जैसे काष्ठ में अग्नि शक्तिरूप से विद्यमान है अथवा दूध में घी शक्तिरूप से मौजूद है वैसे ही शरीर में विद्यमान आत्मा शक्तिरूप से परमतत्त्व स्वरूप परमात्मा है ऐसा ज्ञान निश्चयनय से होता है। जो भी चारों अनुयोगों के जैनग्रंथ हैं वे द्वादशांग के सारभूत ही हैं उन अनेक ग्रंथों को पढ़कर भी सभी जीव शुद्धात्मा को नहीं जानते हैं किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव ही शास्त्रों को पढ़कर अपने शुद्धतत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
जैसे एक मनुष्य में अनेक संबंध-रिश्ते विद्यमान हैं वह किसी का पुत्र है तो किसी का पिता भी है, किसी का भाई है तो दूसरे का भतीजा भी है, एक का पोता है तो किसी का बाबा भी है, किसी का पति है तो किसी का ससुर भी हो सकता है, इत्यादि नाना संबंध एक समय में ही देखे जाते हैं। उसी प्रकार से एक जीव द्रव्य पर्याय दृष्टि से अनित्य है, जन्म-मरण को प्राप्त हो रहा है तो भी द्रव्यदृष्टि से नित्य है, कहीं न कहीं किसी न किसी पर्याय में वही तो है। निश्चयनय से शुद्ध है तो व्यवहारनय से अशुद्ध है इत्यादि। फिर भी एकांतवादी लोग एकरूप से ही स्वीकार करते हैं, बौद्ध आत्मा को क्षणिक ही मानता है तो सांख्य सर्वथा नित्य ही मानता है। ये एकांतवादी कथंचित् विवक्षा-नयविवक्षा को नहीं समझते हैं यह सब स्याद्वाद मत से बाह्य कुशास्त्रों का ही प्रभाव है। जात्यंधहस्ती का उदाहरण ऐसा है-एक बार कई एक जन्म से अंधे मनुष्य हाथी को जानने के लिए हाथी के पास लाए गये, एक ने हाथी का पैर पकड़ा, दूसरे ने पेट, तीसरे ने पूंछ और चौथे ने सूंड़ पकड़ ली, तभी पहले ने कहा-हाथी खंभे के समान है, दूसरे ने कहा-नहीं-नहीं हाथी तो दीवाल के समान है, तीसरे ने कहा-चुप रहो, हाथी तो झा़ड़ू के समान है तभी चौथे ने कहा-नहीं, हाथी तो बड़े भारी हाथों के समान है और ये चारों आपस में अपना-अपना निर्णय देते हुए लड़ने लगे। इसी बीच एक बुद्धिमान सज्जन आये और इन जन्मांध लोगों के झगड़े को निपटाने के लिए खड़े हो गये। सभी ने अपने-अपने निर्णीत हाथी के स्वरूप को बताया, तब वे सज्जन हंसकर बोले-
भाइयों, तुम चारों की बात सही है, सुनो, हम तुम्हें हाथी का सही स्वरूप बताते हैं। तुम चारों ने हाथी के एक-एक अवयवों को ही हाथी मान लिया है। देखो, तुम्हारे भी तो हाथ हैं, पैर हैं, पेट है और सिर है वैसे ही खंभे के समान तो हाथी के पैर हैं, दीवाल के समान हाथी का पेट है, झाड़ू के समान हाथी की पूंछ है और बड़े हाथ के समान हाथी की लंबी सूंड़ है। इन सब अवयवों को मिलाकर ही हाथी बना है।
इतना सुनकर चारों अंधे खुश हो गये। इसी प्रकार से कोई बौद्ध आत्मा को क्षणिक कहते हैं और सांख्य आत्मा को नित्य किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि आत्मा पर्यायोें की अपेक्षा से क्षणिक है और द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है इत्यादि। श्रीअमृतचंद्रसूरि ने भी कहा है-
परमागमस्य बीजं, निषिद्धजात्यन्धसिंधुरविधानम्।
सकलनयविलसितानां, विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्।।
जो परमागम का बीज है, जिसमें जन्म से अंधे हुये लोगों द्वारा हाथी के एक-एक अवयव के ज्ञान का निषेध है और जो संपूर्ण नयों के परस्पर के विरोध का परिहार है ऐसे ‘अनेकांत’ को मैं नमस्कार करता हूँ। इसलिए जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित और जैनाचार्यों द्वारा रचित ऐसे तीन ग्रंथों का ही स्वाध्याय, पठन-पाठन करना चाहिए।
जो अल्पज्ञ हैं उनके वचन असत्य हो सकते हैं अथवा जो राग द्वेष-पक्षपात से सहित हैं उनके वचन भी असत्य होते हैं इसीलिए जो सर्वज्ञ हैं-केवलज्ञानी हैं और अठारह दोषों से रहित पूर्ण वीतरागी हैं उनके वचन पूर्णतया सत्य ही होते हैं। आज यद्यपि सर्वज्ञ देव नहीं हैं फिर भी परंपरा से अवधिज्ञानी-मन:पर्यय ज्ञानी आचार्यों से प्राप्त ज्ञान से ही पूर्वाचार्यों ने ग्रंथ रचना की है अत: पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रंथ भी प्रमाण ही हैं। उन ग्रंथों में कहे गये विषय-अहिंसामयी धर्म आदि प्रमाणभूत हैं।
सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए पांच लब्धियां मानी हैं-क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण—
क्षयोपशम लब्धि-कर्मों के मलरूप जो अशुभ ज्ञानावरणादि समूह उनका अनुभाग जिस काल में समय-समय अनंतगुणा क्रम से घटता हुआ उदय को प्राप्त होता है उस काल में क्षयोपशम लब्धि होती है।
विशुद्धि लब्धि-पहली क्षयोपशम लब्धि से उत्पन्न हुआ जो जीव के साता आदि शुभ प्रकृतियों के बंधने का कारणरूप शुभ परिणाम उसकी जो प्राप्ति वह विशुद्ध लब्धि है क्योंकि अशुभ कर्म का अनुभाग घटने से संक्लेश की हानि और उसके विपक्षी विशुद्धि की वृद्धि होना स्वाभाविक ही है।
देशना लब्धि-लब्धिसार में कहते हैं कि-छह द्रव्य और नव पदार्थों का उपदेश देने वाले आचार्य का लाभ मिलना देशना लब्धि है अथवा उनके द्वारा उपदेशित पदार्थों के धारण करने का लाभ होना यह तृतीय लब्धि है। आचार्य, उपाध्याय आदि छह द्रव्यादि का उपदेश करने वाले हैं उनका जो मिलना है वही देशना की प्राप्ति है अथवा चिर अतीत काल में उपदेशित पदार्थ के धारण करने का लाभ होना वह देशना लब्धि है। गाथा में ‘तु’ शब्द है उससे यह अर्थ समझना कि उपदेश करने वालों से रहित नरक आदि पर्यायों में पूर्वभव में सुनकर धारण किया हुआ जो तत्त्वों का अर्थ है उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। ऐसा यहाँ सूचित किया गया है।
प्रायोग्य लब्धि-सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंत: कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं क्योंकि इन अवस्थाओं के होने पर करण अर्थात् पाँचवीं करणलब्धि के योग्य भाव पाये जाते हैं। यह लब्धि भव्य और अभव्य दोनों के समान है अर्थात् अभव्य भी यहाँ तक स्थिति को पा सकते हैं किन्तु करण लब्धि उनके नहीं हो सकती है।
करण लब्धि-इस प्रकार स्थिति और अनुभागों के कांडक घात को बहुत बार करके गुरु के उपदेश के बल से अथवा उसके बिना भी अभव्य जीवों के योग्य विशुद्धियों को व्यतीत करके अभव्य जीवों के योग्य अध:प्रवृत्तकरण संज्ञा वाली विशुद्धि में भव्य जीव परिणत होता है अर्थात् करण नाम परिणामों का है।
इस करण लब्धि के तीन भेद हैं-अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण।
अध:करण-जिस भाव में वर्तमान जीवों के उपरितन समयवर्ती परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के साथ संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा सदृश होते हैं, उन भावों के समुदाय को अध:करण कहते हैं। इस अध:करण का काल अंतर्मुहूर्त है और परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं।
अपूर्वकरण-जिस काल में प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि को लिए हुए अपूर्व-अपूर्व परिणाम होते हैं, उन परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्वकरण के विभिन्न समयों में वर्तमान जीवों के परिणाम सदृश नहीं होते किन्तु विसदृश या असमान और अनन्तगुणी विशुद्धता से युक्त पाए जाते हैं। अध:प्रवृत्तकरण की अपेक्षा इसका काल अल्प है किन्तु परिणाम उससे असंख्यातलोक गुणित हैं।
अनिवृत्तिकरण-इसमें एक समयवर्ती जीव के एक ही परिणाम पाया जाता है और एक समयवर्ती अनेक जीवों के भी एक सदृश ही परिणाम पाये जाते हैं। एक कालवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति, भेद या विसदृशता नहीं पायी जाती है इसीलिए उन्हें अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इसके परिणामों की संख्या उसके काल के समयों के समान ही है क्योंकि इस अनिवृत्तिकरण काल के समय-समय में एक-एक ही परिणाम होते हैं।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों पृथक् -पृथक् स्वरूप से व्यवहार रत्नत्रय हैं किन्तु शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से ये तीनों आत्मस्वरूप एक ही हैं, इनमें कोई भेद नहीं है इसलिए निश्चयनय की अपेक्षा से रत्नत्रय में भेदकल्पना संभव नहीं है।
श्रीकुंदकुंददेव ने कहा है-
ववहारेणु वदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।
णवि णाणं ण चरित्तं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।
ज्ञानी आत्मा के दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन हैं यह व्यवहारनय का उपदेश है किन्तु निश्चयनय की अपेक्ष से ज्ञानी के न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र ही है, मात्र यह आत्मा ज्ञायकभाव वाला-ज्ञातास्वरूप शुद्ध ही है।
यहाँ यह समझना है कि व्यवहाररत्नत्रय व्यवहार मोक्षमार्ग है और निश्चयरत्नत्रय निश्चय मोक्षमार्ग है, व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चयरत्नत्रय साध्य है।
जहाँ तक व्यवहारनय और भेद अवस्था प्रधान है वहां तक ही प्रमाण, नय और निक्षेप प्रतिभासित होते हैं आगे निश्चयनय में-अभेदरूप निर्विकल्प ध्यान में ये प्रतिभासित ही नहीं होते हैं। समयसार में कहा भी है-
उदयति न नयश्रीरस्तमेतिप्रमाणं क्वचिदपि।
न च विद्मो याति निक्षेपचक्रम्।।
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्।
अनुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव।।
नयों की लक्ष्मी-भेद, प्रभेद उदय में नहीं आते हैं, प्रमाण भी अस्त हो जाता है, कुछ समझ में नहीं आता है कि निक्षेप के समूह कहां चले जाते हैं और अधिक तो क्या कहें, सभी विकल्पों को समाप्त करने वाले ऐसे आत्मतेज का अनुभव आने पर विकल्प-भेद-प्रमाण आदि रूप भेद प्रतिभासित ही नहीं होते हैं। वास्तव में यह अवस्था निर्विकल्प ध्यान में महामुनियों की ही होती है, उसके पूर्व छठे-सातवें गुणस्थान तक ये प्रमाण, नय, निक्षेप और भेद रत्नत्रय सभी प्रयोजनीभूत ही हैं।
यह संसारी स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, मकान आदि पर वस्तुओं के साथ एकत्व स्थापित कर इनके संयोग से ही दु:खी हो रहा है, इस संयोग संबंध के त्याग करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होगी ऐसा निश्चय है। कहा भी है-
संयोगतो दु:खमनेकभेदं, यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी।
ततस्त्रिधासौ परिवर्जनीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम्।।
यह शरीरधारी प्राणी इस जन्मरूपी गहन वन में संयोग से ही अनेक प्रकार के दु:खों को भोगता है अत: अपनी मोक्ष अवस्था को प्राप्त करने के इच्छुक जनों को मन-वचन-काय से इस संयोग संबंध का त्याग कर देना चाहिए।
जो पुण्य और पापरूप शुभ-अशुभ कर्म हैं ये क्रूर राक्षस के सदृश दु:खदायी हैं इनका उदय आने पर राग और द्वेष होता है। इन राग द्वेष के निमित्त से पुनरपि पुण्य-पाप कर्मों का बंध होता है। जब महामुनि राग-द्वेष का त्याग कर वीतरागी निर्विकल्प ध्यानी बन जाते हैं तब ये कर्मबंध रुक जाते हैं। इसी का नाम संवर है, इस संवर से आत्मा कर्मों से छूट कर मुक्त हो जाता है। जब तक पुण्य का संवर हम नहीं करते तब तक पांचों पापों का त्याग कर पाप का संवर करते हुए पुण्य के संवर की भावना भाते रहना चाहिए।
बंध, मोक्ष या संसार-मोक्ष, पुण्य-पाप, आत्मा और कर्म ये सब व्यवस्था द्वैत कहलाती है तथा एक निर्विकल्प आत्मतत्त्व का अनुभव अद्वैत है। सम्यग्दृष्टि श्रावक और छठे गुणस्थानवर्ती मुनि ये द्वैतभाव्ा में-सविकल्प अवस्था में ही रहते हैं, इससे भिन्न निर्विकल्प ध्यान में स्थित हुए मुनियों को ही अद्वैत भाव का अनुभव आता है। समयसार कलश काव्य में कहा भी है-एक आत्मतत्त्व का अनुभव आ जाने पर नय, प्रमाण, निक्षेप आदि प्रतिभासित नहीं होते हैं। इस अद्वैत में स्थित हुये मुनि शुक्लध्यान से कर्मों का नाश करके सर्वकर्म से रहित होकर एक अद्वैत स्वरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं और जो अद्वैत में स्थित हैं ऐसे अव्रती, श्रावक या मुनि सम्यक्त्व के प्रभाव से अद्वैत की भावना भाते हुए परंपरा से मोक्ष के भागी बनते हैं।
किन्तु जो मिथ्यादृष्टी हैं ऐसे जो बंध, संसार आदि द्वैतभाव में ही रमे रहने के कारण चतुर्गति संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं अत: सम्यक्त्व सहित द्वैतभाव से अद्वैतभाव को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
यह द्वैतबुद्धि सम्यग्दृष्टि के भी छठे गुणस्थान तक संभव है और निर्विकल्प ध्यान में ही अद्वैत अवस्था होती है फिर भी सम्यक्त्व के निमित्त से अद्वैत की भावना करने से ही परंपरा से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मतत्त्व कर्मों से रहित निर्विकार चिच्चैतन्यस्वरूप ही है और व्यवहारनय की अपेक्षा से कर्मों से सहित संसारी है विकारी ही है ऐसा समझना। यहाँ निश्चयनय की अपेक्षा से ही आत्मतत्त्व का वर्णन किया जा रहा है।
यहाँ ‘अप्रमत्तस्य योगिन:’ पद आया है, इससे स्पष्ट है कि जो छठे गुणस्थान से आगे के निर्विकल्प ध्यान में स्थित महामुनि हैं उनके उस निश्चय चारित्र में वह परमज्योति स्वरूप आत्मा ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप है। वही नमस्कार के योग्य है, वही मंगल लोकोत्तम और शरण है। वही पंचाचार, षडावश्यक क्रिया और स्वाध्याय स्वरूप है। वास्तव में व्यवहारनय के आश्रित ये दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि पृथक्-पृथक् हैं, मूलाचार ग्रंथ के अनुसार इनका विस्तार से छठे गुणस्थानवर्ती मुनि पालन करते हैं। चार ही मंगल हैं-अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म, ये चार उत्तम हैं और ये ही चार शरण हैं। ‘चत्तारि मंगलं-अरहंत मंगलं’ इत्यादि। ऐसे ही ज्ञानाचार आदि पांच आचार, सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाएं और पांच प्रकार के स्वाध्याय ये सभी व्यवहार चारित्र हैं।
सरागमुनि छठे-सातवें गुणस्थान में रहते हुए इनको धारण करते हैं ये सभी निश्चय चारित्र के लिए साधन हैं। इनके होने पर ही आत्मा का ध्यान होता है। उस ध्यान में स्थित महामुनि ही इनको अभेद-एकरूप से प्राप्त कर लेते हैं। इसे ही निश्चय रत्नत्रय-अभेद रत्नत्रय, वीतराग चारित्र, निर्विकल्प ध्यान और शुक्लध्यान के नामों से जाना जाता है।
यह पूरा प्रकरण आत्मध्यानी-शुक्लध्यानी महामुनियों का ही है क्योंकि योगनिष्ठ-योगी और मुमुक्षु शब्दों का प्रयोग सर्वत्र दिगबर जैन महामुनि के लिए ही है। यथा- ‘‘मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान्, प्रभु: प्रवव्राज सहिष्णुरच्युत:।’’ इक्ष्वाकुवंश के आदि में जन्म लेने वाले, जितेन्द्रिय, भगवान आदिनाथ, प्रभु, मुमुक्षु ने प्रवज्या-दीक्षा ली, ये प्रभु सहिष्णु और अच्युत हैं, ऐसा श्रीसमंतभद्र स्वामी ने कहा है।
‘जो शुद्ध चैतन्य है वही मैं हूँ’ यह शब्दों से भायी गई भावना है किन्तु ‘आत्मज्योति’ इस शब्द कल्पना से परे निर्विकल्प ध्यानरूप है और उसमें आनन्द का ही अनुभव आता है।
श्री अकलंकदेव ने भी कहा है-‘मोक्षेऽपि यस्य नाकाङ्क्षा स मोक्षमधिगच्छति’ जिसकी मोक्ष के लिए भी आकांक्षा नहीं है वही मोक्ष को प्राप्त करता है। बात यह है कि इच्छा होना भी एक विकल्प है चाहे वह मोक्ष के लिए ही क्यों न हो और विकल्पों को छोड़कर निर्विकल्प ध्यान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। दूसरी बात यह भी है कि-‘‘छाया तरुं संश्रयत: स्वत: स्यात्, कश्छायया याचित आत्मलाभ:।।’’
अर्थात् जैसे-वृक्ष के नीचे पहुँचने पर छाया स्वयं मिल जाती है उसकी याचना-इच्छा-आकांक्षा करने की आवश्यकता नहीं रहती है। वैसे ही मोक्ष प्राप्ति के उपायस्वरूप व्यवहार रत्नत्रय के बल से निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त करके ध्यान में स्थित हुए महामुनि को मोक्ष की इच्छा की आवश्यकता ही भला क्या है ? वह तो अपने आप मिलेगा ही मिलेगा।
यह आत्मज्योति निश्चयनय की अपेक्षा से रूप, रस, गंध और स्पर्श से रहित है अतएव सूक्ष्म है तथा अनंत गुणों का आश्रय होने से स्थूल भी है। शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से एक है और अनंत गुणों की अपेक्षा से अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणरूप रत्नत्रय की अपेक्षा से अनेक भी है। सहज ज्ञान या केवलज्ञान से जानने योग्य होने से अथवा शुद्धोपयोग में स्थित मुनियों के अनुभवगम्य होने से स्वसंवेद्य है फिर भी क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा जानने योग्य न होने से अवेद्य है। कभी इस ज्योति का क्षरण-विनाश नहीं होता है-शुद्धनय से यह सदैव अविनश्वर है अत: ‘अक्षर’ है पुन: पर्यायार्थिक नय से उत्पाद, व्यय की अपेक्षा अनक्षर भी है-विनाशशील भी है अथवा अक्षर-भाषा आदि से रहित होने से अनक्षर है। असाधारण गुणों से सहित होने से उपमा रहित है। इइस ज्योति को शब्दों से कह नहीं सकते अत: अनिर्देश्य-अवाच्य है। सांव्यवहारिक आदि प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों का विषय न होने से अप्रमेय है एवं आकुलता रहित होने से अनाकुल है। मूर्तिक बाह्य पदार्थों के संयोग से रहित होने से शून्य है अथवा पुद्गलादि पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से रहित होने से शून्य है अथवा स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से पूर्ण है। यह ज्योति द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। यह आत्मज्योति औदारिक शरीर से रहित, परवस्तु के अवलंबन से रहित, शब्द वर्गणाओं से रहित और कर्मों की उपाधि से रहित ही है, अतीन्द्रिय ज्ञान का विषय होने से मन, वचन के अगोचर है।
जैसे अमूर्तिक आकाश में चित्र बनाना असंभव है ऐसे ही अतीन्द्रिय-अमूर्तिक आत्मा के विषय में कुछ भी कहना असंभव ही है यह आत्मा तो केवल स्वानुभवगम्य ही है।
जिस निर्विकल्प ध्यान में समचतुरस्र आदि संस्थान, अकार आदि अक्षर, कृष्ण, नील, शुक्ल आदि वर्ण और कोई भी विकल्प प्रतिभासित नहीं होते हैं केवल शुद्ध आत्मा ही अनुभव में आता है ऐसे शुद्धोपयोगी महामुनि के ही यह ‘साम्यभाव’ घटित होता है। यहाँ आचार्य ने स्वयं शुद्धोपयोग को भी साम्य का पर्यायवाची कहा है।
हंस सरोवर में रहता है उसे उसमें इतना आनंद आता है कि वह स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करता है, शुचि-श्वेतवर्ण का होता है और हंसी की ओर अपनी दृष्टि रखता है। ऐसे ही यहाँ पर शुद्ध आत्मा को हंस बनाया है। यह शुद्धात्मा अणिमा आदि ऋद्धियों से सहित स्वर्ग की भी इच्छा नहीं रखता है क्योंकि इसकी मुक्तिरूपी हंसी में आसक्ति है, यह समताभाव में निवास करता है वही इसके लिए सरोवर है और यह शुचि-श्वेत अर्थात् कर्मरज से रहित होने से पवित्र है।
जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े को अवे की अग्नि में पकाया जाता है तभी उसमें पानी भरने पर ठंडा-ठंडा मिलता है। वैसे ही मृत्यु यद्यपि संसारी जीवों को दुखदायी है फिर भी ज्ञानी जनों को वह मोक्षसुख का कारण हो जाती है। यहां अमृत के दो अर्थ किए गये हैं अमृत-जहां मरण नहीं है ऐसा मोक्ष और अमृत-मरण से बचाने वाला जल।
दु:ख के शारीरिक, मानसिक और आगंतुक ऐसे तीन भेद हैं फिर तत्त्वज्ञानी को तो संसार में तो सदा दु:ख ही दु:ख प्रतिभासित होता है। वह एक तो जन्म-मरण की अपेक्षा है दूसरा मुख्यरूप से आकुलता लक्षण वाला है। कहा भी है-‘आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिये।’ वास्तव में अविवेकी प्राणी कभी इष्ट सामग्री के प्राप्त होने पर सुख का अनुभव करता है किन्तु विवेकी आत्मा चिंतन करता है-‘कल्पनामात्रमेवैतत् सुखं दु:खं च देहिनाम्’।
संसारी प्राणियों के लिए ये सुख और दु:ख कल्पना मात्र ही हैं ऐसा समझना।
यह एकत्व भावना संसार समुद्र से पार करने वाली है और सम्यक्त्व सहित समाधि-धर्मध्यान और शुक्लध्यान की सिद्धि कराने वाली है। इस भावना से निश्चल मन होता है और पापरूपी मल दूर हो जाता है, ऐसा यह इस एकत्वभावना का महत्त्व है।
निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा से कर्म भिन्न हैं अत: कर्म के निमित्त से उत्पन्न हुए रागादि भाव भी भिन्न ही हैं। इसी प्रकार अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि भी भिन्न ही हैं क्योंकि ये सभी अपने-अपने गुण पर्यायों से पृथक्-पृथक् ही हैं। वास्तव में निश्चयनय से न संसार है और न मोक्ष ही अत: निश्चयनय से आत्मा को शुद्ध समझकर पुन: व्यवहारनय से रत्नत्रय को ग्रहण कर आत्मा की शुद्ध शक्ति को व्यक्त करना चाहिए।
केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, अनंतवीर्य, क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिक-यथाख्यात चारित्र को नव केवललब्धि कहते हैं। जो महामुनि इस आत्मतत्त्व की भावना का पुन:-पुन: अभ्यास, कथन, चिंतन एवं भावना करते हैं वे परंपरा से सर्वगुण और सर्वसौख्य से परिपूर्ण मोक्षसुख को प्राप्त कर लेते हैं ऐसा नियम है।