-शार्दूलविक्रीडित-
नि:शेषामलशीलसद्गुणमयामत्यन्तसम्यस्थितां वंदे तां परमात्मन: प्रणयिनीं कृत्यान्तगां स्वस्थताम्।
यत्रानन्तचतुष्टयामृतसरित्यात्मानमन्तर्गतं न प्राप्नोति जरादिदु:सहशिख: संसारदावानल:।।१०७।।
अर्थ—समस्त निर्मलशीलगुणस्वरूप तथा सर्वथा समतारूप अवस्था में होने वाली और उत्कृष्ट आत्मा से प्रीति कराने वाली तथा जिसके होते सन्ते किसी प्रकार का कर्तव्य बाकी नहीं रहता, ऐसी स्वस्थता को मैं नमस्कार करता हूँ जिस अनंतविज्ञानादि अनन्तचतुष्टयस्वरूप, स्वस्थतारूपी अमृतनदी के भीतर रहे हुवे आत्मा को जरा आदि दु:सहशिखा को धारण करने वाला भी संसाररूपी बड़वानल प्राप्त नहीं हो सकता।
भावार्थ—जिस प्रकार कोई नदी के जल में प्रवेश कर जावे तो उसका भयंकर भी अग्नि कुछ भी नहीं कर सकती, उस ही प्रकार जो अनन्तचतुष्टयस्वरूप स्वस्थतारूपी अमृत नदी में प्रविष्ट है उसको असह्य भी संसाररूपी वड़वाग्नि अंशमात्र भी नहीं सता सकती।।१०७।।
आयातेऽनुभवे भवारिमथने निर्मुक्तमूर्त्याश्रये शुद्धेऽन्यादृशि सोमसूर्यहुतभुक्कान्तेरनन्तप्रभे।
यस्मिन्नस्तमुपैति चित्रमचिरान्नि:शेषवस्त्वन्तरं तद्वन्दे विपुलप्रमोदसदनं चिद्रूपमेकं मह:।।१०८।।
अर्थ—समस्त कर्मादि वैरियों के नाश करने वाले तथा शरीरादि के आश्रयकर रहित अर्थात् जिसको किसी प्रकार के शरीर आदि का आश्रय नहीं है और शुद्ध तथा दूसरे के प्रत्यक्ष के अगोचर तथा चन्द्रमा-सूर्य और अग्नि से भी अनन्तगुणी प्रभा को धारण करने वाले जिस चैतन्यस्वरूप उत्कृष्टतेज के अनुभव होने पर बात की बात में समस्त परपदार्थ अस्त हो जाते हैं ऐसे अनेक प्रकार के प्रमोद को पैदा करने वाले उस चैतन्यस्वरूप तेज को मैं शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।।१०८।।
जातिर्याति न यत्र यत्र च मृतो मृत्युर्जरा जर्जरा जाता यत्र न कर्मकायघटना नोवाग्रुजो व्याधय:।
यत्रात्मैवपरं चकास्ति विशदं ज्ञानैकमूर्तिर्विभुर्नित्यं तत्पदमाश्रितो निरुपमा सिद्धा: सदा पान्तु व।।१०९।।
अर्थ—जहाँ पर न जन्म है, न मरण है, न जरा है, न कर्मों का तथा शरीर का सम्बन्ध है, न वाणी है और न रोग है तथा जहाँ पर निर्मल ज्ञान का धारण करने वाला और प्रभु आत्मा सदा प्रकाशमान है, ऐसे उस अविनाशी पद में रहने वाले उपमारहित (अर्थात् जिनको किसी की उपमा ही नहीं दे सकते ऐसे) सिद्ध भगवान् मेरी रक्षा करो अर्थात् ऐसे सिद्धों का मैं शरण लेता हूँ।।१०९।।
दुर्लक्ष्येपि चिदात्मनि श्रुतवलात्किंचित्स्वसंवेदनात् ब्रूूम: किंचिदिह प्रबोधनिधिभिर्ग्राह्यं न किञ्चिच्छलम्।
मोहे राजनि कर्मणामतितरां प्रौढेन्तराये रिपौ दृग्बोधावरणद्वये सति मतिस्तादृक्कुतो मादृशाम्।।११०।।
अर्थ—जिस प्रकार अमूर्तिक होने के कारण आकाश आदि किसी के देखने में नहीं आ सकते, उस ही प्रकार यद्यपि यह आत्मा किसी के दृष्टिगोचर नहीं है तो भी उस चैतन्यस्वरूप आत्मा के स्वरूप को शास्त्र के बल से अथवा अपने अनुभव से मैं वर्णन करता हूँ इसलिये बुद्धिमानों को इसमें किसी प्रकार की दगाबाजी नहीं समझनी चाहिये क्योंकि समस्तकर्मों का राजा मोहनीय और अत्यंतप्रबल अंतरायरूपी शत्रु तथा ज्ञानावरण-दर्शनावरण अभी मेरी आत्मा के साथ लगे हुवे हैं इसलिये वास्तविक स्वरूप के कहने में मेरी बुद्धि वैâसे प्रवीण हो सकती है ?
भावार्थ—वास्तविक रीति से आत्मा के स्वरूप का वर्णन अर्हन्त ही कर सकते हैं, अल्पज्ञानी नहीं तथा अभी मैं अल्पज्ञानी हूँ इसलिये मेरा कथन सर्वज्ञदेवप्रणीत शास्त्र के अनुसार होने के कारण तथा कुछ अनुभव से होने के कारण विद्वानों को अवश्य मानना चाहिये।।११०।।
-शार्दूलविक्रीडित-
विद्वन्मान्यतया सदस्यतितरामुद्दण्डवाग्डम्बरा: शृङ्गारादिरसै: प्रमोदजनकं व्याख्यानमातन्वते।
ये ते च प्रतिसद्म सन्ति बहवो व्यामोहविस्तारिणो येभ्यस्तत्परमात्मतत्त्वविषयं ज्ञानं तु ते दुर्लभा:।।१११।।
अर्थ—अपने को विद्वान् मानकर शृङ्गारादिरससहित नाना प्रकार के प्रमोदजनक व्याख्यानों को कहने वाले तथा सभा में व्यर्थ वचनों के आडम्बर को धारण करने वाले और मनुष्यों को सन्मार्ग के भुलाने वाले पुरुष संसार में प्रतिग्रह बहुत से मिलेंगे परन्तु जो परमात्मतत्त्व के ज्ञान के देने वाले हैं, ऐसे मनुष्य बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।।१११।।
आपद्धेतुषु रागरोषनिकृतिप्रायेषु दोषेष्वलं मोहात्सर्वजनस्य चेतसि सदा सत्सु स्वभावादपि।
तन्नाशाय च संविदे च फलवत्काव्यं कवेर्जायते शृङ्गारादिरसं तु सर्वजगतो मोहाय दु:खाय च।।११२।।
अर्थ—समस्त मनुष्यों के चित्तों में नाना प्रकार के दु:ख देने वाले ऐसे राग-द्वेष-माया-क्रोध-लोभ आदि दोष स्वभाव से ही रहे आते हैं इसलिये जो कवि का काव्य उनको मूल में उड़ा देता है तथा सम्यग्ज्ञान का उत्पन्न करने वाला होता है, वास्तव में वही कार्यकारी समझना चाहिये अर्थात् जिसमें वीतरागपने का वर्णन होवे, वही काव्य फल का देने वाला है और शृंगारादिरस तो समस्तजगत को मोह के उत्पन्न करने वाले तथा दु:ख के देने वाले हैं इसलिये भव्यों को चाहिये कि वे वीतराग भाव को दर्शाने वाले शास्त्रों का ही अभ्यास करें।।११२।।
-वसंततिलका-
कालादपि प्रसृतमोहमहांधकारे मार्गं न पश्यति जनो जगति प्रशस्ते।
क्षुद्रा:क्षिपन्ति दृशि दृ:श्रतिधूलिमस्य नस्यात्कथं गतिरनिश्चितदुष्पथेषु।।११३।।
अर्थ—अनादिकाल से पैâले हुवे मोहरूपी महान अन्धकार से व्याप्त इस जगत में बिचारे मोही जीव एक तो स्वयमेव ही श्रेष्ठमार्ग को नहीं देख सकते हैं, यदि किसी रीति से देख भी सकें तो दुष्ट पुरुष और भी उनकी आँखों में शृंगारादिशास्त्र सुनाकर धूली डालते हैं इसलिये कहाँ तक वे जीव खोटे मार्ग में गमन नहीं कर सकते ?
भावार्थ—जिस प्रकार जात्यन्ध पुरुष को एक तो स्वयमेव ही मार्ग नहीं सूझता किन्तु उसकी आँखों में यदि धूलि डाल दी जावे तो और भी वह घबड़ाकर खोटे मार्ग में गिर पड़ता है, उस ही प्रकार संसार में भ्रमण करते हुवे प्राणियों को एक तो मोह के उदय से स्वयं मार्ग नहीं सूझता परन्तु शृंगारादिरसों के सुनने से वे और भी खोटे मार्गों में गिरते हैं इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे कदापि शृंगारादिरूपशास्त्रों को न सुनें जिससे उनको खोटे मार्ग में न गिरना पड़े।।११३।।
-शार्दूलविक्रीडित-
विण्मूत्रकृमिसंकुले कृतघृणैरंत्रादिभि: पूरिते शुक्रासृग्वरयोषितामपि तनुर्मातु: कुगर्भेऽजनि।
सापि क्लिष्टरसादिधातुघटिता पूर्णा मलाद्यैरहो चित्रं चंद्रमुखीति जातमतिभिर्विद्वद्भिरावर्ण्यते।।११४।।
अर्थ—यह स्त्री का शरीर विष्टा-मूत्र तथा नाना प्रकार के कीड़ों कर व्याप्त और प्रबल घृणा को पैदा करने वाले आँत-माँस आदि कर पूरित तथा वीर्य-रक्त आदि से पुष्ट ऐसे खोटे माता के गर्भ से उत्पन्न हुवा है और स्वयं भी वह स्त्री नाना प्रकार के खोटे वीर्य-रक्त आदि कर बनी हुई है तथा मल आदि से युक्त है, तो भी नीच विद्वान कवि ऐसी स्त्री को चन्द्रमुखी कहते हैं, यह बड़े आश्चर्य की बात है।।११४।।
-शिखरिणी-
कचा यूकावासा मुखमजिनवद्धास्थिनिचय: कुचौ मांसोच्छ्रायौ जठरमपि विष्टादिघटिका।
मलोत्सर्गे यंत्रं जघनमवलाया: क्रमयुगं तदाधारस्थूणे किमिह किल रागाय महताम्।।११५।।
अर्थ—स्त्री के केश तो जूवां के घर हैं, मुख चर्म से वेष्टित हाड़ों का समूह है, स्तन माँस के पिण्ड हैं, उदर विष्टा आदि खराब चीजों का घर है, योनिस्थान मूत्र आदि के बहने का नाला है और दोनों चरण उस योनि स्थान के ठहरने के लिये खम्भों के समान हैं इसलिये ऐसी खराब स्त्री में विद्वान पुरुष कदापि राग नहीं कर सकते ।।११५।।
-द्रुतविलम्बित-
परमधर्मनदाज्जनमीनकान् शशिमुखीवडिशेनसमुद्धतान्।
अतिसमुल्लसिते रतिमुर्मुरे पचति हा हतक:स्मरधीवर:।।११६।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि यह हिंसक कामदेवरूपीधीवर जीवरूप मछलियों को उत्कृष्ट धर्मरूपी तालाब से निकालकर स्त्रीरूपी माँस सहित काँटे पर लटकाकर अत्यंतप्रज्वलित संभोगरूपी भू भर में भूँजती है, यह बड़े दु:ख की बात है।
भावार्थ—जिस प्रकार धीमर जिह्वाइन्द्रिय की लोभी मछलियों को मांसलिप्त काँटे से बाहर निकालकर भूभर में भूँजता है उसी प्रकार यह कामदेव भी जीवों को धर्म से हटाकर स्त्रियों के जाल में फंसा देता है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे सर्वथा प्राणों के घात करने वाले इस कामदेव को अपने हृदय में फटकने तक न देवें।।११६।।
-शार्दूलविक्रीडित-
येनेदं जगदापदाम्बुधिगतं कुर्वीत मोहो हठात् येनैते प्रतिजन्तु हन्तुमनस: क्रोधादयो दुर्जया:।
येन भ्रातरियं च संसृतिसरित् संजायते दुस्तरा स्तज्जानीहि समस्तदोषविषमं स्त्रीरूपमेतद्ध्रुवम्।।११७।।
अर्थ—जिस स्त्री के रूप की सहायता से मोह, जबर्दस्ती मनुष्य को नाना प्रकार के दु:ख देता है तथा उसी रूप की सहायता से समस्त जीवों के नाशक क्रोधादि कषाय दुर्जय हो जाते हैं और उसी रूप की सहायता से संसाररूपी नदी तैरी नहीं जा सकती अर्थात् अथाह हो जाती है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्यों! उस स्त्री को समस्त दोषों से भी भयंकर समझो।
भावार्थ—जितने भर संसार में दोष हैं, वे किसी न किसी अहित को तो अवश्य ही करते हैं परन्तु स्त्री का रूप भयंकर अहित को करता है इसलिये हितैषियों को कदापि स्त्री के रूप में नहीं पँâसना चाहिये ।।११७।।
मोहव्याधभटेन संसृतिवने मुग्धेणवंधापदे पाशा: पंकजलोचनादिविषया: सर्वत्र सज्जीकृता:।
मुग्धास्तत्र पतन्ति तानपि वरानास्थाय वांछन्त्यहो हा कष्टं परजन्मनेऽपि न विद: क्वापीति धिङ् मूर्खताम्।।११८।।
अर्थ—इस संसारवन में भोले जीवरूपी मृगों को बाँधकर दु:ख देने के लिये मोहरूपीसुभट चिड़ियामार ने सब जगह लोचनादि विषय-रूपी जाल पैâला रखे हैं और उन विषयरूपी जालों को श्रेष्ठ मानकर भोले जीव उनमें आकर पँâस जाते हैं यह बड़े दु:ख की बात है। किन्तु आत्मा के स्वरूप को जानने वाले विद्वान् स्वप्न में भी उन जालों में नहीं फंसते और परलोक के लिये भी उन विषयों को हितकारी नहीं समझते इसलिये आचार्य कहते हैं कि मूर्खता के लिये धिक्कार है।
भावार्थ—जिस प्रकार चिड़ियामार कुछ चावल आदि डालकर वन में जाल बिछा देते हैं, उसमें चावलों के लोलुपी नाना प्रकार के कबूतर आदि पक्षी फंस जाते हैं उस ही प्रकार संसार में मोह के उदय से मुग्धपुरूष विषयों में प्रवृत्त हो जाते हैं तथा नाना प्रकार के दु:खों को भोगते हैं किन्तु बुद्धिमान पुरुष विषयों के दु:खों को जानकर विषयों में नहीं फंसते हैं तथा उन विषयों की आकांक्षा भी नहीं करते इसलिये सदा सुखी रहते हैं अत: विद्वानों को विषयों की तरफ कदापि ऋजु नहीं होना चाहिये।।११८।।
एतन्मोहठकप्रयोगविहितभ्रान्तिभ्रमच्चक्षुषा पश्यत्येषजनोऽसमंजसमसद्बुद्धिर्ध्रुवं व्यापदे।
अप्येतान्विषयाननन्तनरकक्लेशप्रदान स्थिरान् यच्छश्वत्सुखसागरानिव सतश्चेत: प्रियान्मन्यते।।११९।।
अर्थ—यह कुबुद्धि मनुष्य मोहरूपी जो ठग, उसके प्रयोग से उत्पन्न हुए भ्रम से भ्रान्त जो नेत्र, उससे विपरीत ही देखता है तथा विपरीत्ा देखने से नाना प्रकार के दु:खों का अनुभव करता है तो भी अनन्त नरकों के दु:खों को देने वाले तथा बिजली के समान चंचल इन विषयों को स्थिर तथा निरन्तर सुख के देने वाले और चित्त को प्रिय मानता है।
भावार्थ—जिस प्रकार कोई बैरी किसी मनुष्य पर मंत्रादि का प्रयोग करता है तो उससे उसके नेत्र घूमने लग जाते हैं तथा वह नाना प्रकार की आपत्तियों को भोगता है उस ही प्रकार यह कुबुद्धिजन मोहरूपी बैरी के प्रयोग से विषयों में प्रवृत्त हो जाता है तथा समस्त चीजें उसको विपरीत ही सूझ निकलती हैं तथा उसी विपरीतता के सबब वह नाना दु:खों को भोगता है तो भी विषयों को अच्छा मानता है, यह कितने दु:ख की बात है!।।११९।।
-शार्दूलविक्रीडित-
संसारेऽत्र घनाटवीपरिसरे मोहष्ठक: कामिनी क्रोधाद्याश्च तदीयपेटकमिदं तत्सन्निधौ जायते।
प्राणी तद्विहितप्रयोगविकल: तद्वश्यतामागतो न स्वं चेतयते लभेत विपदं ज्ञातु: प्रभो: कथ्यताम्।।१२०।।
अर्थ—इस संसाररूपी विस्तीर्ण वन में ठग तो मोह है और स्त्री तथा क्रोध-मान-माया आदि उसके पास प्राणियों को ठगने की सामग्री है, (अर्थात् स्त्री क्रोधादि कारणों से ही वह प्राणियों को ठगता है) तथा प्राणी उसके प्रयोग से विकल होकर उसके आधीन पड़े हुवे हैं और अपने स्वरूप को भी नहीं जानते हैं तथा नाना प्रकार की आपत्तियों को सहते हैं इसलिये ग्रन्थकार कहते हैं कि हे जीव! तुझे उस ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा ही का अर्थात् श्री सर्वज्ञदेव का ही आश्रयण करना चाहिये।
भावार्थ—ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा के आश्रयण करने पर प्रबल भी ठग मोह कुछ भी नहीं कर सकता है इसलिये भव्यजीवों को ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा का ही आराधन करना चाहिये।।१२०।।
ऐश्वर्यादिगुणप्रकाशनतया मूढा हि ये कुर्वते सर्वेषां टिरिटिल्लितानी पुरत: पश्यन्ति नो व्यापद:।
विद्युल्लोलमपि स्थिरं परमपि स्वं पुत्रदारादिकं मन्यन्ते यदहो तदत्र विषमं मोहप्रभो: शासनम्।।१२१।।
अर्थ— मूढ़ पुरुष मैं लक्ष्मीवान् हूँ तथा मैं ज्ञानवान हूँ इत्यादि अपने गुणों को प्रकाशित करते हैं तथा समस्त पुरुषों के सामने नाना प्रकार की गालियों को बकते हैं किन्तु आने वाली नरकादि विपत्तियों पर कुछ भी ध्यान नहीं देते तथा बिजली के समान चंचल भी पुत्र- स्त्री आदि को स्थिर मानते हैं और अपने से भिन्न भी उनको अपना मानते हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि मोहचक्रवर्ती की आज्ञा बड़ी कठोर है।
भावार्थ—पर को अपना मानना तथा चंचल को स्थिर मानना और मत्त होकर व्यर्थ नाना प्रकार की खराब चेष्टा करना मोह के उदय से ही होता है इसलिये उत्तम पुरुषों को मोह के नाश करने के लिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये।।१२१।।
-शिखरिणी-
क्वयाम: किंकुर्म: कथमिह सुखं िंकनु भविता कुतोलभ्या लक्ष्मी: कइहनृपति: सेव्यत इति।
विकल्पानां जालं जडयति मन: पश्यत सतामपिज्ञातार्थानामिहमहदहो मोहचरितम्।।१२२।।
अर्थ—हम कहाँ जावें ? क्या करें ? वैâसे सुख हो ? किस रीति से लक्ष्मी मिले ? किस राजा की सेवा टहल करें ? इत्यादि नाना प्रकार के विकल्पों के समूह संसार में प्राणियों के उत्पन्न होते रहते हैं तथा भले प्रकार वस्तु के स्वरूप को जानने वाले भी मनुष्यों के मन को जड़ बना देते हैं, यह प्रत्यक्षगोचर है इसलिये ग्रन्थकार कहते हैं कि मोह का चरित्र बड़ा आश्चर्यकारी है।
भावार्थ—मोह के उदय से मनुष्यों को नाना प्रकार के नहीं करने योग्य भी काम करने पड़ते हैं इसलिये सबसे पहले मोह से मोह अवश्य तोड़ना चाहिये।।१२२।।
विहाय व्यामोहं धनसदनतन्वादिविषये कुरुध्वं तत्तूर्णं किमपि निजकार्यं वत बुधा:।
न येनेदं जन्म प्रभवति सुनृत्वादिघटना पुन: स्यान्नस्याद्वा किमपरवचोऽडम्बरशतै:।।१२३।।
अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे बुद्धिमानों! विशेष कहाँ तक कहें, शीघ्र स्त्री-पुत्र-धन-घर आदि पदार्थों से मोह छोड़कर ऐसा कोई काम करो जिससे तुमको फिर जन्म न धारण करना पड़े क्योंकि नहीं मालूम फिर उत्तमकुल, जिनधर्म का शरण, निर्ग्रंथ गुरु का उपदेश, आदि मिले या नहीं मिले।
भावार्थ—जिस प्रकार चौराहे पर चिन्तामणिरत्न की प्राप्ति दुर्लभ है, उस ही प्रकार मनुष्य जन्म तथा जिनधर्म का शरण आदि मिलना दुर्लभ है इसलिये ऐसी अवस्था को पाकर ऐसा काम करना चाहिये जिससे तुमको इस पंच—परावर्तनरूप संसार में परिभ्रमण न करना पड़े, नहीं तो हाथ मलते रह जाओगे, कुछ भी नहीं मिलेगा।।१२३।।
-स्त्रग्धरा-
वाचस्तस्यप्रमाणा यइह जिनपति: सर्वविद्वीतरागो रागद्वेषादिदोषैरुपहतमनसो नेतरस्यानृतत्वात्।
एतन्निश्चित्य चित्ते श्रयत वत बुधा विश्वतत्त्वोपलब्ध्यै मुक्तेर्मूलं तमेकं भ्रमति किमु बहुष्वंधवद्दुष्पथेषु।।१२४।।
अर्थ—और भी आचार्य कहते हैं कि जो समस्त पदार्थों को अच्छी तरह जानने वाला है तथा वीतराग है और ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों से रहित है, उस ही का वाक्य प्रमाण है किन्तु उससे विपरीत जो अल्पज्ञानी-रागी आदि हैं, उनका वचन असत्य होने से प्रमाण नहीं है, ऐसा मन में ठानकर हे पंडितों! केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये मुक्ति के देने वाले उस अर्हन्त का ही आश्रयण करो, क्यों व्यर्थ अंधे के समान जहाँ-तहाँ खोटे मार्ग में गिरते फिरते हो ?।।१२४।।
-वसन्ततिलका-
य: कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि सन्दिह्य तत्वमसमञ्जसमात्मबुद्ध्या।
खे पत्रिणां विचरतां सुदृशेक्षितानां संख्यां प्रति प्रविदधाति सवादमंध:।।१२५।।
अर्थ—जो मूढ़, सर्वज्ञ के वचन में भी सन्देह कर अपनी बुद्धि की गढ़ंत से अपरमार्थभूत तत्वों की कल्पना करता है, वह वैसा ही काम करता है कि जिस प्रकार अंधा मनुष्य आकाश में जाते हुवे पक्षियों की गिनती में अच्छे नेत्र वाले पुरुष के साथ विवाद करता है।
भावार्थ—जिसको यह भी पता नहीं है कि पक्षी कहाँ उड़ रहे हैं, कहाँ नहीं, वह वैâसे सूझते पुरुष के साथ पक्षियों की गिनती में विवाद कर सकता है ? उस ही प्रकार जिसको अंशमात्र भी विशेष ज्ञान नहीं, वह सिवाय सर्वज्ञ की कृपा से वैâसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जान सकता है इसलिये भव्यजीवों को सर्वज्ञ के वचन पर ही विश्वास करना चाहिये, अल्पज्ञानियों के वचन पर कदापि नहीं।।१२५।।
-इन्द्रवङ्काा-
उक्तं जिनैर्द्वादशभेदमङ्गं श्रुतं ततो बाह्यमनन्तभेदम् ।
तस्मिन्नुपादेयतया चिदात्मा तत: परं हेयतयाऽभ्यधायि।।१२६।।
अर्थ—श्रुत के दो भेद हैं-एक अंगश्रुत और दूसरा बाह्यश्रुत। उनमें अंगश्रुत बारह प्रकार का जिनेंद्र भगवान ने कहा है तथा बाह्यश्रुत के अनन्त भेद कहे हैं परन्तु उन दोनों श्रुतों में ज्ञानदर्शनशाली आत्मा ही ग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) कहा है किन्तु उससे जुदे समस्त पदार्थ हेय (त्यागने योग्य) कहे हैं।।१२६।।
अल्पायुषामल्पधियामिदानीं कुत: समस्तश्रुतपाठशक्ति:।
तदत्रमुक्तिप्रतिबीजमात्रमभ्यस्यतामात्महितं प्रयत्नात् ।।१२७।।
अर्थ—इस पंचमकाल में ज्ञान, आयु आदि के निरंतर क्षीण होने से मनुष्य अल्पायु तथा अल्पज्ञान के धारी रह गये हैं इसलिए वे समस्त श्रुत का अभ्यास नहीं कर सकते अत: जो पुरुष मोक्ष के अभिलाषी हैं, उनको मुक्ति के देने वाले तथा आत्मा के हितकारी श्रुत का तो अवश्य ही बड़े प्रयत्न के साथ अभ्यास करना चाहिए।।११७।।
-स्त्रग्धरा-
निश्चेतव्योजिनेन्द्रस्तदतुलवचसां गोचरेर्थे परोक्षे कार्य:सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणात्र कोलाहलेन।
सत्यां छद्मस्थतायामिह समय पथस्वानुभूतिप्रबुद्धा भो भो भव्या यतध्वं दृगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाज:।।१२८।।
अर्थ—वर्तमानकाल में जिनेन्द्र हैं, ऐसा विश्वास अवश्य करना चाहिये तथा जो पदार्थ सूक्ष्म तथा दूर होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं हैं किंतु जिनेन्द्र ने उनका वर्णन अपनी दिव्यध्वनि से किया है तो वे भी अवश्य हैं, ऐसा मानना चाहिये परन्तु जिनेन्द्र अथवा जिनेन्द्र के वचन में व्यर्थ संशय करना ठीक नहीं क्योंकि इस काल में समस्त जीव थोड़े ज्ञान के धारी हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि ‘‘जिन भगवान से कहे हुवे सिद्धांत मार्ग से स्वानुभव को प्राप्त कर सदा प्रबुद्ध और अपनी आत्मा में प्रीति को भजने वाले, हे भव्यजीवों! तुम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी निधि में अवश्य यत्न करो।
भावार्थ—संसार में ये तीनों रत्न ही सारभूत पदार्थ हैं और इन ही में प्रयत्न करने में उत्तम सुख की प्राप्ति हो सकती है इसलिये भव्यजीवों को रत्नत्रय का आराधन अवश्य करना चाहिये।।१२८।।
-आर्या-
तद्ध्यायत तात्पर्याज्ज्योति: सच्चिन्मयं विना यस्मात्।
सदपि न सत्सति यस्मिन्निश्चितमाभासते विश्वम्।।१२९।।
अर्थ—जिस श्रेष्ठ तथा ज्ञानस्वरूप चैतन्य के बिना समस्त पदार्थ मौजूद भी नहीं मौजूद के समान हैं और जिस चैतन्य के होते सन्ते समस्त पदार्थों का प्रकट रीति से प्रतिभास होता है, ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्मारूपी ज्योति की भव्यजीवों को अवश्य आराधना तथा उपासना करनी चाहिये।
भावार्थ—यद्यपि संसार में अनेक पदार्थ हैं परंतु उन सबमें ज्ञानगुण का धारी आत्मा ही है तथा उस आत्मा के बिना समस्त जगत् शून्य है और उस आत्मा के होते सन्ते समस्त पदार्थों का भले प्रकार से ज्ञान होता है इसलिये भव्यजीवों को ऐसे सारभूत आत्मा का अवश्य ही ध्यान करना चाहिये।।१२९।।
-शार्दूलविक्रीडित-
अज्ञो यद्भवकोटिभि: क्षपयति स्वं कर्म तस्माद्बहु स्वीकुर्वन् कृतसंवर: स्थिरमना ज्ञानी तु तत्तत्क्षणात्।
तीक्ष्णक्लेशहयाश्रितोऽपि हि पदं नेष्टं तप:स्यन्दनो नेयं तन्नयति प्रभुं स्फुटतरज्ञानैकसूतोज्झित:।।१३०।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि अज्ञानी जीव कठोर तप आदि के द्वारा जितने कर्मों को करोड़ वर्ष में क्षय करता है, उससे अधिक कर्मों को, स्थिरमन होकर संवर का धारी ज्ञानी जीव क्षणमात्र में क्षय कर देता है सो ठीक ही है क्योंकि जिस तपरूपी रथ में तीक्ष्णक्लेशरूपी घोड़ा लगे हुवे हैं किन्तु ज्ञानरूपी सारथी नहीं है तो वह तपरूपी रथ कदापि आत्मारूपी प्रभू को मोक्ष स्थान में नहीं ले जा सकता।
भावार्थ—जिस प्रकार किसी रथ में यद्यपि अच्छे—अच्छे घोड़े मौजूद हैं किन्तु उन घोड़ों का चलाने वाला सारथी नहीं है तो कदापि वह रथ अपने में बैठने वाले पुरुष को यथेष्ट स्थान पर नहीं पहुँचा सकता, उस ही प्रकार नाना प्रकार के दु:खों को सहनकर पंचाग्नि आदि तप भी किये परंतु वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जाना तो कदापि उत्तम सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती इसलिये भव्यों को चाहिये कि वे सम्यग्ज्ञानपूर्वक तप को करें, तभी उनको उत्तम सुख की प्राप्ति हो सकती है।।१३०।।
-स्त्रग्धरा-
कर्माब्धौ तद्विचित्रोदयलहरिभरव्याकुले व्यापदुग्रभ्राम्यन्नकादिकीर्णे मृतिजननलसद्वाडवावर्तगर्ते।
मुक्त:शक्त्या हतांग:प्रतिगति स पुमान् मज्जनोन्मज्जनाभ्यामप्राप्यज्ञानपोतं तदनुगतिजड: पारगामी कथं स्यात्।।१३१।।
अर्थ—ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कर्म एक प्रकार का बड़ा भारी समुद्र है क्योंकि जिस प्रकार समुद्र अनेक लहरियों कर व्याप्त है उस ही प्रकार यह कर्मरूपी समुद्र भी अनेक उदयरूप लहरियों कर व्याप्त है तथा जिस प्रकार समुद्र में नाना प्रकार के भयंकर मगरमच्छादि हुवा करते हैं उस ही प्रकार इस कर्मरूपी स्ामुद्र में भी इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग आदि नाना प्रकार की आपत्तिरूप मगर मच्छादि विद्यमान हैं तथा जिस प्रकार समुद्र में वड़वानल भमर गढ्ढे हुवा करते हैं उस ही प्रकार इस कर्मरूपी समुद्र में भी नाना प्रकार के जन्म-मरण आदि बड़वानल भमर हैं इसलिये ऐसे भयंकर समुद्र में शक्तिहीन तथा अनादिकाल से सर्वत्र गोता खाता हुवा मनुष्य जब तक ज्ञानरूपी अनुकूल जहाज को न प्राप्त करेगा, तब तक कदापि पार नहीं हो सकता।
भावार्थ—जिस प्रकार कोई शक्तिहीन मनुष्य मगरमच्छ आदि से भयंकर समुद्र में पड़ जावे तो वह नाना प्रकार के गोते खाता है किंतु यदि उसको जहाज मिल जावे तो वह शीघ्र ही पार हो जाता है, उस ही प्रकार कर्म (जिसका दूसरा नाम संसार है) एक प्रकार का भयंकर समुद्र है, इसमें जब तक जीव ज्ञानरूपी जहाज को प्राप्त नहीं करते, तब तक नाना प्रकार की गतियों में भ्रमण करते हैं किन्तु जिस समय वे उस अनुकूल ज्ञानरूपी जहाज को पा लेते हैं, तो वे बात की बात में संसाररूपी समुद्र से पार हो जाते हैं तथा फिर उनको संसाररूपी समुद्र में आना भी नहीं पड़ता इसलिये जिन जीवों को इस संसाररूपी समुद्र के पार करने की अभिलाषा है, उनको अवश्य ही ज्ञानरूपी अखंड जहाज का आश्रय लेना चाहिये।।१३१।।
-शार्दूलविक्रीडित-
शश्वन्मोहमहान्धकारकलिते त्रैलोक्यसद्मन्यसौ जैनीवागमलप्रदीपकलिका न स्याद्यदि द्योतिका।
भावानामुपलब्धिरेव न भवेत् सम्यक्तदिष्टेतरप्राप्तित्यागकृते पुनस्तनुभृतां दूरे मतिस्तादृशी।।१३२।।
अर्थ—मोहरूपी गाढ़े अंधकार से व्याप्त इस तीनलोकरूपी मकान को प्रकाश करने वाला यदि यह भगवान की वाणीरूप दीपक न होता, तो इष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट का त्याग तो दूर हो, मनुष्यों को पदार्थों का भी ज्ञान न होता ।
भावार्थ—जिस प्रकार किसी अंधेरे मकान में बहुत सी वस्तुएँ रखी हुई हैं यदि उन वस्तुओं का प्रकाश करने वाला उस मकान में दीपक न होगा तो उनमें से न तो लेने योग्य इष्ट वस्तुओं को ले ही सकते हैं और न छोड़ने योग्य चीजों को छोड़ ही सकते हैं, उस ही प्रकार जब तक पदार्थों के स्वरूप भलीभांति न जानेंगे, तब तक न तो ग्रहण करने योग्य वस्तुओं का ग्रहण ही कर सकते हैं और न त्यागने योग्य वस्तुओं का त्याग ही कर सकते हैं इसलिये सबसे पहले पदार्थ का स्वरूप जानना चाहिये, उन पदार्थों का जानना (वर्तमान में केवली आदि के न होने के कारण) बिना जिनवाणी के हो नहीं सकता, इसलिये भव्यजीवों को जिनवाणी माता का प्रीतिपूर्वक आश्रय करना चाहिये।।१३२।।
आत्मा ही धर्म है इस बात को ग्रंथकार वर्णन करते हैं—
शान्ते कर्मण्युचितसकलक्षेत्रकालादिहेतौ लब्धे स्वास्थ्यं कथमपि लसद्योगमुद्राविशेषम्।
आत्माधर्मो यदयमसुखस्फीतसंसारगर्ता दुद्धृत्य स्वं सुखमयपदे धारयत्यात्मनैव।।१३३।।
अर्थ—समस्त कर्मों के उपशम होने पर तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप योग्य सामग्री के मिलने पर जब यह आत्मा ध्यान में लीन होकर अपने स्वरूप का चिंतवन करता है, उस समय नाना दु:खों के देने वाले संसाररूपी गड्ढे से छूटकर अपने से ही अपने को उत्तमसुख में पहुँचाता है इसलिये आत्मा से अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है।
भावार्थ—संसार के दु:खों से छुटाकर जो उत्तम सुख में ले जाता है, उस ही का नाम धर्म है। आत्मा भी अपने से अपने को उत्तम सुख में ले जाता है इसलिये आत्मा ही परम धर्म है अत: भव्यों को चाहिये कि वे अपनी आत्मा का ही चिंतवन करें।।१३३।।
आत्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन—
-शार्दूलविक्रीडित-
नो शून्यो न जडो न भूतजनितो नो कर्तृभावं गतो नैको न क्षणिको ना विश्वविततो नित्यो नचैकान्तत:।
आत्माकायमितिश्चिदेकनिलय: कर्ता च भोक्ता स्वयं संयुक्त: स्थिरताविनाशजननै: प्रत्येकमेकक्षणे ।।१३४।।
अर्थ—एकांत से न आत्मा शून्य है, न जड़ है, न पंचभूत से उत्पन्न हुआ है, न कर्ता है, न क्षणिक है, न लोकव्यापी है, न नित्य है किन्तु अपने शरीर के परिमाण है तथा सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान आदि गुणों का आधार है और अपने कर्मों का कर्ता है और अपने ही कर्मों का भोक्ता है तथा एक ही क्षण में सदाकाल उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मोंकर सहित है।
भावार्थ—इस श्लोक में ग्रंथकार ने नास्तिक आदि के सिद्धांत में एकांत से माना हुवा आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकता, यह बतलाकर जैन सिद्धांत के अनुसार असली आत्मस्वरूप का निरूपण किया है क्योंकि शून्यवादी का सिद्धांत है कि संसार में कोई वस्तु विद्यमान नहीं। ये जितने भर स्त्री-घर-कपड़ा-घड़ा आदि पदार्थ हैं, समस्त भ्रमस्वरूप हैं, इसलिये आत्मा भी कोई पदार्थ नहीं, यह भी एक भ्रमस्वरूप ही है इसका आचार्य समाधान देते हैं कि ‘नो शून्य:’ अर्थात् तुमने जो एकांत से आत्मा को शून्य मान रक्खा है, यह बात सर्वथा मिथ्या है क्योंकि मैं सुखी हूँ तथा मैं दुखी हूँ इत्यादि स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध है इसलिये सर्वथा शून्य न कहकर किसी रीति से आत्मा शून्य है, किसी रीति से नहीं है, ऐसा आत्मा का स्वरूप तुमको मानना चाहिये, जब ऐसा मानोगे तो किसी प्रकार का दोष नहीं आ सकता क्योंकि पररूप की अपेक्षा से आत्मा की नास्ति अर्थात् शून्य है किन्तु स्वरूपादि की अपेक्षा से आत्मा विद्यमान ही है, जिस प्रकार घट-पट इन दोनों में ‘घटत्वेन रूपेण’ तो घट है परंतु ‘पटत्वेन रूपेण’ नहीं है क्योंकि घट का घटत्व ही स्वरूप है, पटत्व स्वरूप नहीं किन्तु पररूप है, उसी प्रकार आत्मा भी अपने आत्मस्वरूप तथा ज्ञानादिगुणों की अपेक्षा से मौजूद है परंतु पुद्गलत्व तथा स्पर्शादि की अपेक्षा से नहीं है क्योंकि आत्मा के पुद्गलत्व तथा स्पर्शादिक स्वरूप नहीं, पररूप हैं इसलिये इस रीति से कथंचित् आत्मा शून्य भी हो सकता है किन्तु सर्वथा नहीं।
तथा नैयायिक यह मानते हैं कि जब तक आत्मा संसार में रहता है, तब तक तो ज्ञान-सुख आदि के संबंध से यह ज्ञानी तथा चेतन कहा जा सकता है किन्तु जिस समय इसकी मोक्ष हो जाती है, उस समय इस आत्मा के साथ किसी प्रकार के ज्ञान-सुख आदि का संबंध नहीं रहता। उनका सिद्धान्त भी है कि ‘नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेद: पुरुषस्य मोक्ष इति’ अर्थात् बुद्धि, सुख, दु;ख, इच्छा,द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, ये आत्मा के नौ विशेषगुण हैं जिस समय ये नौ गुण आत्मा से जुदे हो जाते हैं उसी समय उस आत्मा की मोक्ष हो जाती है इसलिये मोक्षावस्था में आत्मा सर्वथा जड़ है, उसका आचार्य समाधान देते हैं ‘नजड़’ अर्थात् तुमने जो एकान्त से आत्मा को जड़ मान रक्खा है, वह सर्वथा असत्य है क्योंकि ज्ञान आदि गुण आत्मा से सर्वथा भिन्नस्वरूप नहीं हैं जिससे वे मोक्ष अवस्था में छूट जावे तथा ज्ञानगुण के छूटने से आत्मा सर्वथा जड़ रह जावे किन्तु कथंचित् आत्मा जड़ है तथा कथंचित् आत्मा चेतन भी है अर्थात् जब तक इस आत्मा के साथ कर्मों का संबंध रहता है, उस समय तो इसको जड़ भी कह सकते हैं किन्तु जिस समय मोक्षावस्था में कर्मों का संबंध छूट जाता है, उस समय यह चेतन है, जड़ नहीं क्योंकि ज्ञानादि गुणों से आत्मा कोई जुदी वस्तु नहीं तथा ज्ञानादिगुण चेतन हैं और ज्ञानादि गुणों का जिस अवस्था में प्रकटीकरण हो जाता है, वही वास्तविक मोक्ष कही गई है इसलिये सर्वथा जड़ कदापि आत्मा नहीं हो सकता।
तथा चार्वाक जिसको नास्तिक कहते हैं उसका सिद्धांत है कि आत्मा कोई भिन्न पदार्थ नहीं तथा आदि-अन्त से रहित भी नहीं किन्तु जिस समय पृथ्वी-जल-तेज-वायु इन चार भूतों का परस्पर में मेल होता है, उस समय एक दिव्यशक्ति उत्पन्न हो जाती है, वही आत्मा तथा चेतन नाम से पुकारी जाती है इसलिये जब आत्मा कोई वस्तु ही न ठहरा तो उसके आधीन जो स्वर्ग तथा मोक्ष आदि अवस्था मानी हैं वे सर्वथा झूठ हैं क्योंकि यदि वे होतीं तो प्रत्यक्ष देखने में आतीं तथा आत्मा भी आदि-अंतकर रहित सिद्ध होता इसलिये यह देह ही आत्मा है तथा संसार में अच्छा—अच्छा खाने को न मिलना यही नरक है तथा अच्छा—अच्छा खाने को मिलना यही स्वर्ग है तथा मोक्ष है इसलिये जिसको स्वर्ग तथा मोक्ष के स्वरूप का अनुभव करना हो तो संसार में खूब कर्ज लेकर मिष्टान्न उड़ाना चाहिये क्योंकि जब यह देह (आत्मा) नष्ट हो जावेगा तो फिर लौटकर नहीं आवेगा जिससे वह लिया हुवा ऋण देना पड़े, इस सिद्धान्त का आचार्य खंडन करते हैं कि ‘नभूतजनित:’ अर्थात् जो तुम सर्वथा आत्मा को पृथ्वी आदि से पैदा हुवा मानते हो, यह बात सर्वथा झूठ है क्योंकि अचेतन से चेतन की उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती। आत्मा चेतन है, पृथ्वी आदि अचेतन हैं, वे किसी प्रकार आत्मा को उत्पन्न नहीं कर सकते—यदि ऐसा ही होवे तो रोटी आदि पदार्थों में पृथ्वी आदि का संबंध होते भी क्यों नहीं चेतन की उत्पत्ति होती ? दूसरे जिस समय बालक उत्पन्न होता है, उस समय जब उसके मुख में स्तन दिया जाता है, उस समय बिना ही सिखाये वह जन्मांतर के संस्कार से दूध पी लेता है, सो वैâसे ? क्योंकि तुम तो जन्मांतर मानते ही नहीं तथा अनेक मनुष्य पूर्वभव की वस्तुओं को स्मरण करते हुवे देखने में आते हैं अत: सिद्ध होता है कि आत्मा अवश्य अनादि-अनन्त है इसलिये आत्मा कथंचित् भूतजनित ही तुमको मानना चाहिये। जब ऐसा मानोगे तो कोई दोष नहीं आ सकता क्योंकि संसारी आत्मा का संबंध देह से अनादिकाल से चला आता है अर्थात् कोई अवस्था संसारी जीव की ऐसी नहीं, जिस अवस्था में देह के साथ संबंध न होवे इसलिये देह आत्मा का कथंचित् अभेद होने से आत्मा भूतजनित भी है परन्तु देहरहित अवस्था में वह भूतजनित न होने से सर्वथा भूतजनित नहीं हो सकती।
और बहुत से मनुष्य इस आत्मा को कर्ता मानते हैं अर्थात् उनका सिद्धान्त है कि बिना ईश्वर के यह विचित्रजगत कदापि नहीं बन सकता इसलिये कोई न कोई इस जगत का कर्ता अवश्य होना चाहिये। उनको आचार्य समझाते हैं कि ‘नोकर्तृभावंगत:’ अर्थात् यह कर्ता भी नहीं हो सकता क्योंकि यदि ईश्वर जगत का कर्ता माना जायेगा तो उसके ईश्वरत्व में हानि आवेगी क्योंकि यदि वह समस्त प्राणियों का पिता है तो उसको सबों पर समान दृष्टि रखनी चाहिये किन्तु देखने में आता है किसी के साथ उसका प्रेमपूर्वक बर्ताव होने से कोई राजा है तथा किसी के साथ उसका द्वेषपूर्वक बर्ताव होने से कोई अत्यंतदरिद्री है, यदि कहोगे कि राजा तथा रंक होना यह अपने कर्मों के आधीन है तो कर्म को ही कारण मानना चाहिये, ऐसे ईश्वर की मानने की क्या आवश्यकता है इत्यादि अनेक युक्तियों से ईश्वररूप आत्मा कदापि कर्ता नहीं बना सकता। यदि किसी रीति से कर्ता मानो तो ठीक भी हो सकता है क्योंकि सर्व ही जीव अपने—अपने कर्म तथा स्वरूप आदि के कर्ता हैं किंतु सर्वथा नहीं।
तथा अनेक वादियों का यह कथन है कि आत्मा एकरूप ही है, अनेक रूप नहीं, उनकों आचार्य श्रेष्ठ मार्ग पर लाकर कहते हैं कि ‘नैक:’ अर्थात् आत्मा सर्वथा एकरूप नहीं किन्तु किसी रीति से एकरूप है तथा किसी रीति से अनेकरूप है अर्थात् अपने स्वरूप से तो एकरूप है किंतु अनेक धर्मों को धारण करता है इसलिये वह अनेकरूप भी है तथा बौद्ध आत्मा को क्षणिक ही मानते हैं अर्थात् उन का सिद्धांत है कि जितने भर संसार में पदार्थ हैं, वे सब क्षणिक हैं इसलिये आत्मा भी क्षणिक ही है, उनको आचार्य समझाते हैं कि ‘न क्षणिक:’ अर्थात् तुमने जो आत्मा को सर्वथा क्षणिक मान रक्खा है, वैसा सर्वथा आत्मा क्षणिक नहीं है किन्तु प्रत्येक द्रव्य की क्षण—क्षण में पर्याय पलटती रहती है इसलिये तो आत्मा पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से क्षणिक भी है किंतु द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वह नित्य भी है इसलिये आत्मा को सर्वथा वैसा न मानकर किसी रीति से शून्य है, किसी रीति से नहीं है, ऐसा मानना चाहिये तथा शरीराकार प्रदेशी मानना चाहिये तथा ज्ञान का धारी मानना चाहिये और स्वयं करने वाला तथा भोगने वाला मानना चाहिये और उत्पाद आदि धर्मों का धारी मानना चाहिये, इस ही प्रकार से आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो सकता है।।१३४।।
-शार्दूलिविक्रीडित-
क्वात्मा तिष्ठति कीदृश: स कलिता केनात्र यस्येदृशी भ्रान्तिस्तत्र विकल्पसंभृतमना य: कोऽपि स ज्ञायताम्।
किंचान्यस्य कुतोमति: परमियं भ्रान्ताऽशुभात्कर्मणो नीत्वानाशमुपायतस्तदखिलं जानाति ज्ञाता प्रभु:।।१३५।।
अर्थ—आत्मा का नहीं जानने वाला यदि कोई मनुष्य किसी को पूछे कि आत्मा कहाँ रहता है ? वैâसा है? कौन आत्मा को भलीभांति जानता है तो उसको यही कहना चाहिये कि जिसके मन में वैâसा है कहाँ है इत्यादि विकल्प उठ रहे हैं वही आत्मा है उससे अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है, क्योंकि जड़ में वैâसा है, कहाँ है इत्यादि बुद्धि कदापि नहीं हो सकती परन्तु अशुभ कर्म से जीवों की बुद्धि भ्रांत हो रही है इसलिये जब यह आत्मा उन कर्मों को मूल से नाश कर देता है, उस समय आपसे आप ही यह अपने स्वरूप को तथा दूसरे पदार्थों को जानने लग जाता है इसलिये आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहिचा्नाने के अभिलाषियों को तप आदि के द्वारा कर्मों के नाश करने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिये।।१३५।।
आत्मा मूर्तिविवर्जितोऽपि वपुषि स्थित्वापि दुर्लक्ष्यतां प्राप्तोपि स्फुरति स्फुटं यदहमित्युल्लेखत: संततम् ।
तत्किं मुह्यत शासनादपि गुरोर्भ्रान्ति: समुत्सृज्यतामन्त: पश्यत निश्चलेन मनसा तं तन्मुखाक्षव्रजा:।।१३६।।
अर्थ—यद्यपि इस आत्मा की कोई मूर्ति नहीं है और यह शरीर के भीतर ही रहता है इसलिये इसको प्रत्यक्ष देखना अत्यंत कठिन है तो भी (अहंजानामि अहंकरोमि) मैं जानता हूँ तथा मैं करता हूँ इत्यादि प्रतीतियों से यह स्पष्ट रीति से जाना जाता है तथा गुरू आदि के उपदेश से भी भली भांति इसका ज्ञान होता है अत: ग्रन्थकार कहते हैं— हे भव्यजीवों! मन को तथा इंद्रियों को निश्चल कर अपने अभ्यंतर में इस आत्मा का अनुभव करो, क्यों व्यर्थ बाह्यपदार्थों में मोह करते हो ?
भावार्थ—अनेक मत वाले इस बात को स्वीकार करते हैं कि आत्मा कोई पदार्थ नहीं क्योंकि यदि होता तो उसका प्रत्यक्ष भी होता, उनको आचार्य समझाते हैं कि यद्यपि आत्मा में कोई प्रकार का स्पर्श-रस आदिक नहीं है तथा वह देह के भीतर है इसलिये स्पष्ट रीति से यह देखने में नहीं आता तो भी मैं करता हूँ तथा मैं जानता हूँ इन विकल्पों से आत्मा को हर एक जान सकता है इसलिये इसका अभाव नहीं अत: भव्यजीवों को चाहिये कि इसका भलीभांति अनुभव करें तथा बाह्यपदार्थों से मोह को हटावें।।१३६।।
व्यापी नैव शरीर एव यदसावात्मा स्फुरत्यन्वहं भूतो नान्वयतो न भूतजनितो ज्ञानी प्रकृत्यायत:।
नित्ये वा क्षणिकेऽथवा न कथमप्यर्थक्रिया युज्यते तत्रैकत्वमपि प्रमाणदृढया भेदप्रतीत्याहतम्।।१३७।।
अर्थ—यह आत्मा निरंतर शरीर में ही रहा हुवा मालूम पड़ता है इसलिये तो व्यापक नहीं और स्वभाव से ही यह ज्ञानी है इसलिये यह पृथ्वी-अप्-तेज आदि पाँच पदार्थों से भी पैदा हुवा नहीं मालूम होता तथा यह सर्वथा नित्य भी नहीं क्योंकि नित्य में किसी प्रकार का परिणाम नहीं हो सकता और आत्मा के तो क्रोधादि परिणाम भलीभांति अनुभव में आते हैं तथा यह आत्मा सर्वथा क्षणिक भी नहीं हो सकता क्योंकि प्रथमक्षण में उत्पन्न होकर यदि यह द्वितीय क्षण में नष्ट हो जावेगा तो किसी प्रकार की क्रिया इसमें नहीं हो सकती तथा आत्मा एक स्वरूप है, यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि कभी क्रोधी कभी, लोभी इत्यादि नाना पर्याय आत्मा की मालूम होती हैं।
भावार्थ—नैयायिकादि का सिद्धांत है कि आत्मा व्यापक है अर्थात् ऐसा कोई भी आकाश का प्रदेश नहीं है, जहाँ पर यह आत्मा न हो— किंतु आचार्य कहते हैं कि सिवाय शरीर के यह आत्मा और कहीं पर व्यापक नहीं, यदि शरीर से जुदे स्थान में होता तो मालूम पड़ता इसलिये यह शरीर के समान परिणाम वाला ही है तथा नास्तिक इसको पृथ्वी आदि से ही उत्पन्न हुवा मानते हैं, वह भी ठीक नहीं क्योंकि यह ज्ञानी है और पृथ्वी आदि जड़ है इसलिये जड़ से कदापि चेतन की उत्पत्ति नहीं हो सकती और सांख्य आदिक आत्मा को सर्वथा कूटस्थ ही मानते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि सर्वथा नित्य में किसी प्रकार का परिणाम नहीं हो सकता किन्तु आत्मा का परिणामीपना तो भलीभांति में आता है तथा बौद्ध सव&था आत्मा को क्षणिक ही मानता है, यह भी ठीक नहीं क्योंकि सव&था क्षणिक पक्ष में भी किसी प्रकार का परिणाम नहीं बन सकता और भी अनेक दोष आते हैं तथा अनेक सिद्धांतकार आत्मा को एकस्वरूप ही मानते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि क्रोधी-लोभी आदि अनेक भेदस्वरूप आत्मा अनुभव में आता है इसलिये आत्मा को किसी प्रकार से शरीर के परिमाण वाला तथा भूतों से नहीं उत्पन्न हुवा और किसी प्रकार से नित्य और क्षणिक तथा अनेक ही मानना चाहिये।।१३७।।
-शार्दूलविक्रीडित-
कुर्यात्कर्म शुभाशुभं स्वयमसौ भुंक्ते स्वयं तत्फलं सातासातगतानुभूतिकलनादात्मा नचान्यादृश:।
चिद्रूप: स्थितिजन्मभंगकलित: कर्मावृत: संसृतौ मुक्तौ ज्ञानदृगैकमूर्तिरमलस्त्रैलोक्यचूडामणि:।।१३८।।
अर्थ—ग्रन्थकार कहते हैं कि यह आत्मा शुभ तथा अशुभ कर्मों को निरन्तर करता रहता है तथा सातावेदनी और असातावेदनी कर्म के उदय से स्वयं उसका फल भोगता है किंतु अन्य कोई कर्ता तथा भोक्ता नहीं और यह आत्मा सदा चैतन्यस्वरूप है तथा उत्पाद- व्यय-ध्रौव्य तीनों धर्मों से सहित है और संसारावस्था में यह कर्मों कर सहित है परंतु मोक्ष अवस्था में इसके साथ किसी कर्म का संबंध नहीं तथा यह आत्मा सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान का धारक है और तीनों लोक के शिखर पर विराजता है।।१३८।।
-वसन्ततिलका-
आत्मानमेवमधिगम्य नयप्रमाणनिक्षेपकादिभिरभिश्रयतैकचित्ता:।
भव्या यदीच्छत भवार्णवमुत्तरीतुमुत्तुङ्गमोहमकरोग्रतरंगभीमम्।।१३९।।
अर्थ—फिर भी आचार्य उपदेश देते हैं— भव्यजीवों! यदि तुम मोहरूपी मगर कर सहित तथा गंभीर संसाररूपी समुद्र को तरने की इच्छा करते हो तो एकचित्त होकर नय-प्रमाण तथा नाम-स्थापना आदि के द्वारा आत्मा को भलीभांति जानो और उस ही को आश्रय करो।
भावार्थ—सिवाय आत्मा के संसार में कोई भी वस्तु ग्राह्य नहीं इसलिए इस ही की तरफ भव्यों को अवश्य ऋजु होना चाहिये।।१३९।।
-मालिनी-
भवरिपुरिह तावद्दु:खदो यावदात्मंस्तवविनिहतधामा कर्मसंश्लेषदोष:।
स भवति किल रागद्वेषहेतोस्तदादौ झटिति शिवसुखार्थी यत्नतस्तौ जहीहि।।१४०।।
अर्थ—फिर भी आचार्य कहते हैं कि अरे आत्मा! जब तक तेरे साथ समस्त तेज को मूल से उड़ाने वाला कर्मों का बंध लगा हुवा है तब तक तुझको यह संसाररूपी वैरी नाना प्रकार के दु:खों का देने वाला है तथा वह संसाररूपी वैरी राग-द्वेष से उत्पन्न होता है इसलिये यदि तू मोक्ष सुख का अभिलाषी है तो शीघ्र ही रागद्वेष को त्याग कर, जिससे तेरी आत्मा के साथ कर्म का बंध नहीं रहे तथा तुझे संसार का दु:ख न भोगना पड़े।।१४०।।
-स्त्रग्धरा-
लोकस्य त्वं न कश्चिन्न स तव यदिह स्वार्जितं भुज्यते क: संबन्धस्तेन सार्धं तदसतिसतिवा तत्र कौ रोषतोषौ।
कायेप्येवं जडत्वात्तदनुगतसुखादावपि ध्वंसभावादेवं निश्चित्य हंस स्ववलमनुसर स्थायि मापश्य पार्श्वम् ।।१४१।।
अर्थ—भो आत्मन्! न तो तू लोक का है, न तेरा ही लोक है तथा तू ही शुभ-अशुभ को उत्पन्न करता है तथा तू ही उसको भोगता है फिर इस लोक के साथ संबंध करना वृथा है तथा लोक के होते सन्ते दु:ख तथा लोक के होते संते संतोष करना भी व्यर्थ है और शरीर तो जड़ है इसलिये इसके नहीं होते संते क्रोध तथा इसके होते सन्ते संतोष करना भी बिना प्रयोजन का है तथा इंद्रिय आदि पदार्थों से उत्पन्न हुवा सुख विनाशीक है इसलिये इसके होते सन्ते रोष तथा इसके होते सन्ते संतोष मानना भी निष्प्रयोजन है इसलिये ऐसा भलीभांति विचार के तुझे अपना बल तो अनन्तज्ञानादिक है, उसकी आराधना करनी चाहिये और तुझे अपने स्वरूप से दूर नहीं रहना चाहिये अर्थात् अपने अंतरंग में प्रवेश कर तुझे समस्त परिग्रह का त्याग कर देना चाहिये।
भावार्थ—स्त्री-पुत्र-कुटुंब-शरीर-इन्द्रियसुख आदि में प्रीति कर तथा अपने स्वरूप को भूलकर बहुत काल तक इस संसार में भ्रमण किया, अब विषयों में आशाकर दीन की तरह तुझे जहाँ-तहाँ डोलना ठीक नहीं इसलिये समस्त परिग्रह का नाशकर अपने स्वरूप में लीन हो, अब अपने स्वरूप से दूर रहना भी ठीक नहीं।।१४१।।
-शार्दूलविक्रीडित-
आस्तामन्यगतौ प्रतिक्षणलसद्दु:खाश्रितायामहो देवत्वेऽपि न शान्तिरस्ति भवतो रम्येऽणिमादिश्रिया।
यत्तस्मादपि मृत्युकालकलयाधस्ताद्धठात्पात्यसे तत्तन्नित्यपदं प्रति प्रतिदिनं रे जीव यत्नं कुरु।।१४२।।
अर्थ—जहाँ पर प्रतिक्षण में दु:ख ही दु:ख है, ऐसी नरक-तिर्यंचादि गति तो दूर ही रहो परन्तु जहाँ पर सदा अणिमा-महिमा आदिक लक्ष्मी निवास करती हैं ऐसी देवगति में भी तेरे लिये अंशमात्र भी सुख नहीं है क्योंकि वहाँ से भी तुझे मरण की बेला बलात्कारी से नीचे गिरा देती है अर्थात् मृत्यु के समय में स्वर्ग से भी नीचे गिरना पड़ता है इसलिये आचार्य कहते हैं हे जीव! तुझे अविनाशी मोक्ष पद के लिये ही सर्वदा प्रयत्न करना चाहिये।
भावार्थ—सिवाय मोक्ष के कोई भी स्थान ऐसा नहीं, जहाँ पर लेशमात्र भी सुख मिले इसलिये भव्यजीवों को जहाँ पर किसी प्रकार का क्लेश नहीं, ऐसे मोक्षपद के लिये ही प्रयत्न करना चाहिये।।१४२।।
यद्दृष्टं बहिरङ्गनादि सुचिरं तत्रानुरागो भवेत् भ्रान्त्या भूरि तथापि ताम्यसि ततो मुक्त्वा तदन्तर्विश।
चेतस्तत्र गुरो: प्रबोधवसते: किञ्चित्तदाकर्ण्यते प्राप्ते यत्र समस्तदु:खविरमाल्लभ्येत नित्यं सुखम्।।१४३।।
अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे मन! चिरकाल से तूने बाह्य स्त्री आदि पदार्थों को देखा है इसलिये तेरा भ्रम से उनमें अनुराग होता है तथा उसी अनुराग से सदा तू दु:खित होता है इसलिये स्त्री आदि से राग छोड़कर तू अपने अंतरंग में प्रवेश कर तथा ज्ञान के सागर श्री परमगुरु से ऐसा कोई उपदेश सुन, जिससे तेरे समस्त दु:खों का नाश हो जावे तथा तुझे अविनाशी मोक्षरूपी सुख की प्राप्ति हो जावे।
भावार्थ—बाह्य चीजों में अनुराग तथा ममता कर हे मन! तूने बहुत से दु:खों को भोगा इसलिये अब अपने अंतरंग में प्रवेश कर तथा श्री गुरू का उपदेश सुन, जिससे तुझको अविनाशी स्ाुख की प्राप्ति होवे।।१४३।।
-पृथ्वी-
किमाल कोलाहलैरमलबोधसम्पन्निधे: समस्ति किल कौतुकं किल तवात्मनो दर्शने।
विरुद्धसकलेन्द्रियो रहसि मुक्तसंगग्रह: कियन्त्यपि दिनान्यत: स्थिरमना भवान् पश्यतु।।१४४।।
अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि यदि तू समस्त निर्मल ज्ञान के धारी आत्मा के देखने की इच्छा करता है तो तुझे समस्त स्पर्शनादि इन्द्रियों को रोक कर तथा समस्त प्रकार के स्थान-परिग्रह का नाश कर और कुछ दिन एकान्त में बैठकर तथा कुछ दिन स्थिर मन होकर उसको देखना चाहिये, व्यर्थ कोलाहल करने में क्या रखा है ?
भावार्थ—जब तक इन्द्रियाँ बाह्य पदार्थों में फंसी रहेंगी तथा जब तक निरन्तर परिग्रह में ममता रहेगी और जब तक मन चंचल रहेगा, तब तक कदापि आत्मा का स्वरूप देखने में नहीं आ सकता इसलिये जो भव्यजीव आत्मा के स्वरूप को देखना चाहते हैं, उनको इन्द्रियों को रोकना चाहिये तथा परिग्रह का त्याग करना चाहिये और मन को निश्चल करना चाहिये, तभी आत्मा का स्वरूप मालूम पड़ सकता है।।१४४।।
(जीव और मन का परस्पर में संवाद)
-शार्दूलविक्रीडित-
भोचेत: किमु जीव तिष्ठसि कथं चिंतास्थितं सा कुतो रागद्वेषवशाक्तयो: परिचय: कस्माच्च जातस्तव।
इष्टानिष्टसमागमादिति यदि स्वभ्रं तदावां गतौ नो चेन्मुञ्च समस्तमेतदचिरादिष्टादिसंकल्पनम्।।१४५।।
अर्थ—जीव मन से पूछता है कि रे मन! तू वैâसे रहता है ? मन उत्तर देता है कि मैं सदा चिंता में व्यग्र रहता हूँ, फिर जीव पूछता है कि तूझे चिंता क्यों है ? फिर मन उत्तर देता है कि मुझे राग-द्वेष के सबब से चिंता है। फिर जीव पूछता है कि तेरा इनके साथ परिचय कहाँ से हुवा ? फिर मन उत्तर देता है कि भली-बुरी वस्तुओं के संबंध से राग-द्वेष का परिचय हुआ है। तब फिर जीव कहता है कि हे मन! यदि ऐसी बात है तो शीघ्र ही भली-बुरी वस्तुओं के संबंध को छोड़ो, नहीं तो हम दोनों को नरक में जाना पड़ेगा।
भावार्थ—स्वभाव से न कोई वस्तु इष्ट है, न अनिष्ट है इसलिये इष्ट तथा अनिष्ट में संकल्प कर रागद्वेष करना निष्प्रयोजन है क्योंकि रागद्वेष से केवल दु:ख ही भोगने पड़ते हैं इसलिये समस्त परवस्तुओं को छोड़कर समता ही धारण करनी चाहिये ऐसी अपने—अपने मन को निरन्तर भव्य जीवों को शिक्षा देनी योग्य है।।१४५।।
ज्ञानज्योतिरुदेति मोहतमसो भेद: समुत्पद्यते सानन्दा कृतकृत्यता च सहसा स्वान्ते समुन्मीलति।
यस्यैकस्मृतिमात्रतोऽपि भगवानत्रैव देहान्तरे देवस्तिष्ठति मृग्यतां स रभसादन्यत्र किं धावत।।१४६।।
अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि जिस एक आत्मा के स्मरणमात्र से सम्यग्ज्ञानरूपी तेज का उदय होता है तथा मोहरूपी अंधकार दूर हो जाता है और चित्त में नाना प्रकार का आनन्द होता है तथा कृतकृत्यता भी चित्त में उदित हो जाती है, वही अनन्त शक्ति का धारक भगवान आत्मा इस ही शरीर में निवास करता है, उसको ढूंढो, व्यर्थ क्या दूसरी जगह अज्ञानी होकर फिरते हो ?।।१४६।।
-शार्दूलविक्रीडित-
जीवाजीवविचित्रवस्तुविविधाकारार्द्धिरूपादयो रागद्वेषकृतोऽत्र मोहवशतो दृष्टा: श्रुता: सेविता:।
जातास्ते दृढबंधनं चिरमतो दु:खं तवात्मन्निदं जानात्येव तथापि किं बहिरसावद्यापि धीर्धावति।।१४७।।
अर्थ—फिर भी आचार्य महाराज उपदेश देते हैं कि अरे जीव! इस संसार में चेतन-अचेतनस्वरूप नाना प्रकार के पदार्थ तथा नाना प्रकार के आकार और भांति—भांति की संपदा तथा रूप-रस आदि सर्व मोह के वश से रागद्वेष को करने वाले हैं और मोह के वश से ही देखे गये हैं तथा सुने गये हैं और सेवन किये गये हैं और इस ही कारण मोह से चिरकालपर्यंत वे सर्व पदार्थ तेरे दृढ़बंधन हुवे हैं तथा दृढ़बंधन से ही तुझे नाना प्रकार के दु:ख भोगने पड़े हैं ऐसा भलीभांति जानते हुवे भी तेरी बुद्धि बाह्य पदार्थों में दौड़ती है, यह बड़े आश्चर्य की बात है!
भावार्थ—चेतन-अचेतन, स्त्री-पुत्र-कलत्र-गृह-धन-धान्यादि बाह्य पदार्थों में मोह कर चिरकाल से तुझे नाना प्रकार के बंधनों में फंसना पड़ा है तथा नाना प्रकार के दु:ख भी भोगने पड़े हैं, ऐसा भली भांति तुझे ज्ञान है, तो भी नहीं मालूम क्यों, अब भी तेरी चित्तवृत्ति बाह्य पदार्थों में लगी हुई है इसलिये अब बाह्य पदार्थों से मोह छोड़कर तुझे अपने वास्तविक अनन्तविज्ञानादि स्वरूप का चिंतवन करना चाहिये।।१४७।।
अब आचार्य इस बात को दिखलाते हैं कि निम्नलिखित प्रकार से विचार करने पर
किसी प्रकार संसार से भय नहीं हो सकता-
भिन्नोऽहं वपुषो बहिर्मलकृतान्नानाविकल्पौघत: शब्दादेश्च चिदेकमूर्तिरमल: शान्त: सदानन्दभाक्।
इत्यास्था स्थिरचेतसो दृढतरं साम्यादनारम्भिण: संसाराद्भयमस्ति किं यदि तदप्यन्यत्र क: प्रत्यय:।।१४८।।
अर्थ—नाना प्रकार के विष्टा-मूत्रादि मल के घरस्वरूप इस शरीर से मैं भिन्न हूँ तथा मन में उठे हुवे नाना प्रकार के विकल्पों से भी मैं भिन्न हूँ और शब्द-रस आदि से भी मैं जुदा हूँ तथा मेरी एक चैतन्यमयी मूर्ति है और मैं समस्तप्रकार के मल कर रहित हूँ तथा क्रोधादि के अभाव से मैं सदा शांत हूँ और सदाकाल आनंद का भजने वाला हूँ इस प्रकार का जिसके मन में मजबूत श्रद्धान है तथा समता का धारी होने से जिसका समस्त प्रकार का आरम्भ छूट गया है, ऐसे मनुष्य को किसी प्रकार संसार से भय नहीं हो सकता और जब उसको संसार ही भय का करने वाला नहीं, तब उसको कोई वस्तु भय की करने वाली नहीं हो सकती।
भावार्थ—जिस मनुष्य के इस प्रकार के विचार करने से समस्त प्रकार से संसार का भय जाता रहा है उस पुरुष को और किसी वस्तु से भय नहीं हो सकता इसलिये भव्यजीवों को इस प्रकार विचार कर संसार से कदापि भयभीत नहीं होना चाहिये।।१४८।।
किंलोकेन िंकमाश्रयेण किमथद्रव्येण कायेन किं किं वाग्भि: किमुतेन्द्रियै: किमसुभि: किंते विकल्पै: परै:।
सर्वे पुद्गलपर्यया वत परे त्वत्त: प्रमत्तो भवन्नात्मन्नेभिरभिश्रयिष्यतितरामालेन किं बंधनम्।।१४९।।
अर्थ—आचार्य फिर भी उपदेश देते हैं कि न तो तुझे लोक से प्रयोजन है, न लोक के आश्रय से प्रयोजन है और न तुझे द्रव्य से प्रयोजन है, न वाणी से प्रयोजन है तथा न तुझे स्पर्शनादि इन्द्रियों से प्रयोजन है, न तुझे खोटे विकल्पों से प्रयोजन है क्योंकि ये समस्त पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं और तू चैतन्यस्वरूप है इसलिये ये तेरे स्वरूप से सर्वथा जुदे ही हैं अत: इन वस्तुओं में प्रमाद करता हुवा क्यों वृथा तू दृढ़ बंधन को बाँधता है? अर्थात् लोक आदि से ममता करने से तू बंधेगा ही छूटेगा नहीं।
भावार्थ—जिस प्रकार कोई चोर यदि पर के द्रव्य को चुराकर अपना कहने लगे, तो वह वैâद में जाकर नाना प्रकार के बंधन को प्राप्त होता है, उसी ही प्रकार हे जीव! यदि तू भी पर की चीज को अपनावेगा, तो दृढ़ बंधन तो प्राप्त होगा, इसलिए तुझे परवस्तु को अपनी कदापि नहीं कहनी चाहिए किन्तु अपनी ज्ञान-दर्शनादि वस्तुओं को ही अपनाना चाहिए।।१४९।।
-अनुष्टुप्-
सतताभ्यस्तभोगानामप्यसत्सुखमात्मजम्।
अप्यपूर्वं सदित्यास्था चित्ते यस्य स तत्त्ववित्।।१५०।।
अर्थ—जिस मनुष्य के चित्त में ऐसा विचार उत्पन्न हो गया है कि निरंतर भोगे हुवे भी भोगों से पैदा हुवा सुख अशुभ है तथा केवल आत्मा से उत्पन्न हुवा सुख अपूर्व तथा शुभ है, वही पुरुष भले प्रकार तत्व का ज्ञाता है, ऐसा समझना चाहिये किंतु उससे भिन्न विपरीत श्रद्धानी कदापि तत्त्वज्ञाता नहीं हो सकता।।१५०।।
-पृथ्वी-
प्रतिक्षणमयं जनो नियतमुग्रदु:खातुर: क्षुदादिभिरभिश्रयंस्तदुपशान्तयेऽन्नादिकम्।
तदेव मनुते सुखं भ्रमवशाद्यदेवासुखं समुल्लसति कज्छकारुजि यथा शिखिस्वेदनम्।।१५१।।
अर्थ—ग्रन्थकार कहते हैं—जिस प्रकार खाज का रोगी मनुष्य अग्नि से खाज के सेकने में सुख मानता है परन्तु अग्नि से सेकना केवल दु:ख का ही देने वाला है, उस ही प्रकार यह संसारी जीव जब क्षुधा-तृषा आदि व्याधियों से पैदा हुवे दु:खों से अत्यन्त पीड़ित होता है तथा उसकी शांति के लिये अन्न-जल का आश्रयण करता है, उस समय यद्यपि वह अन्न-जल आदि पदार्थ दु:खस्वरूप हैं तो भी भ्रम से उनको सुख मानता है।
भावार्थ—जिस प्रकार अग्नि से सेकते समय खाज में सुख मालूम होता है किन्तु अंत में अत्यंत दु:ख ही भोगना पड़ता है, उस ही प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ सुख यद्यपि थोड़े समय तक सुख है परन्तु अंत में दु:खदायी है इसलिये भव्यजीवों को इन्द्रियों के सुख की कदापि अभिलाषा नहीं करनी चाहिये किन्तु अविनाशी सुख के लिये ही प्रयत्न करना चाहिये।।१५१।।
आत्मा स्वं परमीक्ष्यते यदि समं तेनैव सेचेष्टते तस्मा एव हितस्ततोऽपि च सुखी तस्यैव संबंधभाक्।
तस्मिन्नेव गतो भवत्यविरतानन्दामृताम्भौनिधौ किं चान्यत्सकलोपदेशनिवहस्यैतद्रहस्यं परम्।।१५२।।
अर्थ—जब यह आत्मा अपने स्वरूप को देखता है तो स्वयं अपने स्वरूप के साथ ही चेष्टा करता है तथा अपने स्वरूप के लिये ही हित स्वरूप बनता है तथा अपने से ही सुखी होता है तथा अपना ही संबंधी होता है तथा निरंतर जो आनन्दरूप अमृत उसका समुद्र स्वरूप जो अपना स्वरूप उसमें ही लीन होता है, इस प्रकार समस्त प्रवृत्तियों की आत्मा में जो दृढ़स्थिति, यही समस्त उपदेश का असली तात्पर्य है, इससे अतिरिक्त और कुछ नहीं है।।१५२।।
-आर्या-
परमानन्दाब्जरसं सकलविकल्पान्यसुमनसस्त्यक्त्वा।
योगी स यस्य भजते स्तिमितान्त: करणषट्चरण:।।१५३।।
अर्थ—जिस योगी का निश्चल मनरूपी भ्रमर समस्त विकल्परूपी अन्य फूलों को छोड़कर उत्कृष्ट आनंद के धारी शुद्धात्मारूपी कमल के रस का सेवन करता है, वही योगीश्वर पूजने योग्य है।
भावार्थ—जिस प्रकार भ्रमर संपूर्ण पुष्पों को छोड़कर कमल के रस को आस्वादन करता है, उस ही प्रकार जो मुनि समस्त विकल्पों को छोड़कर शुद्धात्मा का आस्वादन करते हैं, वे ही भव्यजीवों के पूजने योग्य हैं।।१५३।।
-शार्दूलविक्रीडित-
जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीति: शरीरेऽपि च।
जोषं वागपि धारयत्यविरतानन्दात्मशुद्धात्मनाश्चिंतायामपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मन: पञ्चताम्।।१५४।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि परमानंदस्वरूप शुद्धात्मा की प्राप्ति तो दूर ही रहो किंतु केवल उसकी चिंता करने पर ही शृंगारादि रस विरस हो जाते हैं, स्त्री-पुत्र आदि की गोष्ठी (सलाह) नष्ट हो जाती है और उनकी कथा और कुतर्क दूर भग जाते हैं तथा इंद्रियों के विषय भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और स्त्री-पुत्र आदि की प्राप्त्िा तो दूर ही रही, शरीर में भी प्रीति नहीं रहती और वचन भी मौन को धारण कर लेता है और समस्त राग-द्वेषादि दोषों के साथ मन भी विनाश को प्राप्त हो जाता है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे शुद्धात्मा की चिंता ही में निमग्न बने रहें।।१५४।।
आचार्य आत्मध्यान का वर्णन करते हैं-
आत्मैक: सोपयोगोमम किेमपिततोनान्यदस्तीतिचिंताभ्यासास्ताशेषवस्तो: स्थितपरममुदायद्गतिर्नोविकल्पे।
ग्रामे वा कानने वा जनजनितसुखे नि:सुखे वा प्रदेशे साक्षादाराधना सा श्रुतविशदमतेर्बाह्यमन्यत्समस्तम्।।१५५।।
अर्थ—दर्शन-ज्ञानमयी आत्मा ही एक मेरा है, इससे भिन्न कोई भी वस्तु मेरी नहीं है, इस प्रकार की चिंता से जिस मनुष्य के मन की परिणति बाह्यपदार्थों से सर्वथा छूट गई है तथा जिसकी शास्त्र के अभ्यास से बुद्धि निर्मल हो गई है और जो परमानंद का धारी है, उस मनुष्य के मन की प्रवृत्ति का विकल्पों से हट जाना तथा गाँव में अथवा वन में अथवा मनुष्यों को सुख के उपजाने वाले प्रदेश में अथवा दु:ख उपजावने वाले प्रदेश में भी मन का न जाना किंतु अपने आत्मा के अनुभव में ही लीन होना, यही उत्कृष्ट आराधना है परंतु इससे भिन्न सब बाह्य है, तथा सर्व त्यागने योग्य है।।१५५।।
-शार्दूलविक्रीडित-
यद्यन्तर्निहितानि खानि तपसा बाह्येन किं फल्गुना नैवान्तर्निहितानि खानि तपसां बाह्येन किं फल्गुना।
यद्यं तर्बहिरन्यवस्तुतपसा बाह्येन किं फल्गुना नैवान्तर्बहिरन्यवस्तुविषया बाह्येन किं फल्गुना।।१५६।।
अर्थ—आचार्य फिर भी उपदेश देते हैं कि बाह्यवस्तु से जुदे होकर यदि इंद्रियों का शुद्धात्मा के साथ संबंध रहा तो बाह्य में तप करना व्यर्थ है और यदि इन्द्रियों का शुद्धात्मा के साथ संबंध न रहा तो भी तप करना व्यर्थ है और यदि अंतरंग अथवा बाह्य में अन्यपदार्थों की ममता बनी रही, तो तप करना व्यर्थ है तथा यदि अंतरंग में तथा बाह्य में किसी पदार्थ से ममता नहीं रही, तो भी तप करना व्यर्थ ही है।
भावार्थ—तप इन्द्रिय तथा पदार्थों में ममता के दूर करने के लिये किया जाता है यदि इंद्रियों का संबंध तथा पदार्थों में ममता बनी रही, तो भी किया हुवा भी तप व्यर्थ ही है अर्थात् वह तप निष्प्रयोजन ही है, यदि इंद्रियों का संबंध टूट गया तथा पदार्थों से ममता भी दूर हो गई तो भी तप करना व्यर्थ ही है, जिनके नाश के लिये तप किया जाता है, वे तो प्रथम से ही नष्ट हो चुकी इसलिये इंद्रियों का संबंध तथा पदार्थों में ममता दूर करने के लिये ही तप करना चाहिये।।
शुद्धं वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेशमिति प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितं।
तत्राद्यं श्रयणीयमेव विदुषा शेषद्वयोपायत: सापेक्षा नयसंहति: फलवती संजायते नान्यथा।।१५७।।
अर्थ—ग्रंथकार कहते हैं कि शुद्धनय तो वचन के द्वारा कहा नहीं जा सकता किंतु व्यवहारनय ही वचन के द्वारा कहा जाता है तथा वह व्यवहारनय शुद्ध नय को कहने वाला है इसलिये उसको शुद्धादेश अर्थात् शुद्धनय को कहने वाला भी कहते हैं और जो भेद को उत्पन्न कराने वाला, उसको अशुद्धनय कहते हैं, इस रीति से शुद्ध-शुद्धादेश तथा अशुद्ध के भेद से नय के तीन भेद हुवे, उन तीनों में शुद्धनय जो है, सो शुद्धादेश तथा अशुद्धनय के उपाय से होता है इसलिये विद्वानों को शुद्धनय का ही आश्रय करना चाहिये तथा यह नियम है कि आपस में एक-दूसरे की अपेक्षा करने वाला ही नय का समूह कार्यकारी हो सकता है परन्तु एकान्त से भिन्न नहीं।
भावार्थ—यद्यपि शुद्धनय ही ग्रहण करने योग्य है तथापि व्यवहार बिना शुद्धनय कदापि नहीं हो सकता इसलिये व्यवहार से ही शुद्धनय का सिद्ध करना योग्य है क्योंकि व्यवहार की नहीं अपेक्षा करने वाला शुद्धनय कोई कार्यकारी नहीं तथा निश्चयनय की नहीं अपेक्षा करने वाला व्यवहारनय भी कोई प्रयोजन का नहीं है किंतु एक दूसरे की अपेक्षा करने वाला ही तप कार्यकारी है।।१५७।।
फिर भी ग्रंथकार शुद्धात्मा का वर्णन करते हैं-
ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं जीवस्य नार्थान्तरं शुद्धादेशविवक्षया स हि ततश्चिद्रूप इत्युच्यते।
पर्यायैश्च गुणैश्च साधुविदिते तस्मिन् गिरा सद्गुरोर्ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभि:।।१५८।।
अर्थ—यद्यपि व्यवहारनय से ज्ञान-दर्शन आत्मा से भिन्न है तथापि शुद्धनय की विवक्षा करने पर समस्त पदार्थों को हाथ की रेखा के समान जानने वाला तथा देखने वाला ज्ञान तथा दर्शन आत्मा से कोई भिन्न वस्तु नहीं है किन्तु दर्शन-ज्ञान-चेतनास्वरूप ही यह आत्मा है इसलिये जिन योगियों ने श्रेष्ठ गुरुओं के उपदेश से यदि गुण तथा पर्यायों सहित आत्मा को जान लिया तो उनने समस्त को जान लिया तथा सबको देख लिया तथा जो कुछ प्राप्त करने योग्य वस्तु थी, उन सबको भी पा लिया।।१५८।।
भावार्थ—जिस पुरुष ने दर्शन-ज्ञानस्वरूप आत्मा को गुणपर्यायों सहित जान लिया तो समझना चाहिये उसने सबको जान लिया तथा देख लिया।।१५८।।
यन्नान्तर्न बहि:स्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्मं पुमान्नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम्।
कर्मस्पर्शशरीरगंधगणनाव्याहारवर्णोज्झितं स्वच्छं ज्ञानदृगेकमूर्तितदहं ज्योति: परं नापरम्।।१५९।।
अर्थ—आत्मज्ञानी पुरुष इस प्रकार का विचार करता है कि न मैं भीतर हूँ, न बाहिर हूँ, न किसी दिशा में हूँ, न मोटा हूँ, न पतला हूँ, न पुरुष हूँ, न स्त्री हूँ, न नपुंसक हूँ, न भारी हूँ, न हलका हूँ, और न मेरा धर्म है, न स्पर्श है, न शरीर है, न गंध है, न संख्या है, न शब्द है, न वर्ण है तथा जो अत्यंत्ा स्वच्छ तथा ज्ञान-दर्शनमयी मूर्ति की धारक ज्योति है, वही मैं हूँ और उससे भिन्न कोई नहीं हूँ।
भावार्थ—ज्ञानी पुरुष इस बात का विचार करता है कि स्थूल-सूक्ष्मादिक तथा स्त्री-पुरुष-नपुंसकादिक तथा स्पर्श-रस-गन्धादिक सब पुद्गल के विचार हैं तथा मैं उनसे सर्वथा भिन्न हूँ किन्तु मेरी एक ज्ञान-दर्शनमयी ही मूर्ति है।।१५१।।
और भी आचार्य शुद्धात्मा का वर्णन करते हैं-
जानाति स्वयमेव यद्धि मनसश्चिद्रूपमानंदवत्प्रोच्छिन्ने यदनाद्यमंदमसकृन्मोहान्धकारे हठात्।
सूर्याचन्द्रमसावतीत्य यदहो विश्वप्रकाशात्मकं तज्जीयात्सहजं सुनिष्कलमहं शब्दाभिधेयं मह:।।१६०।।
अर्थ—आनंद के धारी जिस चैतन्यरूपी तेज को अनादिकाल से विद्यमान तथा गाढ़ मोहरूपी अंधकार को तप के द्वारा सर्वथा नाशकर केवलज्ञान के धारी पुरुष अपने आप जान लेते हैं तथा तो चैतन्यरूपी तेज सूर्य-चन्द्रमा के तेज को फीका करने वाला है तथा समस्त पदार्थों का भलीभांति प्रकाश करने वाला है और जिसका मैं (अहम्) इस शब्द से अनुभव होता है तथा जो स्वाभाविक है, ऐसा वह चैतन्यरूपी तेज सदा काल जयवन्त रहो।।१६०।।
ज्ञानी पुरुष इस प्रकार का भी विचार करता है-
-वसन्ततिलका-
यज्जायते किमपि कर्मवशादसातं सातं च यत्तदनुयायि विकल्पजालम्।
जातं मनागपि न यत्र पदं तदेव देवेन्द्रवन्दितमहं शरणं गतोऽस्मि।।१६१।।
अर्थ—जिस मोक्ष पद में न तो कर्म के वश से साता होती है और न कर्म के वश से असाता होती है तथा न उन साता तथा असाता के अभाव में, जहाँ पर किसी प्रकार के विकल्प ही उठते हैं और जिस पद की बड़े—बड़े इंद्रादिक भी स्तुति करते हैं, ऐसे मोक्षपद की शरण को मैं प्राप्त होना चाहता हूँ।।१६१।।
आगे आचार्य और भी ज्ञानी के विचार को दिखाते हैं-
-शार्दूलविक्रीडित-
धिक्कान्तास्तनमण्डलं धिगमलप्रालेयरोचि:करान् धिक्कर्पूरविमिश्रचंदनरसं धिक् ताञ्जलादीनपि।
यत्प्राप्तं न कदाचिदत्र तदिदं संसारसंतापहृत् लग्नं चेदिति शीतलं गुरुवचो दिव्यामृतं मे हृदि।।१६२।।
अर्थ—संसार में यह बात भली भांति प्रचलित है तथा अज्ञानी मनुष्य इस बात को मानते भी हैं कि यदि किसी प्रकार का संताप हो जावे, तो उस संतप्त प्राणी को स्त्री के स्तनों के स्पर्श से तथा चन्द्रमा की किरण आदि के सेवन से संताप को दूर कर देना चाहिये परंतु ज्ञानी मनुष्य इस बात को सर्वथा नहीं मानता तथा इससे विपरीत ही विचार करता है अर्थात् वह कहता है कि जिसकी कभी भी प्राप्ति नहीं हुई है तथा जो सब संसार के दु:खों को दूर करने वाला है और जो अत्यंत शीतल है ऐसा यदि गुरुओं का वचन मेरे मन में मौजूद है तो जिनको मनुष्य शीतल करने वाले कहते हैं ऐसे स्त्री के कुचों को धिक्कार हो तथा चंद्रमा की शीतल किरणों को धिक्कार हो तथा कर्पूर मिले हुवे चंदन के रस को धिक्कार हो तथा जल आदि को भी धिक्कार हो!
भावार्थ—सिवाय गुरु के उपदेश के ये समस्त चीजें संताप ही की करने वाली हैं, अंश मात्र भी शांति की करने वाली नहीं हैं इसलिये जो मनुष्य शांति के अभिलाषी हैं उनको गुरु के वचन का ही आश्रय लेना चाहिये।।१६२।।
अब आचार्य शुद्धात्मा की परिणतिस्वरूप धर्म में मग्न हुवे योगियों को नमस्कार करते हैं-
जित्वा मोहमहाभटं भवपथे दत्तोग्रदु:खश्रमे विश्रान्ता विजनेषु योगिपथिका दीर्घे चरन्त: क्रमात्।
प्राप्ता ज्ञानधनाश्चिरादभिमतं स्वात्मोपलं तिष्ठति नित्यानंदकलत्रसंगसुखिनो ये तत्र तेभ्यो नम:।।१६३।।
अर्थ—जो योगीश्वररूप पथिक अत्यंत दु:ख को देने वाले संसाररूपी विशाल मार्ग में विचरते हुवे समस्त ज्ञानादिक धन को चुराने वाले मोहरूपी योधा को जीतकर निर्जन स्थान में विश्राम लेते हैं तथा जो ज्ञानरूपी धन के स्वामी हैं और जिसका कभी भी नहीं नाश होने वाला है ऐसा जो आत्मिक सुखरूपी स्त्री, उसके संग से जो सदा सुखी हैं, तथा अपने आत्मा के स्वरूप की जहाँ पर प्राप्ति होती है, ऐसे स्थान में विराजमान हैं, उन योगियों को मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ—जिस प्रकार कोई धनयुक्त पथिक किसी बड़े मार्ग में मिले हुवे चोरों को जीतकर तथा अपने धन को बचाकर जब वांछित स्थान पर पहुँच जाता है तब वह अपनी स्त्री के साथ नाना प्रकार के भोगविलासों को करता हुवा सुख से रहता है, उस ही प्रकार जिन योगीश्वरों ने संसाररूपी गहन मार्ग में रहने वाले तथा ज्ञानरूपी धन को चुराने वाले मोहरूपी ठग को जीतकर अपने ज्ञानधन की रक्षा की है तथा जो मोक्षरूपी स्त्री के साथ नाना प्रकार के सुखों का भोग करते हैं और अपने आत्मस्वरूप में लीन हैं, ऐसे उन योगीश्वरों को मैं मस्तक नवाकर नमस्कार करता हूँ।।१६३।।