श्रावक धर्म की आराधना के इच्छुक सद्गृहस्थों को लोक व्यवहार में किस प्रकार न्यायनीतिपूर्वक वर्तन करना चाहिये क्योंकि गृहस्थ अपने दैनिक जीवन में लौकिक शिष्टाचार का पालन करते हुए यदि न्यायनीति का अनुसरण नहीं करेगा तो वह श्रावक धर्म पालन करने का पात्र नहीं बन पायेगा।
सम्यक् चारित्र निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का जिनवाणी में निरूपित है।
निश्चय चारित्र स्वरूपाचरण को कहते हैं जिसका अर्थ है-राग—द्वेष विकारों पर विजय प्राप्त करते हुए आत्मलीन हो जाना। इसके लिये मानव को सर्वप्रथम पंचेन्द्रियों के विषयों, क्रोधादि कषायों और पाप वासनाओं का परित्याग कर साधु जीवन अपनाना होगा। साधु के महाव्रतों का पालन करते हुए आत्मसाधना में निरंतर तत्पर रहने वाला व्यक्ति ही स्वरूपाचरण में लीन हो पाता है। यही निश्चय चारित्र कहलाता है जो मोक्ष का साक्षात् कारण है। इसके बिना मुक्ति संभव नहीं है। इसकी साधना व्यवहार चारित्र द्वारा की जाती है।
व्यवहार चारित्र-पंच पापों का मन—वचन—काय से पूर्णतया त्यागकर महाव्रतों का पालन करते हुए गुप्ति, समितिस्वरूप आचरण करना है। यह सकल चारित्र है जिसे साधुजन धारण करते हैं। ये गृहत्यागी आरंभ, परिग्रह से रहित होकर सदा ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहा करते हैं किन्तु जो गृह त्यागकर पंच महाव्रतों के पालन करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं उनके लिए पंच पापों का स्थूल रूप में त्याग कर गृहवासी रहते हुए अणुव्रतों के पालन करने का विधान किया गया है। इन्हें श्रावक कहा गया है, अणुव्रतों को मुनिव्रतों का साधक विकल चारित्र माना गया है।
इन श्रावकों की हीनाधिक रूप में व्रतों के पालन करने की शक्ति को देखते हुए श्रावक धर्म को ग्यारह श्रेणियों में विभक्त किया गया है।
उक्त ग्यारह श्रेणियों के शास्त्रीय नाम हैं- (१) दर्शन प्रतिमा (२) व्रत प्रतिमा (३) सामायिक प्रतिमा (४) प्रोषध प्रतिमा (५) सचित्तत्याग प्रतिमा (६) रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा (८) आरंभत्याग प्रतिमा (९) परिग्रहत्याग प्रतिमा (१०) अनुमतित्याग प्रतिमा (११) उद्दिष्टत्याग प्रतिमा।
धर्माचरण प्रारंभ करने के पूर्व आत्मा का सर्वप्रथम सम्यग्दृष्टि बन जाना आवश्यक और अनिवार्य है। मैं कौन हूँ ? मेरा स्वरूप क्या है ? मैं दु:खी क्यों हूँ ? और संसार के दुखों से कैसे मुक्त हो सकता हॅूँ ? तथा मुक्त होने पर मुझे क्या और कैसा सुख प्राप्त होगा ? आदि तत्त्वों की देव—शास्त्र—गुरु में श्रद्धापूर्वक आस्था रखते हुए आत्मस्वरूप की वास्तविक अनुभूति (आत्मानुभूति) का हो जाना ही सम्यग्दर्शन कहा गया है। आत्मदर्शन किये बिना कोई भी मोही व्यक्ति संसार से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
सम्यग्दर्शन हो जाने पर जब तक व्यक्ति पंच पापों एवं विषय कषायों से विरक्त होकर इनका त्याग नहीं करता तब तक वह अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
दर्शन प्रतिमा-
सम्यग्दृष्टि बनकर सम्यग्दर्शन के पूर्वकथित नि:शंकितादि अष्टांगों का पालन करना और इनके विपरीत शंकादि आठ दोषों तथा कुल—जाति, रूप, ज्ञानादि आठ मदों, छह अनायतनों तथा देव मूढ़तादि तीन मूढ़ताओं का त्याग कर २५ दोष रहित निर्मल सम्यग्दर्शन की आराधना करते हुए संसार, शरीर और विषय भोगों से उदासीन रहकर सप्त व्यसनों का भी त्याग करते हुए अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं निर्ग्रंथ साधुओं की शरण ग्रहण कर उनकी उपासना करना दर्शन प्रतिमा है। इस प्रतिमा का धारक मद्य, मांस, मधु तथा पंच उदम्बर फलों का त्याग करता है। किन्हीं आचार्यों के मतानुसार हिंसादि पंच पापों का भी यथाशक्ति अणु रूप में त्यागकर अष्टमूल गुणों का निरतिचार पालन करता है।
व्रत प्रतिमा-
सम्यग्दर्शन सहित अिंहसादि पंच अणुव्रतों तथा दिग्व्रतादि सप्त शील व्रतों का जीवन भर के लिये निरतिचार पालन करने की प्रतिज्ञा करना व्रत प्रतिमा है।
पंच अणुव्रत-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाण व्रत ये पांच अणुव्रत हैं। इनका स्वरूप निम्न प्रकार है-
(१) अहिंसाणुव्रत-दो इन्द्रियादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रस जीवों को संकल्प (इरादा) पूर्वक मारने या सताने का मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से जीवन भर के लिये त्याग करने की प्रतिज्ञा कर लेना अहिंसाणुव्रत कहलाता है।
हिंसा चार प्रकार की होती है-(१) संकल्पी (२) आरंभी (३) उद्योगी और (४) विरोधी।
१. क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायवश जान-बूझकर संकल्पवश किसी को मारना या सताना संकल्पी िंहसा है।
२. गृह कार्यों के करने में जो जीवों का घात होता है वह आरंभी िंहसा है।
३. खेती, व्यापार, उद्योग धंधों के करने में जो जीवों का घात होता है वह उद्योगी िंहसा है।
४. विरोधियों से स्वयं की, अपने कुटुम्बियों, आश्रितों, धर्म और धर्मात्माओं या देश की रक्षा करने में जो हिंसा होती है वह विरोधी हिंसा कहलाती है। इसमें किसी को मारने की भावना न रहकर आत्मरक्षा करने का भाव रहता है।
इन चारों प्रकार की िंहसाओं में से अणुव्रती गृहस्थ केवल त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करता है। स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग नहीं कर पाता किन्तु उनकी यथासंभव रक्षा करने का ध्यान रखता है। यही उसका स्थूल िंहसा का त्याग कहलाता है।
(२) सत्याणुव्रत-स्थूल झूठ न स्वयं बोलना और न दूसरों से बुलवाना (जिसके बोलने या बुलवाने से व्यक्ति झूठा एवं बेईमान कहलाने लगे) ऐसा सत्य भी नहीं बोलना जिससे अपने या दूसरों के प्राण संकट में पड़ जावें और आजीविकादि कार्यों में बाधा आ जावे-सत्याणुव्रत कहलाता है। इस व्रत का धारक हित-मित-प्रिय वचन बोलता है। कडुवे, कठोर, िंनद्य, दूसरों के लिए अहितकारी वचनों का प्रयोग नहीं करता।
(३) अचौर्याणुव्रत-बिना दिये दूसरों की गिरी, पड़ी, रखी या भूली हुई वस्तुओं को लालचवश लेने का त्याग करना अचौर्याणुव्रत कहलाता है। इस व्रत का पालक केवल मिट्टी और जल-जो सर्वसाधारण के लिये ग्रहण करने योग्य हो, बिना दिये भी ग्रहण कर सकता है किन्तु जिस खदान या वुँâए से मिट्टी या जल ग्रहण करने का प्रतिबंध लगा हो उससे बिना पूछे ग्रहण नहीं करता।
(४) ब्रह्मचर्याणुव्रत-धर्मानुकूल अपनी विवाहिता स्त्री के सिवाय अन्य सभी स्त्रियों से विषयसेवन करने या बुरी दृष्टि से देखने का त्याग कर अपने शील धर्म का पालन करना ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। इस व्रत का धारक अपनी पत्नी के सिवाय अन्य सभी स्त्रियों को मां, बहिन, बेटियों के समान समझता है एवं महिलाएं अन्य पुरुषों को पिता, भाई और पुत्र के समान मानकर अपने शील धर्म का पालन करती हैं।
(५) परिग्रह परिमाण व्रत-धन, गृहादि बाह्य वस्तुओं का संतोषपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिये अपनी इच्छानुसार जीवन भर के लिये परिमाण कर लेना और उससे अधिक की तृष्णा न रखना परिग्रह परिमाण व्रत कहलाता है। सीमा से अधिक धनादि की वृद्धि होने पर धर्मकार्यों तथा परोपकारों के कार्य में लगाता है।
इस प्रकार हिंसादि पंच पापों का विरतिभावपूर्वक एकदेश त्याग करने से गृहस्थ अणुव्रती बन जाता है।
यहाँ यह नियम ध्यान देने योग्य है कि जब तक मानव पंच पापों का संकल्पपूर्वक त्याग करके व्रती नहीं बनेगा तब तक वह चाहे पाप न भी करे, उस पाप का भागी बना रहेगा। वैसे देखा जावे तो कोई भी व्यक्ति सदा न हिंसा करता है, न झूठ बोलता है, न चोरी करता है, न परस्त्री सेवन करता है और न परिग्रह को संग्रह करने के भाव रखता है किन्तु जब कषायों के भाव मन में आते हैं तभी वह क्रिया रूप में हिंसादि करता है परन्तु क्रिया रूप में िंहसादि न करते हुए भी उसने चूंकि विरत भाव से उसका त्याग नहीं किया, तब तक अविरमण रूप पापों के बंध से बच नहीं सकता। अव्रती के पाप भाव सुप्त अवस्था जैसे अव्यक्त बने रहते हैं और परिस्थिति के अनुसार जाग्रत हो जाते हैं। जाग्रत हो जाने पर अधिक पाप बंध होता है और अविरत अवस्था या सुप्त दशा में कम होना संभावित है। जैसे-बिल्ली सुप्त दशा या जाग्रत दशा में जब वह चूहों को न पकड़ रही हो तब भी अहिंसक नहीं है क्योंकि वहां चूहा नहीं दिख रहा इसीलिये शांत दिखाई दे रही है किन्तु चूहे या अन्य जानवर के दृष्टि में आते ही वह झपट पड़ती है अत: दोनों अवस्थाओं में वह िंहसक ही कहलाती है। इसी प्रकार मनुष्य भी सदा पाप भले ही न कर रहे हों किन्तु जब तक उसका विरति भाव से त्याग करने का नियम नहीं लेंगे तब तक उसके दोष से मुक्त नहीं हो सकेंगे।
सप्तशील व्रत-३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रतों को सप्तशील व्रत माना गया है। इनमें दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रतों को गुणव्रत तथा सामायिक, देशावकाशिक (देश व्रत), प्रोषधोपवास और वैय्याव्रत (अतिथिसंविभाग) व्रतों को शिक्षाव्रत की संज्ञा प्रदान की गई है। दिग्व्रतादि को गुणव्रत इसलिये कहा गया है कि इनके पालन करने से अणुव्रतों के गुणों की वृद्धि होती है अर्थात् अणुव्रतों में जितने पापों का त्याग किया जाता है गुणव्रतों से अकारण होने वाले अन्य असंख्यत सूक्ष्म पापों का भी त्याग हो जाता है।
इसी प्रकार सामायिकादि को शिक्षाव्रत इसलिये कहा गया है कि इनके पालन करने से गृहस्थ को साधु (श्रमण) धर्म के पालन करने का अभ्यास करने में सहायता मिलती है और पापों से भी अधिकाधिक निवृत्ति होने लगती है।
तीन गुणव्रत-
१. दिग्व्रत-जीवनपर्यंत जिन पापों का भी त्याग नहीं किया उनको तथा क्रोधादि कषायों को कम करने के उद्देश्य से दशों दिशाओं में आने-जाने की सीमा निश्चित कर उससे बाहर जाने का त्याग कर देना दिग्व्रत कहलाता है। इस व्रत का पालन करने से सीमा के बाहर के समस्त पदार्थों से संबंध न रहने से उनके प्रति राग-द्वेष भी समाप्त हो जाता है जिससे सूक्ष्म पाप भी नहीं होते। इस कारण सीमा के बाहर उसके व्रत पंच महाव्रतों के रूप में परिणत हो जाते हैं।
२. अनर्थदण्ड-बिना प्रयोजन होने वाले पापों का त्याग करना अनर्थदण्ड व्रत कहा गया है। मानव अनेक पाप बिना प्रयोजन भी करता रहता है अत: इस व्रत के पालन करने से वह उन पापों से बच जाता है।
अनर्थदण्ड पाँच प्रकार के हैं-(१) पापोपदेश (२) हिंसादान (३) अपध्यान (४) दु:श्रुति (५) प्रमादचर्या।
१. पापोपदेश-बिना प्रयोजन दूसरों को ऐसे कार्यों के करने का उपदेश देना जिनसे उन्हें पाप करने की प्रेरणा मिले।
२. हिंसा दान-अपने यहाँ आत्मरक्षा के लिये संग्रहीत तलवार, बंदूक आदि हिंसा के उपकरणों को दूसरों को प्रदान करना।
३. अपध्यान-बैठे बिठाये दूसरों के विनाश या बुरा हो जाने का चिंतन करना, जैसे-उसकी धन हानि हो जाय या पुत्र मर जाय या कार्यों में विघ्न हो जाय, तो अच्छा है। ऐसे विचाराें से किसी की कुछ हानि तो होगी नहीं, स्वयं को बिना प्रयोजन ही पाप का बंध होगा।
४. दु:श्रुति-बैठे बिठाये बिना प्रयोजन गपशप या ऐसी कथा, वार्ता करना जिससे परस्पर राग—द्वेष बढ़ जावे या विवाद लड़ाई झगड़ा होने लगे। राग—द्वेषवर्धक किस्से कहानियाँ सुनना-सुनाना आदि भी पाप के कारण होने से अनर्थ दण्ड ही कहलाते हैं। कुरुचिवर्धक सिनेमा या टी. वी. के चलचित्र देखना या कहानियाँ तथा उपन्यास का पढ़ना—पढ़ाना आदि भी दु:श्रुति नामक अनर्थदण्ड समझना चाहिये।
५. प्रमादचर्या-बिना प्रयोजन पानी बिखेरना, आग जलाना, वनस्पति के पत्ते, फल, फूल, डालियाँ तोड़ना, जमीन खोदना, पंखे चलाना आदि कार्य द्वारा स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवों की हिंसा करना प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड कहा गया है। ये सब क्रियाएं व्यर्थ ही पापों का बंध कराती हैं अत: इनका त्याग अनर्थदण्डव्रत कहलाता है।
भोगोपभोग परिमाण व्रत-
जीवन में पाँचों इन्द्रियों के भोग और उपभोग में आने वाली वस्तुएँ असंख्यात हैं, उनमें कमी करके यम (जीवन भर के लिये) और नियम (काल की मर्यादापूर्वक) उनके सेवन करने की सीमा निश्चित करते रहना भोगोपभोग परिमाण व्रत कहा गया है। इस व्रत के द्वारा परिग्रह व्रत में जो वस्तुएं घर में संग्रहीत हैं उन्हीं में से ‘‘कितनी वस्तुओं का उपयोग मैं आज करूंगा’’ उनका परिमाण कर शेष से मोह और राग का त्याग करने का नियम किया जाता है। जैसे- खानपान की अनेक वस्तुएं है उनमें से मैं आज अमुक वस्तुओं या रसों के सेवन के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के सेवन का त्याग करता हूूँ। इसी प्रकार वस्त्रादि सामग्रियों का जो उपयोग करने में आती हैं और अधिक मात्रा में घर में रखी हैं उनमें से अमुक-अमुक के सिवाय मैं अन्य सभी का आज या अमुक समय तक उपभोग नहीं करूंगा आदि।
इस व्रत का धारक जो अभक्ष्यादि पदार्थ है उनका तो जीवन भर के लिए त्याग करता है और जो निर्दोष सेवन करने योग्य है, उनका समय की सीमा बाँधकर सेवन करने का त्याग करता है। इससे पंचेन्द्रिय के विषय भोगों से राग कम होकर विराग भाव की वृद्धि होती है और धीरे-धीरे भोगों के प्रति उदासीनता आ जाती है इसलिये पाप और कषायों में भी कमी हो जाती है। इस कारण भोगोपभोग परिमाण व्रत को गुणव्रत कहा गया है।
चार शिक्षाव्रत-
१. सामायिक-प्रतिदिन प्रात:काल और सायंकाल दो घड़ी, चार घड़ी या छह घड़ी के लिये िंहसादि पंच पापों, विषय कषायों एवं सबसे राग-द्वेष और मोह छोड़कर मन, वचन, काय को एकाग्र कर समताभावपूर्वक आत्मस्वरूप में और परमात्मा के स्वरूप के चिंतन में लीन हो जाना सामायिक शिक्षाव्रत है। सामायिक करते समय अनित्यादि बारह भावनाओं का िंचतवन करना, सामायिक पाठ पढ़ना, पंच परमेष्ठियों का स्मरणादि कर धर्मध्यान करना आवश्यक है। सामायिक के समय पवित्र ध्यान में मग्नता के कारण वस्त्र से ढके हुए मुनि के समान शुभ एवं शुद्ध भावों में निरत होने के कारण नवीन अशुभ कर्मों का आस्रव रुककर संवर और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा भी होती है तथा भावानुसार पुण्य कर्म का संचय भी होता है।
प्राय: प्रश्न किया जाता है कि सामायिक करने में चित्त की चंचलता के कारण हमारे भाव स्थिर न रहकर नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प होने लगते हैं। अत: हम क्या करें ? इसका समाधान यह है कि सामायिक करने के लिये बैठने के पूर्व क्या आपने दो घड़ी सामायिक करते समय पापों, विषय कषायों एवं गृहारंभ तथा परिग्रह का त्याग कर दिया था ? यदि नहीं किया और माला लेकर फेरने लगे तो आरंभ, परिग्रह या रागद्वेष संबंधी वे सभी विकल्प तो आयेंगे ही, जिनका आपने त्याग नहीं किया। केवल माला के दाने गिनना सामायिक नहीं है। आचार्यश्री समंतभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सामायिक का स्वरूप निम्न प्रकार व्यक्त किया है-
‘आसमय मुक्तिमुक्तं पंचाघानामशेषभावेन।
सर्वत्र च सामायिका: सामयिकं नाम शंसन्ति।।
अर्थात् मन—वचन—काय और कृत, कारित, अनुमोदन से पंच पापों का सामायिक करने के कालपर्यन्त त्याग करते हुए समता भाव धारण कर धर्मध्यान करना सामायिक है।
अत: सामायिक करने वाले यदि पांचों पापों का परित्याग कर दो घड़ी धर्मध्यान करेंगे तो रागद्वेषमयी संकल्प, विकल्प स्वयं ही उतनी देर के लिये दूर रहेंगे।
२. देशावकाशिक (देश व्रत)-यह दूसरा शिक्षाव्रत है। जन्म भर के लिये की गई दसों दिशाओं की आने-जाने की मर्यादा को समय के विभाग से-दिन, दो दिन, सप्ताह, पक्ष, मास आदि के लिये और भी सीमित कर लेना ही देशावकाशिक (देशव्रत) शिक्षाव्रत है। जैसे-आज मैं इस घर या नगर से बाहर नहीं जाऊंगा। इस प्रकार की गई मर्यादा से बाहर न जाने के कारण मर्यादा के बाहर के समस्त पदार्थों से संबंध न रहने से रागद्वेष में कमी होकर शांतिपूर्वक समय व्यतीत होता है एवं तत्संबंधी सूक्ष्म पापों का बंध भी नहीं होता है।
जैसे-एक सांड (बैल) स्वच्छंदतापूर्वक विचरण कर कभी इस गाँव कभी उस गाँव में जाकर खेती को उजाड़ता रहता था। उसे एक गाँव में ही रहने और अपनी उदरपूर्ति करने की सीमा निर्धारित कर दी गई। इसके पश्चात् उसी गाँव के किसी एक खेत में ही अपनी उदरपूर्ति करते रहने की सीमाबाँध दी गई। इससे गाँव के अन्य खेत भी उजड़ने से बच गये। इसाr प्रकार दिग्व्रत और देशावकाशिक व्रत के द्वारा सीमाबद्ध गृहस्थ सीमा के बाहर नहीं जाकर पापों के करने में कमी हो जाने से समय को शांतिपूर्वक व्यतीत करने में सफल हो जाता है।
३. प्रोषधोपवास शिक्षा व्रत-प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को दिन में एक बार आहार करने को प्रोषध कहते हैं और चारों प्रकार के आहारों के त्याग करने को उपवास कहते हैं। प्रथम दिन त्रयोदशी को एकाशन, चतुर्दशी को उपवास तथा पूर्णिमा को फिर एकाशन करना प्रोषधोपवास कहलाता है अर्थात् दो प्रोषधों के बीच एक उपवास करना। इस व्रत का धारक समस्त गृहकार्यों तथा पंच पापों और पंचेन्द्रिय के समस्त विषयों तथा कषायों का त्यागकर अपना सारा समय धर्मध्यान में व्यतीत करता है। यदि धर्मध्यान न कर विषय कषायों के पोषण में समय बिताया और केवल आहार न किया तो उसे प्रोषधोपवास व्रत न मानकर लंघन करना माना जायेगा। कहा भी है-
‘‘कषायविषयाहार त्यागो यत्र विधीयते।
सोपवासस्तु ज्ञातव्य: शेषं लंघनकं विदु:।।’’
इस व्रत के पालन करने से मुनिराज के समान उपवास करने का घर में अभ्यास भी हो जाता है। जिससे मुनि बनने पर अंतराय आदि हो जाने पर उपवास करने में विशेष आकुलता नहीं होगी।
४. वैय्यावृत्य या अतिथिसंविभाग-अपने एवं पर के उपकार हेतु स्वार्थ वासना का त्याग करते हुए धार्मिक भावना से आहार, औषधि, ज्ञान और अभय इन चार प्रकार के दान देना और सेवा करना वैय्यावृत्य कहा गया है।
पात्रदान और करुणादान के भेद से दान के दो भेद हो जाते हैं। धर्म भावना के साथ मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका को निराकुलतापूर्वक धर्माराधना एवं साधना में सहायता हेतु धर्मबुद्धि से उक्त चार प्रकार का दान और सेवा करना पात्रदान कहलाता है।
दीन-दु:खी, विपदाग्रस्त जनों या पशु-पक्षियों को करुणा बुद्धि से दिया गया दान या सेवा करुणादान कहा गया है।
इस प्रकार पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों तथा चार शिक्षाव्रतों के निरतिचार निर्दोष पालन करने को श्रावक की दूसरी श्रेणी कही गई है जिसे व्रत प्रतिमा कहा जाता है।
सामायिक प्रतिमा-
प्रतिदिन प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल उत्साहपूर्वक मन-वचन-काय को स्थिर कर पांचों पापों का, कषायों का एवं विषय भोगों का कम से कम दो घड़ी, चार घड़ी या छ: घड़ी तक (२४ मिनट की एक घड़ी होती है) पद्मासन या खड्गासन से धर्मध्यान
(आत्मध्यान, पंच परमेष्ठी का ध्यान) करना सामायिक प्रतिमा है।
इस तीसरी प्रतिमा में दिन में तीन बार नियमपूर्वक सामायिक करने और उसमें किसी प्रकार का दोष न लगाने का विधान किया गया है। (दूसरी प्रतिमा में दिन में दो बार भी सामायिक कर सकता है) किन्तु तीसरी प्रतिमा वाला मुनिराज के समान पूर्ण विधि और नियमपूर्वक सामायिक करता है तथा सामायिक के पांच अतिचारों (दोषों) से बचता है सामायिक करते समय-
(१) मन को चंचल कर इधर-उधर की बातें सोचना।
(२) वचनालाप करना।
(३) शरीर की हलन-चलनादि क्रिया करना।
(४) सामायिक का आदर न करना। (रुचिपूर्वक न करना)
(५) सामायिक करते समय उसकी विधि या मंत्र पाठ आदि का भूल जाना।
इन दोषों से बचकर निरतिचार सामायिक करना चाहिए।
प्रोषध प्रतिमा—
प्रत्येक मास की दो अष्टमी और दो चतुर्दशी के दिन गृहारंभ का त्यागकर मंदिरादि धर्मसाधन के स्थानों में जाकर धर्मध्यान करना तथा चार प्रकार के आहार का त्याग करते हुए पांचों इन्द्रियों के विषयों का भी त्याग करना और क्रोधादि कषायों को न करते हुए सामायिक, स्वाध्याय, तत्व चिंतन, धर्मोपदेश आदि में समय बिताना ही प्रोषध प्रतिमा है।
इस प्रतिमा का धारक अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करने के साथ-साथ सप्तमी, नवमी, तेरस व पूर्णमासी या अमावस्या को एकासन यथाशक्ति करते हुए उस दिन संपूर्ण समय केवल धर्मध्यान में ही व्यतीत करता है। यदि विषय कषायों का त्याग न कर केवल भोजन करने का त्याग किया और धर्मध्यान में समय नहीं बिताया तो उसे उपवास न कहकर लंघन करना कहा गया है।
इस प्रतिमा का धारक निरतिचार उपवास करता है।
सचित्तत्याग प्रतिमा—
श्रावक की इस श्रेणी में दया की भावना से जो वस्तुएं सचित्त (सजीव) हैं उनके खाने का त्याग किया जाता है। जैसे-मूल, फल, शाख, शाखा, कोपल, फूल, बीज वाले साग आदि वस्तुएं पक्के बनाकर (पकाकर) ही श्रावक खाता है। कच्चे फल-फूल नहीं खाता और पानी को भी गर्म करके ही पीता है।
रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा—
इस प्रतिमा का धारी मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना (३x३) इन नव प्रकारों से रात्रि में सभी प्रकार के भोजन का त्याग करने की प्रतिज्ञा लेता है। इसके पूर्व की प्रतिमाओं में श्रावक केवल स्वयं रात्रिभोजन करने का त्यागी होता है; किन्तु इस छठी प्रतिमा में न स्वयं करेगा, न दूसरों को करायेगा, न अनुमोदन करेगा।
किन्हीं आचार्यों ने इस प्रतिमा को दिवामैथुन त्यागप्रतिमा भी कहा है। जिसका अर्थ है-स्व स्त्री के साथ भी दिन में मैथुन का त्याग करना, काम सेवन की तीव्र अभिलाषावश दिन में भी मैथुन सेवन किया जा सकता है। जिसके त्याग करने की गृहस्थ प्रतिज्ञा लेता है।
ब्रह्मचर्य प्रतिमा—
इस प्रतिमा का धारक परस्त्री के साथ-साथ अपनी विवाहिता स्त्री के साथ भी मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से विषय सेवन का त्याग कर पूर्णतया शील का, दूसरे शब्दों में ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ संपूर्ण जीवन पवित्रता के साथ व्यतीत करता है। अपनी पत्नी को भी बहिन—बेटी के समान पवित्र दृष्टि से देखता और व्यवहार करता है।
आरंभ त्याग प्रतिमा-
इस प्रतिमा का धारक आजीविका के जिन साधनों में िंहसा होती है ऐसी सेवा के कार्य, कृषि (खेती), वाणिज्य, व्यापार आदि सभी का त्याग करता है। पूजा, दान, अभिषेक तथा अन्य धार्मिक कार्यों को भी सावधानीपूर्वक जीवों की रक्षा का ध्यान करते हुए करता है किन्तु हिंसक खेती, व्यापारादि करने का त्याग कर देता है। यद्यपि इस प्रतिमाधारी को व्यापार, गृहारंभ संबंधी कार्यों का त्याग होता है तथापि विशेष परिस्थिति में यदि भोजन बनाने, वस्त्र धोने, गृह सफाई व व्यापारादि करना पड़े तो जीवों की रक्षा करने के प्रति सावधान रहकर करता है।
परिग्रहत्याग प्रतिमा—
इस प्रतिमा का धारक आवश्यक वस्त्र तथा बर्तनों के अतिरिक्त अपने घर में स्थित अन्य सब संग्रहीत वस्तुओं से ममत्व का त्यागकर संतोषपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। अपने पुत्रादि पर गृह की सभी वस्तुओं के संरक्षण आदि का भार सौंप देता है तथा भोजन घर में करता है या निमंत्रित होकर अन्य के यहाँ भी भोजन कर आता है किन्तु परिग्रह चिन्ताओं से मुक्त होकर व्यापारादि धनार्जन के कार्यों का त्याग कर देता है। पुत्रादि को यदि व्यापारादि में अनुमति मांगें तो दे सकता है।
अनुमतित्याग प्रतिमा—
स्वजन तथा परजनों के द्वारा पूछे जाने पर भी जो श्रावक गृहसंबंधी कार्य में अनुमति नहीं देता है। वह दसवीं अनुमतित्याग प्रतिमाधारी कहलाता है।
उद्दिष्टत्याग प्रतिमा—
इस प्रतिमा का धारक गृह त्यागकर मुनि के पास जाकर दीक्षा लेकर व्रतों का पालन करने की प्रतिज्ञा लेता है। मुनि जैसा भिक्षावृत्ति से शुद्ध भोजन एक बार करता हुआ कष्टसहिष्णु और तपस्वी बनकर जीवन व्यतीत करता है किन्तु दिगम्बर साधु न बनकर खंड वस्त्र या लंगोटी धारण कर रहता है। अपने निमित्त बनाये भोजन का त्यागी होता है और श्रावकों ने जो अपने लिये शुद्ध आहार बनाया हो उसी को आदरपूर्वक अनुकूल विधि मिल जाने पर ही ग्रहण करता है। इस प्रतिमा में ऐलक या क्षुल्लक इस प्रकार दो श्रेणियां हैं।
ऐलक-केवल शरीर पर एक लंगोटी रखते हैं। मार्जन के लिये मयूर पंखों की पीछी रखते हैं, केशलोंच करते हैं। पैदल ही विहार करता है एवं मुनि जैसी चर्या या व्रतों का पालन करते हुए धर्माराधना करते हैं। ऐलक हाथ में लेकर ही (करपात्र में) आहार ग्रहण करता है।
क्षुल्लक-लंगोटी के साथ एक खण्डवस्त्र-चादर रखते हैं, वह चादर छोटी ही होती है, जिससे सिर ढक जाने पर पैर न ढकें या पैर ढक जाने पर सिर उघड़ जावे। क्षुल्लक कैब कैंची आदि से क्षौर कर्म (बाल कटवाना) कर सकते हैं एवं भोजन पात्र (थाली) में बैठकर अथवा कटोरे में करते हैं।
इस प्रकार श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ (व्रत पालन करने की श्रेणियां) हैं जिन्हें क्रमपूर्वक व्रताचरण में उन्नति करते हुए गृहस्थ अपने जीवन को निष्पाप और निष्कषाय बनाने का पुरूषार्थ करता है। यह सब उन गृहस्थों के लिये है जो विरागी बनकर पंच पापों का संपूर्ण त्यागकर स्वयं को साधु जीवन व्यतीत करने में अभी असमर्थ पाते हैं किन्तु जिनके हृदय में ज्ञान-वैराग्य की उत्कट भावना की हिलोरें उठ रही हैं और जो मुनि दीक्षा लेकर पंच महाव्रतों के पालन करने की क्षमता रखते हैं उन्हें आवश्यक नहीं कि वे पहली, दूसरी आदि कक्षाओं के व्रतों का क्रम से पालन करके ही मुनि बनें। वे मुनि दीक्षा लेकर तपस्या कर
आत्मकल्याण करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं।