श्रावक के ३ भेद हैं— पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक।
‘किसी भी निमित्त से मैं संकल्पपूर्वक त्रस हसा का घात नहीं करूंगा’ इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके, मैत्री आदि भावनाओं से सहित होते हुए हसा का त्याग करना पक्ष कहलाता है। इस पक्ष कर सहित श्रावक पाक्षिक कहलाता है। यह अष्ट मूलगुण और अणुव्रत आदि को अभ्यास रूप से पालन करता है। इनके अतिचारों को छोड़ने में असमर्थ रहता है किन्तु यह सच्चे धर्म के पक्ष का रखने वाला होता है। कृषि आदि आरम्भ से होने वाले पापों को प्रायश्चित्त से दूर करके घर छोड़ने वाले गृहस्थ द्वारा दर्शन प्रतिमा से लेकर दशवीं प्रतिमा तक के व्रतों का पालन किया जाना चर्या है।
जो निरतिचार श्रावक धर्मरूप चर्या का पालन करता है, वह नैष्ठिक या देशसंयमी कहलाता है।
चर्यासम्बन्धी दोषों को दूर करके ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन करना आदि साधन कहलाता है।
जिसका देशसंयम पूर्ण हो चुका है, जो आत्मध्यान में लीन होकर समाधिमरण करता है, उसको साधक कहते हैं।
विशेष—जो जीवनपर्यंत के लिए मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलोें का त्याग कर देता है और जिसका उपनयन संस्कार हो गया है अर्थात् जिसने रत्नत्रय के चिन्ह स्वरूप यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण कर ली है, वही जिनधर्म को सुनने के लिए योग्य माना गया है। इस प्रकार पाक्षिक श्रावक हुए बिना कोई भी श्रावक नहीं कहला सकता। पाक्षिक श्रावक का खा्ना-पान भी मर्यादित और शुद्ध रहता है। वह बाजार में तथा सड़कों पर यद्वा-तद्वा चीजें लेकर नहीं खाता है। रात्रि में यदि चारों प्रकार के आहार का त्याग नहीं कर पाता है, तो औषधि और जलादि के सिवाय अन्न आदि का त्याग तो अवश्य कर देता है। वह सप्त व्यसनों में भी प्रवृत्ति नहीं करता है। ये सब पाक्षिक श्रावक के लक्षण समझना चाहिये।