाम्।।७४।।
अर्थ-शुद्ध जीवास्तिकाय से अन्य सभी पुद्गल द्रव्य के भाव निश्चित ही हमारे नहीं हैं। इस प्रकार से जो तत्त्ववेदी स्पष्टतया कहता है वह अति अपूर्व सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-आचार्यश्री ने मूल गाथा में यह कहा है कि व्यवहारनय से कहे गये औदयिक आदि भाव परस्वभाव होने से परद्रव्य हैं वे हेय हैं तथा अपना आत्मद्रव्य ही उपादेय है। टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि जो औदयिक आदि भाव हैं वे व्यवहारनय से उपादेय कहे गये हैं किन्तु शुद्ध निश्चयनय के बल से वे हेय हैं, अभिप्राय यह हुआ कि मति, श्रुत आदि ज्ञान भी क्षायोपशमिक भाव होने से विभाव भाव हैं किन्तु वे सर्वथा हेय नहीं हैं, मोक्षमार्ग में श्रुतज्ञान आदि कारण होने से कथंचित् उपादेय भी हैं तथा शुद्ध अंतस्तत्त्व उपादेय है और उसका आधार परम पारिणामिक भाव लक्षण कारण समयसार है।
आगे कलशरूप काव्य में कहते हैं कि शुद्ध जीव से सभी पौद्गलिक भाव भिन्न हैं ऐसा जो तत्त्ववेदी कहता है वह सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है। यहाँ कहने का अर्थ वचन मात्र से कहना नहीं लेना क्योंकि वचनमात्र से कहने वाले जीव कभी मुक्त नहीं हुए हैं। यहाँ अभिप्राय यह है कि जो इस प्रकार से अपने शुद्ध आत्मतत्त्व को पर से पृथक््â करके अनुभव करता है उसका ध्यान करते हुये उसमें तन्मय हो जाता है वही पूर्व में कभी नहीं प्राप्त हुई ऐसी अपूर्व सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
मालिनी– जयति सहजबोधस्तादृशी दृष्टिरेषा।
चरणमपि विशुद्धं तद्विधं चैव नित्यम्।।
अघकुलमलपंकानीकनिर्मुक्तमूर्ति:।
सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च।।७५।।
अर्थ-सहज ज्ञान वैसा ही सहज दर्शन और वैसा ही सहज विशुद्ध चारित्र ये तीनों नित्य ही जयशील होते हैं और पाप रूपी मलपंक की पंक्ति से निर्मुक्त मूर्ति स्वरूप, सहज परम तत्त्व में संस्थित चेतना भी सदा जयशील होती है।
विशेषार्थ-भगवान श्री कुंदकुंददेव ने ५१वीं, ५२वीं गाथा में सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाया है कि विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है तथा संशय, विमोह, विभ्रम से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। पुन: ५२वीं गाथा में कहते हैं कि चल, मलिन, अगाढ़ दोष से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है और हेयोपादेय तत्त्वों का अधिगम ही ज्ञान है। पुन: ५३ वीं गाथा में निमित्त बतलाए हैं-सम्यक्त्व के निमित्त जिन सूत्र हैं और उन सूत्रों के जानने वाले पुरुष, दर्शनमोहनीय की क्षय प्रभृति के अंतरंग हेतु कहे गये हैं।
आगे ५४, ५५वीं गाथा में कहा है कि-मोक्ष के लिये सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र होते हैं इसलिये मैं व्यवहार और निश्चय से चारित्र का वर्णन करूंगा।व्यवहारनय के चारित्र में व्यवहारनय तपश्चरण होता है और निश्चयनय के चारित्र में निश्चय तपश्चरण होता है।टीकाकार ने विशेष बात यह बतलाई है कि वह श्रद्धान रूप सम्यक्त्व सिद्धि के लिये परम्परा से कारण ऐसे पंचपरमेष्ठी में अविचल भक्ति से युक्त ही है। अनंतर सम्यक्त्व के निमित्त बतलाते हुये स्पष्ट किया है कि वीतराग सर्वज्ञ के मुख से विनिर्गत समस्त वस्तु को प्रतिपादन में समर्थ द्रव्यश्रुत बाह्य निमित्त हैं और जो मुमुक्षु (महामुनि आदि) हैं वे भी उपचार से पदार्थ के निर्णय में हेतु होने से सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिए अंतरंग हेतु कहे गये हैं क्योंकि वे दर्शनमोहनीय के क्षय आदि में कारण हैं अर्थात् सम्यक्त्व का अंतरंग हेतु तो दर्शनमोहनीय आदि कर्मों का क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम है। उस दर्शनमोहनीय के क्षय आदि में ये जिनसूत्र के ज्ञायक पुरुष कारण हो जाते हैं इसलिये वे भी उपचार से अंतरंग हेतु कहे गये हैं मतलब अंतरंग हेतु होने से उपचार से ये भी अंतरंग हेतु कहे गए है। वास्तव में दर्शनमोहनीय की तीन अौर अनंतानुबंधी की चार ऐसी सात प्रकृतियों के क्षय के लिये आगम में केवली या श्रुतकेवली के पादमूल का आश्रय कहा गया है। कर्मभूमि का मनुष्य ही केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट कर सकता है अन्यत्र नहीं, ऐसा नियम है इसीलिये यहाँ भगवान् श्रीकुंदकुंददेव ने सम्यक्त्व के लिये निमित्त में जिनसूत्र के क्षायक पुरुष को अंतरंग हेतु कहा है।
अनंतर टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि परम योगीश्वर पहले व्यवहार चारित्र में स्थित होकर व्यवहार तपश्चरण करते हैं पुन: निश्चय तपश्चरण से स्वस्वरूप में अविचल स्थित रूप निश्चय चारित्र में स्थित हो जाते हैं तब अभूतपूर्व सिद्ध पर्याय को प्रगट कर लेते हैं। अनंतर कलश काव्य में निश्चय रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय से परिणत परमतत्त्व में स्थित, पाप पंक से निर्मुक्त, चैतन्य मूर्तिस्वरूप चेतना को जयवंत कहा है।इस प्रकार से नियमसार की तात्पर्यवत्ति टीका से उद्धृत कलश काव्य के भाषानुवाद रूप शुद्ध भावाधिकार नाम का यह तृतीय श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ।