स्रग्धरा-आत्मा जानाति विश्वं ह्यनवरतमयं केवलज्ञानमूर्ति:
मुक्तिश्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति।
शोभां सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेश:
तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलि: स्वस्वरूपं स वेत्ति।।२७२।।
अर्थ-यह केवलज्ञान की मूर्तिस्वरूप आत्मा व्यवहारनय से सदा ही विश्व को जानता है और मुक्तिलक्ष्मी रूपी कामिनी के कोमल मुखकमल पर कामपीड़ा को तथा सौभाग्यचिह्नयुक्त शोभा को विस्तृत करता है। निश्चयनय से वह देव जिनेश्वर मल और क्लेश को नष्ट करने वाला होता हुआ अतिशय रूप से अपने स्वरूप को ही जानता है।
भावार्थ-केवलज्ञानी आत्मा व्यवहारनय से समस्त विश्व को जानता है और निश्चयनय से अपने स्वरूप को ही जानता है।
स्रग्धरा– वर्तेते ज्ञानदृष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे
सर्वज्ञेऽस्मिन् समंतात् युगपदसदृशे विश्वलोवैâकनाथे।
एतावुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन्
तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम्।।२७३।।
अर्थ-धर्मतीर्थ के अधिपति, विश्वलोक के एक नाथ असदृश-लोकोत्तर ऐसे इन सर्वज्ञ भगवान में सतत-सब तरफ से ज्ञान और दर्शन युगपत् रहते हैं। जैसे अखिल तिमिर समूह को नष्ट करने वाले, तेज के पुंजस्वरूप, इस सूर्य में ये उष्णत्व और प्रकाश एक साथ इस लोक में जगत के जीवों के नेत्र गोचर होते हैं, उसी प्रकार से वे ज्ञान और दर्शन भी केवली के युगपत् प्रगट होते हैं।
बसंततिलका– सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशि-
मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता।
तामेव तेन जिननाथपथाधुनाहं
याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम्।।२७४।।
अर्थ-हे देव! आप सद्बोधरूपी जहाज में बैठकर संसाररूपी समुद्र को उलंघ कर सहसा शाश्वतपुरी में पहुँच गये हैं। अब मैं भी उस जिननाथ के मार्ग से उसी शाश्वतनगरी को प्राप्त करता हूँ क्योंकि इस लोक में उत्तम पुरुषों के लिए क्या अन्य कुछ (उस मार्ग से अतिरिक्त) शरण है ?
भावार्थ-जिनराज ने जिस ज्ञान के आश्रय से संसार से निकलकर मुक्ति को प्राप्त किया उस मार्ग से अतिरिक्त मार्ग से कोई भी जीव मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते हैं
इसलिये उसी जिनेन्द्रदेव के मार्ग की शरण लेना चाहिये।
मंदाक्रांता-एको देव: स जयति जिन: केवलज्ञानभानु:
कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित्।
मुक्तेस्तस्या: समरसमयानंगसौख्यप्रदाया:
को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमे: प्रियाया:।।२७५।।
अर्थ-केवलज्ञान भानु ऐसे वे एक देव जिनदेव जयशील हो रहे हैं। वे सम-रसमयी अनंग सौख्य को प्रदान करने वाली ऐसे उस मुक्तिसुन्दरी के मुखकमल पर इच्छानुसार किसी एक अद्भुत कांति को विस्तृत करते हैं, क्योंकि कौन अपनी स्नेहमयी प्रिया को निरन्तर सुख देने में समर्थ नहीं होगा?
अनुष्टुप्– जिनेन्द्रो मुक्तिकामिन्या: मुखपद्मे जगाम स:।
अलिलीलां पुन: काममनङ्गसुखमद्वयम्।।२७६।।
अर्थ-उन जिनेन्द्रदेव ने मुक्तिकामिनी के मुखकमल के प्रति भ्रमर की लीला को धारण किया, पुन: यथेष्ट अद्वितीय अनंग आत्मिक सुख को प्राप्त किया।
मंदाक्रांता–ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा
लोकालोकौ प्रकटयति वा तद्वतं ज्ञेयजालम्।
दृष्टि: साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा
ताभ्यां देव: स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम्।।२७७।।
अर्थ-ज्ञान एक सहज परमात्मा को जानकर लोकालोक को अथवा उसके समस्त ज्ञेयजाल को प्रगटित करता है और नित्य शुद्ध, क्षायिक दर्शन भी साक्षात् स्वपर को विषय करता है। उन दोनों के द्वारा यह देव (आत्मा) स्वपरविषयक ज्ञेयसमूह को जानता है।
मंदाक्रांता–आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत्
ताभ्यां युक्त: स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम्।
संज्ञाभेदादघकुलहरे चात्मनि ज्ञानदृष्ट्यो:
भेदो जातो न खलु परमार्थेन बह्न्युष्णवत्स:।।२७८।।
अर्थ-आत्मा (एकांत से) ज्ञान नहीं है, उसी प्रकार दर्शन भी नहीं है किन्तु उन दोनों से युक्त होता हुआ वह स्वपर विषय को जानता और देखता अवश्य है। पापसमूह के हरण करने वाले ऐसे आत्मा में संज्ञा के भेद से ज्ञान और दर्शन में भेद हो गया है किन्तु परमार्थ से अग्नि और उष्ण के समान वह भेद नहीं है।
मंदाक्रांता– आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानदृग्धर्मयुक्त:
तस्मिन्नेव स्थितिमविचलां तां परिप्राप्य नित्यम्।
सम्यग्दृष्टिर्निखिलकरणग्रामनीहारभास्वान्
मुक्तिं याति स्फुटितसहजावस्थया संस्थितां ताम्।।२७८।।
अर्थ-आत्मा धर्मी है, क्योंकि वह अतिशयरूप से ज्ञान और दर्शन से युक्त है। उसमें ही नित्य उस अविचल स्थिति को प्राप्त करके, अखिल इंद्रिय समूहरूपी हिम के लिए सूर्यस्वरूप सम्यग्दृष्टि जीव प्रगट हुई सहज अवस्था से सुस्थित ऐसे उस मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
मालिनी- व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजोऽयमात्मा
प्रकटतरसुदृष्टि: सर्वलोकप्रदर्शी।
विदितसकलमूर्तामूर्ततत्त्वार्थसार्थ:
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।२८०।।
अर्थ-ज्ञानपुंज स्वरूप यह आत्मा अत्यन्त प्रगट दर्शन वाला होता हुआ व्यवहारनय से सर्वलोक को देखने वाला है तथा समस्त मूर्तिक-अमूर्तिक ऐसे तत्त्वार्थ समूह को जानता हुआ वह परमलक्ष्मी रूपी कामिनी का प्रिय वल्लभ हो जाता है।
भावार्थ-आत्मा के दर्शन और ज्ञान ये भेद सद्भूत व्यवहारनय से ही हैं निश्चयनय से तो वह अखंड एक ही है।
मंदाक्रांता-आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या
दृष्टि: साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैष:।
एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्य: पुराण:
स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निर्विकल्पे महिम्नि।।२८१।।
अर्थ-आत्मा ज्ञानरूप है और ज्ञान निश्चय से स्वप्रकाशात्मक है। जो दर्शन है वह भी साक्षात् बाह्य आलंबन को नष्ट कर चुका है, यह आत्मा इस दर्शनरूप भी है। ऐसा यह आत्मा एकाकाररूप निजरस के विस्तार से परिपूर्ण भरित पवित्र है और पुराण-सनातन है। यह नित्य ही निर्विकल्प महिमारूप अपने आपमें निश्चित रूप से वास करता है।
मंदाक्रांता– पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं
स्वान्त: शुद्ध्यावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम्।
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंच:।।२८२।।
अर्थ-यह आत्मा अपनी अंतरंग शुद्धि का आवास होने से महिमा के आधारभूत, अत्यन्त धीर और स्वात्मा में अतिशयतया अविचल होने से सर्वदा आभ्यंतर में निमग्न ऐसे एक विशुद्ध सहज परमात्मा को देखता है क्योंकि स्वभाव से महान ऐसे उस आत्मा में व्यावहारिक प्रपंच है ही नहीं।
भावार्थ-यहाँ ज्ञान, दर्शन या आत्मा में जो स्वस्वरूप के प्रत्यक्ष की अपेक्षा है वह निश्चयनय से है और जो परवस्तु के प्रत्यक्ष की अपेक्षा है वह व्यवहारनय से है अत: स्व ही अपेक्षा वाला-स्वाश्रित निश्चय है और पर की अपेक्षा वाला पराश्रित व्यवहार है। ऐसी विवक्षा शैली से ही ऐसा कथन है।
मंदाक्रांता-सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरु: शाश्वतानंदधामा
लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च।
तार्तीयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं
तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्र:।।२८३।।
अर्थ-केवलज्ञान नाम का जो तीसरा एक अन्य नेत्र है उसी नेत्र के द्वारा ये प्रसिद्ध महिमाशाली, त्रिभुवन गुरु, शाश्वत अनंतधाम में निवास करने वाले तीर्थनाथ जिनेन्द्र भगवान लोकालोक को, स्व पर को तथा चेतन और अचेतन ऐसे अखिल पदार्थ को सम्यक् प्रकार से जानते हैं।
बसंततिलका– यो नैव पश्यति जगत्त्रयमेकदैव
कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी।
प्रत्यक्षदृष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं
सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मन: स्यात्।।२८४।।
अर्थ-‘‘जो मैं सर्वज्ञ हूँ’’ ऐसे अभिमान वाले हुए जीव एक ही समय में तीनों जगत् को और तीनों कालों को शीघ्रता से युगपत् नहीं देखते हैं, उन्हें हमेशा अतुल प्रत्यक्षदर्शन नहीं है, पुन: उन जड़ात्मा को सर्वज्ञता वैâसे होगी ?
बसंततिलका-जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथ:
स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम्।
नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद्
वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोष:।।२८५।।
अर्थ-तीर्थनाथ भगवान् वास्तव में अखिल लोक को जानते हैं, किन्तु वे निज सौख्य में निष्ट एक निर्दोष अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं। इस प्रकार से कोई भी मुनिपति व्यवहारमार्ग से उन समदर्शी को ऐसा कहते हैं तो उन्हें कोई दोष नहीं है।
भावार्थ-यदि कोई मुनिराज व्यवहारनय की प्रधानता से ऐसा कहते हैं कि जिनदेव लोक को तो जानते हैं किन्तु आत्मा को नहीं जानते हैं तो इस कथन में कोई दोष नहीं है क्योंकि स्याद्वाद में सभी कथन नयों की अपेक्षा से ही होता है।
मंदाक्रांता-ज्ञानं तावद्भवति सुतरां शुद्धजीवस्वरूपं
स्वात्मात्मानं नियतमधुना तेन जानाति चैकम्।
तच्च ज्ञानं स्फुटितसहजावस्थयात्मानमारात्
नो जानाति स्फुटमविचलाद्भिन्नमात्मस्वरूपात्।।२८६।।
अर्थ-ज्ञान तो अच्छी तरह शुद्ध जीव का स्वरूप है इसलिये मेरी आत्मा इस समय एक अपनी आत्मा को निश्चित रूप से जानती है और यदि वह ज्ञान प्रगट हुई सहज अवस्था के द्वारा सन्निकट से-प्रत्यक्ष से आत्मा को नहीं जानता है तो वह ज्ञान स्पष्ट ही अविचल ऐसे आत्मस्वरूप से भिन्न सिद्ध होगा।
भावार्थ-ज्ञान तो शुद्ध आत्मा का स्वभाव है यदि वह साधक अवस्था में अपनी आत्मा का अनुभव नहीं करता है तो वह आत्मा का स्वभाव नहीं रहेगा, किन्तु ऐसा है नहीं अत: ज्ञान स्वसंवेदन रूप से प्रारम्भ अवस्था में भी आत्मा का अनुभव कराता है।
अनुष्टुप्– आत्मानं ज्ञानदृग्रूपं विद्धि दृग्ज्ञानमात्मकं।
स्वं परं चेति यत्तत्वमात्मा द्योतयति स्फुटम्।।२८७।।
अर्थ-आत्मा को ज्ञान, दर्शन रूप और ज्ञान, दर्शन को तुम आत्मा रूप जानो क्योंकि जो स्व और पररूप तत्त्व हैं उन सबको यह आत्मा स्पष्ट रूप से प्रकाशित करता है।
मंदाक्रांता-जानन् सर्वं भुवनभुवनाभ्यन्तरस्थं पदार्थं
पश्यन् तद्वत् सहजमहिमा देवदेवो जिनेश:।
मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्वाति नित्यं
ज्ञानज्योतिर्हतमलकलि: सर्वलोवैâकसाक्षी।।२८८।।
श्लोकार्थ-सहज महिमाशाली देवदेव जिनेश्वर भुवनरूपी भवन के भीतर में स्थित सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हुए तथा वैसे ही देखते हुए भी मोह का अभाव को जाने से अखिल अन्य पदार्थों को नित्य ही (कदापि) ग्रहण नहीं करते हैं किन्तु ज्ञानज्योति से मल के क्लेश को नष्ट कर देने वाले वे समस्त लोक के एक साक्षी होते हैं।
भावार्थ-केवली भगवान सम्पूर्ण जगत को जानते देखते हैं फिर भी मोहनीय कर्म के सर्वथा अभाव हो जाने से वे किसी में राग द्वेष नहीं करते हैं अतएव वे केवल ज्ञाता दृष्टा ही रहते हैं।
मंदाक्रांता– ईहापूर्वं वचनरचनारूपमत्रास्ति नैव
तस्मादेष प्रकटमहिमा विश्वलोवैâकभर्ता।
अस्मिन् बंध:कथमिव भवेद्द्रव्यभावात्मकोऽयं
मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषादिजालम्।।२८९।।
अर्थ-इन केवली भगवान में इच्छापूर्वक वचन रचना का स्वरूप नहीं है इसलिये ये भगवान प्रगट रूप से महिमाशाली हैं और विश्वलोक के एक- अद्वितीय स्वामी हैं। इनमें द्रव्य और भावरूप यह बंध वैâसे हो सकता है ? क्योंकि मोह का अभाव हो जाने से समस्त रागद्वेषादि समूह निश्चित रूप से नहीं रहता है।
मंदाक्रांता-एको देवस्त्रिभुवनगुरुर्नष्टकर्माष्टकार्ध:
सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम्।
आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्ष:
तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च।।२९०।।
अर्थ-जिन्होंने अष्टकर्म के आधे अर्थात् चार घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया है, ऐसे एक अर्हंतदेव ही त्रिभुवन के गुरु हैं क्योंकि यह समस्त लोक और उसमें स्थित समस्त वस्तु समूह उनके सज्ज्ञान में स्थित है। ऐसे साक्षात् स्वरूप जिनेन्द्र भगवान में न बंध ही है और न मोक्ष ही है तथा न उनमें कोई मूर्च्छा-अज्ञानदशा ही है और न चेतना-ज्ञानदशा ही है।
भावार्थ-अर्हंतदेव ही सर्वज्ञ हैं अत: उनमें बंध, मोक्ष या ज्ञान तथा अज्ञानरूप अवस्थाएँ नहीं हैं क्योंकि वे पूर्णज्ञानी हैं ज्ञानस्वरूप ही परिणत हो चुके हैं।
मंदाक्रांता– न ह्येतस्मिन् भगवति जिने धर्मकर्मप्रपंचो
रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतराग:।
एष श्रीमान् स्वसुखनिरत: सिद्धिसीमन्तिनीशो
ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभाग: समन्तात्।।२९१।।
अर्थ-इन जिनेन्द्र भगवान में धर्म और कर्म का प्रपंच नहीं है क्योंकि राग का अभाव हो जाने से अतुल महिमाशाली वीतरागदेव शोभायमान होते हैं। ये श्रीमान् भगवान अपने सुख में लीन हैं, सिद्धिरूपी रमणी के स्वामी हैं तथा सब ओर से जिन्होंने ज्ञानज्योति के द्वारा समस्त भुवन के अभ्यंतर भाग को व्याप्त कर लिया है।
भावार्थ-अर्हंत भगवान के मोहनीय कर्म का पूर्णतया अभाव हो जाने से वे वीतरागी हैं तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय के अभाव से वे केवलज्ञानी हैं, सर्वदर्शी हैं तथा अनंत शक्तिशाली हैं इसलिये उनका ज्ञान तीनों लोकों में और अलोक में भी सर्वत्र व्याप्त हो रहा है।
शार्दूलविक्रीडित-देवेन्द्रासनकंपकारणमहावैâवल्यबोधोदये
मुक्तिश्रीललनामुखाम्बुजरवे: सद्धर्मरक्षामणे:।
सर्वं वर्तनमस्ति चेन्न च मन: सर्वं पुराणस्य तत्
सोऽयं नन्वपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावक:।।२९२।।
अर्थ-देवेन्द्रों के आसन कम्पायमान होने में कारणभूत ऐसे महान वैâवल्यबोध के उदय हो जाने पर मुक्तिश्रीरूपी स्त्री के मुखकमल को विकसित करने में सूर्यस्वरूप और सद्धर्म की रक्षा के लिये मणिसदृश ऐसे पुराण-सनातन रूप जिनेन्द्रदेव की यदि प्रवृत्तियाँ होती हैं तो भी उनके मन नहीं है अर्थात् वे क्रियाएं अभिप्रायपूर्वक नहीं हैं। सो ये भगवान अपरिमेय-अगम्य महिमाशाली हैं और पापरूपी वन के लिये पावक स्वरूप हैं।
भावार्थ-अर्हंत भगवान के केवलज्ञान प्रगट होते ही देवों के आसन कंपित हो जाते हैं ऐसे महिमाशाली जिनेन्द्र की सारी प्रवृत्तियाँ अभिप्रायरहित होती हैं क्योंकि उनके भाव इंद्रिय और भाव मन नहीं है।
अनुष्टुप्– षट्कापक्रमयुक्तानां भविनां लक्षणात् पृथक्।
सिद्धानां लक्षणं यस्मादूर्ध्वगास्ते सदा शिवा:।।२९३।।
अर्थ-जो छह अपक्रम से सहित हैं ऐसे संसारी जीवों के लक्षण से सिद्धों का लक्षण भिन्न है इसलिये वे सिद्ध ऊर्ध्वगामी हैं और सदाशिव-कल्याण स्वरूप हैं।
भावार्थ-संसारी जीव परभव में जाते समय चार विदिशाओं को छोड़कर चार दिशाओं में और ऊर्ध्व, अधो ऐसी छह दिशाओं में गमन करते हैं। इसे ही षट् अपक्रम कहते हैं।
मंदाक्रांता-बन्धच्छेदादतुलमहिमा देवविद्याधराणां
प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नैव सिद्ध: प्रसिद्ध:।
लोकस्याग्रे व्यवहरणत: संस्थितो देवदेव:
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते।।२९४।।
अर्थ-बंध के उच्छेद हो जाने से अतुल महिमाधारी ऐसे सिद्ध भगवान अब देवों और विद्याधरों के प्रत्यक्ष स्तवन के विषय नहीं हैं ऐसी बात प्रसिद्ध है। वे देवदेव व्यवहारनय से लोक के अग्रभाग में सुरक्षित हैं और निश्चयनय से अपनी आत्मा में अतिशयतया अविचल रूप से ही रहते हैं।
अनुष्टुप्– पंचसंसारनिर्मुक्तान् पंचसंसारमुक्तये।
पंचसिद्धानहं वंदे पंचमोक्षफलप्रदान्।।२९५।।
अर्थ-पाँच प्रकार से संसार से रहित, पाँच प्रकार के मोक्ष को प्रदान करने वाले ऐसे पाँच प्रकार के सिद्धों को मैं पाँच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिये वंदन करता हूँ।
भावार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये पाँच प्रकार का संसार है, इन पाँच प्रकार के संसार से मुक्त-रहित जो फल है उनको सिद्ध करने वाले पाँच प्रकार के सिद्ध हो जाते हैं, पाँच प्रकार के संसार से छूटने के लिए उनका यहाँ वंदन किया गया है।
मालिनी– अविचलितमखंडज्ञानमद्वन्द्वनिष्ठं
निखिलदुरितदुर्गव्रातदावाग्निरूपम्।
भज भजसि निजोत्थं दिव्यशर्मामृतं त्वं
सकलविमलबोधस्ते भवत्येव तस्मात्।।२९६।।
अर्थ-जो अविचल हैं, अखंड ज्ञान रूप हैं, राग द्वेषादि द्वंद्व में स्थित नहीं हैं, समस्त दुरित के दुस्तर समूह को भस्मसात् करने में अग्निरूप हैं ऐसे निज में उत्पन्न हुए दिव्य सुखरूपी अमृत को तुम भजो, यदि उसे भजोगे तो तुम्हें सकल विमल ज्ञान प्रगट होगा।
भावार्थ-शुद्ध आत्मतत्त्व की उपासना से ही पूर्ण केवलज्ञान प्रगट होता है इसलिये उसी का आश्रय लेना श्रेयस्कर है।
शार्दूलविक्रीडित-भावा: पंच भवन्ति येषु सततं भाव: पर: पंचम:
स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्दृशां गोचर:।
तं मुक्त्वाखिलरागरोषनिकरं बुद्ध्वा पुनर्बुद्धिमान्
एको भाति कलौ युगे मुनिपति: पापाटवीपावक:।।२९७।।
अर्थ-भाव पाँच होते हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव सतत स्थायी है, संसार के नाश का कारण है और सम्यग्दृष्टियों के गोचर है। पापरूपी अटवी को जलाने के लिये अग्निसदृश ऐसे बुाfद्धमान एक मुनिराज ही उस पंचम भाव को जानकर पुन: समस्त राग द्वेष के समूह को छोड़कर इस कलियुग में शोभायमान होते हैं।
भावार्थ-टीकाकार का स्पष्ट कहना है कि आज इस कलिकाल रूप निकृष्ट काल में भी वीतरागी महामुनि पंचमभाव का आश्रय लेने वाले नि:स्पृह ऐसे विचरण करते हैं।
मालिनी-भवभवसुखदु:खं विद्यते नैव बाधा
जननमरणपीडा नास्ति यस्येह नित्यम्।
तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि
स्मरसुखविमुखस्सन् मुक्तिसौख्याय नित्यम्।।२९८।।
अर्थ-इस लोक में जिसके हमेशा भव-भव के सुख और दु:ख नहीं है, बाधा नहीं है तथा जन्म-मरण और पीड़ा भी नहीं है। मैं कामसुख से विमुख होता हुआ मुक्तिसुख की प्राप्ति के लिए नित्य ही उस परमात्वतत्त्व को नमस्कार करता हूँ, उसकी स्तुति करता हूँ और उसी की सम्यक् प्रकार से भावना करता हूँ।
अनुष्टुप्– आत्माराधनया हीन: सापराध इति स्मृत:।
अहमात्मानमानन्दमंदिरं नौमि नित्यश:।।२९९।।
अर्थ-आत्मा की आराधना से हीन जीव अपराध सहित हैं ऐसा माना गया है, इसलिये मैं नित्य ही आनन्द के मंदिर-स्थान स्वरूप अपनी आत्मा को नमस्कार करता हूँ।
मंदाक्रांता-यस्मिन् ब्रह्मण्यनुपमगुणालंकृते निर्विकल्पे-
ऽक्षाणामुच्चैर्विविधविषमं वर्तनं नैव िंकचित्।
नैवान्ये वा भविगुणगणा: संसृतेर्मूलभूता:
तस्मिन्नित्यं निजसुखमयं भाति निर्वाणमेकम्।।३००।।
अर्थ-अनुपम गुणों से अलंकृत और निर्विकल्प ऐसे जिस ब्रह्म में-आत्मतत्त्व में इन्द्रियों का विविध और विषमरूप िंकचित् भी वर्तन अत्यन्त रूप से नहीं है तथा संसार के लिये मूलभूत अन्य संसारी गुण समुदाय भी नहीं है। उस ब्रह्मस्वरूप में नित्य ही निज सुखमय एक-अद्वितीय निर्वाण प्रतिभासित होता है।
भावार्थ-अनंतगुण पुंजस्वरूप और समस्त विकल्पों से रहित पूर्ण निर्विकल्प ऐसे शुद्धात्मा में शुद्ध निश्चयनय से संसार संबंधी रागद्वेषादि विकार भाव नहीं हैं। बस ऐसी वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होने पर ही निर्वाण सुख प्राप्त होता है।
मंदाक्रांता-निर्वाणस्थे प्रहतदुरितध्वान्तसंघे विशुद्धे
कर्माशेषं न च न च पुनर्ध्यानकं तच्चतुष्कम्।
तस्मिन्सिद्धे भगवति परंब्रह्मणि ज्ञानपुंजे
काचिन्मुक्तिर्भवति वचसां मानसानां च दूरम्।।३०१।।
अर्थ-निर्वाण में स्थित, दुरित रूपी तिमिर समुदाय को नष्ट करने वाले ऐसे विशुद्ध परमब्रह्म में अशेष कर्म नहीं हैं तथा वे चारों ध्यान भी नहीं हैं। उन ज्ञानपुंजस्वरूप परमब्रह्म ऐसे सिद्ध भगवान के ऐसी कोई मुक्ति हो जाती है जो कि वचन और मन से दूर है।
भावार्थ-धर्मध्यान और शुक्लध्यान भी सिद्धि के लिये साधन हैं अतएव ये ध्यान भी सिद्धि की प्राप्ति हो जाने पर नहीं रहते हैं। यही कारण है कि सिद्धों की सिद्धावस्था सामान्यजनों के वचन और मन के अगोचर है।
मंदाक्रांता-बन्धच्छेदाद्भगवति पुनर्नित्यशुद्धे प्रसिद्धे
तस्मिन्सिद्धे भवति नितरां केवलज्ञानमेतत्।
दृष्टि: साक्षादखिलविषया सौख्यमात्यंतिकं च
शक्त्याद्यन्यद्गुणमणिगण: शुद्धशुद्धश्च नित्यम्।।३०२।।
अर्थ-बंध का विच्छेद हो जाने से नित्य शुद्ध तथा प्रसिद्ध ऐसे उन सिद्ध भगवान में अतिशयरूप यह केवलज्ञान होता है। साक्षात् समस्त पदार्थों को विषय करने वाला ऐसा दर्शन-केवलदर्शन होता है तथा आत्यंतिक सौख्य प्रगट हो जाता है एवं अत्यन्त शुद्ध ऐसे अनंतवीर्य आदि अन्य गुणमणियों के समूह भी नित्य ही रहते हैं।
भावार्थ-कर्मबंध का अभाव हो जाने से सिद्ध भगवान के केवलज्ञानादि अनंतगुण समूह प्रगट हो जाते हैं।
मालिनी– अथ जिनमतमुक्तेर्मुक्तजीवस्य भेदं
क्वचिदपि न च विद्मो युक्तितश्चागमाच्च।
यदि पुनरिह भव्य: कर्म निर्मूल्य सर्वं
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।३०३।।
अर्थ-जिनेन्द्रदेव के मत की मुक्ति में और मुक्तजीव में हम कहीं पर भी युक्ति और आगम से भेद नहीं समझते हैं। यदि पुन: इस लोक में कोई भव्य जीव सम्पूर्ण कर्म को निर्मूल कर देता है तो वह परमश्री-मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनी का प्रिय वल्लभ हो जाता है।
भावार्थ-कर्मों से छूटना ही मुक्ति है और जो कर्मों से छूट चुके हैं वे ही मुक्त हैं। पुन: मुक्ति और मुक्त जीवों में कोई अंतर नहीं है क्योंकि मुक्ति के बिना मुक्त जीव अथवा मुक्त जीवों के बिना मुक्ति नाम की कोई चीज नहीं है।
अनुष्टुप्-त्रिलोकशिखरादूर्ध्वं जीवपुद्गलयोर्द्वयो:।
नैवास्ति गमनं नित्यं गतिहेतोरभावत:।।३०४।।
अर्थ-त्रिलोकशिखर से ऊपर में जीव और पुद्गल इन दोनों का गमन नहीं होता है क्योंकि वहाँ नित्य ही गतिहेतुक (धर्मास्तिकाय) का अभाव है।
मालिनी– जयति नियमसारस्तत्फलं चोत्तमानां
हृदयसरसिजाते निर्वृते: कारणत्वात्।
प्रवचनकृतभक्त्या सूत्रकृद्भि: कृतो य:
स खलु निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्ग:।।३०५।।
अर्थ-यह नियमसार और उसका फल उत्तम पुरुषों के हृदयकमल में जयशील हो रहा है क्योंकि वह निर्वाण का कारण है। प्रवचन की भक्ति से सूत्रकार श्री कुंदकुंददेव ने जो कहा है वह निश्चितरूप से अखिल भव्यसमूह के लिये निर्वाण का मार्ग है।
शार्दूलविक्रीडित– देहव्यूहमहीजराजिभयदे दु:खावलीश्वापदे
विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीषावने।
नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे दृङ्मोहिनां देहिनां
जैनं दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे।।३०६।।
अर्थ-देहसमूह रूपी वृक्ष पंक्ति से जो भयप्रद है, दु:ख परंपरारूपी जंगली पशुओं से जो व्याप्त है, अतिकराल कालरूपी अग्नि जहाँ पर सबका भक्षण कर रही है, जिसमें बुद्धिरूपी जल सूख रहा है और जो दर्शनमोह से सहित जीवों के लिये नाना दुर्नयरूपी मार्गों से अत्यन्त दुर्गम है ऐसे इस संसाररूपी विकट वन में जैनदर्शन ही एक शरण है।
भावार्थ-मिथ्यात्व से ग्रसित हुए प्राणियों के लिए इस संसार में एक जैन धर्म ही परम शरण है, अन्य कुछ नहीं है।
शार्दूलविक्रीडित-लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च यस्य प्रभो-
स्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम्।
स्तोतुं के भुवनत्रयेऽपि मनुजा: शक्ता: सुरा वा पुन:
जाने तत्स्तवनैककारणमहं भक्तिर्जिनेऽत्युत्सुका।।३०७।।
अर्थ-जिनप्रभु का यह ज्ञानरूपी शरीर लोकालोक का स्थान है, जिन्होंने शंख की ध्वनि से अखिल-भूमंडल को कंपित कर दिया था ऐसे उन श्री नेमिनाथ तीर्थेंश्वर का स्तवन करने के लिए तीन लोक में भी कौन मनुष्य अथवा देव समर्थ है ? फिर भी उनके स्तवन में कारण केवल एक जिनेन्द्रदेव के प्रति अति उत्सुक भक्ति ही है, ऐसा मैं समझता हूँ।
भावार्थ-श्री नेमि जिनेन्द्रदेव की स्तुति करने के लिए यद्यपि मैं समर्थ नहीं हूँ फिर भी उनके प्रति उत्कट भक्ति ही मुझे स्तुति करने में वाचालित कर रही है।
मालिनी– सुकविजनपयोजानन्दिमित्रेण शस्तं
ललितपदनिकायैर्निर्मितं शास्त्रमेतत्।
निजमनसि विधत्ते यो विशुद्धात्मकांक्षी
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।३०८।।
अर्थ-सुकविजनरूपी कमलों को आनंदित करने में सूर्यस्वरूप ऐसे पद्मप्रभमलधारी देव ने ललितपद समूहों से इस प्रशस्त शास्त्र को बनाया है। जो विशुद्ध आत्मा के आकांक्षी जीव इसको अपने हृदय में धारण करते हैं वे परमलक्ष्मी रूपी कामिनी के प्रियकांत हो जाते हैं।
अनुष्टुप्-पद्मप्रभाभिधानोद्घसिन्धुनाथसमुद्भवा।
उपन्यासोर्मिमालेयं स्थेयाच्चेतसि सा सताम्।।३०९।।
अर्थ-पद्मप्रभ नाम के उत्कृष्ट समुद्र से उत्पन्न हुई यह रचनारूपी तरंगमाला है, वह सत्पुरुषों के चित्त में स्थिर रहे।
अनुष्टुप्-अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्धं पदमस्ति चेत्।
लुप्त्वा तत्कवयो भद्रा: कुर्वन्तु पदमुत्तमम्।।३१०।।
अर्थ-इस ग्रंथ में यदि व्याकरण शास्त्र से कोई पद, वाक्य गलत है तो भद्र परिणामी कवि इसको सुधार कर पढ़ें, यह तात्पर्य है।
भावार्थ-यदि इस शास्त्र में व्याकरण शास्त्र से कोई पदवाक्य गलत हो तो भद्रपरिणामी कवि इसको सुधार कर पढ़ें, यह तात्पर्य है।
बसंततिलका– यावत्सदागतिपथे रुचिरे विरेजे
तारागणै: परिवृतं सकलेन्दुिंबबम्।
तात्पर्यवृत्तिरपहस्तितहेयवृत्ति:
स्थेयात्सतां विपुलचेतसि तावदेव।।३११।।
अर्थ-जब तक तारागणों से घिरा हुआ पूर्ण चंद्रिंबब सुन्दर सदागतिपथ-आकाशमार्ग में शोभित होता रहे तभी तक जिसने हेय वृत्तियों को दूर कर दिया है ऐसी यह तात्पर्यवृत्ति व्याख्या सत्पुरुषों के विशाल हृदय में स्थित रहे।