संसार के सभी प्राणी सुख की कामना करते हैं और यत्किंचित् भी दुख नहीं चाहते हैं।
पंडितप्रवर श्री दौलतरामजी ने ‘छहढाला’ नामक अनुपम आध्यात्मिक कृति में प्राणी की इस दशा का बहुत ही सुन्दर रेखांकन किया है-
‘जे त्रिभुवन में जीव अनंत, सुख चाहें दु:खतें भयवंत।
तातें दु:खहारि सुखकार, कहें सीख गुरु करुणाधार।।
जीव की यह दशा क्यूँ हुई है ? इस पर भी प्रकाश डालते हुए लिखा है-
‘ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्याण।
मोहमहामद पियो अनादि, भूलि आपको भरमद वादि।।
अनादिकाल से मोह माया में पड़कर इस प्राणी पर जो संस्कार पड़ गये उसको जब तक दुरुस्त नहीं किया जाएगा तब तक प्राणी कभी भी सच्चे सुख का अनुभव नहीं कर सकता। प्राणियों में सबसे श्रेष्ठतम योनि है-मनुष्य योनि, क्योंकि इस योनि में ही जीव अपने को सुसंस्कारित कर उत्तमोत्तम पद को प्राप्त कर पाता है।
परमपद को प्राप्त होने पर ही यह जीव सर्वोच्च ऐसे अनंत सुख का सदा सर्वदा-अनुभव कर सकता है। यह पद प्राप्त होना सरल नहीं है। एक तो मनुष्य भव प्राप्त होना ही अत्यन्त दुर्लभ है और वह प्राप्त भी हो जाय तो सदाचारयुक्त उत्तम माता-पिता अर्थात् उत्तम जाति, कुल व अनंतसुख का पथदर्शन देने वाला धर्म तथा वैसे संस्कारों का होना इससे भी दुर्लभ है।
सागरोपम वर्षों तक दु:खमय जीवन को भोगते हुए किसी कर्मयोग से मनुष्य भव प्राप्त होने पर तथा उत्तम कुल व उत्तम माता—पिता, उत्तम जाति व उत्तम धर्म धारण करने जैसा वातावरण मिलने पर उत्तम श्रावक बनने का पुरुषार्थ आवश्यक है।
जैनाचार्यों ने मनुष्य की दशा को सुधारने का मार्ग प्रशस्त करते हुए उत्तम श्रावक बनने के लिये त्रेपन प्रकार के संस्कार अर्थात् त्रेपन क्रियाएँ करना आवश्यक बताया है। ये त्रेपन क्रियाएँ स्वयं अपने आपमें ऐसे संस्कार हैं जिनकी प्राप्ति से यह मनुष्य भव सुसंस्कारित हो अत्युच्च ऐसे अनंत सुखों की प्राप्ति की तरफ अग्रसर हो पाता है। समीचीन संस्कारों से ही वह जितेन्द्रियता का पालक, अनुगामी होने का अधिकारी बन सकता है, बनता है। जितेन्द्रिय द्वारा कथित जिनधर्म सुनने का अधिकार भी ऐसे जीवों को प्राप्त होता है जो सुसंस्कारों से युक्त हो।
श्रद्धा, विवेक और क्रिया द्वारा अपने मनुष्य जीवन तथा नाम को सार्थक बनाने वाला जैन श्रावक अपने बालक—बालिकाओं को सुसंस्कारित और सुशिक्षित किस प्रकार करे इसके लिये जैनाचार्यों ने श्रावक की त्रेपन क्रियाओं का बहुत ही सुंदर निरूपण किया है।
जैनाचार्य श्री जिनसेन स्वामी ने महापुराण नामक महान ग्रंथ में श्रावक की इन त्रेपन क्रियाओं का बहुत ही सुस्पष्ट विवेचन कर उसकी उपादेयता पर प्रकाश डाला है।
व्यक्ति के जीवन की सम्पूर्ण शुभाशुभ वृत्ति उसके संस्कारों के आधीन है। इन संस्कारों में कुछ को वह अपने पूर्वभव के साथ में लाता है और कुछ इसी भव में संगति एवं शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं।
प्रथम तो माता—पिता के रज वीर्य से बनने वाला पिण्ड, जहाँ जीव आता है, उस पर माता-पिता के जीवन का प्रभाव पड़ता है। गर्भाधान के पश्चात् माता के सद्विचार, आचार एवं आहार-विहार के प्रभाव से बालक की शक्तियाँ दृढ़ होती हैं। जिस तरह से खान से निकाले गये सोने को तपा-तपाकर अग्नि के संस्कार से शुद्ध किया जाता है, जिस प्रकार ओबड़—धोबड़ पत्थर से एक कलाकार अपनी कुशाग्र बुद्धि से टांके पर टांके, घाव पर घाव लगाकर एक सुन्दर मनोज्ञ पूजनीय मूर्ति का निर्माण करता है, उसी प्रकार एक व्यक्ति को भी पूजायोग्य सुसंस्कारों की अनेकों सीढ़ियों से मनुष्य योनि में आने से पूर्व से ही पार होना अति आवश्यक होता है।
भोगभूमि में उपलब्ध सामग्री के अभाव में कर्मभूमि के प्रारम्भ में हुए प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने असि, मसि, कृषि, शिल्प, सेवा, वाणिज्य के उपदेश के साथ देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन गृहस्थ जीवन के दैनिक षट्कर्मों का जनता को उपदेश दिया और अपने प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती को सुसंस्कृत किया और स्वयं ने भी विवाह संस्कार द्वारा गृहस्थ जीवन के बाद का आदर्श प्रस्तुत करते हुए दिगम्बर मुनि की जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष का द्वार उद्घाटित किया।
तत्पश्चात् षट्खण्ड के विजय के बाद भारतवर्ष को अपने नाम से सार्थक बनाने वाले भरत चक्रवर्ती ने जिनेन्द्र देव की महामहपूजा के अन्तर्गत जनता को जिनागम के आधार से इज्या, वार्त्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का निर्देश करते हुए क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में जिन संस्कार विधि का प्रचार-प्रसार किया। उसका आचार्य जिनसेन स्वामी के आदिपुराण इस महान ग्रंथ के अनुसार जो कि ‘‘श्रावक की तिरेपन क्रियाएँ (संस्कार)’’ नाम से प्रसिद्ध हैं उसका विचार यहाँ किया जाता है।
‘‘गर्भान्वयक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्वयक्रिया:।
कर्त्रन्वयक्रियाश्चेति तास्त्रिधैवं बुधेर्मता:।।५१।।
आदिपुराण पु. ३८ पर्व।
(१) गर्भान्वय क्रिया (२) दीक्षान्वय क्रिया (३) कर्त्रन्वय क्रिया।
(१) गर्भाधान संस्कार—
आधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मन्त्रपूर्वक:।
पत्नीमृतुमतीं स्नातां पुरस्कृत्यार्हदिज्यया।।७०।।
आदिपुराण पु. पर्व ३८।
स्नान की हुई स्त्री को मुख्य कर गर्भाधान के पूर्व अरहन्तदेव की पूजा और मन्त्रपूर्वक जाे पूजा संस्कार किया जाता है उसे ‘आधान’ क्रिया कहते हैं।
विवाह केवल विषयाभिलाषा की पूर्ति हेतु नहीं अपितु पुत्रोत्पत्ति एवं गृहस्थ जीवन द्वारा सदाचरण, लोकसेवा तथा आत्मोन्नति के उद्देश्य से किया जाता है।
गर्भ में आने वाले बालक को मानसिक और शारीरिक शक्तियों की दृढ़ता और कमजोरी माता द्वारा प्राप्त होती है। माता के मन, वचन और काय की क्रिया का असर बालक पर पड़ता है अत: माता को विवेकशील और धर्मात्मा होना चाहिये।
स्त्री को मासिक धर्म के ४ दिन बाद पाँचवें दिन स्नानादि से शुद्ध होकर मंदिर जाकर जिनेन्द्रदेव की पूजा, स्वाध्याय आदि करना चाहिए।
जिनप्रतिमा के दाई तरफ तीन चक्र, बाईं तरफ तीन छत्र और तीन प्रकार की पुण्याग्नि स्थापन कर दोनों पति—पत्नी अरहन्त भगवान की पूजा कर अग्निकुंडों में होमविधि करके पूजन विधि पूर्ण करें।
(२) प्रीति क्रिया-गर्भाधान के पश्चात् तीसरे महीने में यह संस्कार क्रिया की जाती है। इस क्रिया में भी पूर्वोक्त विधि से अरहंत पूजन करना चाहिये। दरवाजे पर तोरण बांधना चाहिये। पूजन के साथ ही ११२ आहुतियों से हवन, पुण्याहवाचन, शान्तिपाठ, समाधिपाठ विसर्जन करावें। पति-पत्नी पर पुष्प क्षेपण करते हुए नीचे लिखा मन्त्र कहे-
‘‘त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव,’’
तदनन्तर ‘ॐ कं ठ व्ह: प: अ सि आ उ सा गर्भार्भकम् प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा’ यह मन्त्र तीन बार पढ़कर गर्भवती के उदर पर पति द्वारा जलिंसचन करावें।
प्रथम गर्भाधान क्रिया में भी पूजन हवनोपरान्त नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर पति-पत्नी पर पुष्प क्षेपण करना चाहिये-
सज्जातिभागी भव, सद्गृहीभागी भव, मुनिन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागीभव, परमराज्यभागी भव, अरहन्तभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव’।
(३) सुप्रीति क्रिया-गर्भाधान से पांचवे महीने में यह संस्कार किया जाता है। इसमें पूर्ववत् पूजा, हवन, पुण्याहवाचन आदि करके निम्न प्रकार के खास मन्त्रों से आहुति व पुष्पों से आशीर्वाद देवें-
‘अवतार कल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेक कल्याणभावि भव, निष्कांति कल्याणभागी भव, अर्हन्त कल्याणभागी भव, परम निर्वाण कल्याणभागी भव।
इसी समय पति पत्नी के सिर की मांग में सिंदूर और १०८ जौ के दानों की पहले से तैयार कराई गई माला ‘ॐ झं वं क्ष्वीं हं स: कान्तागले यवमालां क्षिपामि झौं स्वाहा’ मन्त्र पढ़कर पत्नी के गले में पहनावे। पत्नी अपने आँखों में अंजन लगावे।
(४) धृति या सीमंतोन्नयन संस्कार-यह क्रिया सातवें माह में करे। इसका दूसरा नाम है खोल भरना। इसमें भी पूर्ववत् अरहन्त पूजा, हवन, पुण्याहवाचन आदि करें। नीचे लिखे मन्त्रों से आहुती व आशीर्वाद देवें-
‘सज्जातिदातृभागी भव, सद्गृहस्थदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, आर्हन्त्यदातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव।
अनन्तर पुत्र वाली सौभाग्यवती स्त्री द्वारा तेल व सिंदूर में डूबोकर शमी ‘सोना’ वृक्ष की समिधा (सींक) से गर्भिणी पत्नी के केशों की मांग भरी जावें। इसी दिन गोद में श्रीफल, मेवा, फल आदि भराकर पति पत्नी जिनमन्दिर जावें, साथ में महिलाएँ भी गीत गाती जावें।
(५) मोद संस्कार-गर्भ से नौवें महीने में यह संस्कार किया जाता है। इसमें पूर्ववत् अर्हन्त पूजा, यंत्रपूजा, हवन करें। साथ ही नीचे लिखे खास मन्त्रों से आहुती व दम्पति को आशीर्वाद देवें-
‘सज्जातिकल्याणभागी भव, सद्गृहस्थकल्याणभागी भव, वैवाहकल्याणभागीभव, मुनीन्द्रकल्याण-भागीभव, सुरेन्द्रकल्याणभागीभव, मन्दराभिषेकल्याणभागीभव, यौवराज्यकल्याणभागीभव।
पुण्याहवाचन शान्तिपाठ के बाद द्विज विद्वान या स्वयं पति गर्भिणी के शरीर पर गात्रिका बांध मन्त्रपूर्वक बीजाक्षर लिखते हैं और मंगलाचार करके आभूषण पहनाकर उसकी रक्षा के लिये उसे कंकण सूत्र बांधते हैं।
गर्भिणी महिला को प्रतिदिन ‘ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम:’ इस मन्त्र का जाप (एक माला १०८) करना चाहिये। ब्रह्मचर्यपूर्वक रहें, सादा भोजन करें। जिनवाणी के स्वाध्याय में अधिक समय लगावें। हाथ चक्की से आटा पीसने का अभ्यास रखें।
(६) प्रियोद्भव क्रिया-बालक के जन्म के बाद यह क्रिया की जाती है। जन्म का १० दिन का सूतक होने से गृहस्थाचार्य या जिनको सूतक न लगे, वे जिनमन्दिर में पूजा विधान करें। हवन में ‘दिव्य नेमिविजयाय स्वाहा, परम नेमिविजयाय स्वाहा, अर्हंत नेमिविजयाय स्वाहा, घातिजयो भव, श्री आदि देव्य: जाता क्रिया कुर्वन्तु, मन्दराभिषेकार्होभवतु’ इन मन्त्रों से आहुति देवें। पिता आदि भी पुत्र को देखकर यह आशीर्वाद देवें। बाजे आदि बजवावें।
(७) नामकर्म संस्कार-जन्म से १२, १६ या ३२ वें दिन शुभ नक्षत्र में यह संस्कार करें। इसमें भी अर्हन्त देव की पूजन आदि पूर्ववत् किया जाता है। १० दिन का सूतक होने से जिनाभिषेक, पूजा, शास्त्र का स्पर्श नहीं है। मुनिराज भी यहाँ आहार नहीं लेते अत: उपर्युक्त पूजन किया जाता है। घर का प्रसूति स्थान ४५ दिन तक अशुद्ध रहता है। ४५ वें दिन नवजात शिशु को जिनमंदिर ले जावे। वहां जिनेन्द्र प्रतिमा के सामने शिशु को माता नीचे सुला देवे और गृहस्थाचार्य या अन्य कोई व्यक्ति नव बार णमोकार मन्त्र उसके कानों में सुनावें। बालक को उसी समय अष्ट मूलगुण (पांच उदम्बर और तीन मकार का स्थूलरूप से त्याग) धारण करा देवें और जैन बनावें। इस त्याग की जिम्मेदारी बालक के विवेकवान होने तक उसके माता-पिता की है। जिस घर में मद्य, मांस, मधु का भी त्याग न हो वह जैन घर कैसे माना जावे।
नामकर्म के लिये जन्मपत्रिका बनवाकर जिस राशि का नाम आवे उसके अनुसार १००८ जिन सहस्रनामों में से कोई भी अनुकूल नाम रख देवें। कन्या का नाम पुराणों में प्रसिद्ध महिलाओं के अनुकूल रखें।
दिव्याष्टसहस्रनामभागीभव, विजयाष्टसहस्रनामभागीभव, परमाष्टसहस्रनामभागीभव इन मंत्रों से आशीर्वाद दिया जावे।
नाम घोषित करते समय ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं अमुक बालकस्य नामकरणं करोमि। अयं आयुरारोग्यैश्वर्यवान् भवतु भवतु झ्रौं झ्रौं अ सि आ उ सा स्वाहा’ मन्त्र पढ़ा जावे।
(८) बहिर्यान क्रिया-जन्म के बाद दूसरे—तीसरे महीने में मंगलक्रिया मंगल वाद्यपूर्वक बालक को प्रसूतिगृह से बाहर निकालना बहिर्यान क्रिया है। इसके आशीर्वाद मंत्र नीचे लिखे अनुसार हैं-
‘उपनयनिष्क्रांतिभागी भव, वैवाहनिष्क्रांतिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रांतिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रांतिभागी भव, मन्दराभिषेक-निष्क्रांतिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रांतिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रांति भागी भव, परमराज्यनिष्क्रांतिभागीभव, आर्हन्त्यनिष्क्रांतिभागी भव’
बालक को जिनालय में दर्शन कराते समय ‘ओं नमोऽर्हते भगवते जिनभास्कराय जिनेन्द्रप्रतिमादर्शने बालकस्य दीर्घायुष्यं आत्मदर्शनं च भूयात्’ यह मन्त्र पढ़ें।
(९) निषद्या क्रिया-जन्म से पांचवे माह में बालक को बैठाने की क्रिया की जाती है। उस समय पूर्व मुख कर सुखासन से बैठावें। नीचे लिखे आशीर्वाद सूचक खास मन्त्र पढ़ें-
‘‘दिव्यिंसहासनभागीभव, विजयिंसहासनभागीभव, परमिंसहासनभागीभव’।
(१०) अन्नप्राशन क्रिया-जन्म से ७, ८ या ९ माह बीत जाने पर अर्हन्त भगवान की पूजापूर्वक बालक को अन्न आहार खिलाना अन्नप्राशन क्रिया है। इसका मन्त्र है-
‘‘दिव्यामृतभागीभव, विजयामृतभागीभव, अक्षीणामृतभागीभव’
(११) वर्षवर्धन (व्युष्टि) संस्कार क्रिया-यह क्रिया बालक के एक वर्ष का होने पर करें। इस दिन जिनमन्दिर में पूजा विधान करावें। बालक को भी मन्दिर भेजें। उसका जन्मदिवस मनावें। नीचे लिखे मन्त्र से बालक को आशीर्वाद देवें—
‘उपनयन जन्मवर्षवर्धनभागीभव, वैवाहनिष्ठवर्धनभागीभव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागीभव, सुरेन्द्रवर्ष-वर्धनभागीभव, मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागीभव, यौवराज्यवर्षवर्धनभागीभव, महाराज्यवर्षवर्धन—भागीभव, परमराज्यवर्षवर्धनभागीभव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागीभव’।
(१२) चौल संस्कार-बालक के पांच वर्ष का होने पर यह क्रिया की जाती है। यूँ तो दो-तीन वर्ष में भी यह क्रिया की जा सकती है। जिनेन्द्रपूजन के बाद बालक का मुंडन करना चोल क्रिया है। इसका मन्त्र इस प्रकार है-
उपनयनमुँडभागीभव, निर्ग्रंथमुँडभागीभव, निष्क्रांतिमुँडभागीभव, परमनिस्तारकेशभागीभव, सुरेन्द्रकेश-भागीभव, परमराज्य-केशभागीभव, आर्हन्त्यकेशभागीभव।
केश निकल जाने पर चोटी के स्थान पर केशर से स्वस्तिक बनावें, पुष्पक्षेपण करें। इसी समय कर्ण, नासिका वेध क्रिया भी करते हैं।
(१३) लिपि संख्यान क्रिया-बालक के पांचवे वर्ष का होने पर घर में पाठशाला में अक्षरों का दर्शन करने के लिये यह संस्कार किया जाता है। जिनमन्दिर में या घर पर पूजा के बाद यह क्रिया करें। सर्वप्रथम ओं और ओं नम: सिद्धेभ्य:’ बालक से पट्टी पर लिखावें और इनका उच्चारण करावें। इस समय आशीर्वादसूचक निम्न मन्त्र पढ़ें-
‘शब्दपारगामीभव, अर्थपारगामीभव, शब्दार्थसम्बन्धपारगामीभव’। बालक को लिपि पुस्तक दी जावे।
(१४) उपनीति संस्कार क्रिया-गर्भ से आठवें वर्ष में बालक पर यह उपनीति या यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है। रक्षाबंधन के त्यौहार पर भी यह क्रिया सम्पन्न की जा सकती है। इसका मन्त्र इस प्रकार है-
परमनिस्तारकिंलगभागीभव, परमर्षििंलगभागीभव, परमेन्द्रिंलगभागीभव, परमराज्यिंलगभागीभव, परमार्हन्त्यिंलग भागीभव, परमनिर्वाणिंलगभागीभव’।
यज्ञोपवीत पहनने का मन्त्र-
ॐ नम: परमशान्ताय शान्तिकराय पवित्रीकृताहं रत्नत्रयस्वरूपम् यज्ञोपवीतम् धारयामि मम गात्रं पवित्रं भवतु अर्हन्नम: स्वाहा।
यज्ञोपवीत पहनने से अष्ट मूलगुणों का स्थूलरूप से पालन हो जाता है। रात्रिभोजन त्याग भी करना होता है।
(१५) व्रतचर्या क्रिया-करधनी, श्वेतधोती, उरोिंलग-जनेऊ और शिरोिंलग-चोटी इन ब्रह्मचर्य व्रत के योग्य चिन्हों को धारण करना व्रतचर्या क्रिया होती है। अध्ययन पूर्ण होने तक इन व्रतों का पालन करना चाहिये। इस अवधि में पलंग पर सोना, उबटन लगाना आदि त्याज्य है। पांच अणुव्रत आदि व्रत पालन करना चाहिये। विद्याध्ययन होने तक ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरुमुख से उपासकाचार पढ़कर अध्यात्मशास्त्र, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, छन्द, अलंकार, कोष, गणित आदि पढ़ने चाहिये। लौकिक शिक्षा प्राप्ति में भी उपर्युक्त संस्कारों से युक्त रहने से बहुत ही लाभ होते हैं।
(१६) व्रतावतरण संस्कार क्रिया-विद्याभ्यास समाप्त होने पर यज्ञोपवीत, पांच अणुव्रत, अष्टमूलगुण आदि व्रतों के सिवाय शेष सभी जैसे-पृथ्वी पर शयन करना, आभूषण त्याग आदि व्रतों को बारह या सोलह वर्ष बाद त्याग कर देना व्रतावतरण क्रिया है। इस क्रिया के बाद गुरु की आज्ञा से वस्त्र, माला, आभूषण आदि ग्रहण किये जाते हैं।
(१७) विवाह संस्कार क्रिया-गुरुआज्ञापूर्वक सुकुल सज्जाति में उत्पन्न कन्या के साथ विधिवत् विवाह होना विवाह क्रिया है। मंगलाष्टक, अर्हन्तपूजा, हवन, पुण्याहवाचन, शांतिपाठ, विसर्जन आदि से यह क्रिया होती है।
(१८) वर्णलाभ क्रिया-पिता की आज्ञानुसार धन-धान्य सम्पदा लेकर अलग रहना यह वर्णलाभ क्रिया है।
(१९) कुलचर्या क्रिया-पिता के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त कर विशुद्ध रीति से जीविका चलाना और देवपूजा आदि षट्कर्म करना कुलचर्या क्रिया है।
(२०) गृहीशिता क्रिया-गृहस्थाचार्य बनने योग्य क्रियाएँ करते हुए इस क्रिया को प्राप्त होना चाहिये।
(२१) प्रशान्ति क्रिया-अनन्तर अपने पुत्र पर गृहभार छोड़कर स्वाध्याय, उपवास आदि करते हुए अत्यन्त शान्ति प्राप्त करना प्रशान्ति क्रिया है।
(२२) गृहत्याग क्रिया-गृह आदि छोड़ने को उद्यत होना गृहत्याग क्रिया है।
(२३) दीक्षाद्य क्रिया-दिगम्बर मुनिराज के पास जाकर क्षुल्लक दीक्षा लेना दीक्षाद्य क्रिया है।
(२४) जिनरूपता क्रिया-दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षा-दिगम्बर मुनि की दीक्षा ग्रहण करना जिनरूपता क्रिया है।
(२५) मौनाध्ययनवृत्तित्व क्रिया-साधु के शास्त्रज्ञान की समाप्ति होने तक मौनपूर्वक अध्ययन करना यह मौनाध्ययन-वृत्तित्व क्रिया है।
(२६) तीर्थकृद्भावना क्रिया-तीर्थंकर पद के कारणभूत सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन करना तीर्थकृद्भावना क्रिया है।
(२७) गुरुस्थानाभ्युपगम क्रिया-गुरु के आचार्य पद के प्राप्त करने योग्य होकर आचार्य पद प्राप्त करना ‘गुरूस्थानाभ्युपगम क्रिया है।
(२८) गणोपग्रहण क्रिया-चतुर्विध संघ के पालन करने में तत्पर होना गणोपग्रहण क्रिया है।
(२९) स्वगुरु-स्थानावाप्ति क्रिया-अपने योग्य शिष्य को आचार्य पद भार समर्पण करना स्वगुरु-स्थानावाप्ति क्रिया है।
(३०) नि:सङ्गत्वात्मभावना क्रिया-शिष्य, पुस्तक आदि का ममत्व छोड़कर नि:संग होकर आत्मभावना में लीन होना नि:सङ्गत्वात्मभावना क्रिया है।
(३१) योगनिर्वाणसंप्राप्ति क्रिया-मोक्ष में अपनी बुद्धि स्थापन कर ध्यान में तत्पर होना योगनिर्वाणसंप्राप्ति क्रिया है।
(३२) योगनिर्वाण साधन क्रिया-चतुराहार त्यागकर शरीर के छोड़ने में उद्यत होना योगनिर्वाणसाधन क्रिया है।
(३३) इन्द्रोपपाद क्रिया—मन, वचन और काय के योगों की समाधि लगाकर प्राणों का त्यागकर इन्द्र पद में उत्पन्न होना इन्द्रोपपाद क्रिया है।
(३४) इन्द्राभिषेक क्रिया-इन्द्रपद में जन्म होने के बाद देवगण मिलकर उस इन्द्र का अभिषेक करते हैं वह इन्द्राभिषेक क्रिया है।
(३५) विधिदान क्रिया-तदन्तर नम्रीभूत हुए देवों को उनके पद पर नियुक्त करना विधिदान क्रिया है।
(३६) सुखोदय क्रिया-देवों से वेष्टित इन्द्र बहुत काल तक स्वर्ग सुख का अनुभव करता है वह ‘सुखोदय नाम’ की क्रिया है।
(३७) इन्द्रपदत्याग क्रिया-इन्द्र जब अपनी आयु की स्थिति थोड़ी रहने पर अपना स्वर्ग से च्युत होना जान लेता है तब वह देवों को समझाकर इन्द्रपद का त्याग करता है उसे इन्द्रपद त्याग क्रिया कहते हैंं।
(३८) इन्द्रावतार क्रिया-गर्भ में आने के छ: महीने पहले माता को सोलह स्वप्न होना, रत्नों की वर्षा आदि होना। पुन: वहाँ से च्युत होकर माता के गर्भ में आना ‘इन्द्रावतार क्रिया’ है।
(३९) हिरण्योत्कृष्ट जन्मता क्रिया-हिरण्योत्कृष्ट जन्म धारण करते हुए गर्भ में ही मति, श्रुत, अवधि ज्ञान के धारक भगवान की यह ‘हिरण्योत्कृष्ट जन्मता क्रिया’ है।
(४०) मन्दराभिषेक क्रिया-भगवान का जन्म होने पर इन्द्रगण आकर सुमेरू पर ले जाकर अभिषेक करते हैं यह मंदराभिषेक क्रिया है।
(४१) गुरूपजन क्रिया-बिना किसी के शिष्य बने भगवान ही सबके गुरू हैं अत: इन्द्र आकर सर्व जगत के गुरू का पूजन करता है यह ‘गुरूपूजन क्रिया’ है।
(४२) यौवराज्य क्रिया-कुमार काल प्राप्त होने पर भगवान को युवराज पद का पट्टबन्ध किया जाता है वह यौवराज्य क्रिया है।
(४३) सम्राटपद क्रिया-सम्राट पद पर अभिषिक्त होना सम्राट पद क्रिया है।
(४४) चक्रलाभ क्रिया-चक्ररत्न की प्राप्ति होने पर यह चक्रलाभ क्रिया होती है।
(४५) दिशांजय क्रिया-चक्ररत्न को आगे कर दिशाओं को जीतना दिशांजय क्रिया है।
(४६) चक्राभिषेक क्रिया-दिग्विजय पूर्ण कर अपने नगर में प्रवेश करने पर चक्राभिषेक नाम की क्रिया होती है।
(४७) साम्राज्य क्रिया-साम्राज्य पद पर अभिषिक्त होने पर भगवान अनेक राजाओं को शिक्षा देकर न्यायनीति बतलाते हैं यह साम्राज्य क्रिया है।
(४८) निष्क्रान्ति क्रिया-राज्य से विरक्त होने पर लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुत्त्य भगवान स्वपुत्र को राज्य देकर दीक्षा के लिये जाते हैं वह ‘निष्क्रान्ति क्रिया’ है।
(४९) योगसम्मह क्रिया-भगवान बाह्य-अंतरंग परिग्रह छोड़कर ध्यान में लीन होते हैं तब केवलज्ञान तेज प्रगट हो जाता है वह योगसम्मह क्रिया है।
(५०) आर्हन्त्य क्रिया-केवलज्ञान उत्पन्न होने पर समवशरण की रचना होती है वह आर्हन्त्य क्रिया है।
(५१) विहार क्रिया-धर्मचक्र को आगे कर भगवान का विहार होता है वह विहार क्रिया है।
(५२) योगनिरोध क्रिया-विहार समाप्त होकर समवसरण विघटित हो जाने पर भगवान का योग निरोध होता है, यह योग निरोध क्रिया है।
(५३) अग्रनिवृत्ति क्रिया-अघातिया कर्मों का नाश हो जाने से मोक्ष स्थान में पहुँच जाने पर अग्रनिवृत्ति क्रिया होती है।
इस प्रकार गर्भाधान से लेकर निर्वाण अर्थात् मोक्ष पर्यंत मिलाकर त्रेपन क्रियायें होती हैं। भव्य जीवों को उनका सदा अनुष्ठान करना चाहिये।
आदिपुराण के रचयिता भगवज्जिनसेनाचार्य ने गर्भाधान आദि समस्त क्रियाओं की संस्कारविधि का महत्त्वपूर्ण प्रभाव बताते हुए कहा है कि जिस प्रकार विशुद्ध खानि से उत्पन्न हुआ मणि संस्कारविधि से अत्यन्त उज्ज्वल व कान्तिशाली हो जाता है उसी प्रकार यह आत्मा भी गर्भाधान आदि संस्कार व मन्त्रों के संस्कार से उज्ज्वल, अत्यन्त निर्मल व विशुद्ध हो जाता है एवं जिस प्रकार सुवर्ण पाषाण उत्तम संस्कार क्रिया (छेदन, भेदन व आग्रपुटपाक आदि) से शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार भव्य पुरुष भी उत्तम क्रियाओं-संस्कारों को प्राप्त हुआ विशुद्ध हो जाता है। यह संस्कार धार्मिक ज्ञान से उत्पन्न होता है और सम्यग्ज्ञान सर्वोत्तम है।
निवृत्तिपरक आदर्श जैनाचरण दो प्रक्रियाओं में विभाजित है-एक मुनिमार्ग और दूसरा श्रावकमार्ग। इसे मुनिधर्म और श्रावकधर्म भी कहते हैं। इनमें प्रथम मार्ग, जो सभी प्रकार के आरम्भ और परिग्रहत्यागी, यथाजात लिंगधारी नग्नरूप, तिलतुष मात्र जिनके परिग्रह नहीं है, पूर्ण अिंहसादि पंच महाव्रतों के धारी, सभी प्रकार के इन्द्रिय-विषयों से सदा विरक्त ज्ञान-ध्यान में सदा रमण करने वाले, प्राणी मात्र के मित्र, वीतरागी, सभी आकांक्षाओं से विरक्त, पूर्ण समताधारी, दिगम्बर जैन मुनियों का है। इस प्रकार के श्रेष्ठ आचरण को जैनधर्म ने जैनाचार की मुख्य प्रक्रिया मुनिमार्ग या मुनिधर्म माना है। इसमें चंचल मन पर और उसकी सभी प्रकार की उच्छ्रंखल प्रवृत्तियों पर इतना कठोर अंकुश लगाया गया है कि वह उधर भटक नहीं पाता है और फिर वह शुद्ध और संयमित होकर, मात्र आत्मस्वरूप की खोज में लग जाता है और अनन्त काल से कर्मावरण से युक्त आत्मा को विशुद्ध बनाने में लग जाता है। धीरे-धीरे अपनी तपोग्नि द्वारा उन आवरणों को जलाता रहता है। जब वे सभी भस्म हो जाते हैं तब आत्मा के अपने गुण अनंतज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य (शक्ति) ये अनंतचतुष्टय प्राप्त हो जाते हैं। यह आत्मा अनंत शक्तिवान् होकर केवलज्ञानी (अनंतज्ञानी), सर्वदृष्टा, सर्वज्ञ, निराकुलतायुक्त परम सुखी बन जाता है। यही आत्मा का (जीव का) परम लक्ष्य था जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
(२) जो इस उत्कृष्ट प्रक्रिया पर चलने में असमर्थ हैं उनके लिए भी इस मुख्य प्रक्रिया तक पहुँचने के लिए, एक सरल मार्ग श्रावक (गृहस्थ धर्म) मार्ग भी जैनधर्म में है। लक्ष्य तो इसका भी वही मोक्षप्राप्ति का ही है किन्तु धीरे-धीरे चलते हुए, अभ्यास करते हुए, उस मुख्य प्रक्रिया (मुनिमार्ग) तक पहुँच जाना है क्योंकि मुख्य प्रक्रिया की साधना बहुत ही कठिन है, उस पर यकायक चलना सभी के लिए संभव नहीं है इसलिए दूसरी सरल प्रक्रिया का भी मार्ग प्रशस्त किया गया है।
कहा भी है-‘‘करत—करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’’। यह श्रावकमार्ग (गृहस्थधर्म) अभ्यास मार्ग है। धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए, अनादिकाल से भ्रमित आत्मा को सुसंस्कारों से संस्कारित करते हुए आगे बढ़ने का मार्ग है।
अज्ञानता के कारण अनंत काल तक तो यह जीव निगोद राशि में पड़ा रहा। बहुत काल स्थावर काय में, त्रस काय में (दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय जीवों की पर्यायों में) पैदा होता रहा। वहाँ इसे कोई सुयोग, आत्मा की उन्नति करने का अवसर नहीं मिला, एक-एक पर्याय में हजारों बार जन्मा और मरा अत: अब इस मनुष्य पर्याय को अपने शुभ कर्मों के द्वारा सार्थक करना चाहिए।