श्री पद्मनन्दिपंचिंवशतिका ग्रन्थ में आचार्यश्री पद्मनन्दि देव ने शुद्धात्म दर्शन की प्रक्रिया को बताते हुए अनेक अधिकारों के माध्यम से बताया है कि—
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
दुर्लक्ष्येपि चिदात्मनि श्रुतवलात्किंचितस्वसंवेदनात्,
ब्रूमः िंकचिदिह प्रबोधनिधिभिर्ग्राह्यं न किञ्चिच्छलम्।
मोहे राजनि कर्मणाम तितरां प्रौढेन्तराये रिपौ,
दृग्बोधावरणद्वये सति मतिस्तादृककुतो मादृशाम्।।
अर्थात् जिस प्रकार अमूर्तिक होने के कारण आकाश आदि किसी के देखने में नहीं आ सकते उसी प्रकार यह आत्मा यद्यपि किसी के दृष्टिगोचर नहीं है फिर भी उस चैतन्य आत्मा के स्वरूप को शास्त्र के बल से अथवा अपने अनुभव से मैं वर्णन करता हूँ इसलिए बुद्धिमानों को इसमें कोई दगाबाजी नहीं समझनी चाहिए क्योंकि समस्त कर्मों का राजा मोहनीय और अत्यन्त प्रबल अन्तराय रूपी शत्रु तथा ज्ञानावरण-दर्शनावरण अभी मेरी आत्मा के साथ लगे हुए हैं इसलिए वास्तविक स्वरूप के कहने में मेरी बुद्धि वैâसे प्रवीण हो सकती है अर्थात् मुझ जैसे अल्पज्ञानी उस परमात्मा के असली स्वरूप का वर्णन वैâसे कर सकते हैं ? तो भी श्रुत—शास्त्र में वर्णित शुद्धात्मा का कथन सत्य ही जानना चाहिए।
पुनश्च आचार्यश्री वाव्âपटु मनुष्यों की आत्मा के प्रति अनभिज्ञता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि—
‘‘अपने को विद्वान मानकर शृंगारादि रस सहित नाना प्रकार के प्रमोदजनक व्याख्यानों को कहने वाले तथा सभी में व्यर्थ वचनों के आडम्बर को धारण करने वाले और मनुष्यों को सन्मार्ग के भुलाने वाले पुरुष संसार में प्रतिक्षण खूब मिलते हैं परन्तु जो परमात्म तत्त्व के ज्ञान देने वाले हैं ऐसे मनुष्य बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।।’’
उपर्युक्त वचनों का प्रभाव वर्तमान में बड़ी तेजी से दिखाई दे रहा है यही कारण है कि भौतिक विज्ञान की चकाचौंध में मानव चैतन्य स्वरूप को भूलकर पुद्गल चमत्कारों के पीछे तेजी से भाग रहा है। भारत देश की आध्यात्मिक सम्पत्ति लुप्तप्राय हो रही है तथा उस पर पाश्चात्य संस्कृति की परछाइयाँ पड़ चुकी हैं। ऐसे आपातकालीन समय में पूर्वाचार्यों की वाणी ही हमें सम्बल प्रदान कर सकती है अतः श्रुत—शास्त्र के दर्पण में प्रतिदिन अपने आत्मिक चेहरे का अवलोकन कर अपनी कथनी को क्रिया रूप में परिणत करना चाहिए। एक कवि ने कहा भी है—
भौतिकता की चकाचौंध में मानव निज को भूल गया है।
दुनिया की झूठी माया औ वैभव में ही फूल गया है।।
क्षणभंगुर लक्ष्मी की खातिर मानवता भी आज रो रही।
जीवन की हर सांसों में िंहसा अधर्म की बात हो रही।।१।।
वीतराग गुरुओं की वाणी सुनकर अपनी प्यास बुझाओ।
त्याग और संयम की ज्योती अपने जीवन में चमकाओ।।
वीतरागता ही प्राणी के उन्नति की आधारशिला है।
कथनी को करनी में बदलो शुभ अवसर यह आज मिलाहै।।२।।
मानव पर्याय की इस अमूल्य काया के द्वारा ही पुरुषार्थपूर्वक शुद्धात्मतत्व को प्राप्त करना है यही कथन अवधारण करना चाहिए तथा इस रागमय संसार में कुछ क्षण वीतरागता का सन्देश देने वाले सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का सानिध्य प्राप्त करना चाहिए। इसी ‘‘शुद्धात्म परिणति रूप धर्म’’ नाम के अधिकार में श्रीपद्मनंदि मुनिराज कहते हैं—
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
आपध्देतुषु रागरोष निकृति प्रायेषु दोषेण्वलं,
मोहात्सर्वजनस्य चेतसि सदा सत्सु स्वभावादपि।
तन्नाशाय च संविदे च फलवत्काव्यं कवेर्जायते,
शृंगारादिरसं तु सर्वजगतो मोहाय दुःखाय च।।
अर्थात् समस्त मनुष्यों के चित्तों में नाना प्रकार के दुःख देने वाले ऐसे राग, द्वेष, माया, क्रोध, लोभ आदि दोष स्वभाव से ही रहा करते हैं। जिस कवि का काव्य इन दोषों को मूल में उड़ा देता है तथा सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कराने में समर्थ होता है वास्तव में वही कार्यकारी समझना चाहिए और शृंगारादि रस तो समस्त जगत को मोह के उत्पन्न करने वाले एवं दुःख के देने वाले हैं इसलिए भव्यों को चाहिए कि वे वीतराग भाव को दर्शाने वाले समीचीन ग्रन्थों का ही अभ्यास करें।जिस प्रकार जात्यन्ध पुरुष को एक तो स्वयमेव ही मार्ग नहीं सूझता पुनः उसकी आँखों में यदि धूल डाल दी जावे तो और भी वह घबड़ाकर खोटे मार्ग में गिर पड़ता है, उसी प्रकार संसार में भ्रमण करते हुए प्राणियों को प्रथम तो मोह के उदय से स्वयं मार्ग नहीं सूझता है पुनः शृंगार आदि रसों को सुनने से वे और भी खोटे मार्गों में गिर जाते हैं इसलिए भव्यजीवों को चाहिए कि वे कदापि शृंगारादिरूप शास्त्रों को न सुनें ताकि उन्हें खोटे मार्ग में न गिरना पड़े।
यहाँ शृंगार शास्त्रों से पुराणादि कथा ग्रन्थों को न लेकर विशेष राग उत्पन्न कराने वाले अश्लील एवं मनोरंजक कथानकों को ही लेना चाहिए। इस विषय में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी अपने गुरुदेव आचार्य श्री वीरसागर महाराज से प्राप्त अनुभव बताया करती हैं कि ‘‘अपरिपक्व अवस्था में यदि शृंगारबहुल कथा साहित्य को पढ़ा गया तो त्यागमार्ग से विचलित होने की संभावना भी रहती है किन्तु उम्र एवं ज्ञान की परिपक्वता हो जाने पर उनके अध्ययन से बाधा उत्पन्न होने का भय नहीं रह जाता अतः प्रारंभिक अवस्था में विशेष रूप से चरणानुयोग के आचरण सम्बन्धी ग्रन्थों का ही अध्ययन करना चाहिए तथा उनके साथ-साथ सदाचरण से जीवन को महान बनाने वाले चौबीसों तीर्थंकर भगवान् तथा राम आदि के कथानक सम्बन्धी आदि पुराण, उत्तरपुराण, जम्बूस्वामी चरित आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।’’
चैतन्य नाम का विशिष्ट पदार्थ प्रत्येक प्राणी की आत्मा में रहता है, वह आत्मा से भिन्न किसी दूसरे स्थान में नहीं रहता ऐसा शुद्धात्मज्ञानी महापुरुष कहते हैं तथा जो आत्मा से भिन्न किसी दूसरे स्थान में उसकी खोज करता है वह मुट्ठी में रखी हुई वस्तु को वन में जाकर ढूंढने के समान व्यर्थ ही प्रयत्न करता है ऐसा जानना चाहिए।
श्री पद्मनन्दिपंचिंवशतिका ग्रंथ के ‘‘सद्बोध-चन्द्रोदय’’ नामक अधिकार में वर्णन आया है—
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
यज्जानन्नपि बुद्धिमानपि गुरुः शक्तो न वक्तुं गिरा,
प्रोक्तं चेन्न तथापि चेतसि नृणां सम्माति चाकाशवत्।
यत्र स्वानुभवस्थितेऽपि विरला लक्ष्यं लभन्ते चिरात्,
तन्मोक्षैक निबन्धनं विजयते चित्तत्वमत्यद्भुतम्।।
अर्थात् यह आत्मतत्व इतना कठिन है कि जिसको साधारण पण्डितों की तो बात क्या है ? साक्षात् वृहस्पति भी उसका वर्णन नहीं कर सकते हैं और विस्तृत इतना है कि वह किसी के हृदय में आकाश की तरह प्रविष्ट नहीं हो सकता अर्थात् जिस प्रकार आकाश बहुत अधिक लम्बा-चौड़ा असीमित है इसीलिए वह किसी जगह पर नहीं आ सकता उसी प्रकार यह आत्मतत्व भी इतना विस्तृत है कि साधारण रीति से मनुष्य समझ नहीं सकते और अनेक प्रकार के प्रयत्न करने पर विरले ही मनुष्य इस आत्मतत्व को लक्ष्य में ला सकते हैं। ऐसा समस्त मोक्ष आदि उत्तम सुखों को देने वाला आत्मतत्व सदा इस लोक में जयवन्त होवे।
आत्मा का एक पर्यायवाची नाम हंस भी है जो कि सार्थकपने को साकार करता है अर्थात् जैसे—हंस अत्यन्त मनोहर कमलवन को छोड़कर और अत्यन्त शुभ्र, सुन्दर हंसिनी में दृष्टि को लगाकर जल से भरे हुए उत्तम सरोवर में प्रीतिपूर्वक निवास करता है उसी प्रकार जो आत्मा अणिमा, महिमा आदिक ऋद्धियों की कुछ भी इच्छा न कर तथा अति आदर से मोक्ष में दृष्टि लगाकर समता में लीन होता है उस आत्मा के लिए नमस्कार है। जैसा कि समयसार में श्री अमृतचन्द्र सूरि ने आत्मा को नमन करते हुए कहा है—‘‘नमः समयसाराय, स्वानुभूत्या चकासते’’ अर्थात् जो सबकी अनुभूति से चकचकायमान—प्रकाशमान है उस समय—आत्मा के सारभूत तत्त्व चैतन्य परमात्मा को मेरा नमस्कार होवे। जैसे—भगवान् बाहुबली को एक वर्ष के ध्यान के मध्य अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न हो गई थीं फिर भी वे शुद्धात्मा के ध्यान में लीन रहते थे। उनका अपनी ऋद्धियों की ओर कोई उपयोग नहीं था और असंख्य प्राणी उनकी ऋद्धि से लाभ उठाकर स्वस्थता आदि प्राप्त कर लेते थे। बाहुबली स्वामी की उस शुद्धात्म अवस्था का वर्णन करते हुए पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने बाहुबली पूजन की जयमाला में लिखा है—
तपबल से अणिमा महिमादिक, विक्रिया ऋद्धियाँ प्रगट हुईं।
आमौषधि सर्वौषधि आदिक, औषधि ऋद्धी भी प्रगट हुईं।।
इन ऋद्धी से निंह लाभ उन्हें, फिर भी इन्द्रादिक नमते थे।
खग आकर प्रभु की ऋद्धी से, निज रोग निवारण करते थे।।
परमहंस परमात्मा में लीन होने पर ही उन्हें ये ऋद्धियाँ प्राप्त हुईं थी। तब एक वर्ष तक उन्होंने भोजन का कण भी नहीं चखा फिर भी तपस्या के प्रभाव से बाहुबली भगवान का शरीर अद्भुत कान्ति से कांतिमान् रहता था। वास्तविकता रूप में समयसार अथवा अध्यात्मवाद तो उनके जीवन में साकार हुआ था, शेष वाक््âपटु पण्डित तो मात्र अध्यात्म का बखान जिह्वा से करते हैं, उनके जीवन में उसका अंश भी नहीं होता है। भगवान् बाहुबली के भाई सम्राट चक्रवर्ती भरत ने इस शुद्धात्म अवस्था की प्राप्ति दीक्षा लेने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ही कर लिया था। शास्त्रीय समस्त उदाहरणों से ज्ञात होता है कि वीतराग शुद्धात्म अवस्था दिगम्बर महामुनियों को ही प्राप्त होती है, सवस्त्र अवस्था में उसकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। उसके ध्यान की चर्चा करना मात्र अपनी आत्मा को धोखा देना है। एक कवि ने कहा है—
ज्ञान का शोर आज ज्यादा हो रहा है,
विज्ञान के बीच में मानव रो रहा है।
आत्मविज्ञान से वंचित मनुष्य ही,
आज अज्ञान विष के बीज बो रहा है।।
ज्ञानीजन कभी अपने ज्ञान का शोर नहीं मचाया करते और शोर मचाने वाले असली ज्ञानी नहीं हुआ करते क्योंकि ज्ञान तो वह अद्भुत सुगन्ध है जो बिना एजेन्टों की सहायता के स्वयं संसार में पैâल जाया करती है। यद्यपि आज से कोड़ा-कोड़ी वर्ष पूर्व प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव एवं उनके समस्त एक सौ एक पुत्रों ने उपर्युक्त शुद्धात्म भेदविज्ञान अवस्था में लीन होकर मोक्षधाम को प्राप्त किया था। फिर भी आज तक उनके गुणगाान गाये जाते हैं।
इतना अवश्य है कि कुछ विद्वानों ने अपनी लेखनी के द्वारा थोड़ा सा भ्रम पैâला दिया है कि भगवान् बाहुबली इस युग के प्रथम मोक्षगामी महापुरुष थे किन्तु आदिपुराण नामक आर्षग्रन्थ के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र अनन्तवीर्य ने सर्वप्रथम अष्ट कर्मों को नष्ट करके निर्वाण प्राप्त किया था। उसके पश्चात् बाहुबली ने मोक्ष पाया था।
दूसरी बात—भगवान् बाहुबली के बारे में जो किम्वदन्ती चल रही है कि ‘‘उन्हें इस बात की शल्य थी कि मैं भरत की भूमि पर खड़ा हूँ इसीलिए उन्हें एक वर्ष तक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई थी।’’ किन्तु यह नितान्त असत्य है क्योंकि जिन उपर्युक्त ऋद्धियों की उपलब्धि बाहुबली को हुई थी वे शल्यवान् पुरुष को उत्पन्न ही नहीं हो सकती, ऐसा सिद्धान्त का नियम है।
शल्य के तीन भेद होते हैं—मिथ्या, माया और निदान तथा ‘‘निःशल्यो व्रती’’ सूत्र के अनुसार व्रती शल्य रहित होना चाहिए फिर महाव्रती, महामुनि भला सशल्य वैâसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। उसी बाहुबली पूजा की जयमाला में गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने इस प्रकरण का उल्लेख भी आदिपुराण के आधार१से किया है—
होता विकल्प यह कभी-कभी, मुझसे चक्री को क्लेश हुआ।
इस हेतु अपेक्षा उनकी थी, आते ही केवलज्ञान हुआ।।
तत्क्षण सुरगण ने गंधकुटी, रच करके अतिशय पूजा की।
भरतेश्वर ने भक्ती विभोर, होकर रत्नों से पूजा की।।
अर्थात् बाहुबली स्वामी को शल्य की बजाय विकल्प था कि मेरे कारण मेरे भाई को कष्ट हो गया और यही विकल्प उनके केवलज्ञान में बाधक बना था तथा वह विकल्प दूर होते ही भगवान् अरिहंत परमेष्ठी बनकर धरती से ५ हजार धनुष (२०००० हाथ) ऊपर जाकर अधर गन्धकुटी में विराजमान हो गये थे पुनः भव्य प्राणियों को दिव्यध्वनि के द्वारा धर्म उपदेश देकर आयु की समाप्ति पर सिद्धशिला को प्राप्त कर लिया था। इसीलिए आचार्य श्री पद्मनन्दी की पंक्तियाँ साकार हो जाती हैं कि ‘‘साधारण मनुष्य तो इस शुद्धात्मा की महानता समझ ही नहीं सकते हैं।’’ अतः इस शुद्धात्मा का ज्ञान प्राप्त करके श्रुतज्ञान के दर्पण में अपनी चर्या का अवलोकन करते हुए आंशिक आत्मशुद्धि करनी चाहिए यही कथन का अभिप्राय है।
आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी ने आत्मार्थी मुमुक्षु के लिये कहा है कि—
रथोद्धता छन्द—
तत्परः परमयोगसम्पदां, पात्रमत्र न पुनर्बहिर्गतः।
नापरेण चलितः पथेप्सिता, स्थानलाभविभवो विभाव्यते।।
अर्थ—जैसे यदि कोई मनुष्य मार्ग तो दूसरा है परन्तु उसको छोड़कर दूसरे मार्ग से चले तो कदापि उसको अभीष्ट स्थान का लाभ नहीं हो सकता है किन्तु ठीक मार्ग पर चलने वाला ही अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच सकता है, उसी प्रकार जो पुरुष आत्मा में आसक्त नहीं हैं वे कदापि उत्कृष्ट ध्यान के पात्र नहीं हो सकते हैं इसलिए उत्कृष्ट ध्यान के प्रेमी उत्तम पुरुषों को आत्मा में अवश्य आसक्त रहना चाहिए।
यहाँ आत्मा में आसक्ति का अभिप्राय निर्विकल्प ध्यानी महामुनियों से है क्योंकि वस्त्रधारी श्रावकों को तीन काल में भी आत्मा का ध्यान नहीं हो सकता है। उन तपस्वी मुनियों को ही संबोधन प्रदान करते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाया है कि ‘‘जिस प्रकार नाटक का पात्र कभी राजा बनता है तो कभी मंत्री कभी, स्त्री बनता है तो कभी बालक आदि नाना प्रकार के वेषों को धारण करता है किन्तु वह वास्तविक राजा, मंत्री, स्त्री नहीं कहा जा सकता है उसी प्रकार तपस्वी का वेष धारण कर जो तपस्वी चैतन्यरूपी तत्त्व की ओर अपना लक्ष्य नहीं देते वे तपस्वी कहलाने के योग्य नहीं हैं, वे जड़ हैं इसलिए तपस्वियों को चैतन्यरूपी तत्त्व पर अवश्य ही लक्ष्य देना चाहिए।।’’ जो मुनि उग्र तपस्या करते हुए भी भेद विज्ञान रूप तत्त्वज्ञान से रहित होकर अपना परलोक बिगाड़ लेते हैं ऐसे मुनियों को आचार्य देव ने जड़ की संज्ञा प्रदान की है। जैसा कि कंस के पूर्व भव का कथानक आया है कि—
मथुरा नगरी के बाहर गोवर्धन पर्वत पर ‘‘वशिष्ठ’’ नाम के एक मुनिराज मासोपवास धारण कर तपस्या में लीन थे। उनकी ऋद्धि की महिमा सुनकर मथुरा के राजा उग्रसेन ने प्रसन्न होकर पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि एक माह के उपवास के पश्चात् इन मुनिश्री का आहार मेरे ही राजमहल में होगा अतः अन्य प्रजाजन अपने घरों में आहार की व्यवस्था न करें।
मुनिराज जब उपवास के पश्चात् आहार चर्या के लिए मथुरा नगरी में आए तो अचानक राजा का खास हाथी पागल हो गया अतः वे उसे बंधवाने के प्रबन्ध में लग गये अत: उन्हें मुनि को पारणा कराने की बात याद न रही। सो मुनिराज शहर में इधर—उधर घूमकर वापस वन में लौट गए। शहर के अन्य किसी गृहस्थ ने उन्हें इसलिए आहार नहीं दिया कि राजा ने उन्हें सख्त मना कर दिया था। पुनः दोबारा जब वे शहर में आहार को आए तो राजा शहर के किसी मुहल्ले में भयंकर आग लगने से व्याकुल होने के कारण आहार देना भूल गये। यही क्रम तीसरी बार भी हुआ कि मुनिराज के आहारदान के समय ही राजा उग्रसेन के पास जरासंध राजा का कोई आज्ञापत्र आ गया सो उसकी चिन्ता में वह आहार देना भूल गया।
मुनि आज भी पूरे शहर में घूमकर वापस जाने लगे। राजाज्ञा के कारण किसी भी गृहस्थ ने उनको पड़गाहन नहीं किया और शारीरिक कमजोरी के कारण मुनिराज जमीन पर गिर पड़े। वशिष्ठ मुनि की यह दुर्दशा देखकर एक वृद्धा माँ के मुँह से निकल गया—
‘‘हाय ! यहाँ का राजा कितना दुष्ट है जो न तो मुनिश्री को स्वयं आहार देता है और न दूसरों को देने देता है। हे देव ! तुमने एक निरपराधी मुनि की व्यर्थ ही जान ले ली।’’
वृद्धा की बात मुनि ने सुन ली और राजा की दुष्टता पर उन्हें तीव्र क्रोध आ गया। उन्होंने अपने स्थान पर जाकर ऊपर से तो समाधिमरण कर लिया किन्तु अन्तरंग में उग्रसेन से बदला लेने के तीव्र भाव करके निदानबन्धपूर्वक मरण किय्ाा। जिसके फलस्वरूप वे उग्रसेन की पत्नी पद्मावती के गर्भ में आ गये। पद्मावती ने अशुभ दोहलों से जान लिया कि मेरे गर्भ से किसी पापी बालक का जन्म होने वाला है। निमित्तज्ञानियों से उसे कुल का घातक जानकर बालक के जन्मते ही माता-पिता ने एक कांसे के सन्दूक में बन्द करके उसे नदी में प्रवाहित कर दिया।
कांसे की सन्दूक में होने के कारण उसका पालन करने वाली मालिन ने इस पुत्र का नाम रखा कंस। कालान्तर में कंस को ज्ञात हो गया कि उग्रसेन मेरा पिता है, पूर्वजन्म के संस्कारवश उसके मन में उग्रसेन से बदला लेने की भावना जागृत हो गई। पुनः राजा जरासन्ध की युद्ध में सहायता करने से वह राजजमाई होने के साथ-साथ उनके राज्य के कुछ हिस्से का स्वामी भी बन गया। उसके पश्चात् सर्वप्रथम उसने मथुरा नगरी पर ही चढ़ाई करके पिता उग्रसेन को बन्दी बनाया, उन्हें कारावास में खूब कष्ट देता रहा, पुनश्च देवकी के पुत्र श्री कृष्ण ने कंस को मारकर अपने नाना उग्रसेन को कारागृह से मुक्त किया।
इस कथानक से यहाँ सिद्ध होता है कि तपस्या के साथ-साथ परिणाम में समता का होना अति आवश्यक है अन्यथा उग्रोग्र तपस्या भी व्यर्थ हो जाती है अतः आत्मा के प्रति लक्ष्य करके की गई तपस्या ही सार्थक समझनी चाहिए। प्रत्येक प्राणी की आत्मा निश्चयनय से चिच्चैतन्य स्वरूपी है, उस अतिशयशाली चैतन्यरूपी तेज का वर्णन करते हुए आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी अपने पद्मनन्दिपंचविंशतिका’’ ग्रंथ के ‘‘सद्बोधचन्द्रोदय’’ नामक अधिकार में कहते हैं—
रथोद्धता छन्द—
भूरिधर्मयुतमप्यबुद्धिमानन्धहस्तिविधिनावबुध्य यत्।
भ्राम्यति प्रचुरजन्मसंकटे पातु वस्तदतिशायि चिन्महः।।
अर्थात् जिस प्रकार अंधे के आँखों के न होने के कारण वह हाथी के समस्त स्वरूप को नहीं देख सकता इसलिए उस अन्धे द्वारा बतलाया हुआ हाथी का स्वरूप जिस प्रकार प्रमाणभूत नहीं माना जाता उसी प्रकार अज्ञानी द्वारा जाना हुआ अनेकान्तात्मक चैतन्यतेज प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता है अतएव अज्ञानी चैतन्य स्वरूप को जानता हुआ भी संसार में ही भ्रमण करता रहता है इसलिए ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा अतिशयशाली चैतन्यरूपी तेज सदा आपकी रक्षा करे।
आचार्य कहते हैं कि यह चैतन्य नाम का तत्त्व प्राणी की आत्मा में ही है किसी अन्य स्थान में नहीं है किन्तु जो मनुष्य आत्मा से भिन्न किसी दूसरे स्थान में चैतन्यरूपी तत्त्व को खोजते हैं वे मूढ़वुद्धि मनुष्य वैसा ही काम करते हैं जैसा कि मुट्ठी में रखी हुई वस्तु को वन में जाकर ढूंढना।
कहने का तात्पर्य यही है कि निश्चयनय से प्रत्येक आत्मा चैतन्य स्वरूप भगवान आत्मा है जैसा कि गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने पद्य रचना में लिखा है—
निश्चयनय से यह आत्मा तो, रस गंध वर्ण स्पर्श रहित।
नारक तिर्यंच गती विरहित, संस्थान गुणस्थानादि रहित।।
आगे पद्मनन्दि आचार्य विरोधाभास अलंकार का प्रयोग करते हुए शंका करते हैं कि जो आत्मा कर्मबन्धन से सहित है वह कर्मबन्धन से रहित वैâसे हो सकता है ? जो समल है वह निर्मल वैâसे हो सकता है? तथा जो देह सहित है वह देह रहित वैâसे हो सकता है ? पुनः स्वयं आचार्य समाधान भी करते हैं कि यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से यह आत्मा कर्मबन्धन से सहित है परन्तु शुद्ध निश्चयनय से वह निर्मल है और चूँकि आत्मा व्यवहारनय से देह से सहित है तो भी शुद्ध निश्चयनय से उसका कोई शरीर नहीं है।
अर्थात् किसी अपेक्षा से आत्मा कर्मबन्ध से सहित है तथा किसी प्रकार से कर्मबन्धन से रहित है और किसी अपेक्षा से रागद्वेष से मलिन है तथा किसी अपेक्षा से निर्मल है और किसी अपेक्षा से आत्मा शरीर सहित है, तथा किसी अपेक्षा से शरीर से रहित है। इस प्रकार आत्मा अनेक धर्मात्मक है, एक धर्मात्मक नहीं ऐसा विश्वास रखना चाहिए।
शुद्ध निश्चयनय को जानने वाले योगी को किसी प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव नहीं करना पड़ता। जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण से पूर्णतया स्पष्ट है—
अयोध्या नगरी में सिद्धार्थ नाम के नामी सेठ हुए हैं उनके सुन्दर-सुन्दर बत्तीस स्त्रियाँ थीं पर दुर्भाग्यवश किसी के भी सन्तान नहीं थी। सेठ की खास प्राणप्रिया जयावती पुत्र प्राप्ति के लिए अनेक देवों की पूजा-मान्यता किया करती थी।
एक दिन उसे उन देवों की पूजा करते एक दिगम्बर मुनिराज ने देख लिया। उन्होंने उससे कहा—पुत्री ! जिस आशा से तू इन देवों की पूजा करती है वह तेरी आशा ऐसा करने से सफल न होगी। इस प्रकार मुनिराज के समझाने पर जयावती को जिनधर्म पर श्रद्धा हो गई। चलते समय उसे ज्ञानी मुनि ने यह भी कह दिया था कि जिसकी तुझे चाह है वह चीज तुझे सात वर्ष के भीतर-भीतर प्राप्त हो जायेगी। यह सुनकर जयावती अत्यन्त प्रसन्न हुई।
समय बीतने पर जयावती ने पुत्र रत्न को जन्म दिया जिसका नाम सुकौशल रखा। सेठ सिद्धार्थ ने पुत्र का मुखचन्द्र देखकर और अपने सेठ पद का उसके ललाट पर तिलक कर दिया एवं आप भी नयन्धर मुनिराज के पास दीक्षा ले ली। उनकी इस कठोरता पर जयावती को न सिर्फ सिद्धार्थ पर गुस्सा आया बल्कि मुनि मात्र पर उसकी अश्रद्धा हो गई। युवावस्था होने पर सुकौशल का अच्छे-अच्छे घराने की बत्तीस कन्या रत्नों से विवाह हुआ। सुकौशल के दिन अब बड़े ऐशो आराम के साथ बीतने लगे।
एक दिन सुकौशल अपनी माँ, स्त्री और धाय के साथ बैठा अयोध्या की श्ाोभा निहार रहा था तभी उसने एक मुनिराज को देखा। ये मुनि इसके पिता सिद्धार्थ ही थे। दिगम्बर मुनि को पहली बार देखकर उसने माँ से पूछा—माँ! यह कौन हैं ? जयावती घृणा और क्रोध से बोली—होगा कोई भिखारी, तुझे इससे क्या मतलब ? सुकौशल को संतोष न हुआ, उसने कहा—जब तक मैं उन महापुरुष का सच्चा हाल न सुन लूँगा, भोजन नहीं करूँगा। जयावती वहाँ से उठकर चली गयी तब सुनन्दा धाय ने सब कह दिया। वह सिद्धार्थ मुनि के पास गया। मुनिश्री के द्वारा मुनिधर्म और गृहस्थधर्म का उपदेश सुनने पर उसे मुनिधर्म बहुत पसन्द आया। वह घर आकर अपनी स्त्री के गर्भस्थ शिशु को सेठपद का तिलक कर, वैराग्य भाव से सिद्धार्थ मुनि से दीक्षा लेकर योगी बन गया। माँ जयावती इस चिन्ता, दुःख एवं आर्त्तध्यान से मरकर मगध देश के मौद्गिल नामक पर्वत पर व्याघ्री हुई, वह अपने तीन बच्चों के पर्वत पर रहती थी।
किसी समय सिद्धार्थ और सुकौशल मुनि विहार करते हुए उसी पर्वत पर पहुँचे। उसी समय जबकि ये सन्यास लेकर बैठे थे, व्याघ्री ने उन्हें खाना शुरू किया। सुकौशल को खाते-२ उनका हाथ खाते समय उनके लाञ्छनों को देखकर ‘यह मेरा पुत्र है’ यह जानकर उसे बड़ी ग्लानि हुई। ये पिता—पुत्र समाधि से शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में जाकर देव हुए। ये दोनों मुनिराज आप भव्यजनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें।
ऐसे अनेक उदाहरण हमारे ग्रन्थों में पढ़ने को मिलते हैं। इन दृष्टान्तों से यह स्पष्ट है कि हमारी आत्मा परमात्मा तभी बन सकती है जबकि हम अपने भाव निर्मल और कोमल बनाएँगे। यदि हम सदा अपने शरीर को सजाने और संवारने में लगे रहें तो हमारा कल्याण नहीं हो सकता है, जैसा कि कहा भी है—
यद्देहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम्।
यज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकारकम्।।
अर्थात् जिन वस्तुओं के द्वारा शरीर का उपकार होता है उसके द्वारा आत्मा का अपकार होता है तथा जिन व्रत, उपवास आदि के द्वारा आत्मा का उपकार होता है उसके द्वारा शरीर का अपकार होता है। कहने का आशय यही है कि तप आदि के द्वारा शरीर भले ही कृश हो जाता है लेकिन आत्मा की शक्ति का विकास होता है इसलिए शुद्धात्मतत्त्व का चिन्तन करके ही अपने परम लक्ष्य की सिद्धि हो सकती है ऐसा श्रद्धान करना चाहिए। जो मनुष्य चैतन्य स्वरूप आत्मा में लीन है वह समस्त योगियों में उत्तम है इस बात को आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी अपने पद्मनन्दिपंचविंशतिका ग्रंथ के ‘‘सिद्बोधनचन्द्रोदय’’ नामक अधिकार में इस प्रकार कहते हैं—
चित्स्वरूपपदलीनमानसो, यः सदा स किल योगिनायकः।
जीवराशिरखिलाश्चिदात्मको, दर्शनीय इतिचात्मसन्निभः।।
अर्थात् जिस योगी का चित्त, चैतन्यरूप जो मोक्षपद, उसमें लगा हुआ है वही योगी समस्त योगियों में उत्तम है तथा वही योगी समस्त चैतन्यस्वरूप प्राणियों को अपने समान देखता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि यों तो वेषधारी बहुत से योगी संसार में देखने में आ सकते हैं किन्तु वास्तविक योगी वही है जिसका चित्त सांसारिक सुखों से सर्वथा विरक्त है और चैतन्यस्वरूप उत्तम पद में लगा हुआ है। वही मनुष्य सभी प्राणियों को अपने समान देखता है अन्य योगी नहीं।
आगे आचार्यश्री का कहना है कि—संसार में भव्य जीवों को त्यागने योग्य पदार्थ तो स्त्री, पुत्र, धन, धान्य आदि हैं तथा ग्रहण करने योग्य चैतन्य स्वरूप है इस प्रकार विचार कर जो भव्यजीव स्त्री, पुत्र, धन आदिक त्यागने योग्य पदार्थों का त्याग करता है उस मनुष्य की बुद्धि अवश्य ही निर्लोभी, उत्तम गुरुओं के उपदेश से अचल तथा अविनाशी, चैतन्यस्वरूप को प्राप्त होती है इसीलिए निश्चल चैतन्यस्वरूप के अभिलाषी भव्य जीवों को अवश्य ही हेय पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए अर्थात् प्रत्येक प्राणी को प्रतिक्षण यही चिन्तन करना चाहिए कि आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है। इन्हीं शुभ भावों को श्री मंगतराय जी ने अति सुन्दर ढंग से संजोया है—
जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख दुःख का भोगी।
और किसी का क्या इक दिन यह देह जुदी होगी।।
अर्थात् जब यह शरीर ही अपने साथ जाने वाला नहीं है तो स्त्री-पुत्र, धन, धान्य आदि की तो बात ही क्या? जिस योगी को इस बात का भलीभाँति ज्ञान हो गया है और जिसकी इच्छा मोक्षस्थान में निवास करने की है उस योगी के मन में स्त्री, पुत्र आदि को देखकर अंशमात्र भी क्षोभ नहीं होता। यह तो सभी जानते हैं कि प्रत्येक जीव स्वयं अपने कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है। ऐसा तो कभी देखने या सुनने में नहीं आया कि कर्म कोई करे और उसके फल को उसके स्त्री—पुत्र भोगें।
अब आगे आचार्य योगी के करने योग्य कार्य अर्थात् ध्यान का स्वरूप बताते हुए कहते हैं—
ध्यान से ही तो मनुष्य बंधन को प्राप्त होता है तथा ध्यान से ही मोक्ष को प्राप्त होता है, इस प्रकार ध्यान का मार्ग अत्यन्त कठिन है किन्तु जो भव्य जीव मोक्ष के अभिलाषी हैं उनको यह समस्त ध्यान का मार्ग गुरू के उपदेश से समझना चाहिए अर्थात् कहने का तात्पर्य यही है कि आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन चार ध्यानों में से जो मनुष्य जैसा ध्यान करता है उसको उसी प्रकार के फल की प्राप्ति होती है इसीलिए मोक्षाभिलाषियों को चाहिए कि वे मोक्ष के कारणभूत ध्यान अर्थात् धर्म और शुक्लध्यान को ही गुरू के उपदेश से समझें तथा संसार के जो कारण आर्त और रौद्रध्यान हैं उसकी ओर दृष्टि न देवें। यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि प्राणी अपने चित्त को एकाग्र करे, उसे दुर्ध्यानों की ओर जाने से रोके क्योंकि मन की एकाग्रता ही ध्यान है। यही ध्यान संयमी को सुसमाधि की प्राप्ति कराने में सहकारी होता है। समाधि रूपी कल्पवृक्ष मुनियों को वांछित फल देने वाला है, इस बात को बताते हैं—
चित्तमत्तकरिणा न चेद्धतो, दुष्टबोधवनवन्हिनाथवा।
योगकल्पतरुरेष निश्चितं, वाञ्छितं फलति मोक्षसत्फलम्।।
अर्थात् यदि समाधि रूपी कल्पवृक्ष मनरूपी मतवाले हाथी से नष्ट न किया जाए और मिथ्याज्ञान रूपी वनाग्नि से भस्म न किया जाए तो वह अवश्य ही वांछित मोाक्ष रूपी श्रेष्ठ फल को देता है।
अथवा यों कह सकते हैं कि जिस प्रकार वन में खड़े हुए कल्पवृक्ष को यदि मत्त हाथी नष्ट न करे अथवा वन की अग्नि भस्म न करे तो वह अवश्य ही उत्तम तथा मिष्टफल को देता है उसी प्रकार यह समाधि भी यदि खोटे विषयों में प्रवृत्त मन से नष्ट न होवे और मिथ्याज्ञानपूर्वक न की जाए तो अवश्य ही मोक्ष को देने वाली होती है इसीलिए जो मुनि मोक्षरूपी उत्तम फल के इच्छुक हैं उनको चाहिए कि वे अपने मन को वश में रखें और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही समाधि का आचरण करें अन्यथा उनको उत्तम फल की प्राप्ति नहीं होगी।
प्रायः यह देखने में आता है कि जो मुनि व्यवहार से भी अपनी आत्मा का श्रद्धान करते हुए उसका चिंतन करने वाले हैं उनको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्र रूपी रत्नों की प्राप्ति होने के कारण किसी प्रकार की नरक आदि गतियों में नहीं जाना पड़ता इसीलिए दुःख से सदा भय करने वाले मनुष्यों को आत्मा का ही चिंतवन करना चाहिए क्योंकि यह तो सभी जानते हैं कि निश्चयनय से प्रत्येक प्राणी की आत्मा शुद्ध, बुद्ध, सिद्धस्वरूप, नित्य, निरञ्जन परमात्मा है। इन्हीं भावों को पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने इन्द्रध्वज विधान की एक जयमाला की पंक्तियों में बहुत ही सुन्दर ढंग से पिरोया है—
हे देव! आज शुद्ध आत्म तत्त्व जान के।
मैं सिद्ध के समान हूँ श्रद्धान ठान के।।
हे नाथ! मेरी पूरिये बस एक कामना।
ना होवे फेर-फेर यहाँ भव में आवना।।
इस प्रकार की शुभ भावनाएँ ही उत्तम पद में पहुँचाती हैं क्योंकि जिस प्रकार सुवर्ण से सुवर्ण की तथा लोह से लोह की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार शुद्ध परमात्मा की भावना करने से शुद्धपद-मोक्षपद की प्राप्ति होती है तथा अशुद्ध भावना से नरकादि पद की प्राप्ति होती है। इसी शृंखला में आचार्य आगे बताते हैं कि परमात्मा को जानने वाले योगी को किसी प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव नहीं करना पड़ता—
कर्मभिन्नमनिशं स्वतोऽखिलं, पश्यतो विशदबोधचक्षुषा।
तत्कृतेऽपि परमात्मवेदिनो, योगिनो न सुखदु:खकल्पना।।
अर्थात् समस्त कर्म मुझसे भिन्न हैं, इस प्रकार निरन्तर अपने दिव्य सम्यग्ज्ञान रूपी चक्षु से देखने वाले तथा परमात्मा को भलीभाँति जानने वाले योगी के कर्म से उत्पन्न सुख—दु:ख के होने पर भी सुख—दु:ख की कल्पना नहीं होती। इसका एक बहुत ही सुन्दर कथानक पुराणों में आता है जो कि इस प्रकार है—
मगधदेश के अन्तर्गत राजगृह नाम का सुन्दर शहर है, वहाँ राजा श्रेणिक अपनी रानी चेलना और पुत्र वारिषेण के साथ सुखपूर्वक रह रहे थे।
एक दिन मगधसुन्दरी नाम की वेश्या ने राजगृह के उपवन में श्रीकीर्ति नामक सेठ के गले में सुन्दर रत्नों का हार देखा। रात में अपने प्रेमी विद्युत्चोर से वह हार लाने को कहा। वह उसी समय श्रीकीर्ति सेठ के महल पहुँचकर बड़ी फुर्ती से हार चुराकर भागा लेकिन हार के दिव्य तेज के कारण सिपाहियों ने उसे देख लिया और पकड़ने को दौड़े। वह श्मशान की ओर भागा। उस समय वारिषेण श्मशान में कायोत्सर्गपूर्वक ध्यान कर रहा था। विद्युत् चोर वह हार वारिषेण के आगे डालकर खुद भाग गया। वारिषेण के पास हार पड़ा देखकर तथा उसे ही चोर समझकर सिपाही उसे राजा के पास ले गए। अपने पुत्र को इस प्रकार देखकर वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर बोले—जाओ, इसे ले जाकर मार डालो।
वारिषेण को बध्यभूमि में ले जाकर ज्यों ही जल्लाद ने उसकी गर्दन पर तलवार मारी, यह क्या ! वह तलवार की धार तो फूलों की माला बन गई।
यह आश्चर्य देखकर सब लोग जय—जयकार करने लगे। राजा श्रेणिक को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने बहुत कुछ पश्चाताप करके पुत्र के पास श्मशान में आकर क्षमायाचना की।
यह है ध्यान की महिमा! इतना सब कुछ होने पर भी वारिषेण ने अपना धैर्य नहीं छोड़ा। इस प्रकार मोक्षाभिलाषी मुनियों को इसी तरह का ध्यान करना चाहिए जिससे कि उन्हें अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति हो सके।
अब आचार्य श्री पद्नन्दिस्वामी ने ‘‘शुद्धात्मा की परिणति रूप धर्म’’ नामक अधिकार में चिच्चैतन्य स्वरूप आत्मा का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है तथा योगियों के करने के लिए कार्य अर्थात् ध्यान का अनोखा विवेचन प्रस्तुत किया है जिसे पढ़ते-पढ़ते पाठकगण वास्तव में आत्मा के िंचतन में निमग्न हो जाते हैं। जैसा कि मैंने एक ध्यान के गीत में निम्न पंक्तियाँ निबद्ध की हैं—
न मैं हूँ किसी का न कोई हमारा,
सभी से जुदा आत्मा है हमारा।
उसे ‘‘चन्दना’’ खोज करने से पाएं,
भटकते विचारों को मन से हटाएँ।।
अब आगे आचार्य भव्य जीवों को सम्बोधित करते हुए मानव जन्म की दुर्लभता को बताते हुए कहते हैं—
शार्दूलविक्रीडित—
यद्येकत्र िदने न भुक्तिरथवा, निद्रा न रात्रौ भवेत्। विद्रात्यम्बुजपत्रवद्दहनतोभ्याशस्थिताद्यद्ध्रुवम्।
अस्त्रव्याधिजलादितोऽपि सहसा, यच्च क्षयं गच्छति। भ्रातः काश्यशरीरके स्थितिमतिर्नाशेऽस्यकोविस्मयः।।
अर्थात् यदि एक दिन खाना न खाया जाए अथवा रात्रि में सोया न जाए तो यह शरीर उसी प्रकार मुरझा जाता है जिस प्रकार अग्नि के पास रखा हुआ कमलपत्र मुरझा जाता है तथा हथियार, रोग, जल, अग्नि आदि से भी यह शरीर पल भर में नष्ट हो जाता है इसलिए आचार्य कहते हैं कि हे भाई ! ऐसा शरीर कब तक रहेगा ऐसा कोई निश्चय नहीं है अथवा यह जल्दी नष्ट होगा इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं अतः इस शरीर में किसी प्रकार की ममता न रखकर अपनी आत्मा का कल्याण करो क्योंकि इसी मनुष्य पर्याय से ही भव्यात्मा शुभ कर्मों को कर-करके क्रम से मोक्ष रूपी लक्ष्मी को पाकर हमेशा-हमेशा के लिए निश्चिंत हो सकता है।
संसार में जिस चीज की उत्पत्ति होती है उसका विनाश अवश्य होता है अथवा यों कह लीजिए उत्पत्ति और विनाश दोनों एक—दूसरे के पूरक हैं। इस बात को आचार्य कहते हैं—
उदेति पाताय रविर्यथा तथा, शरीरमेतन्ननु सर्वदेहिनाम्।
स्वकालमासाद्यऽनिजेऽपि संस्थिते, करोति कः शोकमतः प्रबुद्धम्।।
तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य अस्त होने के लिए उदित होता है उसी प्रकार यह शरीर भी निश्चय से नाश होने के लिए ही उत्पन्न होता है इसलिए स्वकाल के अनुसार अपने प्रिय स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर भी हिताहित को जानने वाले मनुष्य कदापि शोक नहीं करते हैं बल्कि यही चिन्तन करते हैं कि हमारी आत्मा तो अविनाशीक है वह कभी मरता ही नहीं है।
यह बात आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है कि प्राणी का शरीर क्षण-क्षण नष्ट होता है, इन्हीं भावों को कवि श्री मंगतराय जी ने बारह भावना में व्यक्त किया है—
‘‘ओस बूंद ज्यों गलै धूप में, वा अंजुलि पानी। छिन छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी।।
जिस प्रकार प्रातःकाल धूप निकलने के बाद घास पर पड़ी हुई ओस की बूंद सूखने लगती हैं तथा जिस प्रकार अंजुलि में भरा हुआ पानी धीरे-धीरे टपकता जाता है ठीक उसी प्रकार हे भव्यात्माओं ! यह शरीर पल-पल में नष्ट होने वाला है। आगे आचार्य सर्व कर्मों से विमुक्त सिद्धों के अष्ट गुणों को बताते हुए सिद्धों की शरण ही मेरे लिए उपादेय है, ऐसा कथन करते हैं—
जातिर्याति न यत्र यत्र च मृतो, मृत्युर्जरा जर्जरा।
जाता यत्र न कर्मकायघटना नोवाग्रुजो व्याधयः।।
यत्रात्मैवपरं चकास्ति विशदं, ज्ञानैकमूर्तिर्विभु।
र्नित्यंतत्पदमाश्रितो निरुपमा सिद्धा सदा पान्तु वः।।
अर्थात् जहाँ पर न जन्म है, न मरण है, न जरा है, न कर्मों का तथा शरीर का सम्बन्ध है, न वाणी है और न रोग है तथा जहाँ पर निर्मलज्ञान का धारण करने वाला और प्रभु आत्मा सदा प्रकाशमान है ऐसे उस अविनाशी पद में रहने वाले उपमारहित अर्थात् जिनको किसी की उपमा ही नहीं दे सकते ऐसे सिद्ध भगवान मेरी रक्षा करें अथवा ऐसे सिद्धों की मैं शरण लेता हूँ।
यह सत्य ही है कि सभी जीवों की अभिलाषा सदैव यही रहती है कि हमको सुख मिले।
‘‘जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख-चाहें दुःख तें भयवन्त।।’’
परन्तु यदि अनुभव किया जावे तो वास्तविक सुख मोक्ष में ही है और उस मोक्ष की प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्र स्वरूप रत्नत्रय के धारण करने से ही होती है और उस रत्नत्रय की प्राप्ति निर्ग्रन्थ अवस्था में ही होती है क्योंकि आचार्यों ने कहा है—‘‘णिप्पिच्छो णत्थि णिव्वाणं’’
अर्थात् बिना पिच्छिका लिए कोई भी निर्वाण पद की प्राप्ति नहीं कर सकता है अतः इस दुर्लभ मनुष्य पर्याय को पाकर साधु अवस्था अवश्य धारण करनी चाहिए तथा उस दिगम्बर अवस्था को धारण करके जो मुनि उग्र तपश्चरण करते हैं, उनका कथन किया गया है—
शार्दूलविक्रीडित—
ग्रीष्मे भूधरमस्तकाश्रितशिलां, मूलः तरो प्रावृषि।
प्रोद्भूते शिशिरे चतुष्पथ पदं, प्राप्ताः स्थििंत कुर्वते।
ये तेषां यमिनां यथोक्ततपसां, ध्यानप्रशान्तात्मनां।
मार्गे संचरतो मम प्रशमिनः, कालः कदा यास्यति।।
अर्थात् जो योगीश्वर ग्रीष्मऋतु में पहाड़ों के अग्रभाग में स्थित शिला के ऊपर ध्यान रस में लीन होकर रहते हैं तथा वर्षाकाल में वृक्षों के मूल में बैठकर ध्यान करते हैं तथा शरद ऋतु में चौड़े मैदान में बैठकर आत्मचिंतवन करते हैं शास्त्र के अनुसार उन तप के धारी तथा ध्यान से जिनकी आत्मा शान्त हो गई है, ऐसे योगीश्वरों के मार्ग में गमन करने के लिए मुझे भी कब वह समय मिलेगा अर्थात् शीघ्र ही मुझे भी वह शुभ क्षण प्राप्त हो। इस श्लोक के पद्यानुवाद में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने लिखा है—
ग्रीष्म ऋतु पर्वत चोटी पर वर्षा ऋतु में तरु के नीचे।
अतिशीत तुषार समय बाहर चौपथ में जो स्थित होते।।
उन ध्यान प्रशान्तात्मक यथोक्त तपयुत मुनियों के मारग में।
मैं शान्तचित्त संचरण करूँ वह दिन कब आएगा प्रभु मैं।।
इस प्रकार ऐसा कठिन तपश्चरण करने वाले मुनि सर्वदा सभी के लिए वन्दनीय हैं किन्तु—
‘‘ये गुरुं नैव मन्यन्ते, तदुपास्तिं न कुर्वते।
अंधकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।।’’
जो मनुष्य उन गुरुओं को नहीं मानते हैं तथा उनकी सेवा—वन्दना नहीं करते हैं उन मनुष्यों के लिए सूर्य के उदय होने पर भी अंधकार ही है अर्थात् जो मनुष्य परिग्रह रहित तथा ज्ञान, ध्यान, तप में लीन गुरुओं को नहीं मानते हैं तथा उनकी उपासना, भक्ति आदि नहीं व्ाâरते हैं उन पुरुषों के अन्तरंग में अज्ञानरूपी अंधकार सदा विद्यमान रहता है इसलिए सूर्य के उदय होने पर भी अन्धे ही बने रहते हैं अतः भव्यजीवों को चाहिए कि वे अज्ञान रूपी अन्धकार के नाश करने के लिए गुरुओं की सेवा करें। आगे आचार्य बताते हैं कि सिद्धों का स्वरूप कौन भलीभाँति जान सकता है—
शार्दूलविक्रीडित—
स्याच्छब्दामृतगर्भितागममहा, रत्नाकरस्नानतो।
धौतायस्यमतिः त एव मनुते, तत्त्वं विमुक्तात्मनः।
तत्तस्यैव तदेवयाति सुमतेः, साक्षादुपादेयतां।
भेदेन स्वकृतेन तेन च विना स्वं रूपमेकम् परम्।।
अर्थात् जिस पुरुष की बुद्धि स्याद्वादरूपी जल से भरे हुए विस्तीर्ण सागर में स्नान करने से निर्मल हो गई है या जो स्याद्वाद का जानकार है वही मनुष्य सिद्धों के स्वरूप को जानता है तथा वही बुद्धिमान उन सिद्धों के स्वरूप को साक्षात् रीति से प्राप्त होता है, या इसे यूं भी कह सकते हैं कि जब तक आत्मा में मेरा-तेरा भेद रहता है तब तक तो आत्मा मलिन ही है किन्तु जिस समय यह भेद बुद्धि नष्ट हो जाती है उस समय मलिनता रहित होने के कारण अपनी आत्मा का स्वरूप ही सिद्धस्वरूप है इसलिए भव्यजीवों को चाहिए कि वे स्याद्वाद के स्वरूप को भलीभाँति पहचान कर सिद्धों के स्वरूप को पहचानें। उस शुद्धात्मा का वास्तविक चिन्तन करने वाले मुनि की कथा इस प्रकार है—
सुमेरु के पश्चिम में विदेह स्थित गन्धमालिनी देश की राजधानी वीतशोकपुर के राजा वैजयन्त के संजयन्त और जयन्त नाम के दो पुत्र थे। दोनों भाइयों ने पिता के साथ दीक्षा धारण कर ली।
एक दिन संजयन्त मुनि ध्यान में मग्न थे कि उसी समय एक विद्युद्दंष्ट्र नाम का विद्याधर आकाश मार्ग से उधर निकला पर मुनि के प्रभाव से उसका विमान आगे नहीं बढ़ पाया, उसने नीचे बैठे मुनिराज को ही विमान को रोकने वाले समझकर उन पर नाना तरह के उपद्रव करना शुरू कर दिया पर मुनिराज जरा भी विचलित न हुए, यह देखकर उसका क्रोध और भी बढ़ गया। वह अपने विद्याबल से मुनिराज को वहां से उठाकर ले चला और भारतवर्ष में पूर्व दिशा की ओर बहने वाली िंसहवती नाम की बड़ी भारी नदी में डाल दिया। भाग्य से, उस प्रान्त के लोग भी बड़े पापी थे सो उन्होंने मुनि को एक राक्षस समझकर और सर्वसाधारण में यह प्रचार कर कि यह हमें खाने के लिए आया है, पत्थरों से खूब मारा। मुनिराज ने सब उपद्रव बड़ी शान्ति से सहा क्योंकि सच्चे साधु वे ही हैं—
शिखरिणी छन्द—
तृणं वा रत्नं वा रिपुरिव परममित्रमथवा,
स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथा।
सुखं वा दुःखं वा पितृवनमहोत्सौधमथवा,
स्फुटं निर्ग्रन्थानां हृदयमपि समं शान्तमनसाम्।।
अर्थात् निर्ग्रन्थ, शान्तचित्त साधुओं के लिए तृण, रत्न, शत्रु-मित्र, उनकी प्रशंसा हो या बुराई, वे जिएं या मर जायें, उन्हें सुख हो या दुःख तथा महल-शमशान पर समदृष्टि ही रहती है। यही कारण था कि संजयन्त मुनि ने विद्याधरकृत सब कष्ट सहज भाव से सहकर, अपूर्व ध्यान के बल से चार घातिया कर्मों का नाशकर केवली तथा शेष अघातिया कर्मों का नाशकर सिद्ध पद प्राप्त किया। देवों ने आकर उनके निर्वाणकल्याणक की पूजा की। सच ही है! शुद्धात्मा का ध्यान करने से क्या सुलभ नहीं हो सकता ? इसी ग्रन्थ के अन्तर्गत ‘‘शुद्धात्मा की परिणति’’ अधिकार में महान आचार्य श्री ‘‘पद्मनन्दिस्वामी’’ ने ‘‘मोह’’ कर्म को सब कर्मों का राजा कहा है—
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
ऐश्वर्यादिगुणप्रकाशनतया मूढा हि ये कुर्वते,
सर्वेषां टिरिटिल्लितानि पुरतः पश्यन्ति नो व्यापदः।
विद्युल्लोलमपि स्थिरं परमपि स्वं पुत्रदारादिकं,
मन्यन्ते यदहो तदत्र विषमं मोहप्रभो शासनम्।।
अर्थात् आचार्य का कहना है कि मोहरूपी चक्रवर्ती की आज्ञा बड़ी कठोर है। जो मूढ़ पुरुष हैं वे स्वयं को ज्ञानवान-लक्ष्मीवान आदि कहकर अपने गुणों को प्रकाशित करते हैं तथा समस्त पुरुषों के सामने नाना प्रकार की गालियों को बकते हैं किन्तु आने वाली नरक आदि विपत्तियों पर कुछ भी ध्यान नहीं देते तथा बिजली के समान चंचल स्त्री-पुत्र को स्थिर मानते हैं और अपने से भिन्न भी उनको अपना मानते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि पर को अपना मानना तथा चंचल को स्थिर मानना एवं मत्त होकर व्यर्थ ही नाना प्रकार की खराब चेष्टा करना, ये सब मोह के उदय से ही होता है अतः उत्तम पुरुषों को मोह के नाश करने के लिए अवश्य प्रयत्न करना चाहिए। आगे आचार्य ने विद्वानों को सावधान किया है कि वे कभी भी मोह में न फंसें—
मोहव्याधभटेन संसृतिवने मुग्धेणबंधापदे,
पाशाः पंकजलोचनादिविषयाः सर्वत्र सज्जीकृताः।
मुग्धास्तत्र पतन्ति तानपि वरानास्थाय वांछन्त्य हो,
हा! कष्टं परजन्मनेऽपि न विदः क्वीपीतिधिङ्मूर्खताम्।।
अर्थात् जिस प्रकार चिड़ियामार कुछ चावल आदि डालकर वन में जाल बिछा देते हैं उसमें चावलों के लोलुपी नाना प्रकार के कबूतर आदि पक्षी फंस जाते हैं उस ही प्रकार संसार में मोह के उदय से मुग्ध पुरुष विषयों में प्रवृत्त हो जाते हैं तथा नाना प्रकार के दुःखों को भोगते हैं। विद्वान पुरुष विषयों के दुःखों को जानकर उनमें नहीं फंसते हैं तथा उन विषयों की आकांक्षा भी नहीं करते हैं इसलिए सदा सुखी रहते हैं अतः विद्वानों को विषयों की तरफ कदापि ऋजु नहीं होना चाहिए क्योंकि न जाने कितने जन्मों के संचित पुण्य के उदय से यह मनुष्य पर्याय, स्वस्थ शरीर, उत्तम कुल आाfद उत्तम—उत्तम वस्तुएँ प्राप्त हो गई हैं इनका सदुपयोग करना चाहिए। किन्हीं कवि ने एक मुक्तक कहा है—
जो कुछ करना है सो कर लो, सुकृत तरुण अवस्था में।
पैसा पास निरोगी काया, इन्द्रिय ठीक व्यवस्था में।।
कर न सकोगे फिर तुम कुछ भी, बल पौरुष थक जाने पर।
आग लगी कुटिया में फिर क्या, होगा कुंआ खुदाने पर।।
जिस प्रकार जब घर में आग लग जाए तो उसको बुझाने के लिए कुंआ खोदना व्यर्थ रहता है उसी प्रकार शरीररूपी घर में आग लगने से पूर्व ही विद्वानों को अपना कल्याण कर लेना चाहिए किन्तु उस ध्यान-साधना की अवस्था को लोग मौज-मस्ती में गंवा देते हैं परन्तु बाद में उन्हें पश्चात्ताप करना पड़ता है।
ध्यान, त्याग आदि के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं रहती है, जैन सिद्धान्त के अनुसार आठ वर्ष के बाद कोई भी बालक अणुव्रत तो क्या महाव्रत लेने का भी पूर्ण अधिकारी है।
आचार्यों का कहना है कि जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है वे ही अर्हंत कहलाते हैं, उनकी ही शरण लेना चाहिए—
स्रग्धरा छन्द—
वाचस्तस्यप्रमाणा य इह जिनपतिः सर्वविद्वीतरागो,
रागद्वेषादिदोषैरूपहतमनसो नेतस्स्यानृतत्वात्।
एतन्निश्चित्य चित्ते श्रयतवत बुधा विश्वतत्वोपलब्ध्यै,
मुक्तेर्मूलंतमेकं भ्रमति किमु बहुष्वंधवद्दुष्पथेषु।।
अर्थात् जो संसार के समस्त पदार्थों को अच्छी तरह से जानने वाले हैं, वीतराग हैं तथा ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों से रहित हैं उनके ही वाक्य प्रमाण हैं किन्तु उनसे विपरीत जो अल्प ज्ञानी, रागी आदि हैं, उनके वचन असत्य होने से प्रमाण नहीं हैं ऐसा मन में ठानकर हे विद्वानों! केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए मुक्ति के देने वाले उन अरहन्तों का भी आश्रय प्राप्त करो, क्यों व्यर्थ अंधे के समान जहाँ-तहाँ खोटे मार्ग में भटकते-फिरते हो। इस प्रकार के खोटे मार्गों में भटकने से तो मात्र दुख की ही प्राप्ति होती है अतः यदि कोई भव्य प्राणी उत्तम सुख को पाने की इच्छा रखता है तो उसे जिनेन्द्रदेव का स्मरण करके सम्यग्ज्ञानपूर्वक तप आदि पुण्यों को करना चाहिए। जैसा कि कहा भी है—
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
अज्ञोयद्भव कोटिभिः क्षपयति स्वंकर्म तस्माद्वहु,
स्वीकुर्वन् कृतसंवरः स्थिरमना ज्ञानी तु तत्तत्क्षणात्।
तीक्ष्णक्लेशहयोश्रितोऽपि हि पदं नेष्टं तपः स्यन्दनो,
नेयं तन्नयति प्रभुं स्फुटतर ज्ञानैकसूतोज्झितः।।
अर्थात् आचार्य कहते हैं कि अज्ञानी जीव कठोर तप आदि के द्वारा जितने कर्मों को करोड़ वर्ष में क्षय करता है उससे अधिक कर्मों को स्थिरमन होकर संवर का धारी ज्ञानी जीव क्षणमात्र में क्षय कर देता है, सो ठीक ही है क्योंकि जिस तपरूपी रथ में तीक्ष्ण क्लेशरूपी घोड़े लगे हुए हैं किन्तु ज्ञानरूपी सारथी नहीं है तो वह तपरूपी रथ कदापि आत्मारूपी प्रभू को मोक्षस्थान में नहीं ले जा सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार किसी रथ में यद्यपि अच्छे—अच्छे घोड़े मौजूद हैं किन्तु उन घोड़ों को चलाने वाला सारथी नहीं है तो कदापि वह रथ अपने में बैठने वाले को यथेष्ट स्थान पर नहीं पहुँचा सकता, उस ही प्रकार नाना प्रकार के दुःखों को सहनकर पंचाग्नि आदि तप भी किए किन्तु वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जाना तो कदापि उत्तम सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती इसलिए भव्यों को चाहिए कि वे सम्यग्ज्ञानपूर्वक तप को करें तभी उनको उत्तम सुख की प्राप्ति हो सकती है। आत्मा के वास्तविक स्वरूप की पहचान किस कारण से होती है अथवा शुद्धात्मा को वैâसे पहचाना जाता है ? इस बात को बताते हैं—
क्वात्मा तिष्ठति कीदृशः स कलिता केनात्र यस्येदृशी,
भान्तिस्तत्र विकल्पसंभृतमना यः कोऽपि स ज्ञायताम्।
किंचान्यस्य कुतोमतिः परमियं भ्रान्ताऽशुभात्कर्मणो,
नीत्वानाशमुपायतस्तदखिलं जानाति ज्ञाता प्रभुः।।
अर्थात् आत्मा को नहीं जानने वाला यदि कोई मनुष्य किसी को पूछे कि आत्मा कहाँ रहता है ? वैâसा है ? आत्मा को भलीभाँति कौन जानता है ? तो उसको यही कहना चाहिए कि जिसके मन में ‘‘वैâसा है’’ ‘‘कहाँ है’’? इत्यादि विकल्प उठ रहे हैं वही आत्मा है इससे अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है क्योंकि जड़ में ‘वैâसा है’’ ‘‘कहाँ है’’ इत्यादि बुद्धि कदापि नहीं हो सकती परन्तु अशुभकर्म से जीवों की बुद्धि भ्रांत हो रही है इसलिए जब यह आत्मा उन कर्मों को मूल से नाश कर देता है उस समय आपसे आप ही यह अपने स्वरूप को तथा दूसरे पदार्थों को जानने लग जाता है इसलिए आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानने के अभिलाषियों को तप आदि के द्वारा कर्मों के नाश करने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि जब हम पुराण ग्रन्थों को पढ़ते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जिन-जिन मुनियों ने अपनी इन्द्रियों को वश में करके ध्यान, तप आदि किए हैं वे निश्चित ही परम पद को प्राप्त हुए हैं। इसी शृंखला में अभयघोष मुनि की तपस्या का सुन्दर कथानक यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकगण मनोयाग से इसे पढ़ें—
अभयघोष काकन्दी के राजा थे। अभयमती नाम की इनकी रानी थी। एक दिन अभयघोष घूमने के लिए जंगल में गए हुए थे। इसी समय एक मल्लाह एक बड़े और जीवित कछुए के चारों पांव बांध कर उसे लकड़ी में लटकाए हुए ले जा रहा था, पापी अभयघोष ने मूर्खतावश हो अपनी तलवार से उसके चारों पाँवों को काट दिया। कछुआ उसी समय छटपटाकर मर गया। मरकर वह अकामनिर्जरा के फल से इन्हीं अभयघोष के यहाँ चण्डवेग नाम का पुत्र हुआ।
एक दिन राजा को चन्द्रग्रहण देखकर बड़ा वैराग्य हुआ। उन्होंने विचार किया—मैं बड़ा ही मूर्ख हूँ जो आज तक विषयों में फंसा रहा तथा मोह के पापमय जाल में फंसकर मैंने जैनधर्म से विमुख होकर अनेक पाप किए। हाय, मैं अब इस संसाररूपी अथाह समुद्र को पारकर सुखमय किनारे को वैâसे प्राप्त कर सवूँâगा ? इत्यादि प्रकार से विचारकर अभयघोष ने सब राजभार अपने पुत्र कुंवर चण्डवेग को सौंपकर स्वयं जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। इसके बाद अभयघोष संसार-समुद्र से पार करने वाले अपने गुरू महाराज से आज्ञा लेकर अनेक नगरों में धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विहार करने लगे। कितने ही वर्षों बाद वे घूमते-फिरते फिर एक बार राजधानी काकन्दी की ओर आ गए। एक बार ये वीरासन से तपस्या कर रहे थे इसी समय इनका पुत्र चण्डवेग इस ओर आ निकला। चण्डवेग और इसके पिता अभयघोष की पूर्वभव में शत्रुता थी। (चण्डवेग पूर्व भव में कछुआ था और अभयघोष ने उसके पांव काट डाले थे।) सो चण्डवेग की जैसे ही इन पर नजर पड़ी उसे अपने पूर्व भव की याद आ गई। उसने क्रोध से अन्धे होकर उनके भी हाथ-पाँवों को काट डाला।
सच है—धर्महीन अज्ञानीजन कौन सा पाप नहीं कर डालते ?अभयघोष मुनि पर महान उपसर्ग हुआ, पर वे तब भी मेरु के समान अपने ध्यान में दृढ़ बने रहे। अपने आत्मध्यान से वे रत्ती भर भी नहीं विचलित हुए। इसी ध्यान के बल से केवलज्ञान प्राप्त कर अंत में उन्होंने अक्षय सुखरूप मोक्ष लाभ प्राप्त किया।
सत्य ही है ! आत्मशक्ति बड़ी गहन है—आश्चर्य पैदा करने वाली है। देखिए, कहाँ तो अभयघोष मुनि पर दुःसह कष्ट का आना और कहाँ मोक्ष प्राप्ति का कारण दिव्य आत्मध्यान।
जिन्होंने दुःसह परीषह को जीता, आत्मशत्रु राग, द्वेष, मोह, क्रोध, माया, लोभ आदि को नष्ट किया और जन्म-जन्म में दारुण दुःखों के देने वाले कर्मों का क्षयकर मोक्ष का सर्वोच्च सुख ‘‘जिस सुख की कोई कल्पना नहीं कर सकता’’ प्राप्त किया है ऐसे वे सत्पुरुषों द्वारा सेवा किए गए अभयघोष मुनि मुझे भी मोक्ष सुख प्राप्त करने की अपूर्व शक्ति प्रदान करें।
अब आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी आत्मा से शरीर की भिन्नता को बताते हुए कहते हैं—
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
वृक्षाद्वृक्षमिवाण्डजा मधुलिहः पुष्पाच्च पुष्पं यथा,
जीवा यान्ति भवाद्भवान्तरमिहाश्रान्तं तथा संंसृतौ।
तज्जातेऽथ मृतेऽथवान हि मुदशोकं न कस्मिन्नपि,
प्रायः प्रारभतेऽधिगम्य मतिमानस्थैर्यमित्यङ्गनाम्।।
अर्थात् जिस प्रकार पक्षी एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर चले जाते हैं तथा जिस प्रकार भौंरे एक फल से दूसरे फूल पर उड़कर चले जाते हैं उसी प्रकार संसार में अपने-अपने कर्म के वश से जीव निरन्तर एक गति से दूसरी गति में जाते हैं। इस प्रकार प्राणियों की अनित्यता को समझकर विद्वान न तो प्रायः प्राणियों की उत्पत्ति में हर्ष को मानता है और न उनके मरने पर शोक ही करता है।
इसके विपरीत बुद्धिमान प्राणी यही विचार करते हैं कि मैं भी न जाने कितनी बार, कितने ही माता-पिता, भाई, बहनों को रोता हुआ छोड़कर आया हूँ, पर अब मुझे कुछ भी नहीं याद है। मैं अकेला आया हूँ, अकेला ही जाउँâगा। जैसा कि कवि मंगतराय जी ने बारह भावना में लिखा है—
जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख-दुःख का भोगी।
और किसी का क्या इक दिन यह देह जुदी होगी।।
इसी प्रकार पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने दशलक्षण पूजा की जयमाला में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करके वैराग्य का स्रोत प्रवाहित किया है—
निश्चयनय से यह आत्मा तो, रस गंध वर्ण स्पर्श रहित।
नर नारक आदि गती विरहित, संस्थान गुणस्थानादि रहित।।
यद्यपि भव पंच परावर्तन, यह काल अनन्तों से करता।
फिर भी निश्चय से यह आत्मा, है सिद्ध समान सौख्य भरता।।
इन सबको पढ़कर वास्तव में पाठकगण कुछ क्षणों के लिए अपनी आत्मा में लीन हो जाते हैं।आगे आर्चायश्री ने संसारी प्राणी की उपमा चन्द्रमा से की है जो कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करता है—
भ्रमति नभसि चन्द्रः संसृतौ शश्वदंगी,
लभत उदयमस्तं पूर्णता हीनताञ्च।
कलुषित हृदयः सन् याति राशिं च
राशेस्तनुमिह तनुतस्तत्कोत्र मोदश्च शोकः।।
अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा सदा आकाश में भ्रमण करता रहता है उसी प्रकार यह प्राणी भी निरन्तर संसार में एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करता रहता है तथा जिस प्रकार चन्द्रमा उदित होता है और अस्त होता है उसी प्रकार यह प्राणी भी जन्मता तथा मरता है और जिस प्रकार चन्द्रमा और बढ़ता है। उसी प्रकार यह प्राणी भी बालपने से युवावस्था तथा युवावस्था से वृद्धावस्था ऐसे बढ़ता है तथा जिस प्रकार चन्द्रमा कलंकित होकर मीन आदि राशि से कर्क आदि राशि को प्राप्त होता है उसी प्रकार यह प्राणी भी कलुषित चित्त होकर एक शरीर से दूसरे शरीर को धारण करता है इसीलिए भव्य जीवों को संसार की ऐसी वास्तविक स्थिति को भलीभाँति जानकर जन्म—मरण आदि में कदापि हर्ष—विषाद नहीं करना चाहिए।
इन्हीं सब बातों को हमें साधु—मुनिराज बताते हैं। गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कई बार कहा करती हैं कि आचार्य श्री वीरसागर महाराज जी कहा करते थे कि भैया ! तुम लोग गृहस्थाश्रम में जितने सुखी हो उससे गई गुना सुख हमें मुनिमुद्रा में है, अगर विश्वास न हो तो एक बार साधु बनकर देख लो।
वास्तव में यदि विचार करके देखा जाये तो इस अपार संस्ाार से पार करने वाले सच्चे साधु ही होते हैं। निर्ग्रन्थ गुरु वैâसे होते हैं ? इस बात को आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार ग्रन्थ में श्लोक के माध्यम से प्रस्तुत किया है—
विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रहः।
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते।।
अर्थात् जो पंचेन्द्रिय के विषयों की आशा से रहित हैं, सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि हैं, सदा ही ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हैं वे ही तपस्वी साधु सच्चे गुरू हैं।योगियों के ज्ञान, ध्यान, तप इन तीन कर्त्तव्यों में से उन्हें किस प्रकार का ध्यान करना चाहिए, इस बात को पद्मनन्दि आचार्य बताते हैं—
मानसस्य गतिरस्ति चेन्निरालम्ब एव पथि भास्वतो यथा।
योगिनो दृगवरोधकारकः सन्निधिर्न तमसां कदाचन।।
अर्थात् जिस प्रकार सूर्य निरावरण मार्ग में गमन करता है इसीलिए उसका प्रकाश किसी के द्वारा रोका नहीं जाता उसी प्रकार जिस योगी का मन निरालम्ब मार्ग में गमन करता है अर्थात् जिस समय योगी निरालम्ब ध्यान को करता है उस समय उस योगी के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान रूपी तेज को दर्शनावरण, ज्ञानावरण रूपी अंधकार रोक नहीं सकता इसीलिए योगियों को सदा निरालम्ब ध्यान ही करना चाहिए।इस प्रकार के आत्मध्यानियों के लिए आचार्यश्री कहते हैं—
चित्समुद्रतटवद्धसेवया, जायते किमु न रत्नसंचयः।
दुःखहेतुरमुतस्तु दुर्गतिः िंक न विप्लवमुपैति योगिनः।।
अर्थात् जिस प्रकार समुद्र के तट पर रहने वाले मनुष्यों को नाना प्रकार के रत्नों की प्राप्ति होती है तथा उन रत्नों की सहायता से वे धनिक हो जाते हैं और उनको दरिद्रता से पैदा हुआ दुःख कुछ भी नहीं सता सकता उसी प्रकार जो मुनि सदा अपनी आत्मा का िंचतवन करने वाले हैं उनको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यव्âचारित्र रूपी रत्नों की प्राप्ति होती है तथा उन रत्नों की प्राप्ति होने पर उनको किसी प्रकार की नरक आदि गतियों में नहीं जाना पड़ता अतः दुःख से सदा भय करने वाले मनुष्यों को आत्मा का ही िंचतवन करना चाहिए क्योंकि आत्मचिन्तन करने वाले भव्य प्राणियों को एक न एक दिन मुक्तिश्री की प्राप्ति अवश्य होती है।यह बात जगप्रसिद्ध है कि मन बड़ा चंचल होता है। मन को कभी घोड़ा, कभी बन्दर तो कभी पवन की उपमा दे दी जाती है। प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वे मन के वश में न हों बल्कि मन को अपने वश में रखें तथा मन को इस प्रकार समझाने का प्रयास करें—
आर्याछन्द—
नृत्वतरोर्विषयसुखच्छायालाभेन िंक मनः पान्थ।
भवदुःख क्षुत्पीड़ित ? तुष्टोस्ति गृहाण फलममृतम्।।
अर्थात् जिस प्रकार कोई राहगीर यदि अत्यन्त बुभुक्षित होकर वृक्ष के नीचे बैठे और उस पर लगे हुए फल खाने का प्रयत्न न करता हो तो कोई हितैषी मनुष्य वहाँ आकर उसको इस रीति से समझावे कि अरे भाई! तू इस वृक्ष की छाया मात्र के लाभ से क्यों संतुष्ट हो रहा है ? इस वृक्ष पर उत्तम फलों को तोड़कर उनको खा, जिससे तेरी भूख शान्त होवे, उसी प्रकार आत्मा मन को समझाता है कि अरे मन! तू संसार के दुःखों से पीड़ित होता हुआ इस मनुष्य जन्म में इन्द्रियों के विषयों के लाभ से ही क्यों वृथा सन्तुष्ट हो रहा है ? अरे! इस मनुष्य जन्म से ही प्राप्त होने वाले अमृतरूपी फल को प्राप्त कर अर्थात् जिसमें किसी प्रकार का न तो जन्म है और न मरण है ऐसे उस मोक्षपद की ओर दृष्टि लगा क्योंकि विषयों के लाभ से सन्तुष्ट होकर तू संसार से ही भटकेगा और नाना प्रकार के दुःखों को उठाएगा।
भव्यों! ऐसी ही दृष्टि मोक्षमार्ग में लगाना चाहिए जैसी कि कुलभूषण-देशभूषण मुनिराजों ने लगाई। बड़े-बड़े भयंकर काले सांप उनके चारों तरफ स्थित थे लेकिन उन्हें तो कुछ भान ही नहीं था। राम-लक्ष्मण ने उनके इस उपसर्ग को दूर किया। पुनः थोड़ी देर बाद एक डाकिनी भयंकर गर्जना करती हुई प्रकट हुई जिसके भय से उस गाँव के आस-पास के लोग दूसरे गाँव में भाग गये थे। सीता भी उस गर्जना को सुनकर भय से काँपने लगी। तब राम ने सीता को मुनिराज के चरणों के समीप बिठाया और स्वयं लक्ष्मण के साथ युद्ध के लिए तैयार हो गये। तदनन्तर सजल मेघ के समान गरजने वाले एवं महाकान्ति के धारक राम-लक्ष्मण ने अपने-अपने धनुष से टंकारें कीं तो ऐसा जान पड़ा मानो वङ्का ही छोड़ रहे हों। तत्पश्चात् ‘‘ये बलभद्र और नारायण हैं ’’ ऐसा जानकर वह मायावी अग्निप्रभ देव घबड़ाकर भाग गया।
अथानन्तर परम हित की इच्छा करने वाले राम-लक्ष्मण के द्वारा प्रतिहारी का कार्य सम्पन्न होने लगा अर्थात् उपसर्ग दूर किए जाने पर दोनों मुनियों को क्षण भर में केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवों ने आकर केवलज्ञान कल्याणक की पूजा की।धन्य है ऐसा आत्मध्यान ! हम सभी को ऐसे आत्म तत्त्व के ध्यान करने की शक्ति प्राप्त हो यही आत्मभावना है।
शिव शुद्धबुद्धं परं विश्वनाथं, न देवो न बन्धुर्नकर्त्ता न कर्म।
न अंगं न संगं न इच्छा न कायं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्।।
वास्तव में कितने सुन्दर शब्दों के माध्यम से वीतराग स्तोत्र में उन वीतराग परमात्मा को नमन किया है जो कि शुद्ध, बुद्ध, चिदानन्दस्वरूप हैं तथा देव, बन्धु, कर्त्ता, कर्म आदि में सर्वथा भिन्न हैं इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी की आत्मा निश्चयनय से भगवान् आत्मा है जैसा कि मैं कई बार कहा करती हूँ कि—Every human is God, if he has humanity.प्रत्येक मनुष्य भगवान है। पर कब ? जब उसमें ‘‘मानवता’’ नाम का श्रेष्ठ ग्ाुण विद्यमान है। सन् १९६५ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने भी कन्नड़ भाषा की बारह भावना की रचना में आत्मा और शरीर की भिन्नता का सुन्दर वर्णन किया है—
गेहवु नन्नदु देहवु नन्नदु येन्नुवेया बरि मरुडेल्ला।
नेहव माडिद वस्तुगळाववु नित्रोऽनेंदिगु बरलिल्ला।।
नीरू हालू सेरिद परियलि जीव शरीर बगेयुतिरू।
नीननुडिदु बरि हालनेडेव चिर चिन्मय हंस नीनागुतिरू।।
अर्थात् यह घर मेरा है, यह शरीर मेरा है ऐसा कहते हुए यह संसारी प्राणी प्रत्येक वस्तु से स्नेह करते रहते हैं किन्तु वास्तव में कोई भी वस्तु इस जीव के साथ नहीं जाती है। जैसे जल और दूध मिलाने पर एकमेक हो जाते हैं वैसे ही यह जीव और शरीर दोनों एकमेक हो रहे हैं किन्तु इनका लक्षण अलग-अलग है। जल को अलग कर दूध पीने वाले हंस के समान तुम चिन्मय चैतन्य हंस अपनी आत्मा को कर्मों से अलग कर सुखी होवो।इसी प्रकार के वैराग्यपूर्ण विचारों को आचार्यश्री ने ग्रंथ में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उनका मानना यह है कि—
रथोद्धता छन्द—
सुप्त एव बहुमोहनिद्रया, लंघितः स्वमवलादि पश्यति।
जाग्रतोच्चवचसा गुरोर्गतं, संगतं सकलमेव दृश्यते।।
अर्थात् गाढ़ मोह रूपी निद्रा ने जिसके ऊपर अपना प्रभाव डाल रखा है अतएव जो मोहरूपी नींद में मग्न हैं वह मनुष्य अपने से भिन्न स्त्री, पुत्र आदि को अपना मानता है किन्तु जो मनुष्य जग रहा है उस मनुष्य को तो समस्त जगत उत्तम गुरु के उपदेश से क्षणभंगुर ही जान पड़ता है। जैसा कि आप भी प्रतिदिन बारह भावना में पढ़ते हैं—
आप अकेला अवतरै, मरे अकेला होय।
यो कबहूँ इस जीव को, साथी सगा न कोय।।
इस प्रकार की भावना भाते रहने से मरण ‘‘समाधिमरण’’ बन जाता है। निर्मल समाधि की सिद्धि के लिए बुद्धिमान पुरुषों को सर्व पदार्थों में समता भाव रखना चाहिए अर्थात् न तो किसी पदार्थ में अत्यन्त राग ही करना चाहिए और न ही किसी पदार्थ में अत्यन्त द्वेष। इसको एक श्लोक के माध्यम से व्यक्त करते हैं—
जल्पितेन बहुना किमाश्रयेद, बुद्धिमानमलयोगसिद्धये।
साम्यमेव सकलैरूपाधिभिः, कर्मजालजनितैर्विवर्जितम्।।
अर्थात् जब तक पदार्थों में समता नहीं होती तब तक कदापि चित्त की एकाग्रता न होने से निर्मल योग की प्राप्ति भी नहीं हो सकती इसीलिए आचार्यवर्य उपदेश देते हैं कि अधिक कहने से क्या ? जिन मनुष्यों को निर्मल योग को प्राप्त करने की अभिलाषा है उनको चाहिए कि वे समस्त प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हुई उपाधियों से रहित साम्यभाव का ही अवलम्बन करें, जहाँ-तहाँ न भटकते फिरें।
इसके लिए तो सबसे सरल उपाय यह है कि प्रत्येक भव्यात्मा परमात्मा के नाम का स्मरण करे क्योंकि जो प्राणी आत्मा की सिद्धि के लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं करना चाहते वे अगर उन परमात्मा का केवल नाम भी स्मरण करते हैं तो उस मनुष्य के जन्म-जन्म के पापों के समूह पल भर में नष्ट हो जाते हैं। जैसा कि कहा भी है—
अनन्तानन्तसंसार, सन्ततिच्छेद कारणम्।
जिनराजपदाम्भोज, स्मरणं शरणं मम।।
इसके अतिरिक्त उस आत्मा में विद्यमान जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यव्âचारित्र है वे तो इसको परमात्मा ही बना देते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यव्âचारित्र की ओर लक्ष्य देने से तो मनुष्य साक्षात् तीन लोक का पति हो जाता है इसीलिए जो मनुष्य जन्म-जन्म के पापों के नाश करने की इच्छा करने वाले हैं तथा तीनों लोकों के पति होना चाहते हैं उनको चाहिए कि वे अवश्य परमात्मा का नाम लेवें और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्र की ओर ही लक्ष्य देवें।
ज्ञानी पुरुष अपनी आत्मा की इस प्रकार भावना करता है—
अनुष्टुप—कर्मेभ्यः कर्मकार्येभ्यः, प्रथग्भूतं चिदात्मकम्।
आत्मानं भावयेन्नित्यं, नित्यानन्दपदप्रदम्।।
मेरी आत्मा कर्मों से तथा कर्मों के कार्यों से सर्वथा भिन्न हैं तथा चिदानन्दचैतन्य स्वरूप अविनाशी, आनन्द स्वरूप स्थान को देने वाली है ऐसा िंचतवन करने वाला ज्ञानी पुरुष अवश्य ही अपने विशाल संसार समुद्र को लघु करने में सफल हो सकता है। संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक भव्य प्राणी का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही होता है। उस मोक्षरूपी वृक्ष का बीज सम्यग्दर्शन है और उस सम्यग्दर्शन के बिना तो प्राणी अपने कर्मों की निर्जरा नहीं कर सकता है। जैसा कि पं. श्री दौलतराम जी ने छहढाला में लिखा है—
मोक्ष महल की परथम सीढ़ी या बिन ज्ञान चरित्रा।
सम्यव्âता न लहे सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा।।
सम्यग्दर्शन को मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी बताया है। यह सम्यग्दर्शन बड़े ही पुण्य योग से प्राप्त होता है इसीलिए मोक्षाभिलाषियों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाने पर उसकी रक्षा में प्रयत्न करना चाहिए तथा दुर्लभ मनुष्य पर्याय को पाकर जिनमुद्रा धारण करके अपनी आत्मा का चिन्तवन अवश्य करना चाहिए और वह आत्मचिन्तन भी ऐसा करना चाहिए कि कोई भी शक्ति ध्यान से विचलित न कर सके। इसका एक सुन्दर कथानक जैन रामायण पद्मपुराण में वर्णित है—
एक बार महामुनि रामचन्द्र जी ध्यान में लीन थे तब सीता का जीव प्रतीन्द्र अपने अवधिज्ञान से उन्हें देखकर स्नेह से आर्द्र हो वहाँ आता है और सोचता है कि ‘‘मैं इन्हें ध्यान से विचलित कर दूँ तो ये मोक्ष न जाकर हमारे स्वर्ग में आ जायेंगे, यहाँ पर हमारे से मित्रता को प्राप्त होंगे। चिरकाल तक हम दोनों मेरु, नन्दीश्वर आदि की वन्दना कर पुनः मर्त्यलोक में जन्म लेकर एक साथ निर्वाण प्राप्त करेंगे।’’ ऐसा साेचकर वहाँ आकर अपना सीता का रूप बनाकर उन्हें विचलित करने के लिए अनेक उपाय करता है, अनेक स्त्रियों को बनाकर उनके द्वारा गीत, नृत्य, हाव-भाव को प्रदर्शन कराते हुए ध्यान में विघ्न डालना चाहता है किन्तु महामना राम मेरु के समान अचल रहे।
पुनः शुक्लध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र आदि के आसन कम्पित होते ही सब एक साथ वहाँ आ जाते हैं आकाश में अधर गन्धकुटी की रचना हो जाती है। श्रीराम केवली भगवान उसमें कमलासन पर अन्तरिक्ष में विराजमान हैं। चारणऋद्धिधारी मुनि आदि उनकी सभा में आ जाते हैं, इत्यादि अनेक प्रकार के बाह्य एवं अन्तरंग वैभव से वह समवसरण सभा सुसज्जित हो जाती है, यह सब ध्यान का ही प्रभाव है क्योंकि बिना ध्यान के केवलज्ञान की प्राप्ति होना असम्भव है अतः प्रत्येक मनुष्य को जिनधर्म, जिनदीक्षा धारण करके अपनी आत्मा का चिन्तन अवश्य करना चाहिए ताकि परम्परा से शुक्लध्यान की प्राप्ति हो सके। आचार्यश्री पद्मनन्दि स्वामी ने भव्य जीवों के लिए शुद्धात्म तत्व का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है—
वपुरादि परिव्यक्ते, मज्जत्यानन्दसागरे मनसि।
प्रतिभाति यत्तदेकं यजति परं चिन्मयं ज्योतिः।।
अर्थात् जब तक प्राणियों की यह शरीर मेरा है, यह स्त्री मेरी है तथा ये पुत्र धन, धान्य आदिक मेरे हैं, इस प्रकार की शरीर, स्त्री, पुत्र, धन-धान्य आदि पदार्थों में ममता लगी रहती है तब तक किसी को भी उत्कृष्ट चैतन्यरूपी तेज का अनुभव नहीं हो सकता किन्तु जिस समय शरीर आदि से ममता छूट जाती है और मन आनन्द सागर में गोता लगाता रहता है उस समय जो तेज अनुभव में आता है वही चैतन्यस्वरूप उत्कृष्ट तेज है तथा वह तेज सदा इस लोक में जयवंत है। इसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति का उपाय बताते हुए गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मााताजी ने कन्नड़भाषा की बारह भावना में भी लिखा है—
मूजगदलि चिरमिथ्या मायेगे सिलुकुत तिरुगुतलिरुतिहेनु।
आ जिनदेवन काणदे भ्रमेयलि कालवनंतव कळदिहनु।।
ई जगदलि बरि दुःखदल्लदे शाश्वत शान्तयु वित्तिल्ला।
भज भव्यात्मने भवहरदेवने हुट्टु सावुगकु मन्तिल्ला।।
अर्थात् इस जगत में चिरकाल से मिथ्यात्व और मायाचार से यह जीव भ्रमण कर रहा है। श्री जिनेन्द्रदेव के धर्म को नहीं प्राप्त होने से ही इसने अनन्तकाल बिता दिया है। इस जगत में केवल दुःख ही दुःख है शाश्वत शान्ति नहीं है इसलिए हे भव्य जीव ! तुम भव से रहित ऐसे जिनेन्द्रदेव का आश्रय लेवो कि जिससे पुनः तुम्हें इस संसार में जन्म—मरण ही न करना पड़े।
इस प्रकार बार-बार िंचतवन से संसार से भय उत्पन्न होता है तब मोक्ष प्राप्ति के उपाय में प्रवृत्ति होती है।
आगे आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी कहते हैं कि मनुष्यों को अपने पूर्वोपार्जित कर्मों का फल इस भव में प्राप्त होता है। कर्म के वश से राजा भी क्षण भर में निर्धन हो जाता है, समस्त रोगों से रहित जवान पुरुष भी देखते-देखते नष्ट हो जाता है इसलिए समस्त पदार्थों में सारभूत जीवन तथा धन की जब ऐसी स्थिति है तब और पदार्थों की क्या बात ? अर्थात् वे तो अवश्य ही विनाशीक हैं। पुनः इसी कथन की पुष्टि करते हैं—
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
हन्ति व्योम स मुष्टिनाम सरितं शुष्कां तरत्याकुलस्,
तृष्णातोऽथ मरीचिका: पिबति च प्रायः प्रमत्तो भवन्।
प्रोत्तुंगाचलचूलिकागतमरूत्प्रेंखत्प्रदीपोपमै ,
र्यत्सम्पत्सुतकामिनीप्रभृतिभिः कृर्यान्मदं मानवः।।
अर्थात् जिस प्रकार आकाश को मुट्ठी से मारना, सूखी नदी को तिरना और मरीचिका का पीना बिना प्रयोजन का है उसी प्रकार अत्यन्त चंचल तथा विनाशीक सम्पदा, पुत्र—पुत्री आदि में अहंकार करना भी व्यर्थ है। रमात्मप्रकाश ग्रन्थ में भी श्रीयोगीन्द्रदेव ने इसी बात को समझाते हुए कहा है कि—
भव-तणु-भोय-विरत्तमणु, जो अप्पा झाएइ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी, संसारिणि तुट्टेइ।।३२।।
अर्थात् जो जीव संसार, शरीर और भोगों में विरक्तमना हुआ शुद्धात्मा का चिन्तन करता है उसकी मोटी संसाररूपी बेल नाश को प्राप्त हो जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि शुद्धात्मा का ध्यान करने वाले महामुनि शरीर से पूर्ण विरक्त होकर शीघ्र मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
जैसे—शत्रुंजय पर्वत पर ध्यानलीन पाण्डवों ने कुर्युधर के द्वारा किये गये अग्नि उपसर्ग को शुक्लध्यान के द्वारा जीत लिया था, तब उनमें से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन इन तीन पांडवों ने क्षपक श्रेणी आरोहण के कारण अन्तकृत्केवली बनकर मोक्ष प्राप्त किया तथा नकुल और सहदेव इन दो पांडवों ने उपशमश्रेणी मांडने से सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त किया। ये अब मनुष्य का एक भव लेकर नियम से निर्वाण को प्राप्त करेंगे।
ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण आगम में देखे जाते हैं कि प्राणी केवल कथनी के द्वारा नहीं प्रत्युत करनी के द्वारा उत्कृष्ट संयमी बनकर शरीर और आत्मा की भिन्नता को समझ लेते हैं तथा आत्मा में पूर्णतया लीन हो जाते हैं वे ही परमात्मधाम को प्राप्त करते हैं। अन्त में अध्यात्मप्रेमियों के लिए निम्न गाथासूत्र भी दृष्टव्य है—
देहादेवलि जो वसइ, देउ अणाइ—अणंतु।
केवलणाण फुरंत वणु, सो परमप्पु णिभंतु।।
अर्थात् जो व्यवहारनय से देहरूपी देवालय में बसता है और निश्चयनय से देह से भिन्न है। आत्मा देह के समान मूर्तिक और अपवित्र नहीं है, वह महापवित्र है, पूज्य है, आराधने योग्य है। जो परमात्मा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अनादि अनंत है और लोकालोक प्रकाशक होने से केवलज्ञान स्वरूप है वही परमात्मतत्त्व हम सभी के लिए उपादेय है अतः उसी तेजपुंज आत्मा का यथाशक्ति ध्यान आदि करना चाहिए। इस ‘‘पद्मनंदिपंचिंवशतिका’’ ग्रन्थ में आचार्य श्री पद्मनन्दिस्वामी ने अनेक वैराग्यवर्धक श्लोकों के माध्यम से जीवों में शरीर और संसार से विरक्ति की भावना को जाग्रत करने का प्रयास किया है। इसी शृंखला में स्व—पर के विवेक से ही आत्मा पर को छोड़कर शुद्ध होता है, ऐसा आचार्यवर दिखाते हैं—
आर्या छन्द—
स्वपर विभावावगमे, जाते सम्यव्â परे परित्यक्ते।
सहजबोधैकरूपे, तिष्ठत्यात्मा स्वयं शुद्धः।।
अर्थात् जिस समय आत्मा में स्व पर के विभाग का ज्ञान हो जाता है और त्यागने योग्य जो वस्तु उनका त्याग हो जाता है उस समय स्वाभाविक निर्मलज्ञान स्वरूप जो अपना रूप है उसमें आत्मा ठहरता है और पीछे स्वयं शुद्ध हो जाता है।
कहने का तात्पर्य यही है कि ‘‘यह वस्तु मेरी है और यह वस्तु मेरी नहीं है।’’ जब तक इस प्रकार का स्व—पर का विवेक आत्मा में नहीं होता है और जब तक आत्मा परपदार्थों को नहीं छोड़ता है तब तक बाह्य पदार्थों में ही घूमा करता है और स्वरूप में कभी भी स्थिर नहीं रहता इसीलिए शुद्ध भी नहीं होता है किन्तु जिस समय ज्ञान दर्शन आदिक मेरे हैं और रूप, रस आदिक मेरे नहीं हैं, इस प्रकार का आत्मा में विवेक उत्पन्न हो जाता है, तब रूप, रस आदिक जो पर हैं उनसे वह जुदा हो जाता है अतः स्वाभाविक निर्मल-ज्ञानरूप आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है और अत्यन्त शुद्ध हो जाता है।
यह बात सर्वविदित और शत-प्रतिशत सत्य है कि जब तक मनुष्य इष्टवियोग और अनिष्ट संयोग के दुःखों को अपने से पृथव्â नहीं समझेगा तब तक उसे मोक्ष सुख की प्राप्ति कथमपि नहीं हो सकती है। यह तो हमारा विशेष पुण्य है कि हमें मनुष्य जन्म में भी आत्मा और शरीर की भिन्नता को समझने की बुद्धि प्राप्त हुई है। मनुष्य पर्याय की दुर्लभता का वर्णन करते हुए गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘‘अध्यात्म पीयूष’’ नामक स्तुति में लिखा है—
दुर्लभ निगोद से स्थावर, त्रस पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ।
दुर्लभ उत्तम कुल देशधर्म, रत्नत्रय भी पाना दुर्लभ।।
सबसे दुर्लभ निज को पाना, जो नितप्रति निज के पास सही।
दुर्लभ निज को पाकर निज में, स्थिर हो पाऊँ सौख्य मही।।
और भी आचार्य कहते हैं कि जिस मनुष्य को इस प्रकार हिताहित का विवेक नहीं है अर्थात् जो मोही हैं वह मनुष्य ज्ञानावरणादि कर्मों को भी अपना मानता है और कर्मों के कार्य को भी अपना मानता है इसलिए जिस समय सातावेदनीय कर्म के उदय से कुछ सुख होता है उस समय हर्ष मानता है तथा असातावेदनीय कर्म के उदय से जिस समय दुःख होता है उस समय विषाद को करता है अर्थात् दुःख मानता है किन्तु जो मनुष्य बुद्धिमान है अर्थात् जिस मनुष्य को, यह वस्तु मेरे हित को करने वाली है और यह वस्तु मेरे अहित को करने वाली है इस बात का ज्ञान है वह मनुष्य कर्म तथा कर्मों के कार्य को अपना नहीं मानता और सातावेदनीय कर्म के उदय से जिस समय कुछ सुख होता है उस समय हर्ष नहीं मानता है और जिस समय असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख होता है उस समय विषाद नहीं करता क्योंकि वह समझता है कि कर्म तथा कर्मों के जितने कार्य हैं वे सब जड़ हैं और मैं चेतन हूँ इसलिए वे सर्वथा भिन्न हैं।
जैसा कि एक लोकोक्ति जनसाधारण में अत्यन्त प्रसिद्धि को प्राप्त है कि जो मनुष्य धतूरे को खा लेता है उसे पत्थर भी सोना मालूम पड़ता है उसी प्रकार जो मनुष्य मोही हैं वे बाह्य स्त्री-पुत्र आदि विकृति को ही आत्मा मान लेते हैं जबकि इस तथ्य में जरा भी सत्यता नहीं है। आध्यात्मिक दृष्टि से तो आत्मा और शरीर को पृथव्â-पृथव्â ही माना गया है, जो भी महान् आत्मा शरीर की परवाह न करके अपनी आत्मा के ध्यान में लीन रहते हैं वे ही परमगति को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं।
ठीक वैसा ही ध्यान, जैसा कि आज से १३ लाख वर्ष पूर्व हस्तिनापुर की पवित्र धरा पर अकम्पनाचार्यादि सात सौ महामुनियों ने किया था। उनकी ध्यानमग्नता का वह अद्वितीय उदाहरण था कि बलि आदि मंत्रियों द्वारा किए गए अग्नि उपसर्ग को वे बिना विचलित हुए सहन करते रहे पुनः मुनि श्री विष्णुकुमार ने उज्जयिनी नगरी से हस्तिनापुर आकर उस उपसर्ग को दूर किया था लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि उपसर्ग होने तक या उपसर्ग निवारण के पश्चात् भी उन ७०० मुनियों में से किसी ने भी उन मंत्रियों के बारे में कुछ भी बुरा न तो सोचा और न किया बल्कि उन सभी को क्षमा प्रदान किया।
भव्यात्माओं ! इस प्रकार का उत्कृष्ट ध्यान वर्तमान में नहीं हो सकता अतः कम से कम निरन्तर यह भावना भाते रहें कि ‘‘मेरी आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है’’ इस भावना को भाते हुए आप अवश्य ही परमगति के स्वामी बनने में सफल हो सकेंगे।
हैं कितनी विद्वान मगर विद्वत्ता का अभिमान नहीं।
सरल, सहज है प्रवृत्ति माँ तब, है व्यक्तित्व महान सही।
शाश्वत आत्मा की अनंत, शक्ती को जाग्रत करें सदा,
श्रमण संस्कृति धन्य हुई है, पाकर ऐसी दिव्य सुधा।।१।।
पुण्य जगा जो शांतिसिंधु की शांति धरोहर तुम्हें मिली,
वीरसिन्धु की परम्परा में, वीर्यसम्पदा रहे खिली।
ज्ञानमती गुरुसन्निधि से है, आत्मज्ञान वैभव पाया,
ज्ञानमती का ज्ञानपुष्प बन, जग को तुमने महकाया।।२।।
ज्ञान चंदना का दर्शन पा, मन:शान्ति मिल जाती है,
सुख शान्ती की प्राप्त सुगंधी, हृदय सरोज खिलाती है।
जहाँ-जहाँ तव चरण पड़े हैं, लगता आया चौथा काल,
पावन पदरज पाकर जनता झुका रही है अपना भाल।।३।।
कुशल संघसंचालनकर्त्री, मृदुभाषी रखती हैं ध्यान,
आगमचर्या सतत पालतीं, नहीं करें उसमें व्यवधान।
ग्रंथों का लेखन सम्पादन, देता तुम्हें अलग पहचान,
मुक्त कण्ठ से यह साहित्यजगत गाता तेरा अवदान।।४।।
वर्ष बिताए त्रेपन माता, गुरुछाया अनुगामिनि हो,
अनुपम अनुकरणीयभक्ति से आप्लावित पथगामी हो।
गुरुआज्ञा अनुशासन पालन, हरसुकार्य करतीं सम्पन्न,
परम हितैषी ज्ञानसुधाकर, तव चरणों में शत वन्दन।।५।।
शारद माता का रूप दिखाया,
ज्ञान का तूने अलख जगाया।। टेक.।।
दीक्षा लेती न थीं क्वांरी कन्या यहाँ,
बीसवीं सदि में तुमने प्रथम पद लिया।
ज्ञानमति नाम तब तूने पाया, ज्ञान का तूने अलख जगाया।
।।शारद…।।१।।
कोई साहित्य रचना न की साध्वी ने,
सैकड़ों ग्रन्थ अब रच दिए मात ने।
कुन्दकुन्द का पथ दरशाया, ज्ञान का तूने अलख जगाया।
।।शारद…।।२।।
जैन भूगोल रचना नहीं थी कहीं,
मात्र प्राचीन ग्रन्थों में वह थी कही।
जम्बूद्वीप का रूपक दिखाया, ज्ञान का तूने अलख जगाया।
।।शारद…।।३।।
जिनवरों की जनमभूमि विकसित न थीं,
प्रेरणा उनके उद्धार की माँ ने दी।
ऋषभ महावीर नाम गुंजाया, ज्ञान का तूने अलख जगाया।
।।शारद…।।४।।
जैन संस्कृति की तू इक धरोहर है मां,
युग युगों तक जिए तू कहें ‘‘चन्दना”।
धरती चाहे सदा तेरी छाया, ज्ञान का तूने अलख जगाया।
।।शारद…।।५।।