जैनदर्शन की विशुद्ध साधना पद्धति में श्रावकाचारों के अन्दर वर्णित श्रावकों के विशेष कर्तव्यों में सामायिक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसको धारण किये बिना कोई भी व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। श्रावकाचार संग्रह में सामायिक की विवेचना शिक्षाव्रत एवं तीसरी प्रतिमा को ध्यान में रख कर की गई है। सभी श्रावकाचारों में शिक्षाव्रत को एवं सामायिक को स्वीकार किया गया है। यहाँ सर्वप्रथम शिक्षाव्रत के स्वरूप पर विचार करते हैं—
सामायिक का समय पूर्ण होने तक हिंसादि पाँचों पापों का पूर्ण रूप से अर्थात् मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करने को सामायिक शिक्षाव्रत कहा गया है।
जिस प्रकार तीसरी प्रतिमाधारी श्रावक को कम से कम दो घड़ी और अधिक से अधिक छह घड़ी सामायिक का निर्देश किया गया है उस प्रकार का बंधन सामायिक शिक्षाव्रत के अभ्यास करने वाले गृहस्थ के लिये नहीं है। गृहस्थ सामायिक का अभ्यास धीरे- धीरे अल्पकाल से प्रारंभ करता है और उत्तरोत्तर समय को बढ़ाता है। उसका मुख्य लक्ष्य आर्त्त और रौद्र ध्यान से तथा संक्लेशभाव से बचकर आत्मा में स्थिर होने का है। प्रारंभिक अभ्यासी को जब तक किसी प्रकार की आकुलता नहीं होती है, तभी तक वह सामायिक में स्थिर होकर बैठ सकता है। सामायिक प्रारंभ करने के पूर्व वह कभी-कभी शिर-केश चोटी आदि की गाँठ लगा लेता है। पहिने और ओढ़े हुए वस्त्र की गाँठ भी लगा लेता है। जिसका भाव यह है कि सामायिक करते समय वायु से उड़कर ये मन को व्याकुल न करें। सामायिक में बैठे हुए पद्मासन में हाथों की मुट्ठी को बाँधता है अर्थात् दाहिनी हथेली को बांई हथेली के ऊपर रखता है तथा कभी खड़े होकर भी सामायिक करता है। इन सबमें यही भाव निहित है कि जब तक मुझे बैठने या खड़े रहने में आकुलता नहीं होगी, तब तक मैं सामायिक करूँगा। इस प्रकार जब तक मेरे केशबंध आदि रहेंगे, तब तक मैं सामायिक करूँगा, ऐसी मर्यादा को सामायिक का काल जानना चाहिए। जहाँ पर चित्त में विक्षोभ उत्पन्न न हो ऐसे एकान्त स्थान में, वनों में, वसतिकाओं में अथवा चैत्यालयों में प्रसन्न चित्त में सामायिक की वृद्धि करना चाहिए। उपवास अथवा एकाशन के दिन गृहव्यापार और उनकी व्यग्रता को दूर करके अन्तरात्मा में उत्पन्न होने वाले विकल्पों की निवृत्ति के साथ सामायिक अनुष्ठान प्रारंभ करें, पुन: आलस्यरहित होकर सावधानी के साथ पांचों व्रतों की पूर्णता करने के कारणभूत सामायिक का प्रतिदिन अभ्यास बढ़ाना चाहिए। सामायिक काल में आरंभ सहित सभी परिग्रह नहीं होते हैं अत: उस समय गृहस्थ वस्त्र से वेष्टित मुनि के समान मुनिपने को प्राप्त होता है। सामायिक को प्राप्त हुए गृहस्थों को चाहिए कि वे सामायिक के समय शीत, उष्ण और दंशमशक आदि परिषह को तथा अकस्मात् आये हुए उपसर्ग को भी मौन धारण करते हुए अचलयोगी होकर अर्थात् मन-वचन-काय की दृढ़ता के साथ सहन करें। सामायिक के समय श्रावक को ऐसा विचार करना चाहिए कि मैं जिस संसार में रह रहा हूँ, वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुखरूप है और मेरे आत्मस्वरूप से भिन्न है तथा मोक्ष इससे विपरीत स्वभाव वाला है अर्थात् शरणरूप है, शुद्धरूप है, नित्य है, सुखमय है और आत्मस्वरूप है। संसार, देह और भोगों से उदासीन होने के लिए अनित्य, अशरण आदि भावों का तथा मोक्षप्राप्ति के लिए उसके नित्य, शाश्वत सुखरूप का चिंतन करें।
सामायिक शिक्षाव्रत के ये पांच अतिचार हैं-सामायिक करते समय वचन का दुरुपयोग करना, मन में संकल्प-विकल्प करना, काय का हलन-चलन करना, सामायिक का अनादर करना और सामायिक करना भूल जाना। उपर्युक्त शिक्षाव्रत की विवेचना के उपरांत सामायिक प्रतिमा की दृष्टि से विवेचना श्रावकाचार संग्रह में प्राप्त होती है।
समत्व साधना में साधक जहां बाह्य रूप में (हिंसक) प्रवृत्तियों का त्याग करता है, वहीं आंतरिक रूप में सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव एवं सुख-दुख, लाभ-हानि आदि में समभाव रखता है लेकिन इन दोनों से भी ऊपर वह अपने विशुद्ध रूप में आत्म साक्षात्कार का प्रयत्न करता है। समय एकत्वेन आत्मनि आय: आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्ति: समाय: सं प्रयोजनमस्येति सामायिकम्। ‘सं’ अर्थात् एकत्वपने से ‘‘आय” अर्थात् आगमन परद्रव्यों से निवृत्त होकर उपयोग की आत्मा में प्रवृत्ति होना। वह समय ही जिसका प्रयोजन है, उसे सामायिक कहते हैं। श्रावकाचार संग्रह में सामायिक का विचार सभी श्रावकाचारों में एक सा ही मिलता है। बारह व्रतों के अन्तर्गत चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत है। इसके बाद तीसरी प्रतिमा सामायिक के रूप में ग्रहण की गई है। प्राय : सभी आचार्यों ने एक सा अनुसरण किया है।
सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्र ने सामायिक के स्वरूप को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार के टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने विस्तार में इसकी विवेचना की है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में वर्णित आचार्य श्री समन्तभद्र के निम्न-लिखित श्लोक को आधार मानकर परवर्ती आचार्यों ने सामायिक का स्वरूप, विधि एवं महत्त्व बतलाया है।
चतुरावर्तत्रितयश्चतु: प्रणाम: स्थितो यथाजात:।
सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धिस्त्रिसन्ध्यभिवन्दी।।
अर्थात् सामायिक पदधारी श्रावक चार बार तीन-तीन आवर्त और चार बार नमस्कार करने वाला यथाजातरूप से अवस्थित ऊर्ध्व कायोत्सर्ग और पद्मासन का धारक, मन-वचन-काय इन तीनों योगों की शुद्धि वाला और प्रात:, मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों संध्याओं में वंदना को करने वाला सामायिकी श्रावक है।
तीसरी सामायिक प्रतिमा है, जिसमें सामायिक नामक प्रथम शिक्षाव्रत की परिपूर्णता, त्रैकालिक साधना और निरतिचार परिपालना अति आवश्यक है। दूसरी प्रतिमा में सामायिक शिक्षाव्रत अभ्यास दशा में था अत: वहाँ पर दो या तीन बार करने का कोई कथन नहीं था, ‘‘वह इतने काल तक सामायिक करें’’ इस प्रकार कालकृत नियम भी शिथिल था। पर तीसरी प्रतिमा में सामायिक का तीनों संध्याओं में किया जाना आवश्यक है और वह भी एक बार में कम से कम दो घड़ी या एक मुहूर्त (४८ मिनिट) तक करना चाहिए। सामायिक का उत्कृष्ट काल छह घड़ी का है। साथ ही तीसरी प्रतिमाधारी को यथाजात रूप धारण कर सामायिक करने का विधान आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट शब्दों में किया है। इस यथाजात पद से स्पष्ट है कि तीसरी प्रतिमाधारी को सामायिक एकान्त में नग्न होकर करना चाहिए। चामुण्डराय और वामदेव ने भी अपने संस्कृत भावसंग्रह में यथाजात होकर सामायिक करने का विधान किया है। इसका अभिप्राय यही है इस प्रतिमा का धारक श्रावक प्रतिदिन तीन बार कम से कम दो घड़ी तक नग्न रहकर साधु बनने का अभ्यास करे। इस प्रतिमाधारी को सामायिक संबंधी दोषों का परिहार भी आवश्यक बताया गया है। इस प्रकार तीसरी प्रतिमा का आधार सामायिक नाम का प्रथम शिक्षाव्रत है।
आचार्यों ने ‘सर्वविरतातिलालस: खलु देशविरतिपरिणाम:’ कहकर सर्व पापों से निवृत्त होने का लक्ष्य रखना ही देशविरति का फल बताया है। यहां सर्व सावद्य विरति सहसा संभव नहीं है, इसके अभ्यास के लिए शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है। स्थूल हिंसादि पाँचों पापों का त्याग अणुव्रत है और उनकी रक्षार्थ गुणव्रतों का विधान किया गया है। गृहस्थ प्रतिदिन कुछ समय तक सर्व सावद्य (पाप) के योग के त्याग का भी अभ्यास करें, इसके लिए सामायिक शिक्षाव्रत का विधान किया गया है। अभ्यास को एकाशन या उपवास के दिन से प्रारंभ कर प्रतिदिन करते हुए क्रमश: प्रात:, सायंकाल और त्रिकाल करने तक विधान आचार्योंे ने किया है। यह दूसरी प्रतिमा का विधान है। इसमें काल का कथन और अतिचारों के त्याग का नियम नहीं है, हाँ, उनसे बचने का प्रयास अवश्य किया है। सकलकीर्ति आचार्य ने एक वस्त्र पहनकर सामायिक करने का विधान किया है।
किन्तु तीसरी प्रतिमाधारी को तीनों सन्ध्याओं में कम से कम दो घड़ी तक निरतिचार सामायिक करना आवश्यक है। वह भी शास्त्रोक्त कृतिकर्म के साथ और यथाजातरूप धारण करके। रत्नकरण्ड के इस ‘यथाजात’ पद के ऊपर वर्तमान के व्रतीजनों या प्रतिमाधारी श्रावकों ने ध्यान नहीं दिया है। समन्तभद्र ने जहाँ सामायिक शिक्षाव्रती को ‘चेलोपसृष्टमुनिरिव’ (वस्त्र से लिपटे मुनि के तुल्य) कहा है, वहाँ सामायिक प्रतिमाधारी को यथाजात (नग्न) होकर के सामायिक करने का विधान किया है। चारित्रसार में भी यथाजात होकर सामायिक करने का निर्देश है और व्रतोद्योतन श्रावकाचार में तो बहुत स्पष्ट शब्दों में ‘यथोत्पन्नस्तथा भूत्वा कुर्यात्सामायिकं च स:’ कहकर जैसा नग्न उत्पन्न होता है वैसा ही नग्न होकर सामायिक करने का विधान तीसरी प्रतिमाधारी के लिए किया गया है।
यथाजात धारण करके भी जघन्य दो घड़ी, मध्यम चार घड़ी और उत्कृष्ट छह घड़ी का काल तीसरी प्रतिमा में बताया है। कुछ आचार्यों ने तो मुनियों के समान ३२ दोषों से रहित सामायिक करने का विधान तीसरी प्रतिमाधारी के लिए किया है।
सामायिक शिक्षाव्रत में जहाँ स्वामी समन्तभद्र ने अशरण, अनित्य, अशुचि आदि भावनाओं को भाते हुए संसार को दुखरूप चिंतन करने तथा मोक्ष को शरण, नित्य और पवित्र आत्मस्वरूप से चिंतन करने का निरूपण किया है, वहां सामायिक प्रतिमा में उक्त चिंतन के साथ आगे पीछे किये जाने वाले कुछ विशेष कर्त्तव्यों का विधान किया है। वहां बताया है कि चार बार तीन-तीन आवर्त और चार नमस्कार रूप कृतिकर्म को भी त्रियोग की शुद्धिपूर्वक करें।
वर्तमान में सामायिक करने के पूर्व चारों दिशाओं में एक-एक कायोत्सर्ग करके तीन-तीन बार मुकुलित हाथों के घुमाने रूप आवर्त करके नमस्कार करने की विधि प्रचलित है पर इस विधि का लिखित आगम आधार उपलब्ध नहीं है। सामायिक प्रतिमा के स्वरूप वाले ‘चतुरावर्तत्रितय’ इस श्लोक की व्याख्या करते हुए श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने लिखा है कि एक-एक कायोत्सर्ग करते समय ‘णमो अरिहताणं’ इत्यादि सामायिक दण्डक और ‘‘थोस्सामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंतजिणे’’ इत्यादि स्तवनदण्डक पढ़ें। इन दोनों दण्डकों के आदि और अंत में तीन-तीन आवर्त के साथ एक-एक नमस्कार करें। इस प्रकार बारह आवर्त और चार नमस्कारों का विधान किया है।
आवर्त का द्रव्य और भाव रूप से दो प्रकार का निरूपण है। दोनों हाथों को मुकुलित कर अंजुलि बांधकर प्रदक्षिणा रूप से घुमाने को द्रव्य आवर्त कहा गया है। मन, वचन और काय के परावर्तन को भाव आवर्त कहा गया है। जैसे सामायिक दण्डक बोलने के पूर्व क्रिया विज्ञानरूप मनोविकल्प होता है, उसे छोड़कर सामायिक दण्डक के उच्चारण में मन को लगाना मन परावर्तन है। इसी सामायिक दण्डक के पूर्व भूमि को स्पर्श करते हुए नमस्कार किया जाता है, उसके पश्चात् खड़े होकर तीन बार हाथों को घुमाना काय परावर्तन है। तत्पश्चात् ‘चैत्यभक्ति कायोत्सर्गं करोमि’ इत्यादि उच्चारण को छोड़कर ‘णमो अरिहंताणं’ इत्यादि पाठ का उच्चारण करना वचन परावर्तन है। इस प्रकार सामायिक दण्डक से पूर्व मन, काय और वचन के परावर्तन रूप तीन आवर्त होते हैं। इसी प्रकार सामायिक दण्डक के अंत में तीन आवर्त तथा स्तवनदण्डक के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त होते हैं। उक्त विधि से एक कायोत्सर्ग में सब मिलकर बारह आवर्त होते हैं।
श्रावकाचार संग्रह में सामायिक की विधि सभी आचायोंं के अुनसार प्राय: एक जैसी ही निरूपित की गई है। सामायिक के समय क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि, आसन शुद्धि, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, शरीर शुद्धि तथा विनय शुद्धि इस तरह सात प्रकार की शुद्धि, बारह आवर्त, चार शिरोनति और चार प्रणामपूर्वक पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके दोनों हाथों को सीधा लटकाकर, दोनों पाँवों के बीच में चार अंगुल की जगह छा़ेडकर अपने सीने को सीधा रखकर, नासा दृष्टि लगाकर कायोत्सर्गपूर्वक आसन पर खड़ा होकर ४८ मिनट तक सामायिक करने की प्रतिज्ञा करता है। मेरी सामायिक काल की मर्यादा पूर्ण न हो जाये, तब तक मैं दूसरे स्थान का एवं परिग्रह का त्याग करता हूँ और अपनी देह पर पड़े हुए परिग्रह का त्याग करता हूँ। शरीर के प्रति ममता का त्याग करने का अभ्यासपूर्वक चारों दिशाओं में से प्रत्येक में नौ बार णमोकार मंत्र का जाप, तीन आवर्त, एक शिरोनति और जिस दिशा से आज्ञा ली है उस दिशा में अष्टांग नमस्कार करके तीन बार ‘नमोऽस्तु’ बोलकर आसन लगाता है। सामायिक पूर्ण होने तक खड्गासन, पद्मासन एवं पर्यंकासन उक्त तीन आसनों में से किसी एक आसन से सामायिक को पूर्ण करता है। प्रतिज्ञा की हुई कालावधि में एक आसन से ही जाप करके सामायिक पूर्ण करता है।
आचार्य सोमदेव के अनुसार देवपूजा, आप्त सेवा ही सामायिक है। श्रावक को प्रतिदिन तीनों संध्याकालों में जिनेन्द्रदेव की जिनपूजापूर्वक सामायिक करना चाहिए। जिनपूजा के बिना सभी सामायिक क्रिया दूर है अत: सामायिक करने वाले भव्यों को पूजा शास्त्र में कहे गये क्रम के अनुसार निरंतर जिनपूजा करनी चाहिए। वस्तुत: सोमदेव के अतिरिक्त किसी अन्य आचार्य ने देवपूजा को सामायिक निरूपित नहीं किया है। समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सामायिक का महत्व दो शब्दों से प्रतिपादित किया है-प्रथम ‘चेलोपसृष्टमुनिरिव’ दूसरा ‘यथाजात’। वस्तुत: शिक्षाव्रती को मुनिरिव कहना और उसकी पुष्टि तीसरी प्रतिमाधारी को ‘यथाजात’ शब्द कहकर ‘नग्न’ होकर सामायिक में मुनि बनने का अभ्यास करने की ओर संकेत है। यद्यपि यह सब उपचार से कथन है परन्तु सामायिक का महत्त्व स्पष्ट है। आचार्य समन्तभद्र का समर्थन कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी किया गया है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपायकार ने भी सामायिक शिक्षाव्रती को महाव्रती कहकर महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। अमितगति श्रावकाचार में सामायिक में स्थित शिक्षाव्रती को महात्मा शब्द से व्यवहृत किया है।
सागारधर्मामृत में सामायिक को शाश्वत मुक्ति का कारण बताया है और सामायिक के दो भेद करके द्रव्य सामायिक में पूजन को महत्त्व दिया है और भाव सामायिक में आत्मध्यान को महत्त्व दिया है।’ इस संबंध में कहा है कि जिस महात्मा के द्वारा यह भाव सामायिक प्रतिमारूप भाव धारण किया गया है उस महात्मा ने सामायिक व्रतरूपी मंदिर के शिखर पर कलश स्थापित किया है।’
धर्मसंग्रह श्रावकाचार में सामायिक का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा है कि जिस सामायिक व्रत के धारण करने से अभव्य पुरुष ग्रैवेयक पर्यन्त तक चला जाता है तो सम्यग्दर्शन से पवित्र भव्य पुरुष उस व्रत के माहात्म्य से मोक्ष नहीं जायेगा ? अवश्य जायेगा।’
प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में सामायिक को धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान को प्रकट करने वाला कहा है।
प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में सामायिक में रत गृहस्थ को वस्त्रसहित मुनि के समान बताया है क्योंकि वह संचित कर्मों को नष्ट करता है एवं नये कर्मों को ग्रहण नहीं करता है। साथ ही सोलहवें स्वर्ग की संपदा पाकर मोक्ष में जाकर विराजमान हो जाता है परन्तु जो व्यक्ति गृहस्थाश्रमरूपी रथ में लगे रहने पर भी सामायिक नहीं करते, सदा पापकर्म की चिंता में ही लगे रहते हैं, वे निपट बैल हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। जो सामायिक, महामंत्र स्तवन आदि में भरपूर धर्म्यध्यान को नहीं करते हैं वे पाप के कारण नरक में पड़ते हैं। जिस प्रकार परमाणु से कोई छोटा नहीं और आकाश से अन्य कोई बड़ा नहीं है उसी प्रकार पंचनमस्कार मंत्र से बढ़कर और कोई मंत्र इस संसार में नहीं है। उमास्वामी श्रावकाचार में सामायिक की क्रिया करने वाले को कहा गया है कि वह मनुष्य भरतराज के समान शीघ्र ही केवलज्ञान की प्राप्ति करता है। श्रावकाचार सारोद्धार में स्पष्ट किया है कि सामायिक के समय गृहस्थ वस्त्र से परिवेष्टित मुनि के समान मुनिपने को प्राप्त हो जाता है। जैसे-अग्नि काष्ठ को भस्म कर देती है, सूर्य बढ़ते हुए महान्धकार के समूह को विनष्ट कर देता है उसी प्रकार समता भावरूप स्वच्छ जल के प्रवाह से जिसके भीतर शांतस्वरूप लक्ष्मी होती है, ऐसा भव्य जीवों का प्रिय सामायिक रूप वृक्ष अति उद्धत कर्म के उदय से उत्पन्न ताप को शांत कर देता है।
श्रावकाचार संग्रह में अमितगति श्रावकाचार, धर्मसंग्रह श्रावकाचार एवं व्रतोद्योतन श्रावकाचार के अतिरिक्त किसी अन्य श्रावकाचार में प्रतिक्रमण के संबंध में विशेष विवेचना नहीं की गई है क्योंकि अव्रती श्रावक के लिए प्रतिक्रमण का विधान आगमों में नहीं मिलता है अत: श्रावकाचार में भी इसकी विशेष विवेचना प्राप्त नहीं होती है। आचार्य अमितगति के अनुसार प्रतिक्रमण का स्वरूप और विधि इस प्रकार से है-
सायंकाल सम्बन्धी प्रतिक्रमण (दैवसिक प्रतिक्रमण) करते समय १०८ श्वासोच्छ्वास वाला कायोत्सर्ग किया जाता है। प्रभातकाल संबंधी प्रतिक्रमण (रात्रिक प्रतिक्रमण) में उससे आधा अर्थात् ५४ श्वासोच्छ्वास वाला कायोत्सर्ग कहा गया है। अन्य सर्व कायोत्सर्ग सत्ताईस श्वासोच्छ्वास काल प्रमाण कहे गये हैं। संसार के उन्मूलन में समर्थ पंचनमस्कार मंत्र के नौ बार चिंतन करने पर सत्ताईस श्वासोच्छ्वासों में बोलना या मन में उच्चारण करना चाहिए। बाहर से भीतर की ओर वायु के खींचने को श्वांस कहते हैं। भीतर की ओर से बाहर वायु के निकालने को उच्छ्वास कहते हैं। इन दोनों के समूह को श्वासोच्छ्वास कहते हैं। श्वांस लेते समय ‘णमो अरहंताणं’ पद और श्वांस छोड़ते समय ‘णमो सिद्धाणं’ पद बोलें। पुन : श्वांस लेते समय ‘णमो आइरियाणं’ पद और श्वांस छोड़ते समय ‘णमो उवज्झायाणं’ पद बोलें। पुन: ‘णमो लोए’ को श्वांस लेते समय और ‘सव्व साहूणं’ पद श्वांस छोड़ते समय बोलना चाहिए। इस विधि से नौ बार णमोकारमंत्र के उच्चारण के चिंतन में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास प्रमाण काल का एक जघन्य कायोत्सर्ग कहा गया है। श्रावकों को प्रतिदिन दो बार प्रतिक्रमण, चार बार स्वाध्याय, तीन बार वंदना और दो बार योगभक्ति करना चाहिए। उत्कृष्ट श्रावक को ये सर्व कार्य प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए और संसार के पार जाने के इच्छुक अन्य पुरुषों को उन्हें यथाशक्ति करना चाहिए।
प्रतिक्रमण के संदर्भ में अन्य कृतियों में भी निम्नलिखित प्रकार से विचार व्यक्त किये गये हैं, जो दृष्टव्य हैं-व्रत में लगे हुए दोषों का पश्चाताप प्रतिक्रमण है तथा आगामी काल के लिए दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। जहाँ पर प्रतिक्रमण होता है वहीं पर प्रत्याख्यान भी अवश्य होता है क्योंकि पिछले दोषों का वास्तविक प्रतिक्रमण वहीं पर होता है जहां पर साथ-साथ यह दृढ़ त्याग होता है कि आगामी ऐसे दोष नहीं लगाऊँ। अव्रती के कोई व्रत ही नहीं होते जिसमें दोष लगे और जिनका वह प्रतिक्रमण करे और न वह आगामी व्रत धारण करके पूर्वकृत दोषों को त्यागने के लिए कटिबद्ध है, फिर अव्रती के प्रतिक्रमण कैसे संभव है ? प्रथम प्रतिमा से व्रत प्रारंभ हो जाते हैं और वहीं पर प्रतिक्रमण प्रारंभ हो जाता है। आचार्यों ने भी प्रथम प्रतिमा से ग्यारहवीं प्रतिमा तक श्रावकों के लिये और महाव्रतधारी मुनियों के लिए प्रतिक्रमण पाठ रचे हैं किन्तु अव्रती के लिए किसी भी आचार्य ने प्रतिक्रमण पाठ नहीं रचा। कालदोष से कुछ ऐसे भी जीव उत्पन्न हो गए हैं जो त्यागी का भेष धारण करके आगमविरुद्ध पुस्तकें रचने लगे हैं और उनको प्रकाशित करके केवल अपने आप ही नहीं किन्तु अन्य को भी कुगति का पात्र बनाते हैं।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि श्रावकाचार संग्रह में शिक्षाव्रतों के स्वरूप में सामायिक शिक्षाव्रत को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। जिसका विवेचन विस्तार से प्राप्त होता है। प्रतिमाओं के विवेचन में सामायिक प्रतिमा की विवेचना विस्तार से की गई है, जिसका महत्त्व पूर्व में हम विवेचित कर आये हैं। प्रतिक्रमण के स्वरूप, विधि और महत्व के संबंध में अमितगति श्रावकाचार के अतिरिक्त अन्य श्रावकाचारों में श्रावक के षट्आवश्यक में मात्र उल्लेख मिलता है। उसके स्वरूप, विधि एवं महत्त्व के संबंध में आचार्यों ने कलम नहीं चलायी है, यही कारण है कि दिगम्बर परंपरा में श्रावकों में प्रतिक्रमण करने की परम्परा नगण्य है। इससे सिद्ध है कि श्रावकों को दान-पूजा के साथ-साथ सामायिक आवश्यक है परन्तु प्रतिक्रमण आवश्यक नहीं है।
भारतीय संस्कृति में दो परम्पराओं का उल्लेख मिलता है। जिनमें से एक वैदिक परम्परा, दूसरी श्रमण परम्परा। श्रमण परम्परा में भी दो दर्शन समान रूप से सम्मिलित हैं-एक बौद्धदर्शन, दूसरा जैनदर्शन। प्रत्येक दर्शन में भिन्न-भिन्न अवधारणायें हैं जिनमें कोई निवृत्तिपरक है तो कोई प्रवृत्तिपरक है, जिसमें जैनदर्शन दोनों अवधारणाओं का समन्वय करता हुआ पूर्व में प्रवृत्ति का पालन करने का उपदेश देता है और पीछे धीरे-धीरे प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति में पहुँचने को कहता है।
जैनधर्म तथा दर्शन की परम्परा अनादि-अनन्त है, जो अनादिकाल से अविच्छिन्न रूप से प्रवाहमान रही है और अनन्तकाल तक निर्बाध रूप से प्रवाहित रहेगी। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव के अन्तस् में भगवद् शक्ति निहित है जिसको वह प्रकट कर ले तो स्वयं ईश्वर बन सकता है। जैनदर्शन ऐसा दर्शन है जो स्वकल्याण करने का उपदेश तो देता ही है साथ में परकल्याण करने का भी उपदेश देता है। पूज्य आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है-
आदहिदं कादव्वं आदहिदं परहिदं च कादव्वं।
आदहिद परहिदादो आदहिदं सुट्ठु कादव्वं।।
जिस प्रकार तीर्थंकर पहले स्वकल्याण करते हैं और केवलज्ञान हो जाने पर विश्व के समस्त प्राणियों को उनके हित का उपदेश देकर सबका कल्याण करते हैं। विश्व के समस्त प्राणियों का हित चाहने वाला होने के कारण ही उन्हें तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है और तीर्थंकरत्व प्राप्त करने के बाद अरहंतावस्था पर्यन्त दिव्यध्वनि के माध्यम से सबका कल्याण करते हैं। धन्य हैं वे तीर्थंकर और धन्य है उनकी विश्वहित भावना। वह तीर्थंकर पद और वह भावना किस प्रकार से प्राप्त हो इस पर आचार्य कहते हैं कि वह भावना हमारे अन्तरंग में वैयावृत्य से उत्पन्न हो सकती है, जो स्व पर हितकारिणी है। इससे स्वयं का कल्याण तो होता ही है साथ में पर का कल्याण भी होता है। जब दूसरे की वैयावृत्य करते हैं तो ये हमारे अन्तरंग के धर्मस्वभाव को प्रकट करता है जिससे पर को स्वयं की वस्तु अथवा अन्य प्रकार का सहयोग भी मिलता है तो दान भी हो जाता है अत: आचार्यों ने वैयावृत्य को दान एवं धर्म दोनों रूपों में स्वीकार किया है।
वैयावृत्य का लक्षण करते हुए आचार्य समन्तभद्रस्वामी कहते हैं कि-
दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये।
अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन।।
अर्थात् तपरूप धन से युक्त तथा सम्यग्दर्शनादि गुणों के भण्डार गृहत्यागी मुनीश्वर के लिए विधि-द्रव्य आदि सम्पत्ति के अनुसार प्रतिदान और प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित धर्म के निमित्त जो दान दिया जाता है वह वैयावृत्य कहलाता है। दुःखनिवृत्ति जिसका प्रयोजन है उसे वैयावृत्य कहते हैं। अन्य आचार्यों ने वैयावृत्य के स्थान पर अतिथिसंविभाग शब्द का प्रयोग भी किया है। अतिथिसंविभाग व्रत में जिस प्रकार अतिथि के लिये दान की प्रधानता है उसी प्रकार वैयावृत्य में भी दान की प्रधानता है क्योंकि आहारादि दान के द्वारा अतिथि की दु:खनिवृत्ति का ही प्रयोजन सिद्ध होता है। अतिथिसंविभाग शब्द में मात्र चार प्रकार के दानों का समावेश होता है। उसके अतिरिक्त संयमीजनों की जो सेवा-सुश्रूषा है उसका समावेश नहीं होता और वैयावृत्य शब्द में दान और सेवा-सुश्रूषा सबका समावेश होता है इसलिए समन्तभद्रस्वामी ने ‘वैयावृत्य’ इस व्यापक शब्द को स्वीकृत किया है। समन्तभद्रस्वामी जैन न्याय के जनक के रूप में विख्यात हैं अत: उनके द्वारा सभी विषयों में समीचीन रूप से विचार करके ही किसी विषय का प्रतिपादन किया गया है। इस कारण से ही इन्होंने ‘वैयावृत्य’ जो व्यापक शब्द है उसको शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है।
इसी सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने वैयावृत्य की एक और परिभाषा निर्दिष्ट करते हुए कहा है-
व्यापत्तिव्यपनोद: पदयो: संवाहनं च गुणरागात्।
वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम्।।
अर्थात् सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्रीति से देशव्रत और सकलव्रत के धारक संयमीजनों पर आगत नाना प्रकार की आपत्ति को दूर करना, हाथ-पैर आदि अंगों का दबाना और इसके सिवाय अन्य भी जितना उपकार है वह सब वैयावृत्य कहा जाता है। व्यवहारनय से परस्पर की सहानुभूतिपूर्ण प्रवृत्ति से ही चतुर्विध मुनिसंघ का निर्वाह होता है। गृहस्थ मुनिधर्म की शिक्षा लेने के उद्देश्य से शिक्षाव्रतों का पालन करता है इसीलिये उसके शिक्षाव्रतों में वैयावृत्य नाम रखा गया है। वैयावृत्य करते समय किसी प्रकार की ग्लानि या मान-सम्मान का भाव नहीं रखना चाहिये क्योंकि स्वार्थबुद्धि से किया गया वैयावृत्य धर्म का अंग नहीं हो सकता। जो सेवा किसी स्वार्थबुद्धि से की जाती है तो वह श्ववृत्ति (कुक्कुरवृत्ति) कहलाती है और जब नि:स्वार्थ भाव से की जाती है तब परमधर्म कहलाती है अर्थात् कर्म-निर्जरा का कारण मानी जाती है।
अन्य आचार्यों ने भी वैयावृत्य के लक्षण अथवा परिभाषा को अपने ग्रंथों में उल्लिखित किया है-
आचार्य कार्तिकेयस्वामी लिखते हैं कि-‘‘जो मुनि उपसर्ग से पीड़ित हों और बुढ़ापे आदि के कारण जिनकी काया क्षीण हो गई हो, उन मुनियों का जो अपनी पूजा प्रतिष्ठा की अपेक्षा न रखते हुए सत्कार करता है, वह वैयावृत्य तप का पालन करता है। गुणी पुरुषों के दु:ख में आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उनका दुःख दूर करना वैयावृत्य भावना है।
आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि किसी गुणवान् के दुःख की उत्पत्ति होने पर निर्दोष विधि से उसको दूर करना वैयावृत्य है।
आचार्य अकलंक स्वामी लिखते हैं कि आचार्य आदि पर व्याधि, परीषह, मिथ्यात्व आदि का उपद्रव होने पर उसका प्रासुक औषधि, आहार-पान, आश्रय, चौकी, तख्ता और सांथरा आदि धर्मोपकरणों से प्रतिकार करना तथा सम्यक्त्व मार्ग में दृढ़ करना वैयावृत्य है। औषधि आदि का अभाव होने पर अपने हाथ से खकार, थूंक, नाक आदि भीतरी मल को साफ करना और उनके अनुकूल वातावरण को बनान्ाा आदि भी वैयावृत्य है।
इसी संदर्भ में आचार्य श्री वीरसेनस्वामी ने भी वैयावृत्य का लक्षण बताते हुए कहा है कि रागादि से व्याकुल साधु के विषय में जो कुछ भी किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है।
महामात्य चामुण्डराय जी लिखते हैं कि शरीर की पीड़ा अथवा दुष्ट परिणामों को दूर करने के लिए शरीर की चेष्टा से किसी औषधि आदि अन्य द्रव्य से अथवा उपदेश देकर प्रवृत्त होना अथवा कोई भी क्रिया करना वैयावृत्य है। यह परिभाषा आत्म व्यावृत्ति की ओर संकेत करती है।
चतुर्विध संघ के ऊपर आए हुए उपद्रव को दूर करना ही वैयावृत्य है। इसमें सबसे प्रमुख साधुओं को आहारदान देना गर्भित है। इसी में अतिथिसंविभाग को भी ग्रहण कर लिया है। उसी दान के स्वरूप को बताते हुए आचार्य समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं कि-
नवपुण्यै: प्रतिपत्ति: सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन।
अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम्।।
अर्थात् सात गुणों से सहित और कौलिक, आचारिक तथा शारीरिक शुद्धि से सहित दाता के द्वारा गृहसम्बन्धी कार्य तथा खेती आदि के आरम्भ से रहित सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों का नवधाभक्तिपूर्वक आहार आदि के द्वारा जो गौरव किया जाता है, वह दान है।
नवधा भक्ति-आहारदान के नौ सोपान होते हैं, जिन्हें आचार्य नवधा भक्ति के रूप में प्ररूपित करते हैं। वे इस प्रकार हैं-
पड़गाहन, उच्चासन, पादप्रक्षालन, पूजन, प्रणाम, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, एषण आदि आहारशुद्धि। ये नौ पुण्य कहलाते हैं और इन्हीं को नवधाभक्ति कहते हैं।
पंचसूना-जीवघात के स्थान को सूना कहते हैं। इनको श्रावक न चाहते हुए भी करता ही है क्योंकि इन कार्यों के बिना गृहस्थाश्रम का निर्वहन नहीं हो सकता। श्रावक को आहार आदि के निर्माण में कुछ अल्प पाप बंध होता भी है तो भी वह पतन का कारण नहीं है क्योंकि चतुर्विध संघ को आहार देने से महान् पुण्य का बंध होता है। वे पाँच सूना इस प्रकार हैं-
१. खण्डनी – ऊखली से कूटना।
२. प्रेषणी – चक्की से पीसना।
३. चुल्ली – चूल्हे में आग जलाना।
४. उदक्कुम्भ – पानी के घट भरना।
५ प्रमार्जनी – बुहारी (झाडू) से भूमि को साफ करना।
ये पाँच हिंसा के कार्य गृहस्थ के होते ही हैं। खेती, व्यापारादि कार्य आरम्भ कहलाते हैं। जिनके आरम्भ और सूना नष्ट हो चुके हैं ऐसे सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों का आहारादि दान के द्वारा जो गौरव अथवा आदर किया जाता है वह दान कहलाता है।
आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने दान को वैयावृत्य के अंग के रूप में स्वीकृत किया है। दान को सभी आचार्यों ने चार प्रकार का माना है और आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने भी चार प्रकार का दान स्वीकार किया है।
आहारौषधियोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन।
वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्रा:।।
अर्थात् विद्वज्जन आहार, औषधि, उपकरण और आवास भेद से दान के वैयावृत्य को चार प्रकार का कहते हैं। भोजन-पात्रादि को आहार कहते हैं, बीमारी को दूर करने वाले पदार्थ को औषधि कहते हैं। ज्ञानोपकरणादि को उपकरण और वसतिका आदि को आवास कहते हैं। इन चार दानों में कौन-कौन प्रसिद्ध हुआ इसको भी आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी बताते हैं कि आहारदान में राजा श्रीषेण, औषधिदान में वृषभसेना, उपकरण दान में कौण्डेश ग्वाला और वसतिका दान में सूकर प्रसिद्ध हुए हैं।
आचार्य वट्टकेर स्वामी ने लिखा है कि गुणाधिक में, उपाध्यायों में, तपस्वियों में, शिष्यों में, दुर्बलों में, साधुओं में, गण में, साधुओं के कुल में, चतुर्विध संघ में, मनोज्ञ में उपद्रव आने पर वैयावृत्य करना श्रावक का परम कर्तव्य है। आचार्य उमास्वामी ने भी पात्र की अपेक्षा वैयावृत्य के दस भेद किये हैं-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य (शिष्य), ग्लान (रोगी), गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ।
दान सात गुणों से सहित दाता के द्वारा दिया जाता है। आचार्यों ने सात गुणों का वर्णन किया तो है परन्तु अलग-अलग आचार्यों ने अलग-अलग सात गुणों का कथन किया है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार के टीकाकार आचार्य श्री प्रभाचन्द्रस्वामी के अनुसार दाता के सात गुण इस प्रकार हैं- श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, और सत्व। ये सात गुण जिसके होते हैं वह दाता प्रशंसनीय है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्रस्वामी ने भी दाता सात गुणों का वर्णन इस प्रकार किया है-ऐहिक फल की इच्छा न करना, शान्ति, निष्कपटता, अनसूया अर्थात् अन्य दाताओं से ईर्ष्या न करना, अविषादित्व, मुदित्व और निरहंकारित्व।
दाता की शुद्धता का विचार तीन प्रकार से किया जाता है-
१. कौलिकशुद्धि-जिसकी वंश परम्परा शुद्ध हो उसे कुलशुद्ध कहते हैं।
२. आचारिकशुद्धि-जिसका आचरण शुद्ध हो, उसे आचार शुद्ध कहते हैं।
३. शारीरिकशुद्धि-जिसने स्नानादिक कर शुद्ध वस्त्र धारण किए हैं, अंग-भंग नहीं हैं, शरीर में कोई राध-रुधिर को बहाने वाली बीमारी नहीं हो, वह शारीरिकशुद्ध है।
वैयावृत्य का फल-वैयावृत्य करने वाले गृहस्थ को किन-किन फलों की प्राप्ति होती है, उसका वर्णन करते हुए आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं कि-
गृहकर्मणापि निचितं, कर्म विमार्ष्टिखलु गृहविमुक्तानाम्।
अतिथीनां प्रतिपूजा, रुधिरमलं धावते वारि।।
अर्थात् निश्चय से जिस प्रकार जल खून को धो देता है उसी प्रकार गृहरहित निर्ग्रन्थ अर्थात् परिग्रहरहित साधु को (ना कि गृह आदि से रहित साधु को) दिया गया दान गृहसम्बन्धी कार्यों से उपार्जित अथवा सुदृढ़ भी कर्म को नष्ट कर देता है क्योंकि श्रावक को प्रतिदिन की क्रियाओं में नियम से बहुत कर्मबन्ध होता है इसलिए उन कर्मों का भार इन वैयावृत्य-दानादि क्रियाओं के करने से कम हो जाता है और परम्परा से मोक्ष पद की प्राप्ति कराने में सहायक होता है। आगे आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं कि तप के भण्डारस्वरूप मुनियों को नमस्कार करने से उच्च गोत्र, आहार आदि, दान देने से भोग, प्रतिग्रहण आदि करने से सम्मान, भक्ति करने से सुन्दर रूप और स्तुति करने से सुयश प्राप्त होता है।
वैयावृत्य का माहात्म्य बताते हुए आचार्य कहते हैं कि उचित समय में योग्य पात्र के लिए दिया गया थोड़ा भी दान उत्तम पृथ्वी में पड़े हुए वटवृक्ष के बीज के समान प्राणियों के लिए माहात्म्य और वैभव से युक्त पक्ष में छाया की प्रचुरता से सहित बहुत भारी अभिलषित फल को देता है।” यहाँ पर आचार्य समन्तभद्रस्वामी का तात्पर्य है कि जो मुनि दान/वैयावृत्य के योग्य हैं और उन्हें जिस समय जिस वस्तु की आवश्यकता है उसी समय थोड़ा सा भी दिया गया दान अतिशय पुण्य का कारण बनता है और मोक्षप्राप्ति में भी सहायक होता है। यदि कुपात्रों या अपात्रों को प्रचुर भी दान दे दिया तो भी कुभोगभूमि का ही कारण होता है। दान देने में मात्रा (परिमाण) नहीं, भावना और आवश्यकतानुसार पदार्थ का माहात्म्य होता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य पात्रदान के फलस्वरूप स्वर्ग में उत्पन्न होता है और मिथ्यादृष्टि मनुष्य भोगभूमि में उत्पन्न होता है। कुपात्रदान का फल कुभोगभूमि और अपात्रदान का फल नरक एवं निगोद आदि हैं। अन्य आचार्यों ने भी दान की महिमा का बहुत गुणगान किया है। दान की महिमा का बखान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो भी तीर्थंकर को प्रथम आहारदान देता है वह नियम से उसी भव से मोक्ष जाता है। प्रथमानुयोग का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि तीर्थंकर, ऋद्धिधारी मुनि आदि को दान देने पर श्रावकों के घर पर पञ्चाश्चर्य प्रकट होते हैं। ये सब दान की ही महिमा है। राजा श्रेयांस आदिनाथ स्वामी को इस युग का प्रथम आहारदान देने के कारण दान तीर्थप्रवर्तक कहलाते हैं।
सामान्यजनों को यह विश्वास है कि साधु की सेवा करना ही वैयावृत्य है परन्तु आचार्यों ने साधु की वैयावृत्य के अतिरिक्त देव और शास्त्र की वैयावृत्य करने का भी निर्देश दिया है। श्रावक और साधक अरिहन्त की सेवा-सुश्रूषा, पूजाभक्ति आदि के द्वारा महान् पुण्य का बन्ध करते हैं। यहाँ पर श्रावक को द्रव्य एवं भाव दोनों पूजाओं के द्वारा वैयावृत्य का निर्देश है और मुनि को केवल भावपूजा के द्वारा अरिहन्त की भक्ति करना चाहिए। जो श्रावक अरिहन्त की पूजा के निमित्त से जिनमन्दिर में जिनप्रतिमा को स्थापित कराके अरिहन्त की वैयावृत्य से स्वतन्त्र हो जाते हैं उनके लिए आचार्यों ने निर्देश दिया है कि भले ही प्रतिमा विराजमान कराना महान् पुण्य का कारण है परन्तु प्रतिमा विराजमान कराके जो समझते हैं कि मेरा सारा काम हो गया, यदि ऐसा सोचकर पूजा करने नहीं आते हैं तो ऐसे व्यक्ति कुल सहित विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे कई उदाहरण प्रत्यक्ष देखने में भी आए हैं।
आचार्यों ने मुनियों के साथ-साथ श्रावकों के भी छह आवश्यक बताए हैं जिनमें से प्रथम आवश्यक देवपूजा है। जिनेन्द्र भगवान् के गुणानुवादस्वरूप स्तुति, वन्दना आदि करना देवपूजा कहलाती है। आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने भी अर्हत्पूजा की प्रेरणा दी है और कहा है कि श्रावक को आदरयुक्त होकर सब पापों को नाश करने वाली, काम और दु:खों को दूर करने वाली अर्हत्पूजा अवश्य करनी चाहिए। अर्हत्पूजा में एक मेंढक की भक्ति से प्रसन्न होकर आचार्य ने भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कथन किया है।
हम अरिहन्त भगवान् की पूजा करते हैं तो उसमें अरिहन्त भगवान् का कोई राग द्वेष नहीं है, न ही भगवान् का कुछ भला होता है और न ही भगवान् की पूजा करने से भगवान् खुश होकर किसी का भला करते हैं। अगर ऐसा माना जाए तो भगवान् की वीतरागता का अभाव हो जाएगा इसीलिए भगवान् की पूजा में अपने भाव और आत्मपरिणामों से ही कल्याण होता है, इससे स्वयं की ही वैयावृत्य हो जाती है। अर्हत्पूजा में ही पंचपरमेष्ठी की भक्ति समन्वित है और शास्त्र की पूजा भी समन्वित है क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् और उनकी वाणी में कुछ भी अंतर नहीं है ऐसा आचार्यों का कथन है। अरिहन्त के गुणों की पूजन करते हुए हम अपने ही गुणों की पूजा करते हैं जिससे उन गुणों का प्रकटीकरण हो जाए।
वैयावृत्य के अतिचार–वैयावृत्य के पाँच अतिचारों का वर्णन भी आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने किया है जो इस प्रकार हैं-
हरितपिधाननिधाने, ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि।
वैयावृत्यस्यैते, व्यतिक्रमा पञ्च कथ्यन्ते।
अर्थात् निश्चय से हरितपत्र आदि से देने योग्य वस्तु को ढंकना तथा हरितपत्र आदि पर देने योग्य वस्तु को रखना, अनादर, विस्मरण और मत्सरत्व ये पाँच वैयावृत्य के अतिचार कहे जाते हैं। इन्हीं पाँचों अतिचारों की तरह आचार्य उमास्वामी महाराज ने भी पाँच अतिचार बताये हैं-
सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमा:।
इसमें परव्यपदेश और कालातिक्रम ये दो अतिचार भिन्न हैं। दूसरे दातार के द्वारा देने योग्य वस्तु को देना अथवा स्वयं आहार न देकर नौकर आदि से दिलवाना यह परव्यपदेश नामक अतिचार है। यह अतिचार अनादर का ही रूपान्तर प्रतीत होता है किन्तु कालातिक्रम भिन्न है। इस संदर्भ में अन्य आचार्यों ने भी आचार्य उमास्वामी का ही अनुकरण किया है।
वर्तमान समय में वैयावृत्य का स्वरूप अधिकतर जनसमुदाय को ठीक से ज्ञात नहीं है और न ही उन्होंने इसके विषय में अधिक अध्ययन करने का विचार किया है। अधिकांशत: सभी का अभिप्राय होता है कि नगर/ग्राम में साधु संघ अथवा आर्यिका संघ आया है तो शाम को उनके हस्त, पाद, मस्तक आदि दबाना ही वैयावृत्य है। कोई पूछता है कि कहाँ से आ रहे हैं ? जवाब आता है कि वैयावृत्य करके आ रहे हैं। वे समझते हैं कि यही वैयावृत्य है, परन्तु ऐसा नहीं है अपितु अन्य और भी साधुवर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी वैयावृत्य है। यहाँ आवश्यकता का आशय है-जो साधुवर्ग के ज्ञान-ध्यान-तप में साधक बनें उन वस्तुओं की पूर्ति करना, यथा-शास्त्रदान, स्वास्थ्य सम्बन्धी एवं अध्ययनोपयोगी सामग्री की व्यवस्था करना।
कुछ लोगों के मन में विपरीत मान्यताएं हैं जिसका कारण है स्वाध्याय में अप्रवृत्ति, वे लोग शास्त्रसम्मत चर्चायें कभी नहीं कर सकते हैं। वे कहते हैं कि साधुवर्ग को तेल आदि लगाकर हस्तादि की मालिश करना दोषपूर्ण है क्योंकि उनके ऐसा करने से लेपाहार हो जाता है और उनके आहार ग्रहण का दोष आता है। परन्तु लेपाहार क्या कहलाता है ? और किनके होता है ? यह जानना आवश्यक है। आचार्यों ने लेपाहार वृक्षों आदि के कहा है। जो वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड और जमीन से जल आदि से पोषक तत्त्वों को ग्रहण करते हैं वह लेपाहार कहलाता है।
वैयावृत्य करने वाले का ही मुख्यतया भला होता है क्योंकि वैयावृत्य से महान् पुण्य का बंध होता है।
भगवती आराधना में श्री शिवकोटि आचार्य लिखते हैं कि वैयावृत्य करने वाले को बहुत से गुणों की प्राप्ति होती है। केवल स्वाध्याय करने वाला स्वयं की ही उन्नति कर सकता है जबकि वैयावृत्य करने वाला स्वयं को एवं अन्य को दोनों को उन्नत बनाता है। स्वाध्याय करने वाले पर यदि विपत्ति आती है तो उसको वैयावृत्य करने वाले की ओर ही मुड़कर देखना होता है। वैयावृत्य समाधि की प्राप्ति, विचिकित्सा का अभाव और प्रवचनवात्सल्य की अभिव्यक्ति के लिए की जाती है और जो सम्यग्दृष्टि जीव वैयावृत्य करता है वह उसके लिए निर्जरा का कारण बनती है। यदि कोई वैयावृत्य नहीं करता है तो आचार्य कहते हैं कि जो समर्थ होते हुए तथा अपने बल को छिपाते हुए भी जिनोपदिष्ट वैयावृत्य नहीं करता है वह वास्तविक धर्मात्मा नहीं है। जिनाज्ञा का लोप, शास्त्रकथित धर्म का नाश, साधुवर्ग का एवं आगम का त्याग, ऐसे दोष वैयावृत्य न करने से उत्पन्न होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी विरचित प्रवचनसार की टीका में आचार्य जयसेन स्वामी लिखते हैं कि-रोगी, बाल, गुरु तथा वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्य के निमित्त शुभोपयोगयुक्त लौकिक जनों के साथ की गई बातचीत निन्दित नहीं है, यह प्रशस्तभूत चर्या रागसहित होने के कारण श्रमणों को गौण होती है और गृहस्थों को क्रमश: परमनिर्वाण सौख्य का कारण होने से मुख्य है। वैयावृत्य की तप में भी और सोलहकारण भावनाओं में भी गणना है। जो वैयावृत्य तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराती है, ऐसी भावना को आवश्यक रूप से धारण करना ही चाहिए।
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने वैयावृत्य को शिक्षाव्रत के साथ-साथ दान में भी ग्रहण किया है। दानादि करना एवं शिक्षाव्रतों का पालन करना हम सबका धर्म है अत: हम कह सकते हैं कि वैयावृत्य-दान भी है और धर्म भी है।
बालक का जन्म होने पर जो घर वालों को और कुटुम्बियों को कुछ कालावधि के लिए देवपूजा, आहारदान आदि का कार्य वर्जित किया जाता है, उसी का नाम सूतक है एवं किसी के मरण के बाद जो अशौच होता है, उसे पातक संज्ञा है। यह सूचक-पातक आर्षग्रंथों से मान्य है। व्यवहार में जन्म-मरण दोनों के अशौच को सूतक शब्द से जाना जाता है।
जातीय बन्धुओं में प्रत्यासन्न और अप्रत्यासन्न ऐसे दो भेद होते हैं। चार पीढ़ी तक के बंधुवर्ग प्रत्यासन्न या समीपस्थ कहलाते हैं, इसके आगे अप्रत्यासन्न कहलाते हैं।
जन्म का सूतक चार पीढ़ी वालों तक के लिए १० दिन का है। पाँचवी पीढ़ी वालों को ६ दिन का, छठी पीढ़ी वालों को ४ दिन का और सातवीं पीढ़ी वालों को ३ दिन का है। इससे आगे वाली पीढ़ी वालों के लिए सूतक नहीं है, ऐसे ही मरण का सूतक चार पीढ़ी वालों तक के लिए १० दिन का, पाँचवी पीढ़ी के लिए ६ दिन का आदि है।
जन्म का सूतक चल रहा है, इसी बीच परिवार में मरण का सूतक आ जाने पर वह जन्म के सूतक के साथ समाप्त हो जाता है, ऐसे ही मरण के सूतक में जन्म का सूतक आ जाने पर उसी पहले वाले मरण के सूतक के साथ समाप्त हो जाता है, ऐसे ही जन्म का सूतक यदि ५-६ दिन का हो चुका है पुन: परिवार में किसी का जन्म हो जाये तो वह सूतक पहले के साथ ही निकल जाता है। यदि पहले सूतक के अंतिम दिन पुन: किसी का जन्म आदि होवे, तो दो दिन सूतक और मानना चाहिए। यदि दूस्ारे दिन होवे तो तीन दिन का और मानना चाहिए।
तपस्वियों को जन्म और मरण का सूतक नहीं लगता है और तपस्वियों का मरण होने पर उनके परिवार वालों को भी सूतक नहीं लगता है। राजा के घर में पुत्र जन्म होने पर उनकी शुद्धि स्नानमात्र से हो जाती है। राजाओं को सूतक नहीं लगता है।
मंत्री, सेनापति, राजा, दास और दुर्भिक्ष आदि आपत्ति से पीड़ित लोग इनके मरने पर भी सूतक नहीं लगता है। युद्ध में मरने पर भी सूतक नहीं लगता है।
गर्भवती का तीन महीने के अंदर ही यदि गर्भस्राव हो जावे तो उसे ही तीन दिन का अशौच है। तीन महीने से लेकर छह महीने तक का यदि गर्भपात हो जाता है तो जितने महीने का हो, उतने दिन का अशौच है। छह महीने के बाद और आठ महीने तक में यदि गर्भपात होकर नष्ट हो जाता है तो माता को पूरे १० दिन का अशौच है, पिता को स्नानमात्र से शुद्धि है।
नाभि छेदन से पहले यदि बालक मर जाये तो माता को पूर्ण १० दिन का अशौच है, पिता व बंधुओं को तीन दिन का है। १० दिन के पहले यदि मर जावे तो पिता व सबको १० दिन का है। दस दिन पूर्ण होने पर अंतिम दिन यदि बालक मर जाये तो दो दिन का अशौच और पालना चाहिए। दूसरे दिन प्रात: मरण होने पर तीन दिन अशौच और पालना चाहिए। १० दिन बाद मरण होने पर माता-पिता व सहोदरों को दस दिन का अशौच है। इतर बांधवों को स्नानमात्र से शुद्धि है। दांत आने के बाद मरण होने पर पिता, भ्राता को दस दिन का तथा शेष जनों को स्नानमात्र से शुद्धि है। चौल कर्म के बाद बालक के मरने पर पिता-भ्राता को १० दिन का, चार पीढ़ी वालों तक ५ दिन का, आगे की पीढ़ी वालों को एक दिन का है। उपनयन के बाद मरण होने पर चार पीढ़ी वालों तक १० दिन का अशौच है।
पुत्री का मरण यदि चौलकर्म से पहले हो जावे तो बंधुओं को स्नानमात्र से शुद्धि है। व्रतसंस्कार से पहले मरण होने पर एक दिन का अशौच है। विवाह से पहले मरने पर तीन दिन का अशौच है। विवाहित पुत्री का पतिगृह में मरण होने पर माता-पिता को दो दिन का अशौच है। शेष जाति बांधवों को स्नानमात्र से शुद्धि है। पतिपक्ष वालों को पूर्ण १० दिन का सूतक है। यदि वह स्त्री पिता के घर में मरण पावे या प्रसूत हो तो माता-पिता को तीन दिन का अशौच है और उस पक्ष वालों को एक दिन का अशौच है।
दूर देश के अपने परिवार के किसी व्यक्ति के मरण का समाचार मिलने पर अवशिष्ट दिन का सूतक पालना चाहिए। जन्मादि होकर १० दिन बाद समाचार मिलने पर तीन दिन का अशौच मानना चाहिए। अगर एक वर्ष बाद मरण समाचार ज्ञात हो तो स्नानमात्र करना चाहिए। इस प्रकार यह संक्षिप्त सूतक-पातक विधि कही गई है।
महीने-महीने में जो रज:स्राव होता है, उस समय वो स्त्रियाँ रजस्वला कहलाती हैं । उन दिनों में उन्हें किसी भी वस्तु का स्पर्श नहीं करना चाहिए। देवता और गुरु का दर्शन भी नहीं करना चाहिए। अर्धरात्रि के अनन्तर रजस्वला होने पर प्रात:काल से अशौच गिनना चाहिए। इस तरह रजस्वला स्त्री तीन दिन तक स्नान, अलंकार आदि न करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे। चतुर्थ दिवस स्नान कर शुद्ध होकर घर के काम-काज कर सकती है, देवपूजा, गुरुपास्ति आदि कार्यों को पाँचवें दिन कर सकती है।
एक बार रजस्वला होने के बाद बारह दिन के अंदर ही यदि रजोदर्शन हो जाये तो वह स्नान मात्र से शुद्ध हो जाती है। यदि अठारह दिन के पहले रज:स्राव हो जाता है, तो भी स्नानमात्र से शुद्ध हो जाती है। यदि अठारहवें दिन होता है तो दो दिन का अशौच मानना चाहिए। अठारह दिन के बाद होने पर तीन दिन तक अशुद्धि मानी गई है। रजस्वला स्त्रियाँ यदि आपस में एक-दूसरे को स्पर्श कर लेती हैं तो उन्हें चतुर्थ दिवस शुद्ध होकर गुर्वानी के पास प्रायश्चित लेने का विधान है।
जो स्त्रियाँ रजस्वला के दिनों में अशौच का पालन नहीं करती हैं, सभी को छूती रहती हैं या भोजन बनाकर सभी को खिला देती हैं, वे इस लोक में स्वास्थ्य हानि के साथ-साथ धार्मिक परम्परा की हानि करती हैं तथा पाप का संचय करके अगले भव की भी हानि कर लेती हैं अत: महिलाओं को इन तीन दिनों में विवेकपूर्वक अशौच का पालन करना चाहिए।