(साथ ही साथ) सत्य—अणुव्रती बिना सोचे—समझे न तो कोई बात करता है, न किसी का रहस्योद्घाटन करता है, न अपनी पत्नी की कोई बात मित्रों आदि में प्रकट करता है, न मिथ्या (अहितकारी) उपदेश करता है, और न कूटलेख—क्रिया (जाली हस्ताक्षर या जाली दस्तावेज आदि) करता है। पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं चु हुन्ति तिन्नेव। सिक्खावयाइं चउरो सावगधम्मो दुवालसहा।।
श्रावक धर्म पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत—इस प्रकार बारह प्रकार का है। विरता: परिग्रहात्—अपरिमिताद् अनन्त—तृष्णात्। बहुदोषसंकुलात् नरकगतिगमनपथात्।। क्षेत्रादे: हिरण्यादे: धनादे: द्विपद्वादे: कुप्यकस्य तथा। सम्यग्विशुद्धचित्तो, न प्रमाणातिक्रमं कुर्यात्।।
अपरिमित परिग्रह अनन्त तृष्णा का कारण है, वह बहुत दोषयुक्त है तथा नरकगति का मार्ग है। अत: परिग्रह—परिमाणाणुव्रती विशुद्ध चित्त श्रावक को क्षेत्र—मकान, सोना—चाँदी, धन—धान्य, द्विपद—चतुष्पद तथा भंडार (संग्रह) आदि परिग्रह के अंगीकृत परिमाण का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।