श्रावक के तीन भेद हैं- पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। पक्ष, चर्या और साधन के द्वारा ये तीन भेद हुए हैं।’’
अभ्यासरूप से अष्टमूलगुण आदि का पालन करना, देव, धर्म, गुरु का पक्ष रखना पक्ष है। कृष्यादि आरंभजन्य पापों को दूर करने के लिए पुत्रादि के ऊपर घर का भार छोड़कर प्रतिमारूप व्रतों का धारण करना चर्या है और ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन करते हुए अन्त समय में समाधिमरण करना साधन है।
पाक्षिक- जिसके हिंसादि पांचों पापों का त्यागरूप व्रत है तथा जो अभ्यासरूप से श्रावक धर्म का पालन करता है, उसको पाक्षिक श्रावक या प्रारंभ देशसंयमी कहते हैं।
साधक- जिसका देशसंयम पूर्ण हो चुका है और जो आत्मध्यान में लीन होकर समाधिमरण करता है, उसको साधक श्रावक या निष्पन्न देशसंयमी कहते हैं।