मंदाक्रांता-प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां
मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्द्धूतपापा:।
अन्या िंचता यदि च यमिनां ते विमूढा: स्मरार्त्ता:
पापा: पापं विदधति मुहु: िंक पुनश्चित्रमेतत्।।१८०।।
अर्थ-मुनियों को जो सतत अपने आत्मस्वरूप का चिंतवन होता है वही प्रायश्चित्त है क्योंकि स्वसुख में रति करने वाले मुनिराज उसके द्वारा पापों का क्षालन करके मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं और यदि मुनियों के अन्य चिन्ता होती है तो वे मूढ़ कामदेव से पीड़ित हुए पापी पुन: पाप को संचित करते हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
भावार्थ-अन्यत्र भी आचार्यों ने कहा है कि-
‘‘उत्तमा स्वात्मचिंता स्यात् मोहिंचता च मध्यमा।
अधमा कामचिंता स्यात् परिंचता धमाधमा।।’’
अर्थ-स्वात्मचिन्ता उत्तम है, मोहचिन्ता मध्यम है और काम आदि इन्द्रिय विषयों की चिन्ता अधम है तथा परचिन्ता अधम से भी अधम है।
यहाँ पर टीकाकार ने स्वात्मचिन्ता को ही प्रमुख कहा है क्योंकि वही उत्तम है और मोक्ष को प्राप्त कराने वाली है उसके अतिरिक्त अन्य चिन्ताएं कदाचित् आत्मतत्त्व की सिद्धि में साधक भी हैं कदाचित् बाधक भी हैं। पंचपरमेष्ठी के गुणों का चिंतवन आज्ञाविचय आदि चार प्रकार के या दश प्रकार के धर्मध्यानों का चिंतवन शुक्लध्यान के लिए सहायक सामग्री होने से मोक्ष का कारण माना गया है।‘परे मोक्षहेतू’ ऐसा सूत्रकार का कहना है जबकि यह धर्मध्यान पर के अवलंबन रूप ही है। यहाँ पर जिस चिन्ता से योगी को पापी विमूढ़ आदि कहा है वे चिन्ताएँ साधु पद के विरुद्ध विषयकषाय रूप अथवा आर्त-रौद्र ध्यान रूप हैं वे तो सर्वथा त्याज्य ही हैं।
शालिनी-प्रायश्चित्तंह्युक्तमुच्चैर्मुनीनां कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च।
किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे।।१८१।।
अर्थ-मुनियों के काम क्रोधादि अन्य-पर भावों के क्षय के होने में जो भाव है अथवा अपने ज्ञान की जो सम्यक््â भावना है उसे अतिशय रूप से प्रायश्चित्त कहा गया है, सत्पुरुष आत्मप्रवाद पूर्व में ऐसा जानते हैं।
भावार्थ-आत्मप्रवाद नामक सातवें पूर्व में प्रायश्चित्त का वर्णन पूर्णतया किया है। साधुजन उसी के आधार से प्रायश्चित्त का वर्णन करते हैं। व्रतादि में जो अतिचार या अनाचार आदि दोष होते हैं उससे आत्मा में मलिनता आती है इसलिये उन किये हुए दोषों की शुद्धि के लिए, उन दोषों को दूर करने के लिए गुरू से जो दण्ड ग्रहण किया जाता है जो कि आत्मा को पवित्र बनाने वाला है उसी का नाम प्रायश्चित्त है। यहाँ पर क्रोधादि विभाव परिणामों से आत्मा मलिन हो रही है उनके दूर करने में कारणभूत ऐसे निज गुणों का चिंतवन ही उत्तम प्रायश्चित्त माना है क्योंकि यही भाव आत्मा को पूर्णतया शुद्ध करने वाला है।
आर्या– क्षमया क्रोधकषायं मानकषायं च मार्द्दवेनैव।
मायामार्जवलाभाल्लोभकषायं च शौचतो जयतु।।१८२।।
अर्थ-क्षमा से क्रोध को, मार्दव से ही मान को, आर्जव के लाभ से माया को और शौच से-सन्तोष से लोभ को जीतो।
शालिनी– य: शुद्धात्मज्ञानसंभावनात्मा
प्रायश्चित्तंह्मत्र चास्त्येव तस्य।
निर्द्धूतांह:संहतिं तं मुनीन्द्रं
वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम्।।१८३।।
अर्थ-जो इस लोक में शुद्ध आत्मज्ञान की सम्यक् भावना से परिणत हैं उन्हीं के प्रायश्चित होता है। जिन्होंने पाप समूह को धो डाला है ऐसे उन मुनीन्द्रों को नित्य ही उनके गुणों की प्राप्ति के लिये मैं वंदन करता हूँ।
द्रुतविलम्बित– अनशनादितपश्चरणात्मकं
सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम्।
सहजबोधकलापरिगोचरं
सहजतत्त्वमघक्षयकारणम्।।१८४।।
अर्थ-जो अनशन आदि बारह प्रकार के तपश्चरण रूप है, सहज शुद्ध चैतन्य स्वरूप को जानने वालों के लिये यह सहजज्ञान कला का विषय है, ऐसा यह सहज तत्त्व पापों के क्षय करने में कारण है।
शालिनी– प्रायश्चित्तं ह्युत्तमानामिदं स्यात्
स्वद्रव्येऽस्मिन् चिन्तनं धर्म्यशुक्लम्।
कर्मव्रातध्वान्तसद्बोध- तेजो
लीनं स्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि।।१८५।।
अर्थ-यह प्रायश्चित्त निश्चित रूप से उत्तम जीवों को होता है जो कि इस स्वद्रव्य में धर्मध्यान और शुक्लध्यान के चिन्तनरूप है, कर्मसमूह रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिये सम्यग्ज्ञान रूपी तेज है तथा अपनी निर्विकार महिमा में लीन है।
मंदाक्रांता– आत्मज्ञानाद्भवति यमिनामात्मलब्धि: क्रमेण
ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा।
कर्मारण्योद्भवदवशिखाजालकानामजस्रं
प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारां वमन्ती।।१८६।।
अर्थ-जिसने ज्ञानज्योति से इंद्रियग्राम के घोर अंधकार को नष्ट कर दिया है, जो कर्मरूपी वन में उत्पन्न हुई दावानल अग्नि की ज्वाला समूह को बुझाने में शीघ्र ही शमजलमयी धारा को बरसाती हुई ऐसी आत्मा की उपलब्धि क्रम से संयमियों के आत्म ज्ञान से उत्पन्न होती है।
भावार्थ-आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति संयमी मुनियों को ही हो सकती है अन्य को नहीं और उन्हें भी आत्मज्ञान के बल से ही हो सकती है अन्यथा नहीं।
उपजाति– अध्यात्मशास्त्रामृतवारिराशेर्मयोद्धृता संयमरत्नमाला।
बभूव या तत्त्वविदां सुकण्ठे सालंकृतिर्मुक्तिवधूधवानाम्।।१८७।।
अर्थ-अध्यात्म शास्त्र रूपी अमृतसमुद्र से मैंने संयमरूपी रत्नमाला निकाली है, जो कि मुक्तिवधू के स्वामी ऐसे तत्त्ववेत्ताओं के सुकंठ में अलंकार रूप होती है।
भावार्थ-समुद्र के मंथन से रत्न निकलते हैं वैसे ही श्री पद्मप्रभमलधारीदेव मुनिराज ने अध्यात्मशास्त्र रूपी अमृतमयी समुद्र का मंथन करके संयमरूपी रत्न निकाले हैं जो कि मुक्ति के प्राप्त करने वाले आत्मज्ञानियों के कंठ का हार बन जाते हैं अर्थात् अध्यात्मशास्त्र के अवलंबनपूर्वक धारण किया गया संयम मुक्ति को प्राप्त करा देता है।
उपेन्द्रवङ्काा– नमामि नित्यं परमात्मतत्त्वं
मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम्।
विमुक्तिकांतारतसौख्यमूलं
विनष्टसंसारद्रुमूलमेतत् ।।१८८।।
अर्थ-मैं नित्य ही परमात्म तत्त्व को नमस्कार करता हूँ जो कि मुनीन्द्रों के हृदय कमल की कर्णिका पर निवास करने वाला है, मुक्तिरूपी कांता के रति सुख का मूल कारण है और संसार रूपी वृक्ष की जड़ को नष्ट करने वाला है।
भावार्थ-इस परमात्म तत्त्व का ध्यान मुनिजन ही कर सकते हैं अन्यजन नहीं इसीलिये यह उनके मन के गोचर है तथा अतीन्द्रिय सुख का कारण है और संसार के दुखों से मुक्त करने वाला है।
मंदाक्रांता-प्रायाश्चित्तं न पुनरपरं कर्म कर्मक्षयार्थं
प्राहु: सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम्।
आसंसारादुपचितमहात्कर्मकान्तारवन्हि-
ज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्या:।।१८९।।
अर्थ-अन्य कुछ क्रिया प्रायाश्चित्त नहीं है किन्तु कर्मक्षय के लिए जो चिदानंद रूपी अमृत से परिपूर्ण तप है उसे ही साधुजन प्रायश्चित्त कहते हैं। वह तप अनादिकाल से संसार में संचित किए कर्मरूपी महावन को जलाने के लिए अग्निज्वाला का समूह है, शमसुखमय है तथा मोक्षलक्ष्मी से मिलने के लिए भेंटस्वरूप है।
मंदाक्रांता-य: शुद्धात्मन्यविचलमना: शुद्धमात्मानमेकं
नित्यज्योति:प्रतिहततम:पुंजमाद्यन्तशून्यम्।
ध्यात्वाजस्रं परमकलया सार्धमानन्दमूा\त
जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयमाचारराशि:।।१९०।।
अर्थ-जिसने नित्य ज्योति से अंधकारपुंज का नाश कर दिया है, जो आदि और अंत से शून्य है, जो परमकला के साथ आनन्द की मूर्तिस्वरूप है ऐसी एक शुद्ध आत्मा का जो शुद्धात्मा में अविचल मन वाला होता हुआ निरन्तर ध्यान करता है तो यह आचार की राशिस्वरूप शीघ्र ही जीवन्मुक्त हो जाता है।
हरिणी– वचनरचनां त्यक्त्वा भव्य: शुभाशुभलक्षणां
सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम्।
परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं
भवति नियम: शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम्।।१९१।।
अर्थ-जो भव्य जीव शुभ-अशुभ रूप वचन रचना को छोड़कर नित्य ही स्फुट रूप से सहज परमात्मा का सम्यक््â प्रकार से अनुभव करता है, उस ज्ञानस्वरूप परम संयमी के नियम से यह शुद्ध नियम होता है, जो कि मुक्तिसुन्दरी के सुख का कारण है।
मालिनी– अनवरतमखंडाद्वैतचिन्निर्विकारे ।
निखिलनयविलासो न स्फुरत्येव िंकचित्।
अपगत इह यस्मिन् भेदवादस्समस्त:
तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि।।१९२।।
अर्थ-सतत रूप से अखंड, अद्वैत, चैतन्य रूप, निर्विकार तत्त्व में अखिल नयों का विलास िंकचित् स्फुरायमान ही नहीं होता है, यहाँ जिसमें समस्त भेदवाद समाप्त हो चुका है, उसको मैं नमस्कार करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ और उसी की सम्यक््â प्रकार से भावना करता हूँ।
अनुष्टुप्– इदं ध्यानमिदं ध्येयमयं ध्याता फलं च तत्।
एभिर्विकल्पजालैर्यन्निर्मुक्तं तन्नमाम्यहम्।।१९३।।
अर्थ-यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह फल है, इन विकल्पों से जो निर्मुक्त है मैं उसे नमस्कार करता हूँ।
अनुष्टुप्– भेदवादा: कदाचित्स्युर्यस्मिन् योगपरायणे।
तस्यमुक्तिर्भवेन्नो वा को जानात्यार्हते मते।।१९४।।
अर्थ-जिस योगपरायण-ध्यानलीन अवस्था में कदाचित् भेदवाद होते हैं, अर्हंत देव के मत में उसकी मुक्ति होगी या नहीं, कौन जानता है ?
भावार्थ-वीतराग निर्विकल्प ध्यान में ही शुद्ध नियमरूप प्रायश्चित्त होता है। इस निर्विकल्प अवस्था के हुए बिना कर्मों का नाश होना संभव नहीं है। अन्यत्र भी कहा है-
‘‘मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।।५६।।
अर्थ-हे शिष्य ! तुम शरीर की कुछ चेष्टा-क्रिया मत करो, कुछ मत बोलो, मन में कुछ चिंतवन भी मत करो, जैसे बने वैसे एकदम स्थिर हो जावो और आत्मा में ही लीन हो जावो, यही परम ध्यान होता है।
मंदाक्रांता-कायोत्सर्गो भवति सततं निश्चयात्संयतानां
कायोद्भूतप्रबलतरतत्कर्ममुक्ते: सकाशात्।
वाचां जल्पप्रकरविरतेर्मानसानां निवृत्ते:
स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम्।।१९५।।
अर्थ-निश्चय से कायोत्सर्ग सतत संयमीजनों को होता है जो कि शरीर से उत्पन्न हुई प्रबलतर उन संबंधी क्रियाओं के छूट जाने से, वचनों के जल्पसमूह से विरक्त होने से, मन संबंधी विकल्पों के अभाव से तथा अपनी आत्मा के ध्यान से भी स्वात्मा में लीन हुए महासाधुओं के निमित्त से होता है।
भावार्थ-मन, वचन और काय संबंधी क्रियाओं के निरोध से निर्विकल्प ध्यान में तत्पर हुए साधुओं को ही निश्चय कायोत्सर्ग होता है।
मालिनी-जयतिसहजतेज:पुंजनिर्मग्नभास्वत्-
सहजपरमतत्त्वं मुक्तमोहान्धकारम्।
सहजपरमदृष्ट्या निष्ठितात्माघजातं
भवभवपरितापै: कल्पनाभिश्च मुक्तम्।।
अर्थ-सहज तेजपुंज में डूबा हुआ ऐसा जो स्फुरायमान सहज परम तत्त्व है वह जयशील हो रहा है, जो कि मोहांधकार से रहित है, सहज परम दृष्टि से कृतकृत्य रूप है और भव-भव के परितापों से तथा कल्पनाजालों से मुक्त है।
मालिनी-भवभवसुखमल्पं कल्पनामात्ररम्यं
तदखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या।
सहजपरमसौख्यं चिच्चमत्कारमात्रम्
स्फुटितनिजविलासं सर्वदा चेतयेहम्।।१९७।।
अर्थ-जो भव-भव का सुख है, वह अल्प-तुच्छ है, कल्पनामात्र से ही सुन्दर लगता है, उस समस्त श्रीसुख का मैं आत्मशक्ति से सम्यक् प्रकार से नित्य त्याग करता हूँ और जो चिच्चमत्कार मात्र है तथा प्रगटित निज विलास रूप है ऐसे सहज परम सौख्य का मैं सदा ही अनुभव करता हूँ।
पृथ्वी– निजात्मगुणसंपदं मम हृदि स्फुरन्तीमिमां
समाधिविषयामहो क्षणमहं न जाने पुरा।
जगत्त्रितयवैभवप्रलयहेतुदु:कर्मणां ।
प्रभुत्वगुणशक्तित: खलु हतोस्मि हा संसृतौ।।१९८।।
अर्थ-मेरे हृदय में स्फुरायमान होती हुई समाधि की विषयभूत-ध्यान के गोचर ऐसी इस अपनी आत्मा की गुणरूपी संपत्ति को पहले मैंने एक क्षण भी नहीं जाना। हाय! ! बड़े दुख की बात है कि तीनों जगत के वैभव का प्रलय करने में कारणभूत ऐसे दुष्ट कर्मों के प्रभुत्व गुण की शक्ति से मैं निश्चित ही संसार में मारा गया हूँ।
भावार्थ-मेरी आत्मा में अनंत गुणों का पुंज विद्यमान है किन्तु उसको न जान करके ही मैं इस कर्मशत्रु के द्वारा इस संसार में मारा जा रहा हूँ और अपनी संपत्ति से भी वंचित हो रहा हूँ।
आर्या– भवसंभवविषभूरूहफलमखिलं दु:खकारणं बुद्ध्वा।
आत्मनि चैतन्यात्मनि संजातविशुद्धसौख्यमनुभुंजे।।१९९।।
अर्थ-भव में उत्पन्न होने वाले विषवृक्ष के अखिल फल को दु:ख का कारण जान करके मैं चैतन्यस्वरूप अपनी आत्मा में उत्पन्न होने वाले विशुद्ध सौख्य का अनुभव करता हूँ।
विशेषार्थ-इस शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार में प्रारम्भ में तो आचार्य ने व्रत, समिति आदि के परिणाम को ही प्रायश्चित्त कहा है। वास्तव में जिसके द्वारा पाप का शोधन हो उसको प्रायश्चित्त कहते हैं। पुन: इसमें तपश्चरण को प्रायश्चित्त बतलाते हुए अंत में १२१ वीं गाथा में कायोत्सर्ग भी ले लिया है। अधिकतर प्रायश्चित्त में तपश्चरण और कायोत्सर्ग ही प्रधान रहते हैं। स्थल-स्थल पर टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि जो व्यवहार क्रियाओं में पूर्ण निष्णात हैं उन्हीं साधु के यह निश्चय प्रायश्चित्त होता है। यदि वे व्यवहार में ही लगे रहते हैं तो उन्हें यह निश्चय धर्म नहीं भी होता है किन्तु जब भी निश्चय प्रायश्चित्त आदि साधु के होंगे तो वे सब व्यवहार क्रिया में पूर्ण निष्णात के ही होंगे न कि व्यवहार क्रिया से शून्य या शिथिल के। इसलिये पहली सीढ़ी में व्यवहार में पूर्ण सावधान रहते हुए आगे निश्चय धर्म को प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये।इस प्रकार से नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलशकाव्य के भाषानुवादरूप शुद्ध निश्चय प्रायश्चित अधिकार नाम वाला आठवां श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ।