वही सद्गृहस्थ श्रावक कहलाने का अधिकारी है, जो किसी की बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य देकर नहीं ले, किसी की भूली हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करे और थोड़ा लाभ प्राप्त करके ही संतुष्ट रहे। न्यायसम्पन्नविभव: शिष्टाचारप्रशंसक:। कुशलशीलसमै: साद्र्धं, कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजै:।। पापभीरू: प्रसिद्धं च, देशाचारं समाचरन्। अवर्णवादी न क्वापि, राजादिषु विशेषत:।। अनतिव्यक्तगुप्ते च, स्थाने सुप्रातिवेश्मिके। अनेकनिर्गमद्वार—विर्विजतनिके तन:।। कृतसंग—सदाचारै: मातापित्रोश्च पूजक:। त्यजन्नुपप्लुतं स्थानम् — अप्रवृत्तश्च र्गिहते।। व्ययमायोचितं कुर्वन् , वेषं वित्तानुसारत:। अष्टभिर्धीगुणैर्युक्त:, शृण्वानो धर्ममन्वहम्।। अजीर्णे भोजनत्यागी, काले भोक्ता च साम्यत:। अन्योन्याऽप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयन्।। यथावदतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपत्तिकृत्। सदाऽनभिनिविष्टश्च, पक्षपाती गुणेषु च।। अदेश—कालयोश्चर्यां, त्यजन् जानन् बलाबलम्। वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां पूजक: पोष्यपोषक:।। दीर्घदर्शी विशेषज्ञ:, कृतज्ञो लोकवल्लभ:। सलज्ज: सदय: सौम्य, परोपकृतिकर्मठ:।। अन्तरंगारिषड्वर्ग — परिहार— परायण:। वशीकृतेन्द्रियग्रामो, गृहिधर्माय कल्पते।।
गृहस्थ-धर्म को पालन करने के पात्र अर्थात् सद्गृहस्थ (श्रावक) में निम्नलिखित ३५ विशेषताएँ होनी चाहिएं। १. न्याय—नीति से धन—उपार्जन करने वाला हो। २. शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा करने वाला हो। ३. अपने कुल और शील में समान, भिन्न गोत्र वालों के साथ विवाह—संबंध करने वाला हो। ४. पापों से डरने वाला हो। ५. प्रसिद्ध देशाचार का पालन करे। ६. किसी की और विशेष रूप से राजा आदि की िंनदा न करे। ७. ऐसे स्थान पर घर बनाए, जो न एकदम खुला हो और न एकदम गुप्त ही हो। ८. घर में बाहर निकलने के द्वारा अनेक न हों। ९. सदाचारी पुरुषों की संगति करता हो। १०. माता—पिता की सेवा—भक्ति करे। ११. रगड़े—झगड़े और बखेड़े पैदा करने वाली जगह से दूर रहे, अर्थात् चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले स्थान में न रहे। १२. किसी भी िंनदनीय काम में प्रवृत्ति न करे। १३. आय के अनुसार ही व्यय करे। १४. अपनी र्आिथक स्थिति के अनुसर वस्त्र पहने। १५. बुद्धि के आठ गुणों से युक्त होकर प्रतिदिन धर्म—श्रावण करे। १६. अजीर्ण होने पर भोजन न करे। १७. नियत समय पर संतोष के साथ भोजन करे। १८. धर्म के साथ अर्थ—पुरुषार्थ और मोक्ष—पुरुषार्थ का इस प्रकार सेवन करे कि कोई किसी का बाधक न हो। १९. अतिथि, साधु और दीन—असहायजनों का यथायोग्य सत्कार करे। २०. कभी दुराग्रह के वशीभूत न हो। २१. गुणों का पक्षपाती हो—जहाँ कहीं गुण दिखाई दें, उन्हें ग्रहण करे और उनकी प्रशंसा करे।। २२. देश और काल के प्रतिवूâल आचरण न करे। २३. अपनी शक्ति और अशक्ति को समझे। अपने सामथ्र्य का विचार करके ही किसी काम में हाथ डाले, सामथ्र्य न होने पर हाथ न डाले। २४. सदाचारी पुरुषों की तथा अपने से अधिक ज्ञानवान् पुरुषों की विनय—भक्ति करे। २५. जिनके पालन—पोषण करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर हो, उनका पालन—पोषण करे। २६. दीर्घदर्शी हो अर्थात् आगे—पीछे का विचार करके कार्य करे। २७. अपने हित—अहित को समझे, भुलाई—बुराई को समझे। २८. लोकप्रिय हो अर्थात् अपने सदाचार एवं सेवा—कार्य के द्वारा जनता का प्रेम सम्पादित करे। २९. कृतज्ञ हो अर्थात् अपने प्रति किए हुए उपकार को नम्रतापूर्वक स्वीकार करे। ३०. लज्जाशील हो अर्थात् अनुचित कार्य करने में लज्जा का अनुभव करे। ३१. दयावान हो। ३२. सौम्य हो, चेहरे पर शांति और प्रसन्नता झलकती हो। ३३. परोपकार करने में उद्यत रहे। दूसरों की सेवा करने का अवसर आने पर पीछे न हटे। ३४. काम—क्रोधादि आंतरिक छ: शत्रुओं को त्यागने में उद्यत रहे। ३५. इन्द्रियों को अपने वश में रखे। पंचोदुम्बरसहितानि सप्त अपि व्यसनानि य: विवर्जयति। सम्यक्त्वविशुद्धमती: स दर्शनश्रावक: भणित:।।
दार्शनिक श्रावक उसे कहा जाता है, जिसकी बुद्धि सम्यक्त्व से पवित्र हो चुकी हो और जिसने पाँच उदुम्बर फलों (उमर, कठूमर, गूलर, पीपल और बड़) तथा सात व्यसनों का त्याग कर दिया हो।