श्रावकों के लिए ग्यारह प्रतिमाएँ मानी गई हैं, अपनी-अपनी प्रतिमाओं के गुणधर्म पहले की प्रतिमाओं के गुणों के साथ क्रम से बढ़ते जाते हैं।
दर्शन प्रतिमा-अतिचार रहित सम्यक्त्व को पालने वाला, संसार, शरीर और भोगों से विरक्त, पंच परमेष्ठियों की चरण शरण को प्राप्त और व्रतों के मार्गरूप अष्ट मूलगुणों को पालने वाला दार्शनिक श्रावक होता है।
अन्यत्र पहली प्रतिमाधारी दार्शनिक श्रावक के लिए सप्तव्यसनों को त्याग करने का भी उपदेश है। जुआ३, शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परदारासेवन ये सातों व्यसन दुर्गतिगमन के कारणभूत पाप हैं।
व्रत प्रतिमा-जो शल्य और अतिचार रहित, पाँच अणुव्रत और सात शीलरूप बारह व्रतों को धारण करता है, वह व्रतिक कहलाता है।
सामायिक प्रतिमा-चार बार तीन-तीन आवर्त और चार प्रणाम करने वाला, कायोत्सर्ग से स्थित, यथाजात-बाह्याभ्यंतर परिग्रह से रहित, देव वंदना के आदि और अंत में बैठकर प्रणाम करने वाला, मन, वचन, काय से शुद्ध, ऐसा त्रिकाल में वंदना करने वाला श्रावक सामायिक प्रतिमा वाला है।
आगे देववंदना विधि के प्रकरण में इस सामायिक विधि को स्पष्ट करेंगे।
प्रोषधोपवास प्रतिमा-प्रत्येक महीने के दो अष्टमी, दो चतुर्दशी, ऐसे चारों पर्वों में अपनी शक्ति को न छिपाकर प्रोषधोपवास करना चाहिए।
सचित्त त्याग प्रतिमा-जो व्रती कच्चे मूल, फल, शाक, कोंपल, फूल आदि को नहीं खाता है, वह सचित त्यागी है।
रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा-जो मनुष्य रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग कर देता है, वह छठी प्रतिमाधारी है।
ब्रह्मचर्य प्रतिमा-काम सेवन से विरक्त होकर स्त्रीमात्र का त्याग कर देना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है।
आरंभ त्याग प्रतिमा-प्राणी हिंसा के कारणरूप नौकरी, खेती, व्यापार आदि आरंभ से विरक्त होना आरंभ त्याग प्रतिमा है।
परिग्रह त्याग प्रतिमा-दश प्रकार के परिग्रह में ममत्व बुद्धि को छोड़कर परिग्रह से विरक्त होना।
अनुमति त्याग प्रतिमा-जो आरंभ, परिग्रह अथवा विवाह आदि इस लोक संंबंधी कार्यों में अनुमोदना नहीं करता है, वह अनुमति विरत प्रतिमाधारी है।
उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-जो घर को छोड़ वन में जाकर गुरु के पास व्रतों को ग्रहण करके तप करता हुआ भिक्षावृत्ति से भोजन करता है और कौपीन तथा खण्डवस्त्र को धारण करने वाला है, वह उद्दिष्ट त्यागी प्रतिमाधारी कहलाता है।
इस प्रतिमाधारक के दो भेद हैं-क्षुल्लक और ऐलक।
क्षुल्लक कौपीन और खण्ड वस्त्र (छोटी चादर, जिससे सोते समय सिर से पैर तक सारा शरीर न ढंक सके) रखता है तथा एक कमण्डलु और मोर पंखों की पिच्छी भी रखता है।
ऐलक केवल लंगोटी मात्र रखता है, अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं रहता। ऐलक के लिए केशों का लोच एवं पाणिपात्र में भोजन करना आवश्यक है।
‘‘दिन में प्रतिमायोग धारण करना-नग्न होकर दिनभर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या-मुनि के समान गोचरी करना, त्रिकालयोग-गर्मी में पर्वत के शिखर पर, वर्षा में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, सिद्धान्त ग्रंथों का-केवली, श्रुतकेवली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्नदशपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रंथों का अध्ययन और रहस्य-प्रायश्चित्त शास्त्र का अध्ययन, इतने कार्यों में इन श्रावकों का अधिकार नहीं