मनमोहन जैन ८०२ आर.पी. नगर, फेस-१ कोसाबाड़ी, कोरबा (छ.ग.) जैन परम्परा में गृहस्थ श्रावक (सागर) के लिए जिस आचारधर्म का पालन किया जाता है, उसके प्ररूपक कई ग्रथ श्रावकाचार नाम से प्रसिद्ध है,
यथा : १. आचार्य समंतभद्र (ई. दूसरी) कृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२. आचार्य योगेन्द्र देव (ई. छठी) कृत नवकार श्रावकाचार
३. आचार्य अमितगति (ई. ९८३-१०२३) -श्रावकाचार
४. आचार्य वसुनंदि ३ (ई. १०४३-१०५३)- श्रावकाचार
५. पं. आशाधर (ई. ११७२-१२४३)- धर्मामृत-अनागर एवं सागार
६. आचार्यपद्यनंदि (ई. १३०५)- श्रावकाचार\
७. आचार्य सकलकीर्ति (ई. १४३३-१४४२) – प्रश्नोत्तर श्रावकाचार
८. आचार्य तारण तरण (वि.सं.१५०५-१५७२) – श्रावकाचार सामान्यत:
श्रावक के आचार को लक्ष्य कर लिखे गए श्रावकाचार ग्रंथों में धर्म का स्वरूप, ज्ञान की आराधना, तप, षट् आवश्यक आदि विषयों सहित भोजन संबन्धी आचार एवं दोषों का वितरण मिलता है। यहाँ जैन धर्मभूषण धर्म दिवाकर ब्र. शीतलप्रसाद ने ‘तारण तरण श्रावकाचार’ ग्रथ की टीका करते समय भूमिका में जो कथन किया है कि – ‘‘प्राय: जो श्रावकाचार प्रचलित है, उनमें व्यवहारनय का कथन अधिक है परन्तु इस ग्रंथ में निश्चयनय की प्रधानता से व्यवहार का कथन है।’’श्री तारणतरण श्रावकाचार के टीकाकार, ब्र. शीतलप्रसाद की भूमिका, पृष्ठ-११
सम्यग्दर्शनं न्यानं, चरित्रं सुध संयमं।
गाथा ४४८ पृ. ३८० वही जिनरूपं सुध दव्वार्थ,
साधओं साधु उच्यते।।४४८।।
अन्वयार्थ – जो (सम्यग्दर्शनं न्यान चारित्रं) सम्यग्दर्श, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र को (सुध संयमं) शुद्ध संयम को, (जिनरूपं), जिनेन्द्र के स्वरूप को (सुध दव्वार्थ) शुद्ध आत्मा द्रव्य के भाव को (साधओ) साधन करते हैं, वे (साधु उच्यते) साधु कहलाते हैं। संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए जैन दर्शन की, तर्कपूर्ण एवं विज्ञान सम्मत अनूठी दन इस प्रकार है- १. जल गालन, २. रात्रि भोजन विरति।
‘‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन,
जैसा पीवे पानी वैसी बोले वानी’’।
वास्तव में पुदगल का असर जीव के भावों में और जीव के भावों का असर पुदगल पर पड़ता है। पुदगल के अशुद्ध उपयोग के कारण आत्मा की शुद्ध शक्ति आच्छादित हो जाती है। शरीर निर्बल, अस्वस्थ एवं खेदित हो जाता है, थक जाता है। आत्मा के शुद्धोपयोग से मन प्रसन्न रहता है, शरीर प्रफुल्लित हो जाता है। यही प्रफुल्लता शरीर की निरोगता का आधार है। इस निरोगता में सहायक शुद्ध खान-पान रहता है जिसका असर सर्व शरीर पर पड़ता है- उपयोग पर भी पड़ता है। शुद्धोपयोग ही मोक्षमार्ग है जिसकी प्राप्ति का प्राथमिक आधार जल गालन है। जलगालन की क्रिया में यद्यपि एक बार जलकायिक जंतुओं की हिंसा होती है, परन्तु मर्यादा तक उसमें ऐसे जीव उत्पन्न नहीं होंगे, न फिर उनके घात की आवश्यकता होगी। अप्रत्यक्ष रूप से शरीरधारी छहों जाति के प्राणियों की जीवरक्षा हो जाती है जो अहिंसा और दया का पालन है। यह आसाधरण स्थिति अविरत श्रावक की होती है जिसका सम्यक्त्व निर्मल है और ज्ञान सम्यक् है। आचार्य तारण-तरण ने न्यान समुच्चय सार में कहा है
जल गालन उवयेसं, प्रथमं संमत सुध भवस्स।
चित्तं सुध गलंतं, पच्छिदो जलं च गालम्मि।।२९०।।
गाथा २०० न्याय समुच्चय सार (आचार्य तारणतरण) टीकाकार ब्र. शीलतप्रसाद
(१) आहार का प्रयोजन –
वेयण्विज्जावच्चे किरियुद्वारे य संजमट्ठाए ।
गाथा ४७१ मूलाचार आर्चाय कुन्दकुन्द तवपाणधम्मचिंता कुज्जा देहि आहारं ।।४७९।।
अर्थात् – भूख की वेदना का शमन करने के लिए, संयम की सिद्धि के लिए, अपनी तथा दूसरों की सेवा के लिए, तथा मुनि के छह आवश्यक कर्तव्य, ज्ञान, ध्यान आदि के लिए मुनि को आहार करना चाहिए।
भुक्षाग्लपिताक्षाणां प्राणिरक्ष कुतस्तनी ।
प्रवर आशाधर क्षमादय: क्षुधार्तानां शुड़्क्याश्चापि तपस्विनाम् ।।६२।।
अर्थात् – जिनकी इंन्द्रियां भूख से शक्तिहीन हो गई हैं वे अन्य प्राणियों की रक्षा कैसे कर सकते हैं ? जो तपस्वी भूख से पीड़ित हैं उनके भी क्षमा आदि गुणो शंकास्पद ही रहते हैं।
क्षुत्पीतवीर्येण पर: स्ववदार्ती दुरुद्धर: ।
वही प्राणाश्वाहार शरणा योगकाष्ठाजुषामपि ।।६३।।
अर्थात् -जिस मनुष्य की शक्ति भूख से नष्ट हो गई है वह अपनी तरह पीडित दूसरे मनुष्य का उद्धार नहीं कर सकता। जो योगी योग के आठ अंग की चरम सीमा पर पहुँच गए हैं उनके भी प्राणों का शरण आहार ही हैं।
बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होई ।
भगवती आराधना पुरिसस्स महिलियारा अट्ठावीसं हवे कवला ।।२१२।।
अर्थात् – पुरुष के आहार का प्रमाण बत्तीस ग्रास है और स्त्री के आहार का प्रमाण अट्ठाईस ग्रास है। इतने से उनका पेट भर जाता है।
सव्यंजनाशनेन द्वौ पानेनैकमंशमुदरस्य।,
प्रवर आशाधर भृत्वादभृतस्तुरीयों मात्रा तदीतक्रम: प्रमाणमल: ।।३८।।
अर्थात् साधु को दो भाग दाल, शाक सहित भात आदि से भरना चाहिए और उदर का एक भाग जल आदि पेय से भरना चाहिए तथा चौथा भाग खाली रखना चाहिए। इसका उल्लघंन करने पर प्रमाण नामक दोष होता है। काल की अपेक्षा इसमें परिवर्तन करने का विधान ‘पिण्डनिर्युक्ति’ में है। काल तीन है – शीत, उष्ण और साधारण। अतिशीतकाल में पानी का एक भाग और भोजन के चार भाग कल्पनीय हैं। मध्यम शीतकाल में पानी के दो भाग और तीन भाग भोजन ग्राह्य है। मध्यम उष्ण काल में भी दो भाग पानी और तीन भाग भोजन कल्पनीय है। अति उष्ण काल में तीन भाग पानी और दो भाग भोजन ग्राह्य है। सर्वत्र छठा भाग वायु संचार के लिए रखना उचित है।
द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीर्य समीक्ष्य च ।
प्रवर आशाधर स्वास्थ्याय वर्तनां सर्वविद्धशुद्धासनै: सुधी: ।।६५।।
अर्थात् – सुधीजनों को द्रव्य, क्षेत्र, अपनी शारीरिक शक्ति, छह-ऋतु, भाव और स्वाभाविक शक्ति का अच्छी तरह विचार करके स्वास्थ्य के लिए सर्वाशन, विद्धासन और शुद्धासन के द्वारा भोजन ग्रहण करना चाहिए। द्रव्य से मतलब आहारादि से है। भूमि प्रदेश को क्षेत्र कहते हैं। यह तीन प्रकार के होते हैं- जांगल, अनूप और साधारण। जहाँ पानी, पेड़ और पहाड़ कम हों उसे जांगल कहते हैं। जांगल में वात का आधिक्य रहता है। जांगल के विपरीत अनूप में कफ की प्रधानता रहती है। जहाँ जल आदि सामान्य हो उसे साधारण कहते हैं। साधारण प्रदेश में तीनों ही सम रहते हैं। तदनुसार भोजन किया जाना चाहिए। काल से तात्पर्य ऋतु और समय से है। ऋतुचर्या का विधान इस प्रकार है- शरत् और बंसत ऋतु में रूक्ष तथा ग्रीष्म और वर्षाऋतु में शीत अन्नपान लेना चाहिए। रस के अनुसार शीत और वर्षाऋतु में मधुर, खट्टा और लवणीय तथा बंसत ऋतु में कटु, चरपरा और कसेला, ग्रीष्म ऋतु में मधुर और शरद्ऋतु में मधुर, तिक्त और कषाय रस का सेवन करना चाहिए।भावधि पंचम अधिकार, अनगार धर्मामृत पृ. ४१० से उद्धृत पं. आशाधर
सत्वेसणं च विद्देसणं च सुद्धेसणं च ते कमसो ।
आचार्य कुन्दकुन्द एसण समिदिविसुद्धं णिव्वियडमवंजणं जाण ।। मूलाचार ६/७०-
एषणा समिति से शुद्ध भोजन सर्वाशन है। गुड़, तेल, घी, दही, दूध, सालन आदि से रहित और कांजी, शुद्ध तक्र आदि युक्त भोजन विद्वाशन है। बिना व्यंजन के पककर तैयार हुआ जैसा का तैसा भोजन शुद्धासन है। ये तीनों ही प्रकार का भोजन खाने योग्य है।
मनुष्य के सभी दैनंदिन कार्य प्रकृति से तादात्म्य बनाए रखते हुए संचालित होते हैं। वास्तविक सूर्योदय से पूर्व नित्यकर्म से निवृत्त हो जाना चाहिए। श्रावक के लिए आहार ग्रहण का समय, वास्तविक सूर्योदय के पश्चात् एवं वास्तविक सूर्यास्त के पूर्व है। प्रकाश की संपूर्ण आंतरिक परावर्तन की घटना के (Total internal reflection of light ) कारण अपने वास्तविक उदयकाल से २ घड़ी अर्थात् ४८ मिनट पूर्व ही सूर्य की पूर्व दिशा में दिखने लगता है, वह वास्तविक सूर्य नहीं होता है बल्कि उसका आभासी प्रतिबिंब दिखाई देता है। इसी प्रकार वास्तविक सूर्य डूब जाने के बाद भी दो घड़ी या ४८ मिनट तक उसका आभासी प्रतिबिंब आकाश में दिखाई देता रहता है। सूर्य के इस आभासी प्रतिबिंब में दृश्य किरणों के साथ अवरक्त लाल किरणें एवं अल्ट्रा वायलेट किरणें नहीं होती हैं। वे केवल सूर्योदय के ४८ मिनट बाद आती हैं और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व ही समाप्त हो जाती है।जैनधर्म का वैज्ञानिक चिंतन पृ. ६५-६६ प्राचार्य पं. निहालचंद जैन जिस प्रकार एक्सरे मांस और चर्म को पार कर जाती है उसी प्रकार उक्त दोनों प्रकार की किरणें कीटाणुओं के भीतर प्रवेश कर उन्हें नष्ट करने की शक्ति रखती है। यही कारण है कि दिन में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति नहीं होती।वही पृ. ६४ उपरोक्त संदर्भों से यह सहज निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि केवल अवरक्त लाल किरणों (इंफारेड) और अल्ट्रावायलेट किरणों की उपस्थिति में ही सूक्ष्म जीवों की या तो उत्पत्ति नहीं होती या अपवाद रूप सूक्ष्म जीवों की न्यनूतम हुई उत्पत्ति स्वत: नष्ट हो जाती है। जैसा कि उपरोक्त संदर्भों में कथन है कि उक्त दोनों प्रकार की किरणें केवल सूर्योदय के ४८ मिनट बाद आती है और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व ही समाप्त हो जाती है। शेष किसी भी समय, किसी भी तरह के प्रकाश में उक्त दोनों तरह की किरणें उपलब्ध नहीं रहती। कृत्रिम तेज प्रकाश जैसे सोडियम, लैंप, मक्ररी लैंप, आक्रलैंप से निकलने वाले प्रकाश का यदि वर्णक्रम देखें तो उनमें भी ये दोनों किरणें नहीं पाई जाती है इस तरह पूर्णत: शुद्ध और सात्विक आहार तैयार करने के समय के साथ-साथ, भोजन करने के समय का भी समय निश्चत हो जाता है। बुंदेलखण्ड में ‘अन्थउ’ शब्द का प्रयोग सूर्यास्त पूर्व भोजन करने के लिए प्रसुक्त किया जाता है। यह अणथम शब्द का अपभ्रंश है।वही पृ. ६६ सूर्यास्त के बाद भोजन करने वालों को सूर्यद्रोही कहा है।
यो मित्रेऽस्तंगते रक्त विदध्यादभोजनं जन ।
तद् द्रोही स भवत्पाप शवस्योपरिचाशनम् ।।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार घड़ी दोय जब दिन चढ़ै, पिछलो घटिका दोय । इतने मध्य भोजन करे, निश्चय श्रावक होय ।।१३।।दोहा १३ प्रा. पं. निहालचंद जैन लिखित जैनधर्म का वैज्ञानिक चिंतन पृ. ६५(१)
सूर्य प्रकाश पाचन शक्ति का दाता है। वैज्ञानिक अनुसंधानों का यह निष्कर्ष है कि दिनचर वर्ग के मनुष्य आदि का पाचन तंत्र सूर्य के वास्तविक प्रकाश में सक्रिय रहता है। रात्रि के समय हृदय और नाभि कमल संकुचित हो जाने से भुक्त पदार्थ का पाचन गड़बड़ हो जाता है। भोजन करके सो जाने पर संकुचन और अधिक हो जाता है और निद्रा में आ जाने से पाचन शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाती है। (२) वैज्ञानिकों ने विभिन्न भोज्य पदार्थों के पाचन का समय खोजा है। रेशेदार हरी सब्जियाँ इस अर्थ में सुपाच्य हैं कि पाचनतंत्र इन्हें २ से ३ घंटे में पचा लेता है। वही दाल इत्यादि के पाचन में ३ से लेकर ५ घंटे तक लगते हैं। आरोग्य शास्त्र में भी भोजन करने के बाद तीन घंटे नहीं सोना चाहिए। दूसरे शब्दों में रात्रि शयन से न्यूनतम ३ घंटे पहले भोजन कर लेना चाहिए। (३) दृश्य सूर्य प्रकाश में उपस्थित इन्फ्र्रारेड और अल्ट्रावायलेट किरणों का गर्म स्वभाव के कारण भोजन को पचाने में अतिरिक्त मदद मिलती है। (४) सूर्यग्रहण के समय इन्फ्र्रारेड और अल्ट्रावायलेट किरणों का अभाव रहता है। अत: सूर्यग्रहण के काल में भोजन का निषेध उचित है। निष्कर्ष यही है कि दिन के शुद्ध वायुमंडल में किया गया भोजन स्वास्थ्यकर और पोषण युक्त होता है। जैनधर्म की प्रकृति के साथ तादत्म्य की अनोखी प्रस्तुति है। सर्वज्ञ महावीर ने जब प्रकृति को निहारा तो उन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति सभी में जीवन का स्पंदन होते देखा। इसीर आधार पर आचार्य उमास्वामी ने ‘तत्वार्थसूत्र’ में एक सूत्र दिया –
‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’ ।।
आचार्य उमास्वामी इस अमर सूत्र का मूलमंत्र शाकाहार में छुपा हुआ है और अहिंसा की मान प्रतिष्ठा का सरल, स्वास्थ्यवर्धक आहार शाकाहार है।
अल्पफल बहुविघातान्मूलमाद्र्राणि शृ्रड्गवेराणि ।
आचार्य समन्तभद्र नवनीत निम्बकुसुमं कैतकीमल्येवमव हेयत् ।।८५।।
अर्थात् – जिसके सेवन से अपना प्रयोजनमूल फल तो अल्पसिद्ध होता है किन्तु खाने से अनंत जीवों का घात होता है ऐसे कन्दमूल, शृ्रंगवेर, मक्खन, नीम के फूल, कुसुम, जिनमें अनंत जीवों का घात होता है, त्यागने योग्य ही हैं।
एकमपि प्रजिघांसु निहन्त्यनन्तान्यतस्नतोवऽश्यम ।
करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्त कायानाम् ।।१६२।।
भावार्थ जिस एक को घात करने से अनंत स्थावर जीवों का घात होता है इसलिए अनन्तकाय वाली साधारण वनस्पतियों को सर्वप्रकार त्याग देना चाहिए। कंदमूल प्राय: इस दोष में आते हैं, अत: त्यागना उचित है।
कन्दादिषटकं त्यागार्हमित्थन्नाद्वि भजेन्मुनि: ।
अनगार धर्मामृत न शक्यते विभक्तु चेत् त्यज्यतां तर्हि भोजनम् ।।४१।।
अर्थ कन्द, मूल, फल, बीज, कण और कुण्ड, ये छह त्याज्य है अत: इन्हें भोजन से अलग कर दें। यदि इन्हें भोजन से अलग करना शक्य न हो तो भोजन ही त्याग देना चाहिए।
मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रतपंचकम् ।
अष्टौ मूलगुणानाहुगृहिणां श्रमणोत्तम: ।।६६।।
अर्थात् – गणधरदेव तथा श्रुतकेवली हैं वे गृहस्थ के मद्य, मांस, मधु के त्याग सहित पांच अणुव्रतों को अष्टमूल गुण कहते है। जमीन के अंदर सूर्य की किरणें किसी भी समय नहीं पहुंच पाती, इसलिए कंदमूल आदि सभी तरह के जमीकंद असंख्यात सूक्ष्म जीवों से सदा आवेष्टिता होकर दूषित रहते हैं। यही अभक्ष्य पदार्थ रात्रिकालीन अंधकार की तामसी प्रवृत्ति के कारण विषाद, अधर्म, अज्ञान, आलस्य और राक्षसीवृत्ति को जन्म देते हैं। बुंदेलखण्ड में चार बातों की शुद्धि को चौका कहते हैं। वे हैं – १. द्रव्य शुद्धि २. क्षेत्र शुद्धि ३. काल शुद्धि ४. भाव शुद्धि। एषणा समिति की अंगभूत आठ प्रकार की पिण्ड शुद्धि इस प्रकार हैं : उदगम् शुद्धि, उत्पादन शुद्धि, आहार शुद्धि, संयोग शुद्धि, प्रमाण शुद्धि, अंगार शुद्धि, धूम शुद्धि और हेतु शुद्धि। पिण्ड का अर्थ आहार है और व्यापक अर्थ में द्रव्य।
षट्चत्वारिंशता दोषै: पिण्डाऽध: कर्मणा मलै: ।
द्विसप्तैश्चोज्झितोऽविघ्नं योज्यस्त्याज्यस्तथार्थत: ।।१।।
अर्थात् – निमित्त और प्रयोजन के आश्रय से छियालस दोषों से, अध: कर्म से और चौदह मलों से रहित आहार अन्तराओं को टालकर ग्रहण करना चाहिए तथा ऐसा न हो तो उसे छोड देना चाहिए। छियालीस दोषों में सोलह उदगम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दस शंकित दोष, चार अंगार दोष, धूम दोष संयोजन दोष और प्रमाण दोष होते हैं। भोजन बनाने में जो हिंसा होती है उसे अध:कर्म कहते हैं। पीब, रुधिर, मांस, हड्डी, चर्म, नख, केश, मरे हुए विकलत्रय, कंद, सूरण आदि बीज मूली आदि फल, कण और कुण्ड- ये आहार संबन्धी चौदह मल हैं। मांसाहार दोषों को वैज्ञानिक निष्कर्ष पर समझने हेतु, शारीरिक एवं मानसिक व्यापार को नियंत्रित करने वाली उन तरंगों/किरणों के प्रभाव और विशेषताओं को समझना आवश्यक है जो विभिन्न परिस्थितियों के कारण मस्तिष्क से उत्सर्जित होती है। इन तरंगों के गुण और कार्य निम्नानुसार हैं :कथन जैनधर्म का वैज्ञानिक चिंतन एवं इंटरनेट से साभार
(१) थीटा तरंग : ४-७.५ HZs की थीटा तरंगे सामान्य हल्की निद्रा या गहरी ध्यानावस्था में उत्सर्जित होती हैं। ऐसा माना जाता है कि गहन आध्यात्मिक तादात्म्य और चराचर जगत से एकाकार अनुभव में आता है। ७ से ८ HZs की सीमा पर, मानसिक स्तर पर सृजनात्मकता प्रारंभ होती है।
(२) अल्फा तरंग : ७.५-१४ HZs की अल्फा तरंग, वास्तव में तरंग नहीं बल्कि तीव्र, चलायमान, घनात्मक आवेश पाले हीलियम न्यूक्लियस (पत्ग्ल्स् हल्म्तग्) है जिनमें २ न्यूट्रान और ४ प्रोटान होते हैं। भारी होने के कारण इनकी छेदन क्षमता अल्प रहती है अत: मोटे कागज से भी रोके जा सकते हैं। ये तरंगें जागृत परन्तु आरामदायक स्थिति में बंद आंखों के साथ ‘आस्सिपिटल लोब’ (Occipital Lobe) से पैदा होती हैं। अल्फा तरंगों को प्रमस्तिष्क या अर्धचेतन अवस्था का प्रवेश द्वारा माना गया है।
(३) बीटा तरंग : १४-४० HZs की बीटा तरंग भी, वास्तव में तरंग नहीं, बल्कि तीव्र, चलायमान ऋणात्मक आवेश या इलेक्ट्रान हैं। अल्फा तरंगों की तुलना में कम भारी, बीटा तरंगों की भेदन क्षमता भी अधिक होती है परन्तु ‘आवेश होने के कारण इन्हें अत्यधिक मोटे और कड़े कार्ड बोर्ड या दीवाल आदि से रोका जा सकता है। यह तरंग चेतना को जागृत करने के साथ तर्कयुक्त विवेक के लिए भी उत्तरदायी है।परन्तु बीटा तरंगों के स्तर में अधिकता तनाव, चिंता और थकान के लिए भी उत्तरदायी हैं आज की तथाकथित आधुनिक जीवन शैली में तनाव सबसे बड़ी स्वास्थ्य समस्या है।
(४) गामा तरंग : ७५-१०० HZs वाली गामा तरंग आवेश रहित फोटान हैं जो प्रकाश में होते हैं। गामा तरंग की छेदन क्षमता अत्याधिक होती है। इसमें जीवित कोशिकाओं को नष्ट करने की क्षमता होती है।
उपरोक्त, विभिन्न आवृत्ति वाली तरंगों के, मस्तिष्क और शरीर पर पड़ने वाले गुणदोषों के विवरण से यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि जैसे-जैसे तरंग की आवृत्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे, मस्तिक और शरीर पर तरंग का लाभ की जगह दुष्प्रभाव बढ़ता जाता है। ये किरणें मस्तिष्क और शरीर पर अच्छा या बुरा प्रभाव क्यों डालती है ? हम यह भूल बैठे है कि हमारे विचार विश्वास, चेतना एवं स्वयं के अस्तित्व के नियंत्रक हैं। वास्तव में हम स्वयं ही कर्ता हैं और स्वयं ही भोक्ता हैं। वास्तव में तरेगें तो निमित्त मात्र हैं, जिसका आस्रव भी कर्ता और भोक्ता कर रहा है और बंध भी स्वयं कर्ता और भोक्ता ही कर रहा है। ऐसी स्थिति में कर्मफल से कैसे बचा जा सकता है। मांसाहार क्योंकर दूषित है और मांसाहारी को यह क्योंकर कष्टप्रद है, इसका समाधान उच्च आवृत्ति वाली तरंगों के अनिष्टकारी प्रभाव और शरीर शास्त्र (Anatomy) में वर्णित ग्रंथियों से होने वाले स्राव के कार्य और प्रभाव के आधार पर किया जा सकता है। समाधान हेतु प्रारंभिक शरीरशास्त्र में उल्लेखित ‘एड्रिनल ग्रंथि’ (Adrenal gland)विभिन्न भौतिक विज्ञान की पुस्तकें एवं इंटरनेट से साभार से, घटना विशेष में उत्सर्जित होने वाले स्राव (Harmons) के कारण और प्रभाव से किया जा रहा है। क्या पशु-वध गृह में वध किये जाने वाले पशु या मौत की आहत सुनने वाले साथी पशु की स्थिति, उपरोक्त घटना से अलग होती है ?भिन्न भी और भयानक भी। पशु वध गृह में वध के लिए तैयार पशु Adrenaline स्राव के चलते बढ़ा रक्तचाप, बढ़ी धड़कन, पसीना-पसीना होकर अतिरिक्त शक्ति प्राप्त कर लेता है, Naradrenaline स्राव से बचने का विचार और युक्ति भी समझ लेता है परंतु पशु का रुदन और चीत्कार इस बात का द्योतक है कि बिना अपराध किये मृत्यु दण्ड को प्राप्त पशु कितना निरीह, लाचार और जीवन बचाने में असमर्थ है। मनोविज्ञान की दृष्टि से यही विवशता पशु के अंदर क्रोध और बदले की भावना पैदा कर देती है। वध के समय असीम वेदना से छटपटाता पशु, अनंतानुबंधी क्रोध पालकर उस मांसाहारी को बददुआएँ देता है।एड्रनिल ग्रंथि के स्राव और कार्य-विभिन्न चिकित्सा विज्ञान की किताबें एवं इंटरनेट जानवरों से फैलने वाला घातक, संक्रामक रोग ‘जूनोटिक डिसआर्डर’ हैं। इन बीमारियों के खतरनाक वायरस, बैक्टीरिया, पैरासाइट और कवक जानवरों के शरीरों में पकते हैं। जानवरों के संपर्क में रहने वालों में खून से शरीर में संक्रमण होने या इन जानवरों के प्रदूषित मांस भक्षण से संक्रमित होने वाले इंसान में दिमागी विकृति आ जाती है। इन बीमारियों में वे पुराने इंफेक्शन भी शामिल हैं जिन्हें इलाज के बाद अलविदा मान लिया गया था। यह ज्यादा इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि फिर से सक्रिय होने वाले वायरस पर पुरानी एंटीबायटिक दवाइयां लगभग बेअसर हो जाती हैं। संक्रमण के साथ-साथ, वध प्रक्रिया के दौरान उपजी उच्च आवृत्ति वाली ‘गामा’ किरणों से विच्छिन्न आहार ससे नए-नए रूप की बीमारियों का असर दुनिया भर में देखा जा रहा है। इनकी पहचान में काफी समय लग जाता है, ऐसे में इलाज से पहले ही थे बीमारियां फैलने लगती है। ब्रिटेन में दिमाग, रीढ़ की हड्डी और पाचन-तंत्र पर घातक प्रभाव वाले रोगियों का परीक्षण सर्वेक्षण सन् १९८९ में किया गया तो सभी रोगियों द्वारा कुछ महिनों से लेकर कई सालों तक मवेशियों का संक्रमित मांस खाना पाया गया। इस बीमारी का नाम दिया गया ‘मेड काऊ डिजीज’।गुण प्रतिशत- इंटरनेट से उद्धृत उपरोक्त विवरण का निष्कर्ष संभवत: आश्चर्यजनक लगे कि पशु-वधगृह में लाने तक की प्रक्रिया और पशु के प्रवेश के साथ ही प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष परन्तु सम्बद्ध पक्षों का कर्म-बंध और फलादान की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। सामान्य जीवन शैली में, शरीर में बीटा तरंगें व्याप्त रहती हैं। पशु वधगृह में प्रवेश करने पर, मृत्यु भय से आक्रांत पशु को अतिरिक्त बल प्रदान करने के लिए एड्रिनल ग्रंथि जो ‘एड्रेनिलिन’ स्राव उत्सर्जित करती है, उससे उच्च रक्तचाप, हदय की धड़कन बढ़ना, शरीर पसीने-पसीने होना जैसे लक्षणों के साथ ही, बीटा तरंगें भी, उच्च आवृत्ति वाली गामा तरंगों में परिवर्तित होकर शरीर के प्रत्येक प्रदेशको आवेष्टिता कर लेती हैं। कभी-कभी अधिक व्यग्रता की स्थिति में, बीटा-तरंगें, गामा तरंगों से भी आवृत्ति वाला फास्ट और सुपर फास्ट श्रेणी की तरंगों में भी परिवर्तित हो जाती हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हमारे शरीर में सात्विक, राजस और तामस ये तीन प्रकार के गुण होते हैं। सात्विक गुण से ज्ञान, बुद्धि, मेधा, स्मृति आदि गुणों का विकास होता है जो मोक्ष प्राप्ति में सहायक होते हैं। सात्विक गुण के सर्वथा विपरीत तामसिक गुण होता है। साधारण, सदाचारी, संसारी जीव के सात्विक और तामस मध्य का राजस गुण होता है। मांस के समतुल्य रात्रि-भोजन के दोषों के साथ ही, वैज्ञानिक विश्लेषणों में पाये गए दोष निम्नलिखित है :
(१) मांस भक्षण और इसके समतुल्य रात्रि-भोजन सात्विक गुणों का नाश करके तामसिक गुणों की वृद्धि करते हैं।
(२) रोगों को रोकने में रेशा- Fiber का बड़ा महत्व है। मांसाहारी पदार्थों में फाइबर की मात्रा बिल्कुल नहीं होती। अत: मांसाहार में रोग-प्रतिरोधक क्षमता शून्य होती है।
(३) मांसाहार में कोलेस्ट्राल (Cholesterol) की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है।
(४) मांस का पाचन समय अधिक होने के कारण उसे पचाने में शक्तिशाली पाचक तत्वों की आवश्यकता होती है जिससे शरीर के पाचन-तंत्र पर अधिक दबाब पड़ता है।
(५) एक खोज के अनुसार रेड मीट (Red Meat) से हाइपरटेंशन (Hypertension) और हृदय रोग का खतरा अधिक रहता है।
(६) मांस के प्रक्रम (Processing) में रसायन का उपयोग होता है जो शरीर और प्राकृतिक स्वास्थ्य के प्रतिकूल है। निष्कर्ष : we are, what we eat (हम वही होते है जैसा खाते है)।