-अनुष्टुप्-
आद्यो जिनो नृप:श्रेयान् व्रतदानादिपूरुषौ ।
एतदन्योऽन्यसंबन्धे धर्मस्थितिरभूदिह।।१।।
अर्थ —आदि जिनेन्द्र श्री ऋषभनाथ और श्रेयांस नामक राजा ये दोनों महात्मा व्रततीर्थ तथा धर्मतीर्थ के प्रवर्ताने में आदि पुरुष हैं और इस भरतक्षेत्र में इन दोनों के संबंध से धर्म की स्थिति हुई है।
भावार्थ — चतुर्थ काल की आदि में जिस समय कर्मभूमि की प्रवृत्ति थी उस समय सबसे पहले व्रततीर्थ की प्रवृत्ति श्री आदीश्वर भगवान ने की है अर्थात् सर्वप्रथम ही इन्होंने ही तप आदि को धारण किया है तथा उसी काल में दान तीर्थ की प्रवृत्ति श्री श्रेयांस राजा ने की है अर्थात् सबसे पहले श्री आदीश्वर भगवान को श्रेयांस राजा ने ही आहार दान दिया है इसलिये ये दोनों महात्मा व्रततीर्थ तथा दानतीर्थ के प्रवर्ताने में आदिपुरुष हैं और इन दोनों के संबंध से ही इस भरत क्षेत्र में धर्म की स्थिति हुई है।।१।
अब आचार्य धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं-
सम्यग्दृग्बोधचारित्रत्रितयं धर्म उच्यते।
मुक्ते: पन्था स एव स्यात्प्रमाणपरिनिष्ठित:।।२।।
अर्थ —सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र इन तीनों के समुदाय को धर्म कहते हैं तथा प्रमाण से निश्चित यह धर्म ही मोक्ष का मार्ग है।।२।।
रत्नत्रयात्मके मार्गे संचरन्ति न ये जना:।
तेषां मोक्षपदं दूरं भवेद्दीर्घतरोभव:।।३।।
अर्थ —जो मनुष्य इस सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में गमन नहीं करते हैं उनको कदापि मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती और उनके लिये संसार दीर्घतर हो जाता है अर्थात् उनका संसार कभी भी नहीं छूटता।।३।।
सम्पूर्णदेशभेदाभ्यां सच धर्मोद्विधा भवेत्।
आद्ये भेदे च निर्ग्रन्था द्वितीये गृहिण: स्थिता:।।४।।
अर्थ —और वह रत्नत्रयात्मक धर्म सर्वदेश तथा एकदेश के भेद से दो प्रकार का है उसमें सर्वदेश धर्म का तो निर्ग्रन्थ मुनि पालन करते हैं और एकदेश धर्म का गृहस्थ (श्रावक) पालन करते हैं।।४।।
सम्प्रत्यपि प्रवर्तेत धर्मस्तेनैव वर्त्मना।
तेनैतेऽपि च गण्यन्ते गृहस्था धर्महेतव:।।५।।
अर्थ —इस कलिकाल में भी उस धर्म की उसी मार्ग से अर्थात् सर्वदेश तथा एक देशमार्ग से ही प्रवृत्ति है इस लिये उस धर्म के कारण गृहस्थ भी गिने जाते हैं।।५।।
सम्प्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे मुनिस्थिति:।
धर्मश्च दानमित्येषां श्रावका मूलकारणम्।।६।।
अर्थ —और इस काल में श्रावकगण बड़े-बड़े जिनमन्दिर बनवाते हैं तथा आहार देकर मुनियों के शरीर की स्थिति करते हैं तथा सर्वदेश और एकदेशरूप धर्म की प्रवृत्ति करते हैं और दान देते हैं इसलिये इन सबों का मूल कारण श्रावक ही है अत: श्रावक धर्म भी अत्यन्त उत्कृष्ट है।।६।।
-षट् आवश्यककर्म-
देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:।
दानञ्चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने।।७।।
अर्थ —जिनेन्द्र देव की पूजा और निर्ग्रन्थ गुरुओं की सेवा तथा स्वाध्याय और संयम तथा योग्यतानुसार तप और दान ये छह कर्म श्रावकों को प्रतिदिन करने योग्य हैं।।७।।
-सामायिक का लक्षण-
समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना।
आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम्।।८।।
अर्थ —समस्त प्राणियों में साम्य भाव रखना तथा संयमधारण करने में अच्छी भावना रखना और आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान का त्याग करना इसी का नाम सामायिकव्रत है।।८।।
सामायिकं न जायेत व्यसनम्लानचेतस:।
श्रावकेन तत: साक्षात्त्याज्यं व्यसनसप्तकम्।।९।।
अर्थ —जिन मनुष्यों का चित्त व्यसनों से मलिन हो रहा है उनसे कदापि यह सामायिक व्रत नहीं हो सकता इसलिये सामायिक के आकांक्षी श्रावकों को सातों व्यसनों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।।९।।
-सात व्यसनों के नाम-
द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गना: ।
महापापानि सप्तैव व्यसनानि त्यजेद्बुध:।।१०।।
अर्थ —जुआँ , माँस, मदिरापान, वैश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री, ये सात व्यसन संसार में प्रबल पाप हैं इसलिये विद्वानों को चाहिये कि वे इनका सर्वथा त्याग कर देवें।।१०।।
-अनुष्टुप-
धर्मार्थिनोऽपि लोकस्य चेदस्ति व्यसनाश्रय:।
जायते न तत: सापि धर्मान्वेषणयोग्यता।।११।।
अर्थ —जो पुरुष धर्म की अभिलाषा करने वाला है यदि उसके भी ये व्यसन होवे तो उस पुरुष में धर्म धारण करने की योग्यता कदापि नहीं हो सकती अर्थात् वह धर्म की परीक्षा करने का पात्र ही नहीं हो सकता, इसलिये धर्मार्थी पुरुषों को अवश्य ही व्यसनों का त्याग कर देना चाहिये।।११।।
सप्तैव नरकाणि स्युस्तैरेवैâकं निरूपितम्।
आकर्षयन्नृणामेतद् व्यसनं स्वसमृद्धये।।१२।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार व्यसन सात हैं उसी प्रकार नरक भी सात ही हैं इसलिये ऐसा मालूम होता है कि उन नरकों ने अपनी —अपनी वृद्धि के लिये मनुष्यों को खींचकर नरक में ले जाने के लिये एक-एक व्यसन को नियत किया है।।१२।।
धर्मशत्रुविनाशार्थं पापायकुपतेरिह।
सप्ताङ्गवलवद्राज्यं सप्तभिर्व्यसनै: कृतम्।।१३।।
अर्थ —और भी आचार्य कहते हैं कि धर्मरूपी वैरी के नाश के लिये पाप नामक दुष्ट राजा का सात व्यसनों से रचा हुवा यह, सात हैं अंग जिसके, ऐसा बलवान् राज्य है।
भावार्थ — जिस प्रकार राजा सप्तांग सेना से शत्रु का विजय करता है उसी प्रकार यह पापरूप राजा भी सप्तव्यसन- रूपी सप्तांग सेना से धर्मरूपी शत्रु को जीतता है इसलिये जो पुरूष धर्म की रक्षा करना चाहते हैं उनको इन सप्तव्यसनों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।।१३।।
आचार्य छह आवश्यकों की महिमा का वर्णन करते हैं-
प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये।
ते च दृश्याश्च पूज्याश्च्ा स्तुत्याश्च भुवनत्रये।।१४।।
अर्थ — जो भव्यजीव जिनेंद्र भगवान को भक्तिपूर्वक देखते हैं तथा उनकी पूजा-स्तुति करते हैं वे भव्यजीव तीनों लोक में दर्शनीय तथा पूजा के योग्य तथा स्तुति के योग्य होते हैं अर्थात् सर्वलोक उनको भक्ति से देखता है तथा उनकी पूजा-स्तुति करता है।।१४।।
ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न।
निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम्।।१५।।
अर्थ — किन्तु जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान को भक्ति से नहीं देखते हैं और न उनकी भक्तिपूर्वक पूजा-स्तुति ही करते हैं उन मनुष्यों का जीवन संसार में निष्फल है तथा उनके गृहस्थाश्रम के लिये भी धिक्कार है।।१५।।
प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवतागुरुदर्शनम्।
भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासवैâ:।।१६।।
पश्चादन्यानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो बुधै:।
धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्म: प्रकीर्तित:।।१७।।
अर्थ — भव्यजीवों को प्रात:काल उठकर जिनेन्द्रदेव तथा गुरू का दर्शन करना चाहिये और भक्तिपूर्वक उनकी वंदना-स्तुति भी करनी चाहिये और धर्म का श्रवण भी करना चाहिये। इनके पीछे अन्य गृह आदि संबंधी कार्य करने योग्य है क्योंकि गणधर आदि महापुरुषों ने धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इन चार पुरूषार्थों में धर्म का ही सबसे प्रथम निरूपण किया है तथा उसी को मुख्य माना है।।१६—१७।।
गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम्।
समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम्।।१८।।
अर्थ —जिस केवलज्ञानरूपी लोचन सें समस्त पदार्थ हाथ की रेखा के समान प्रकट रीति से देखने में आते हैं ऐसा ज्ञानरूपी नेत्र निर्ग्रंथ गुरुओं की कृपा से ही प्राप्त होता है इसलिये ज्ञान के आकांक्षी मनुष्यों को भक्तिपूर्वक गुरुओं की सेवा- वंदना आदि करना चाहिये।।१८।।
ये गुरूं नैव मन्यन्ते तदुपास्ंित न कुर्वते।
अंधकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।।१९।।
अर्थ — जो मनुष्य गुरुओं को नहीं मानते हैं और उनकी सेवा-वंदना नहीं करते हैं उन मनुष्यों के लिये सूर्य के उदय होने पर भी अंधकार ही है।
भावार्थ — जो मनुष्य परिग्रह रहित तथा ज्ञान-ध्यान-तप में लीन गुरुओं को नहीं मानते हैं तथा उनकी उपासना-भक्ति आदि नहीं करते हैं उन पुरुषों के अंतरंग में अज्ञानरूपी अंधकार सदा विद्यमान रहता है इसलिये सूर्य के उदय होने पर भी वे अन्धे ही बने रहते हैं अत: भव्यजीवों को चाहिये कि वे अज्ञानरूप अंधकार के नाश करने के लिये गुरुओं की सेवा करें।।१९।।
ये पठन्ति न सच्छास्त्रं सद्गुरूप्रकटीकृतम्।
तेऽन्धा: सचक्षुषोपीह सम्भाव्यन्ते मनीषिभि:।।२०।।
अर्थ —जो मनुष्य उत्तम और निष्कलंक गुरुओं से प्रकट किये हुये शास्त्र को नहीं पढ़ते हैं उन मनुष्यों को विद्वान पुरुष नेत्रधारी होने पर भी अन्धे ही मानते हैं।
भावार्थ —वस्तु का स्वरूप यथार्थ रीति से शास्त्र से जाना जाता है किन्तु जो मनुष्य शास्त्र को न तो देखते हैं और न वांचते ही हैं, वे मनुष्य वस्तु के यथार्थ स्वरूप को भी नहीं जानते हैं इसलिये नेत्र सहित होने पर भी वे अंधे ही हैं अत: भव्यजीवों को शास्त्र का स्वाध्याय तथा मनन अवश्य करना चाहिये।।२०।।
मन्ये न प्रायशस्तेषां कर्णाश्च हृदयानि च।
यैरभ्याशे गुरो: शास्त्रं न श्रुतं नावधारितम्।।२१।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं जिन मनुष्यों ने गुरू के पास में रहकर न तो शास्त्र को सुना है तथा हृदय में धारण भी नहीं किया है, उनके कान तथा मन नहीं है, ऐसा प्राय: कर हम मानते हैं।।२१।।
भावार्थ-कान तथा मन की प्राप्ति का सफलपना शास्त्र के सुनने से और उसके अभिप्राय को मन में धारण करने से होता है किन्तु जिन मनुष्यों ने कान पाकर शास्त्र का श्रवण नहीं किया है तथा मन पाकर उसका अभिप्राय भी नहीं समझा है उन मनुष्यों के कान तथा हृदय का पाना न पाना सरीखा ही है इसलिये विद्वानों को शास्त्र का श्रवण तथा उसका मनन अवश्य करना चाहिये जिससे उनके कान तथा हृदय सफल समझे जावें।।२१।।
अब आचार्य संयम नामक आवश्यक का कथन करते हैं-
देशव्रतानुसारेण संयमोऽपि निषेव्यते।
गृहस्थैर्येन तेनैव जायते फलवद् व्रतम्।।२२।।
अर्थ —धर्मात्मा श्रावकों को एकदेशव्रत के अनुसार संयम भी अवश्य पालना चाहिये जिससे उनका किया हुआ व्रत फलीभूत होवे।
भावार्थ —जीवों की रक्षा करना और मन तथा इन्द्रियोंं को वश में रखना इसका नाम संयम है। जब तक यह संयम न किया जावेगा तब तक व्रत कदापि फलीभूत नहीं हो सकते इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि एकदेशव्रत के अनुसार श्रावकों को संयम अवश्य पालना चाहिये जिससे उनका व्रत फल का देने वाला होवे।।२२।।
त्याज्यं मांसंच मद्यंच मधूदुम्बरपञ्चकम्।
अष्टौ मूलगुणा:प्रोक्ता गृहिणो दृष्टिपूर्वका:।।२३।।
अर्थ —श्रावकों को मद्य, माँस, मधु का तथा पाँच उदुम्बरों का अवश्य त्याग कर देना चाहिये और सम्यग्दर्शनपूर्वक इन आठों का त्याग ही गृहस्थों के आठ मूलगुण हैं।।२३।।
अणुव्रतानि पञ्चैव त्रि:प्रकारं गुणव्रतम्।
शिक्षाव्रतानि चत्वारि द्वादशेति गृहिव्रते।।२४।।
अर्थ —पाँच प्रकार के अणुव्रत तथा तीन प्रकार के गुणव्रत और चार प्रकार के शिक्षाव्रत ये बारहव्रत गृहस्थों के हैं।
भावार्थ-अहिंसा, अणुव्रत, सत्य अणुव्रत, अचौर्य अणुव्रत, ब्रह्मचर्य अणुव्रत तथा परिग्रह परिमाण नामक अणुव्रत ये पाँच अणुव्रत और दिग्व्रत, देशव्रत तथा अनर्थदंडव्रत ये तीन गुणव्रत तथा देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत, इस प्रकार इन बारहव्रतों को गृहस्थ पालते हैं।।२४।।
पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तप:।
व्ास्त्रपूतं पिवेत्तोयं रात्रिभोजनवर्जनम्।।२५।।
अर्थ — अष्टमी-चतुर्दशी को शक्ति के अनुसार उपवास आदि तप तथा छने हुए जल का पान और रात को भोजन का त्याग भी गृहस्थों को अवश्य करना चाहिये।।२५।।
तं देशं तं नरं तत्स्वं तत्कर्माण्यपि नाश्रयेत्।
मलिनं दर्शनं येन येन च व्रतखण्डनम्।।२६।।
अर्थ —सम्यग्दृष्टिश्रावक ऐसे देश को तथा ऐसे पुरुष को और ऐसे धन को तथा ऐसी क्रिया को कदापि आश्रयण नहीं करते, जहाँ पर उनका सम्यग्दर्शन मलिन होवे तथा व्रतों का खंडन होवे।।२६।।
भोगोपभोगसंख्यानं विधेयं विधिवत्सदा।
व्रतशून्या न कर्तव्या काचित्कालकला बुधै:।।२७।।
अर्थ —आचार्य उपदेश देते हैं कि श्रावकों को भोगोपभोगपरिमाणव्रत सदा करना चाहिये और विद्वानों को एक क्षण भी बिना व्रत के नहीं रहना चाहिये।।२७।।
रत्नत्रयाश्रय: कार्यस्तथा भव्यैरतन्द्रितै:।
जन्मान्तरेऽपि यच्छ्रद्धा यथा संवर्धतेतराम्।।२८।।
अर्थ —आलस्यरहित होकर भव्यजीवों को उसी रीति से रत्नत्रय का आश्रय करना चाहिये जिससे दूसरे—दूसरे जन्मों में भी उनकी श्रद्धा बढ़ती ही चली जावे।।२७।।
विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्य: परमेष्ठिषु।
दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितै:।।२९।।
अर्थ —जो जिनेन्द्र के सिद्धान्त के अनुयायी हैं उन भव्यजीवों को योग्यतानुसार, जो उत्कृष्टस्थान में रहने वाले हैं ऐसे परमेष्ठियों में, विनय अवश्य करनी चाहिये तथा सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र में और इनके धारण करने वाले महात्माओं में भी अवश्य विनय करना चाहिये।
भावार्थ —जो मनुष्य जिनेन्द्र सिद्धान्त के भक्त हैं तथा धर्मात्मा हैं उनको समवसरणलक्ष्मीकरयुक्त और चार घातिया कर्मों को नाशकर केवलज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय के धारी श्री अर्हन्त परमेष्ठी में तथा समस्त कर्मों को नाशकर लोक के शिखर पर विराजमान और अनन्तज्ञानादि आठ गुणों कर सहित सिद्धपरमेष्ठी में तथा दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों को स्वयं आचरण करने वाले और अन्यों को भी आचरण कराने वाले ऐसे आचार्य परमेष्ठी में तथा ग्यारह अंग-चौदह पूर्व के पढ़ने-पढ़ाने के अधिकारी ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी में और रत्नत्रय को धारण कर मोक्ष के अभिलाषी ऐसे साधु परमेष्ठी में, अवश्य विनय करनी चाहिये उसी प्रकार सम्यक्दर्शन-सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय तथा उस रत्नत्रय के धारण करने वालों में भी अवश्य विनय करनी चाहिये।।२९।।
दर्शनज्ञानचारित्रतप:प्रभृति सिध्द्यति।
विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वारं प्रचक्षते।।३०।।
अर्थ —विनय से सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र तथा तप आदि की प्राप्ति होती है इसलिये उस विनय को गणधर आदि महापुरुष मोक्ष का द्वार कहते हैं अत: मोक्ष के अभिलाषी भव्यों को यह विनय अवश्य करनी चाहिये।।३०।।
सत्पात्रेषु यथाशक्ति दानं देयं गृहस्थितै:।
दानहीना भवेत्तेषां निष्फलैव गृहस्थता।।३१।।
अर्थ —धर्मात्मा गृहस्थों को मुनि आदि उत्तम पात्रों में शक्ति के अनुकूल दान भी अवश्य देना चाहिये क्योंकि बिना दान के गृहस्थों का गृहस्थपना निष्फल ही है।।३१।।
दानं ये न प्रयच्छन्ति निर्ग्रन्थेषु चतुर्विधम्।
पाशा एव गृहास्तेषां बन्धनायैव निर्मिता।।३२।।
अर्थ —जो पुरुष निर्ग्रंथ यतीश्वरों को आहार-औषधि-अभय तथा शास्त्र इस प्रकार चार प्रकार के दान को नहीं देते हैं उनके लिये घर जाल के समान केवल बाँधने के लिये ही बनाये गये हैं, ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ — जिस घर में यतीश्वरों का आवागमन बना रहता है वे घर तथा उन घरों में रहने वाले श्रावक धन्य गिने जाते हैं किन्तु जो मनुष्य यतीश्वरों को दान नहीं देते इसलिये जिनके घर में यतीश्वर नहीं आते, वे घर नहीं हैं किन्तु मनुष्यों के फाँसने के लिये जाल हैं इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे प्रतिदिन यथायोग्य यतीश्वरों को दान अवश्य दिया करें।।३२।।
अभयाहारभैषज्यशास्त्रदाने हि यत्कृते।
ऋषीणां जायते सौख्यं गृही श्र्लाघ्य: कथं न स:।।३३।।
अर्थ —जिस गृहस्थ के अभयदान-आहारदान-औषधिदान तथा शास्त्रदान के करने पर यतीश्वरों को सुख होता है वह गृहस्थ क्यों नहीं प्रशंसा के योग्य है ? अर्थात् उस गृहस्थ की सर्वलोक प्रशंसा करता है इसलिये ऐसा उत्तमदान गृहस्थों को अवश्य देना चाहिये।।३३।।
समर्थोऽपि न यो दद्याद्यतीनां दानमादरात्।
छिनत्ति स स्वयं मूढ: परत्र सुखमात्मन:।।३४।।
अर्थ —समर्थ होकर भी जो पुरुष आदरपूर्वक यतीश्वरों को दान नहीं देता, वह मूढ़ पुरुष आगामी जन्म में होने वाले अपने सुख को स्वयं नाश करता है।
भावार्थ — जो मनुष्य एक समय भी यतीश्वरों को नवधा भक्ति से दान देता है उसको पर भव में नाना प्रकार के स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है किन्तु जो पुरुष समर्थ होकर भी आदरपूर्वक यतीश्वरों को दान नहीं देता, वह स्वर्गादि सुख के बदले नाना प्रकार के नरकों के दु:खों को भोगता है इसलिये समर्थ गृहस्थों को तो अवश्य ही दान देना चाहिये।।३४।।
दृषन्नावा समो ज्ञेयो दानहीनो गृहाश्रम:।
मदारूढ़ो भवाम्भोधौ मज्जत्येव न संशय:।।३५।।
अर्थ — जो गृहस्थाश्रम दान कर रहित है वह पत्थर की नाव के समान है तथा उस गृहस्थाश्रमरूपी पत्थर की नाव में बैठने वाला मनुष्य नियम से संसाररूपी समुद्र में डूबता है।
भावार्थ — जो मनुष्य पाषाण से बनी हुई नाव पर चढ़कर समुद्र को तरना चाहता है वह जिस प्रकार नियम से समुद्र में डूबता है उसी प्रकार जिस गृहस्थाश्रम में यतीश्वरों के लिये दान नहीं दिया जाता, उस गृहस्थाश्रम में रहने वाले गृहस्थ कदापि संसार को नाश कर मोक्ष नहीं पा सकते इसलिये संसार से तरने की अभिलाषा करने वाले भव्यजीवों को अवश्य ही यतीश्वरों को दान देना चाहिये।।३५।।
स्वमतस्थेषु वात्सल्यं स्वशक्त्या ये न कुर्वते।
बहुपापावृतात्मानस्ते धर्मस्य पराङ् मुखा:।।३६।।
अर्थ — जो मनुष्य साधर्मी सज्जनों में शक्ति के अनुसार प्रीति नहीं करते, उन मनुष्यों की आत्मा प्रबल पाप से ढकी हुई है और वे धर्म से पराङ् मुख हैं अर्थात् धर्म के अभिलाषी नहीं हैं इसलिये भव्यजीवों को साधर्मी मनुष्यों के साथ अवश्य प्रीति करनी चाहिये।।३६।।
येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते।
चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्म: कुतो भवेत्।।३७।।
अर्थ — जिनेन्द्र भगवान के उपदेश से करुणा से पूरित भी जिन मनुष्यों के चित्तों में दया नहीं है उन मनुष्यों के धर्म कदापि नहीं हो सकता।
भावार्थ — समस्तजीवों पर दयाभाव रखना इसी का नाम धर्म है किन्तु जिनेन्द्र भगवान के उपदेश से जिन मनुष्यों के चित्त करुणा से भरे हुए हैं ऐसे मनुष्यों के भी अंतरंग में यदि दया नहीं है तो वे मनुष्य, धर्म के पात्र कदापि नहीं हो सकते इसलिये उत्तम पुरुषों को जीवों पर अवश्य दया करनी चाहिये।।३७।।
मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम्।
गुणानां निधिरित्यङ्गि दया कार्या विवेकिभि:।।३८।।
अर्थ — धर्मरूपी वृक्ष की जड़ तथा समस्त व्रतों में मुख्य और सर्व संपदाओं का स्थान तथा गुणों का खजाना यह दया है इसलिये विवेकी मनुष्यों को यह दया अवश्य करनी चाहिये।
भावार्थ — जिस प्रकार बिना जड़ के वृक्ष नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार बिना दया के धर्म नहीं हो सकता इसलिये यह दया धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है तथा समस्त अणुव्रत तथा महाव्रतों में यह मुख्य है क्योंकि बिना दया के पालन किये हुए अणुव्रत तथा महाव्रत सर्वनिष्फल है और इसी दया से बड़ी—बड़ी इन्द्र, चक्रवर्ती आदि की संपदाओं की प्राप्ति होती है इसलिये यह दया संपदाआेंं का स्थान है और इसी दया से समस्त गुणों की प्राप्ति होती है इसलिये यह दया गुणों का खजाना है अत: जो मनुष्य हित तथा अहित जानने वाले हैं उनको ऐसी उत्तम दया प्राणियों में अवश्य करनी चाहिये किंतु दया से पराङ्मुख कदापि नहीं रहना चाहिये।।३८।।
सर्वे जीवदयाधारा गुणास्तिष्ठन्ति मानुषे।
सूत्राधारा: प्रसूनानां हाराणां च सराइव।।३९।।
अर्थ— जिस प्रकार फूलों के हारों की लड़ी सूत्र के आश्रय से रहती हैं उसी प्रकार मनुष्य में समस्तगुण जीवदया के आधार से रहते हैं इसलिये समस्तगुणों की स्थिति के अभिलाषी भव्यजीवों को यह दया अवश्य करनी चाहिये।।३९।।
यतीनां श्रावकाणां च व्रतानि सकलान्यपि।
एकाऽहिंसाप्रसिध्यार्थं कथितानि जिनेश्वरै:।।४०।।
अर्थ—जितने भर मुनियों के व्रत तथा श्रावकों के व्रत सर्वज्ञदेव ने कहे हैं वे सर्व अहिंसा की प्रसिद्धि के लिये ही कहे हैं किन्तु हिंसा का पोषण करने वाला उनमें कोई भी व्रत नहीं कहा गया है इसलिये व्रतीमनुष्यों को समस्त प्राणियों पर दया ही रखनी चाहिये।।४०।।
जीवहिंसादिसंकल्पैरात्मन्यपि हि दूषिते।
पापं भवति जीवस्य न परं परपीडनात्।।४१।।
अर्थ — केवल अन्य प्राणियों को पीड़ा देने से ही पाप की उत्पत्ति नहीं होती कि ‘‘ उस जीव को मारूँगा अथवा वह जीव मर जावे तो अच्छा हो’’ इत्यादि जीव हिंसा के संकल्पों से जिस समय आत्मा मलिन होता है उस समय भी पाप की उत्पत्ति होती है इसलिये उत्तम मनुष्यों को जीवहिंसा का संकल्प भी नहीं करना चाहिये।।४१।।
द्बादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभि:।
तद्भावना भवत्येव कर्मण:क्षयकारणम्।।४२।।
अर्थ — उत्तम पुरुषों को बारह भावनाओं का सदा चिंतवन करना चाहिये क्योंकि उन भावनाओं का चिंतवन करना समस्त कर्मों का नाश करने वाला होता है ।।४२।।
आचार्यवर बारह भावनाओं के नाम बताते हैं—
अध्रुवाशरणेचैव भव एकत्वमेव च।
अन्यत्वमशुचित्वं च तथैवाश्रवसंवरौ।।४३।।
निर्जरा च तथा लोको बोधिदुर्लभधर्मता।
द्वादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपुङ्गवै:।।४४।।
अर्थ —१. अधु्रव, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचित्व, ७. आश्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ, १२. धर्म, ये बारह अनुप्रेक्षा जिनेन्द्रदेव ने कही हैं।।४३।।४४।।
-अनित्यभावना के स्वरूप का वर्णन-
अध्रुवाणि समस्तानि शरीरादीनि देहिनाम्।
तन्नाशेऽपि न कर्तव्य: शोकोदुष्कर्मकारणम्।।४५।।
अर्थ —प्राणियों के समस्त शरीर-धन-धान्य आदि पदार्थ विनाशीक हैं इसलिये उनके नष्ट होने पर जीवों को कुछ भी शोक नहीं करना चाहिये क्योंकि उस शोक से केवल खोटे कर्मों का बंधन ही होता है।।४५।।
-अशरणभावना के स्वरूप का वर्णन–
व्याघ्रेणाघ्रातंकायस्य मृगशावस्य निर्जने।
यथा न शरणं जन्तो: संसारे न तथापदि।।४६।।
अर्थ —जिस मृग के बच्चे का शरीर व्याघ्र ने प्रबल रीति से पकड़ लिया है ऐसे मृग के बच्चे को जिस प्रकार निर्जनवन में कोई बचाने के लिये समर्थ नहीं है उसी प्रकार इस संसार में आपत्ति के आने पर जीव को भी कोई इन्द्र-अहमिन्द्र आदि नहीं बचा सकते इसलिये भव्यजीवों को सिवाय धर्म के किसी को भी रक्षक नहीं समझना चाहिये।।४६।।
-संसारभावना का स्वरूप-
यत्सुखं तत्सुखाभासो यद्दु:खं तत्सदञ्जसा।
भवे लोके सुखं सत्यं मोक्षएव स साध्यताम्।।४७।।
अर्थ —हे जीव! संसार में जो सुख मालूम होता है वह सुख नहीं है, सुखाभास है अर्थात् सुख के समान मालूम पड़ता है और जो दु:ख है सो सत्य है किन्तु वास्तविकसुख मोक्ष में ही है इसलिये तुझे मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही प्रयत्न करना चाहिये।।४७।।
-एकत्व भावना का स्वरूप-
स्वजनोवा परोवापि नो कश्चित्परमार्थत:।
केवलं स्वार्जितं कर्म जीवनैकेन भुज्यते।।४८।।
अर्थ —यदि निश्चयरीति से देखा जावे तो संसार में जीव का न तो कोई स्वजन है और न कोई परजन ही है तथा यह जीव अपने किये हुवे कर्म के फल को अकेला ही भोगता है।।४८।।
-अन्यत्व भावना का स्वरूप-
क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देहदेहिनो:।
भेदोयदि ततोन्येषु कलत्रादिषु का कथा।।४९।।
अर्थ —शरीर और आत्मा की स्थिति दूध तथा जल के समान मिली हुई है यदि ये दोनों भी परस्पर में भिन्न हैं तो सर्वथा भिन्न स्त्री-पुत्र आदि तो अवश्य ही भिन्न हैं इसलिये विद्वानों को शरीर-स्त्री-पुत्र आदि को अपना कदापि नहीं मानना चाहिये।
-अशुचित्व भावना का वर्णन-
तथाऽशुचिरयं काय: कृमिधातुमलान्वित:।
यथा तस्यैव सम्पर्कादन्यत्राप्यपवित्रता।।५०।।
अर्थ —कीड़ा-धातु-मल-मूत्र आदि अपवित्र पदार्थों से भरा हुवा यह शरीर इतना अपवित्र है कि उसके संबंध से दूसरी वस्तु भी अपवित्र हो जाती है ।
भावार्थ —अतर-चन्दन-वस्त्र-आभूषण आदि यद्यपि अत्यन्त सुगंधित तथा पवित्र पदार्थ हैं तो भी यदि उनका संबन्ध एक समय भी इस शरीर से हो जावे, तो वे सर्व अपवित्र हो जाते हैं तथा ऐसे अपवित्र हो जाते हैं कि फिर से सज्जन पुरुष उनके स्पर्श करने में भी घृणा करते हैं और विष्टा-मूत्र-कफ आदि अपवित्र वस्तुओं की भी उत्पत्ति इसी शरीर से होती है इसलिये इस शरीर के समान संसार में कोई भी अपवित्र पदार्थ नहीं है अत: सज्जनों को कदापि इसमें ममत्व नहीं रखना चाहिये किन्तु इससे होने वाले जो तप आदि उत्तम कार्य हैं उनसे इसको सफल ही करना चाहिये।।५०।।
-आस्त्रभावना का स्वरूप-
जीवपोतो भवाम्भोधौ मिथ्यात्वादिकरन्ध्रवान्।
आस्रवति विनाशार्थं कर्माम्भ: प्रचुरं भ्रमात्।।५१।।
अर्थ —इस संसाररूपी समुद्र में जिस समय यह जीवरूपी जहाज मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषाय-योगरूप छिद्रों से सहित होता है उस समय यह अपने विनाश के लिये अज्ञानता से प्रचुर कर्मरूपी जल को आस्रवरूप करता है।
भावार्थ —जिस प्रकार समुद्र में जिस समय जहाज में छिद्र हो जाते हैं उस समय वह उन छिद्रों से अपने डुबाने के लिये स्वयं जल को ग्रहण करता है उसी प्रकार यह जीव जिस समय मिथ्यात्वादि कर्मबन्ध के कारणों कर संयुक्त होता है उस समय यह अपने विनाश के लिये स्वयं कर्म को ग्रहण करता है इसलिये भव्यजीवों को इस प्रकार आस्रव के स्वरूप को जानकर कर्मों के रोकने के लिये ही प्रयत्न करना चाहिये।।५१।।
-संवर का स्वरूप-
कर्मास्रवनिरोधोऽत्र संवरो भवति ध्रुवम्।
साक्षादेतदनुष्ठानं मनोवाक्कायसंवृति:।।५२।।
अर्थ —आये हुये कर्मों का जो रुक जाना है वही निश्चय संवर है तथा मन-वचन-काय का जो संवरण (स्वाधीन) करना है यही संवर का आचरण है।
भावार्थ —जिस समय मन-वचन-काय-स्वरूप योग, मिथ्यात्व, कषाय आदि से रहित होकर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा के चिंतवन में तथा परीषहों के जीतने में लीन होता है उसी समय संवर होता है इसलिये संवर की प्राप्ति के अभिलाषियों को मन-वचन-काय को अशुभ प्रवृत्ति से अवश्य रोकना चाहिये।।५२।।
-निर्जरा के स्वरूप का वर्णन-
निर्जरा शातनं प्रोक्ता पूर्वोपार्जितकर्मणाम्।
तपोभिर्बहुभि सा स्याद्वैराग्याश्रितचेष्टितै:।।५३।।
अर्थ —पहिले संचित हुए कर्मों का जो एकदेशरूप से नाश होना है वही निर्जरा है तथा वह निर्जरा संसार-देह आदि से वैराग्य कराने वाले अनशन, अवमौदर्यादि तप से होती है।
भावार्थ —संसार, शरीर आदि से विरक्त होकर अनशनादि तप से जो पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करना है उसी का नाम निर्जरा है और निर्जरा के उपाय का चिंतवन करना निर्जरा भावना है।।५३।।
-लोकानुप्रेक्षा का स्वरूप-
लोक: सर्वोऽपि सर्वत्र सापायस्थितिरधु्रव:।
दु:खकारीति कर्तव्या मोक्षएव मति: सताम्।।५४।।
अर्थ —यह समस्तलोक विनाशीक और अनित्य है तथा नाना प्रकार के दु:खों का करने वाला है, ऐसा विचार कर उत्तम पुरुषों को सदा मोक्ष की ओर बुद्धि लगानी चाहिये।।५४।।
-बोधिदुर्लभभावना का स्वरूप-
रत्नत्रयपरिप्राप्तिर्बोधि: सातीवदुर्लभा।
लब्धा कथं कथञ्चिच्चेत्कार्यो यत्नो महानिह।।५५।।
अर्थ —सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रय की जो प्राप्ति है, उसी का नाम बोधि है और इस बोधि की प्राप्ति संसार में अत्यंत कठिन है यदि किसी रीति से उसकी प्राप्ति भी हो जावे, तो उसकी रक्षा के लिये विद्वानों को प्रबलयत्न करना चाहिये।
भावार्थ —अनन्त जीव ऐसे हैं जोकि अभी निगोद में ही पड़े हुए हैं उन्होंने सिवाय निगोद के दूसरी पर्याय ही नहीं धारण की है इसलिये प्रथम तो निगोद से निकलना ही अत्यंत दु:साध्य है, दैवयोग से यदि निगोद से निकल भी आवे तो आकर पृथ्वी- कायिक आदि स्थावर जीव होते हैं इसलिये त्रस पर्याय पाना अत्यंत दुर्लभ है यदि त्रस पर्याय भी मिल जावे तो पञ्चेन्द्री होना अत्यंत कठिन है यदि पंचेन्द्री भी हो गये तो सैनी (समनस्क) होना दु:साध्य है सैनी भी हुए तो मनुष्य भव तथा उच्चकुल पाना कठिन है यदि वे भी मिल गये तो चिरायु होना तथा धनवान होकर सुखी होना दु:साध्य है यदि यह सब सामग्री भी मिल गई तो रत्नत्रय की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है तथा भाग्य से कई एक पुरुषों को इसकी प्राप्ति भी हो जावे तो वे प्रमाद के वशीभूत होकर इसकी रक्षा नहीं कर सवâते इसलिये इस प्रकार अत्यंत कठिन इस रत्नत्रय को पाकर भव्यजीवों को कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये तथा भलीभांति इस रत्नत्रय की रक्षा ही करनी चाहिये, इस प्रकार का िंचतवन करना दुर्लभानुप्रेक्षा है।।५५।।
-धर्मानुप्रेक्षा का वर्णन-
निजधर्मोयमत्यन्तं दुर्लभो भविनां मत:।
तथा ग्राह्यो यथा साक्षादामोक्षं सह गच्छति।।५६।।
अर्थ —संसार में प्राणियों को ज्ञानानंदस्वरूप निजधर्म का पाना अत्यंत कठिन है इसलिये यह धर्म ऐसी रीति से ग्रहण करना चाहिये कि मोक्षपर्यंत यह साथ बना रहे।।५६।।
भावार्थ —जिनेन्द्र से कहा हुआ यह आत्मस्वभाव रत्नत्रयढस्वरूप तथा उत्तमक्षमादिस्वरूप धर्म ऐसी दृढ़ता से धारण करना चाहिये कि मोक्षपर्यंत यह साथ बना रहे।।५६।।
दु:खग्राहगणाकीर्णे संसारक्षारसागरे।
धर्मपोतं परं प्राहुस्तारणार्थं मनीषिण:।।५७।।
अर्थ —नाना प्रकार के दु:खरूपी नक्र, मकर से व्याप्त इस संसाररूपी खारी समुद्र से पार करने वाला धर्मरूपी जहाज है ऐसा गणधर आदि महापुरुष कहते हैं इसलिये संसार से तरने की इच्छा करने वाले भव्यजीवों को इस धर्मरूपी जहाज का आश्रय अवश्य लेना चाहिये।।५७।।
अनुप्रेक्षा इमा:सद्भि: सर्वदा हृदये धृता:।
कुर्वते तत्परं पुण्यं हेतुर्यत्स्वर्गमोक्षयो:।।५८।।
अर्थ —जो सज्जन पुरुष बारंबार इन बारह भावनाओं का चिंतवन करते हैं वे उस पुण्य का उपार्जन करते हैं जो पुण्य स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण है इसलिये स्वर्ग-मोक्ष के कारणस्वरूप पुण्य को चाहने वाले भव्यजीवों को सदा इन बारह भावनाओं का चिंतवन करना चाहिये।।५८।।
आद्योत्तमक्षमा यत्र योधर्मो दशभेदभाक्।
श्राववैâरपि सेव्यौऽसौ यथाशक्ति यथागमम्।।५९।।
अर्थ —उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आिंकचन्य तथा ब्रह्मचर्य, इस प्रकार इन दश धर्मों का भी श्रावकों को शक्ति के अनुसार तथा शास्त्र के अनुसार पालन अवश्य करना चाहिये।।५९।।
अन्तस्तत्त्वं विशुद्धात्मा वहिस्तत्त्वं दयाङ्गिषु।
द्वयो: सन्मीलने मोक्षस्तस्माद्द्वितयमाश्रयेत्।।६०।।
अर्थ —चिदानन्दचैतन्यस्वरूप आत्मा तो अंतस्तत्त्व (भीतरीतत्त्व) है तथा समस्त प्राणियों में जो दया है, वह बाह्यतत्त्व है और इन दोनों तत्त्वों के मिलने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिये मोक्षाभिलाषी भव्यजीवों को इन दोनों तत्वों का भली भांति आश्रय करना चाहिये।।६०।।
ज्ञानी अपनी आत्मा की इस प्रकार भावना करता है-
कर्मेभ्य: कर्मकार्येभ्य: प्रथग्भूतं चिदात्मकम्।
आत्मानं भावयेन्नित्यं नित्यानन्दपदप्रदम्।।६१।।
अर्थ —कर्मों से तथा कर्मों के कार्यों से सर्वथा भिन्न और चिदानन्दचैतन्यस्वरूप तथा अविनाशी और आनन्दस्वरूप स्थान को देने वाले आत्मा का ज्ञानी को सदा चिंतवन करना चाहिये।
भावार्थ —यह आत्मा ज्ञानावरण आदि कर्मों से जुदा है तथा कर्मों के कार्यभूत रागद्वेष आदि से भी जुदा है और चैतन्य- स्वरूप है तथा अविनाशी और आनन्दस्वरूप मोक्ष स्थान का देने वाला है ऐसा ज्ञानी पुरुषों को अपनी आत्मा का चिंतवन निरंतर करना चाहिये।।६१।।
इत्युपासकसंस्कार: कृत: श्रीपद्मनन्दिना।
येषामेतदनुष्ठानं तेषां धर्मोऽतिनिर्मल:।।६२।।
अर्थ —इस प्रकार श्री पद्मनन्दि आचार्य ने इस उपासक संस्कार की (श्रावकाचार की) रचना की है जिन पुरुषों की प्रवृत्ति इस श्रावकाचार के अनुसार है; उन्हीं को निर्मल धर्म की प्राप्ति होती है।
भावार्थ —इस उपासकाचार में जिस आचरण का वर्णन किया गया है उस आचरण के अनुकूल जिन मनुष्यों की प्रवृत्ति है उन्हीं मनुष्यों को निर्मल धर्म की प्राप्ति होती है इसलिये इस निर्मल धर्म की प्राप्ति के अभिलाषी भव्यजीवों को इसके अनुकूल ही प्रवृत्ति करनी चाहिये।।६२।।
इस प्रकार श्रीपद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में उपासक संस्कार
(श्रावकाचार) नामक अधिकार समाप्त हुआ।