पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह व्रत कहलाते हैं। पाँच अणुव्रत का लक्षण बताया जा चुका है। अब यहाँ गुणव्रत और शिक्षाव्रतो को बतलाते हैं। गुणव्रत जो अणुव्रतों को बढ़ाते हैं अथवा उसमें दृढ़ता या मजबूती लाने वाले होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं। उनके तीन भेद हैं-दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत।
(१) दिग्व्रत– लोभ या आरंभ के घटाने के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा जीवन भर के लिए कर लेना दिग्व्रत कहलाता है। जैसे-किसी ने पूर्व दिशा में बंग देश, पश्चिम में सिंधु नदी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में कन्याकुमारी से आगे जीवनपर्यंत नहीं जाने का नियम कर लिया है। मर्यादा के बाहर सम्पूर्ण आरंभादि का त्याग हो जाने से वहाँ पर अणुव्रत, महाव्रत के सदृश हो जाते हैं अर्थात् मर्यादा के बाहर सूक्ष्म भी हिंसादि दोष नहीं होता है।
(२) अनर्थदण्डव्रत– मर्यादा के बाहर भी बिना प्रयोजन ही जिन कार्यों में पाप का आरंभ होता है उन निरर्थक कार्यों का त्याग करना अनर्थ दण्डव्रत कहलाता है।
इसके पाँच भेद हैं-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुश्रुति और प्रमादचर्या। पापवद्र्धक कार्यों का उपदेश देना, शस्त्र या जहर आदि मांगने से देना, किसी का बुरा सोचना, मिथ्याशास्त्रों का पढ़ना और बिना कारण पानी आदि गिराना इन पाँच का त्याग कर देना अनर्थ दण्डव्रत कहलाता है।
(३) भोगोपभोग परिमाण व्रत– दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी प्रयोजनभूत भोजन, वस्त्र आदि भोग-उपभोग की वस्तुओं का परिमाण करके शेष का जीवन भर के लिए त्याग कर देना भोगोपभोग परिमाणव्रत कहलाता है। जो वस्तु एक बार भोगने में आती है उसे भोग कहते हैं। जैसे-भोजन-पान आदि। जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहते हैं। जैसे-वस्त्र, आभूषण आदि। शिक्षाव्रत जिन व्रतों के पालन करने में मुनिव्रत के पालन करने की शिक्षा मिलती है, उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। उनके चार भेद हैं-देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य।
(१) देशावकाशिक व्रत– दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी दिन, महिना आदि के लिए गली, मुहल्ला, नगर आदि का नियम करके आगे नहीं जाना देशावकाशिकव्रत है। जैसे-किसी ने अष्टान्हिका में अपने मुहल्ले से बाहर नहीं जाने का नियम कर लिया और उसके आगे नहीं जायेगा तो उसका यह प्रथम शिक्षाव्रत है।
(२) सामायिक व्रत- श्रावक प्रसन्नमना होकर वन में, गृह में अथवा चैत्यालय में पाँचों पापों का त्याग करके (सम्पूर्ण आरंभ आदि त्याग करके) विधिवत् सामायिक करे, यह द्वितीय शिक्षाव्रत है।
(३) प्रोषधोपवास- प्रत्येक महीने की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी में अन्नादि चारों प्रकार के आहार का त्याग करके उपवास करना अथवा एक बार भोजन करना प्रोषधोपवास कहलाता है। व्रत के दिन स्वाध्याय आदि धर्म कार्यों में समय बिताना चाहिए। चारों प्रकार के आहार का छोड़ना उपवास है। एक बार शुद्ध भोजन करना प्रोषध है। उपवास करके पारणा के दिन एक बार भोजन करना प्रोषधोपवास कहलाता है।
(४) वैयावृत्य– गृहत्यागी तपस्वी मुनियों को अपनी संपत्ति के अनुसार शुद्ध आहार, औषधि, शास्त्रादि-उपकरण और वसतिका का दान देना वैयावृत्य नाम का चौथा शिक्षाव्रत है। जैसे-मुनियों के गुण में अनुराग करते हुए उनके चरणों को दबाना, उनके ऊपर आई आपत्ति को दूर करना तथा नवधाभक्ति से उन्हें आहारदान देना आदि।
विशेष -घर में पंचसूना आदि आरंभ से जो पाप संचित होता है वह गृहत्यागी मुनियों के आहारदान से नष्ट हो जाता है। अन्य ग्रंथों में इस व्रत को अतिथिसंविभाग व्रत कहा गया है। वहाँ भी यही अर्थ है। श्री समन्तभद्र स्वामी ने इस वैयावृत्य नामक चतुर्थ शिक्षाव्रत में ही अर्हंत भगवान के चरणों की पूजा का विधान भी किया है। इसके बाद मरण के अन्त में मेरी विधिवत् सल्लेखना हो, ऐसी भावना करते रहना चाहिए। वसुनंदि श्रावकाचार में तो शिक्षाव्रत में ही सल्लेखना को ग्रहण कर लिया गया है। अत: श्रावकों के लिए सल्लेखना भी एक व्रत माना गया है। मरण के निकट आने पर गृह को छोड़कर अथवा घर में अन्नादि आहार को धीरे-धीरे छोड़ते हुए क्रम से कषायों को भी कृश करते हुए परस्पर में सभी को क्षमा करके और कराके नि:शल्य होकर णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुए मरण करना सल्लेखना कहलाती है।