श्री गौतमस्वामी व श्री कुन्दकुन्ददेव के अनुसार १२ व्रत एक सदृश हैं। पंच अणुव्रत सभी में एक समान हैं। तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों में अंतर है। पाक्षिक प्रतिक्रमण में १२ व्रत का वर्णन देखिए— पढमं ताव सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदि-महावीरेण महा-कस्सवेण सव्वण्ह-णाणेण सव्व-लोय-दरसिणा सावयाणं सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डियाणं कारणेण पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खा-वदाणि बारसविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसियाणि। तत्थ इमाणि पंचाणुव्वदाणि पढमे अणुव्वदे थूलयडे पाणादि-वादादो वेरमणं, विदिए अणुव्वदे थूलयडे मुसावादादो वेरमणं, तदिए अणुव्वदे थूलयडे अदत्ता-दाणादो वेरमणं, चउत्थे अणुव्व्दे थूलयडे सदारसंतोस-परदारा-गमणवेरमणं कस्स य पुणु सव्वदो विरदी, पंचमे अणुव्वदे थूलयडे इच्छाकदपरिमाणं चेदि, इच्चेदाणि पंच अणुवव्दाणि।मुनिचर्या-पृ. २९१, २९२। तत्थ इमाणि तिण्णि गुणव्वदाणि, तत्थ पढमे गुणव्वदे दिसिविदिसि पच्चक्खाणं, विदिए गुणव्वदे विविध-अणत्थ-दण्डादो वेरमणं, तदिए गुणव्वदे भोगोपभोग-परिसंखाणं चेदि, इच्चेदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि। तत्थ इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे सामाइयं, विदिए पोसहो-वासयं, तदिए अतिथिसंविभागो, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिम-सल्लेहणा-मरणं, तिदियं अब्भोवस्साणं चेदि।
पद्यानुवाद (गणिनी ज्ञानमती)
हे आयुष्मन्तों! पहले ही यहां मैंने सुना वीर प्रभु से।
उन महाश्रमण भगवान् महतिमहावीर महाकाश्यप जिनसे।।
सर्वज्ञज्ञानयुत सर्वलोकदर्शी उनने उपदेश दिया।
श्रावक व श्राविका क्षुल्लक अरु क्षुल्लिका इन्हों के लिए कहा।।
ये पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत, चउ शिक्षाव्रत बारह विध।
हैं सम्यव् श्रावक धर्म इन्हीं, में जो ये अणुव्रत पांच कथित।।
पहला अणुव्रत स्थूलतया, प्राणीवध से विरती होना।
दूजा अणुव्रत स्थूलतया, असत्यवच से विरती होना।।
तीजा अणुव्रत स्थूलतया, बिन दी वस्तू को नहिं लेना।
चौथा अणुव्रत स्थूलतया, पर दारा से विरती होना।।
निजपत्नी में संतुष्टी या बस स्त्रीमात्र से रति तजना।
पंचम अणुव्रत स्थूलतया इच्छाकृत परीमाण धरना।।
त्रय गुणव्रत में पहला गुणव्रत, दिश विदिशा का प्रमाण करना।
दूजा गुणव्रत नाना अनर्थ दण्डों से नित विरती धरना।।
तीजा गुणव्रत भोगोपभोग, वस्तू की संख्या कर लेना।
ये तीन गुणव्रत कहे, पुनः चारों शिक्षाव्रत को सुनना।।
पहला शिक्षाव्रत सामायिक दूजा प्रोषध उपवास कहा।
तीजा है अतिथि संविभाग चौथा सल्लेखनमरण कहा।
शिक्षाव्रत चार कहे पुनरपि, अभ्रावकाश तृतीयव्रत है।
जघन्य श्रावक से उत्तम तक, ये बारह व्रत तरतममय हैं।।
षट्प्राभृत ग्रंथ के चारित्र पाहुड़ में श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन देखिए—
पंचेवणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि।
सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं
षट्प्राभृत ग्रंथ में चारित्रपाहुड़-गाथा-२२ से २५ तक।।।२२।।
पञ्चैवाणुव्रतानि गुणव्रतानि भवन्ति तथा त्रीणि।।
शिक्षाव्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारं।।२२।।
(पंचेवणुव्वयाइं) पंचैवाणुव्रतानि भवन्ति। (गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि) गुणव्रतानि भवन्ति तथा त्रीणि। (सिक्खावय चत्तारि) शिक्षाव्रतानि। चत्वारि भवन्ति। (संजमचरणं च सायारं) संयमचरणं च सागारं भवति।
गाथार्थ — पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारहव्रत गृहस्थ के संयमाचरण हैं।।२२।।
विशेषार्थ — पाँच पापों से विरत होना व्रत है। वह व्रत एक देश और सर्व देश की अपेक्षा दो प्रकार का होता है। लोक में जिन्हें पाप समझा जाता है ऐसे हिंसा आदि स्थूल पापों से विरत होने को अणुव्रत कहते हैं वे पाँच होते हैं। जो अणुव्रतों का उपकार करें उन्हें गुणव्रत कहते हैं। गुणव्रत तीन होते हैं। जिनसे मुनिव्रत धारण करने की शिक्षा मिले उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। सब मिलाकर गृहस्थ के बारह व्रत होते हैं।
गाथार्थ — स्थूल त्रसवध, स्थूल असत्य कथन, स्थूल चोरी और परस्त्री का परिहार तथा परिग्रह और आरम्भ का परिमाण ये पाँच अणुव्रत हैं।।२३।।
विशेषार्थ — स्थूलरूप से त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करना अहिंसाणुव्रत है। स्थूलरूप से असत्य कथन का त्याग करना सत्याणुव्रत है। स्थूलरूप से चोरी का त्याग करना अचौर्याणुव्रत है। पर-प्रियाका त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है और सुवर्णादि परिग्रह तथा सेवा, खेती और व्यापार आदि का परिमाण परिग्रह परिमाणाणुव्रत है।।२३।।
गाथार्थ —दिशाओं और विदिशाओं का प्रमाण करना पहला गुणव्रत है। अनर्थदण्ड का त्याग करना गुणव्रत है और भोग तथा उपभोग का परिमाण करना तीसरा गुणव्रत है। इस प्रकार ये तीन गुणव्रत हैं।।२४।।
विशेषार्थ —पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर ये चार दिशाएँ हैं तथा ऐशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ऊध्र्व और अधो ये छह विदिशाएँ हैंं इनमें आने जाने की सीमा निश्चित करना सो पहला दिग्व्रत नाम का गुणव्रत है। दूसरे गुणव्रत का नाम अनर्थदण्ड त्यागव्रत है इसमें अपध्यान, दुश्रुति, पापोपदेश, िंहसादान और प्रमादचर्या इन पाँच निरर्थक कार्यों का त्याग करना होता है। भागोपभोगपरिमाण नाम का तीसरा गुणव्रत है। जो वस्तु एक बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहते हैं जैसे वस्त्र तथा स्त्री आदि। इनकी सीमाएँ निर्धारित करना भोगोपभोगपरिमाणव्रत है। ये तीन गुणव्रत है।।२४।। चार शिक्षाव्रतों का वर्णन—
सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं। तइयं अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते।।२५।। सामायिकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधो भणितः। तृतीयमतिथि-पूज्यं चतुर्थं सल्लेखना अन्ते।।२५।।
(सामाइयं च पढमं) सामायिकं च प्रथमं शिक्षाव्रतं। चैत्यपञ्चगुरुभक्तिसमाधिलक्षणं दिनं प्रति एकबारं द्विवारं त्रिवारं वा व्रत-प्रतिमायां सामायिकं भवति। यत्तु सामयिकप्रतिमायां सामायिकं प्रोत्तं तत्त्रीन् वारान् निश्चयेन करणीयमिति ज्ञातव्यम्। (विदियं च तवेह पोसहं भणियं) द्वितीयं च तथैव प्रोषधोपवासं शिक्षाव्रतं भणितं प्रतिपादितं अष्टम्यां चतुर्दश्यां च। तदपि त्रिविधिं।, चतुर्विधाहारपरिवर्जनमृत्कृष्टं, जल-सहितं मध्यमं, आचाम्लं जघन्यं प्रोषधोपवासं भवति यथाशक्ति कर्तव्यम्। (तइयं च अतिहिपुज्जं) तृतीयं चातिथिपूज्यं, न विद्यते तिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथिः अथवा संयम-यात्रार्थमतति गच्छति उद्दण्डचर्यां करोतीत्यातिथिः यति स पूज्यो नव पुण्य-सप्तगुण-समन्वितेन श्रावकेण यस्मिन् शिक्षाव्रते तदथिति पूज्यं। (चउत्थ सल्लेहणा अन्ते) चतुर्थं शिक्षाव्रतमन्ते मरणकाले सल्लेखना कायकषायतनूकरणमिति तात्पर्यम्।।२५।।
गाथार्थ —पहला सामायिक, दूसरा प्रोषध, तीसरा अतिथि-पूज्य और चौथा मरणकाल में सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षाव्रत हैं।।२५।।
विशेषार्थ —सामायिक नामका पहला शिक्षाव्रत है। इसमें चैत्यभक्ति, पञ्चपरमेष्ठी भक्ति और समाधिभक्ति करना चाहिये। व्रत प्रतिमा में जो सामायिक होता है वह दिन में एक बार, दो बार अथवा तीन बार होता है। परन्तु सामायिक प्रतिमा में जो सामायिक कहा गया है, वह नियम से तीन बार करना चाहिये। दूसरा शिक्षाव्रत प्रोषधोपवास कहा गया है। प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को यह व्रत करना पड़ता है। प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। अन्न-पान-खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उत्कृष्ट प्रोषधोपवास है। जिसमें पर्व के दिन जल लिया जाता है, वह मध्यम प्रोषधोपवास है और जिसमें आचाम्लाहार किया जाता है वह जघन्य प्रोषधोपवास है। तीसरा शिक्षाव्रत अतिथिपूज्य अथवा अतिथि-संविभाग है। जिसे प्रतिपदा आदि तिथियों का विकल्प न हो उसे अतिथि कहते हैं अथवा संयम की प्राप्ति के लिये जो भ्रमण करते हैं अर्थात् अनुद्दिष्ट आहार की प्राप्ति के लिये जो श्रावकों के घर चर्या करते हैं उन मुनियों को अतिथि कहते हैं। जिसमें नवधाप्रतिग्रह, उच्चासन, चरण प्रक्षालन, पूजन, प्रणाम, मन-वचन-काय-भोजन की शुद्धि। भक्ति और सात गुणों से सहित श्रावक के द्वारा उक्त अतिथि की पूजा की जाती है—उसे आहारादि से सन्तुष्ट किया जाता है, वह अतिथिपूज्य नाम का शिक्षाव्रत है। चौथा शिक्षाव्रत सल्लेखना है। मरण समय काय और कषाय को कृश करना सल्लेखना है। (गुणव्रत और शिक्षाव्रत के नामों में विभिन्न मत पाये जाते हैं। सर्वप्रथम कुन्दकुन्द स्वामी ने दिग्व्रत, अनर्थदण्ड त्यागव्रत और भोगोपभोगपरिमाण इन तीन को गुणव्रत माना है। इसी मत का उल्लेख समन्तभद्र स्वामी ने किया है परन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी ने दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्ड-त्यागव्रत को गुणव्रत माना है। प्रायः यही मान्यता उत्तरवर्ती आचार्यों ने स्वीकृत की है। श्री कुन्दकुन्द स्वामी के मतानुसार चार शिक्षाव्रतों के नाम इस प्रकार हैं—सामायिक-प्रोषधोपवास, अतिथि-संविभाग और सल्लेखना। समन्तभद्र स्वामी ने देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य को शिक्षाव्रत माना है। तथा उमास्वामी महाराज ने सामायिक, प्रोषधोपवास, भागोपभोगपरिमाण और अतिथि-संविभाग को शिक्षाव्रत कहा है। कुन्दकुन्द स्वामी ने देशव्रत का उल्लेख गुणव्रतों में किया है और कुन्दकुन्द स्वामी की सल्लेखना को शिक्षाव्रत सम्बन्धी मान्यता अन्य आचार्यो को सम्मत नहीं हुई क्योंकि सल्लेखना मरणकाल में ही धारण की जा सकती है और शिक्षाव्रत सदा धारण करना पड़ता है। इस दृष्टि से अन्य आचार्यों ने सल्लेखना का बारह व्रत के अतिरिक्त वर्णन किया है। इसके स्थान पर उमास्वामी ने अतिथिसंविभाग को और समन्तभद्र स्वामी ने वैयावृत्य को शिक्षाव्रत स्वीकार किया है। वैयावृत्य शब्द अतिथि संविभाग का ही विस्तृत रूप है।) तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में गुणव्रत एवं शिक्षाव्रतों में अन्तर है इसमें सल्लेखना को अलग लिया है।
अर्थ —अणुव्रती को दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डत्यागव्रत (३ गुणव्रतों) और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागव्रत (ये चार शिक्षाव्रत) और पालने होते हैं।
मारणांतिकीं सल्लेखनां जोषिता।।२२।।
‘अर्थ — अव्रती को मरण के समय सल्लेखना ग्रहण करनी चाहिए। समतापूर्वक काय और कषाय को कृश करना सल्लेखना कहलाता है।
रत्नकरण्डश्रावकाचार में गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों का वर्णन देखिए—
जो मूलगुणों को वृद्धिंगत, करते हैं औ दृढ़ करते हैं। उनकी गुणव्रत ऐसी संज्ञा, श्रीगणधर देव उचरते हैं।। दिग्व्रत, अनर्थदण्डनव्रत औ, भोगोपभोग परिमाण कहे। इन तीनों व्रत को जो पालें, वे जग में अनुपम सौख्य लहें।।६७।।
अर्थ — जो मूलगुणों की वृद्धि करते हैं और और उन्हें दृढ़ करते हैं श्री गणधरदेव उन्हें गुणव्रत कहते हैं। उसके दिग्व्रत, अनर्थदण्डत्यागव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत भेद हैं। इन तीनों का जो पालन करते हैं वे जगत में अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं।।६७।।
शिक्षाव्रत चार कहे ये व्रत, मुनिव्रत की शिक्षा देते हैं। जो इनको पालें वे श्रावक, बारह व्रत धारी होते हैं।। देशावकाशि व्रत सामायिक, प्रोषध उपवास तृतिय जानो। चौथा व्रत वैयावृत्य कहा, इनका पालन कर भव हानो।।९१।।
अर्थ — जो मुनिव्रत की शिक्षा देते हैं वे शिक्षाव्रत है। इनमें चार भेद होते हैं। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य, इन व्रत को पालन करने वाले श्रावक बारह व्रतों के धारक हो जाते हैं।।९१।।
सल्लेखना (समाधिमरण) का लक्षण—
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचन-माहुः सल्लेखनामार्याः।।१२२।।
जिसका प्रतिकार न हो सकता, ऐसा उपसर्ग यदी आवे। ऐसा अकाल पड़ जावे या, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे।। अथवा हो रोग असाध्य कठिन, जिससे नहिं धर्म की रक्षा है। तब करिये सल्लेखना ग्रहण, जो धर्म हेतु तनु त्यजना है।।१२२।।
अर्थ —जिसको किसी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता ऐसा उपसर्ग यदि आ जावे, ऐसा अकाल पड़ जावे, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे, या कठिन असाध्य रोग हो जावे, ऐसे समय में धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है उसका नाम सल्लेखना है।।१२२।।
हरिवंशपुराण में १२ व्रतों के वर्णन में शिक्षाव्रत में ही सल्लेखना को कहा है—
गृहस्थों के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह बारह प्रकार का धर्म कहा है।।४५।।
हिंसादि पापों का एक देश छोड़ना अणुव्रत कहा गया है, दिशा, देश और अनर्थदण्डों से विरत होने को गुणव्रत कहते हैं और तीनों सन्ध्याओं में सामायिक करना, प्रोषधोपवास करना, अतिथि पूजन करना और आयु के अंत में सल्लेखना धारण करना इसे शिक्षाव्रत कहते हैं।।४६—४७।।
भावसंग्रह में श्रावक के १२ व्रतों का स्वरूप इस प्रकार हैं—
हिंसाविरई सच्चं अद्दत्तपरिवज्जणं च थूलवयं।
परमहिलापरिहारो परिदमाणं परिग्गहस्सेव।।३५३।।
अर्थ — त्रस जीवों की िंहसा का त्याग करना, सत्य बोलना, बिना दिये हुए पदार्थ को कभी ग्रहण न करना, परस्त्री सेवन त्याग और परिग्रह का परिमाण करना, ये पांच अणुव्रत कहलाते हैं।
दिसिविदिसि पच्चखाणं अणत्थदंडाण होइ परिहारो।
भोओपभोयसंखा ए एह गुणव्वया तिण्णि।।३५४।।
अर्थ — दिशा—विदिशाओं में आने जाने का नियम धारण कर उनकी सीमा नियत कर शेष दिशा—विदिशा में आने जाने का त्याग करना, पांचों प्रकार के अनर्थदंडों का त्याग करना, भोगोपभोग पदार्थों की संख्या नियत कर शेष भोगोपभोग पदार्थों का त्याग कर देना ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं।
देवे थुवइ तियाले पव्वे पव्वे सुपोसहोवासं।
अति हीण संविभागो मरणंते कुणइ सल्लिहणं२।।३५५।।
भावसंग्रह पृ. २२६ से २२८ तक।
अर्थ — प्रात:काल, मध्याह्नकाल, संध्याकाल इन तीनों समय में पंचपरमेष्ठी की स्तुति करना, प्रत्येक महीने की दो अष्टमी, दो चतुर्दशी इन चारों पर्वों में प्रोषधोपवास करना, प्रतिदिन अतिथियों को दान देना और सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं। इस प्रकार पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह अणुव्रत कहलाते हैं।