जैन धर्म में मद्य—मांस—मधु का सेवन न करना, सात व्यसनों से सदा दूर रहना, पांचों पापों का स्थूल त्याग होना, रात्रि में भोजन न करना, बिना छने जल का उपयोग न करना, प्राणीमात्र के प्रति करूणा भाव होना और नित्य देवदर्शन व स्वाध्याय करना । यद्यपि सामान्य श्रावक अभी अव्रती है, उसने अभी प्रतिज्ञापूर्वक कोई व्रत ग्रहण नहीं किया है, पर वह सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्ररूप धर्म को प्राप्त करने की भावना रखता है, एतदर्थ उसे उपर्युक्त प्राथमिक निर्देशों का पालन तो करना ही चाहिए। उसके बिना तो आत्मा—परमात्मा की बात समझना भी संभव नहीं है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्ग निज आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होता है, तत्वार्थ श्रद्धान से उपलब्ध होता है तथा सच्चे देव—शास्त्र—गुरू उस उपलब्धि में निमित्त होते हैं। एतदर्थ उसे भगवान आत्मा, सात तत्व एवं देव—शास्त्र—गुरू का स्वरूप समझना भी अत्यन्त आवश्यक हैं। वर्तमान संदर्भ में, जबकि मद्य—मांस का सेवन सभ्यता की श्रेणी में सम्मिलित होता जा रहा है, शराब शरबत की तरह आतिथ्य सत्कार की वस्तु बनती जा रही है, अण्डों को शाकाहार की श्रेणी में सम्मिलित किया जा रहा है, मछलियों को जलककड़ी की संज्ञा दी जा रही है और इन सबको खाने—पीने के प्रचार—प्रसार में शासन का भरपूर सहयोग व प्रोत्साहन मिल रहा है । ऐसी स्थिति में इन सबकी हेयता का ज्ञान कराना और इनसे होने वाली हानियों से परिचित कराना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है। इन सबका त्याग किये बिना धर्म पाना तो दूर,उसे पाने की पात्रता भी नहीं आती। वैसे तो ब्रह्मचारी, क्षुल्लक व ऐल्लक जैसे संयमी आत्मसाधक भी श्रावक की ही श्रेणी में आते हैं, पर यहाँ उन प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकों के आचरण का प्रतिपादन करना अपेक्षित नहीं है। यहाँ तो प्राथमिक श्रावक के सामान्य सदाचार की चर्चा एवं समीक्षा ही अभीष्ट है। धर्म का स्वरूप समझने एवं सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति के लिए वैâसी पात्रता होनी चाहिए ? इस बात पर विचार ही यहाँ सामान्य श्रावकाचार के रूप में किया जा रहा है। सप्त व्यसनों का त्यागी और अष्ट मूलगुणों का धारी व्यक्ति ही आत्मा परमात्मा की बात समझ सकता है, सात तत्वों की बात समझ सकता है। सच्चे देव—शास्त्र—गुरू की पहचान कर सकता है। अत: प्रत्येक जैन श्रावक को सप्त व्यसनों का त्यागी और अष्ट मूलगुणों का धारी होना चाहिए। सामान्यत: मद्य—मांस—मधु और पांचों उदुम्बर फलों का त्याग ही अष्ट मूलगुण अर्थात् मुख्यगुण, जिनके धारण किये बिना श्रावकपना ही संभव न हो। जिस प्रकार मूल (जड़) के बिना वृक्ष का खड़ा रहना संभव नहीं है, उसी प्रकार मूलगुणों के बिना श्रावकपना भी सम्भव नहीं है। ये मुख्यरूप से आठ है, अत: इन्हें अष्ट मूलगुण कहते हैं। मद्य—मांस—मधु व पांच—उदुम्बर फलों का सेवन महा दु:खदायक और अपार पापों का घर है अर्थात् इनके खाने—पीने से महापाप उत्पन्न होता है, अत: इनका त्याग करके निर्मलबुद्धि को प्राप्त श्रावक ही जैनधर्म के उपदेश का पात्र होता है। पहले इसका त्याग करें, तभी व्यक्ति धर्मोंपदेश को ग्रहण कर सकता है, यद्यपि अष्ट मूलगुणों का कथन सर्वत्र चारित्र के प्रकरण में आया है, परंतु जहां—जहां भी मूलगुणों का वर्णन आया है वहां यह अभिप्राय अवश्य प्रगट किया है कि जो जीव हिंसा का त्याग करना चाहते हैं, उन्हें सर्वप्रथम मद्य—मांस—मधु एवं पांच उदुम्बर फलों को छोड़ देना चाहिए। इससे यह अत्यन्त स्पष्ट है कि प्रत्येक अहिंसाप्रेमी जैन का सबसे पहले अर्थात् सम्यग्दर्शन के भी पहले अष्ट मूलगुणों का धारण करना और सप्त व्यसनों का त्याग करना अनिवार्य है। इसके बिना तो सम्यग्दर्शन होना भी संभव नहीं है। मद्य—मांस—मधु व पांच उदुम्बर फलों के त्याग के अतिरिक्त सप्तव्यसनों का त्याग भी श्रावक का प्राथमिक कर्तव्य है।सप्त व्यसन के त्याग की प्रेरणा देते हुए भूधरशतक में कविवर भूधरदास कहते हैं:—
जुआ खेलन—मांस—मद, वेश्या विसन शिकार।
चोरी—पर रमणी रमण, सातों विसन निवार।।
(१) जुँआ खेलना (२) मांस खाना (३) मदिरापान करना (४) वेश्या सेवन करना (५) शिकार करना (६) चोरी करना (७) परस्त्री रमण करना ये सात व्यसन हैं। ये सातों व्यसन दु:खदायक, लोकनिंद्य, पाप की जड़ एवं दुर्गति में पहुंचाने वाले हैं। इनका स्वरूप तो इनके नामों से ही स्पष्ट है तथा अष्ट—मूलगुणों में इनमें से अधिकांश प्रकारान्तर से सम्मिलित हो जाते हैं, इस कारण मूलगुणों के प्रकरण में यथास्थान इनका स्पष्टीकरण आयेगा ही तथा इनसे तो जैनाजैन सभी लोग भली—भाँति परिचित हैं, पर अष्ट मूलगुणों से तो जैनाजैन भी पूर्णत: परिचित नहीं है। अत:यहाँ तो जैन आगम के आलोक में श्रावकाचार के रूप में मूलत: अष्ट मूलगुणों की विवेचना ही अभीष्ट है। आगम में अष्ट मूलगुणों के विविध रूप श्रावकधर्म में आधारभूत मुख्यगुणों को मूलगुण कहते हैं। मूलगुणों में मद्य—मांस—मधु व पांच उदुम्बर फलों का त्याग —ये आठ तो हैं ही, इनके अतिरिक्त इनके ही समान हिंसा के आयतन होने से पांचोें पाप, सातों व्यसन एवं रात्रि का भोजन त्याग तथा अनछने पानी का उपयोग न करना आदि भी सम्मिलित हैं। मूलगुणों के संदर्भ में जिनागम में समागत कतिपय महत्वपूर्ण उल्लेख इस प्रकार हैं:—
मद्य—मांस—क्षौद्रं, पंचोदुम्बर फलानि यत्नेन् ।
हिंसा व्युपरतकामै: मोक्ताव्यानि प्रथमेव।।
प्राणियों के प्राण पीड़ारूप द्रव्यहिंसा का त्याग करने के इच्छुक जनों को प्रथम ही प्रयत्नपूर्वक मद्य—मांस—मधु और पांच उदुम्बर फलों का त्याग करना चाहिए।
मद्य—मांस—मधु त्याग: सहोदुम्बर, पंचकै:।
अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुण श्रुते।।
मद्य—मांस—मधु के त्याग के साथ पांच उदम्बर फलों के त्याग को गृहस्थों के आठ मूलगुण बतलाये हैं।
तत्रादी श्रद्धधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् ।
मद्य—मांस—मधुन्युज्झेत, पंच क्षीरफलानि च।।
सबसे पहले जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का श्रद्धान करते हुए हिंसा का त्याग करने के लिए मद्य—मांस—मधु और पांच क्षीरफलों का त्याग करना चाहिए।
मद्यं—मांस तथा क्षौत्रमथोदुम्बर पंचकम् ।
वर्जयेच्छावको धीमान् केवलं कुलधर्मवित् ।।
केवल अपने कुलधर्म की मर्यादा को जानने वाले श्रावकों को भी मद्य—मांस—मधु एवं पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो करना ही चाहिए।
मज्जु—मंसु—महु—परिहरहि, करि पंचुं बर दूरि।
आयहं अन्तरि अट्ठहानि तस उप्पज्जई भूरि।।
मद्य—मांस—मधु का परिहार करो, पांच उदुम्बर फलों को दूर से ही त्यागों, क्योंकि इन आठों के अन्दर त्रसजीव होते हैं।
अथ मद्य—पला—क्षौद्रं, पंचोदुम्बर वर्जनम् ।
व्रतं जिघ्रक्षुणा पूर्व. विधातव्यं प्रयत्नत:।।
श्रावक के व्रतों को ग्रहण करने के इच्छुक पुरूष को सबसे पहले मद्य—मांस और पांच उदुम्बर फलों के खाने का प्रयत्न पूर्वक त्याग करना चाहिए।
मद्य—मांस—मधु त्यागै: सहाणुव्रत पंचकम् ।
अष्टौ मूलगुणनाहुग्र्रहिणां श्रमणोत्तम :।।
मद्य—मांस—मधु के साथ पांचों पापों के स्थूल त्याग को गृहस्थों के आठ मूलगुण कहे गये हैं।
मद्य—मांस—मधु त्यागै: संयुक्ताणुव्रताणि नु:।
अष्टौ मूलगुणा: पंचोदम्बरैश्चार्भकेष्वपि ।।
मद्य—मांस—मधु के त्याग सहित पांचों अणुव्रत ही मनुष्यों के आठ मूलगुण कहे गये हैं। पांच उदुम्बर फलों के साथ मद्य—मांस—मधु के त्याग रूप आठ मूलगुण तो अबोध बालक भी धारण कर लेते हैं।
मधु—मांस परित्याग: पंचोदुम्बर वज्र्जनम् ।
हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वाकलिकम् ।।
गृहस्थ के मद्य, मांस मधु एवं पांच—उदम्बर फलों का त्याग तथा हिंसादि पांच पापों से विरक्तिरूप सार्वकालिक—औत्सर्गिक व्रत तो जीवनपर्यन्त रहते हैं।