वैराग्य के प्रतीक केशरिया रंग से अभिमण्डित, चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शान्तिसागर एवं श्री वीरसागर महाराज के आशीर्वाद से सिंचित् जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परम पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के सूक्ष्म निर्देशन से परिष्कृत प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की तपःपूत लेखनी से प्रसूत ४८ पृष्ठों की सारर्गिभत चित्ताकर्षक पुस्तिका ‘‘श्रावक संस्कार निर्देशिका’’ को ‘‘गागर में सागर’’ की उक्ति से सम्बोधित किया जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसा कि मुख पृष्ठ पर बने हुए चित्र से स्पष्ट है—अिंहसा इस पुस्तिका की मूल प्रेरणा है। पूज्य माताजी ने हिंसा से सम्बन्धित समस्त क्रियाकलापों का निषेध करते हुये मानव को अिंहसा धर्म के पालन करने की प्रेरणा अत्यन्त सरल एवं मर्मस्पर्शी भाषा में प्रदान की है। पुस्तिका का विषय प्रतिपादन आठ भागों में विभक्त है— १. अष्टमूलगुण। २. षोडश संस्कार। ३. जैन विवाह विधि। ४. श्रावक की षट् आवश्यक क्रियाएँ। ५. रजस्वला स्त्री का अशौच। ६. अिंहसक बनने के लिए कम से कम इतना अवश्य करें। ७. जैन हर्बल्स कम्पनी-मुम्बई द्वारा उत्पादित अिंहसक प्रसाधन सामग्री। ८. गर्भपात-माँ की ममता पर कुठाराघात। मूलगुणों से सम्बन्धित प्रथम भाग में तीन प्रकार के मूलगुणों का विवेचन है। ये मूलगुण हैं— १. पुरुषार्थसिद्ध्यिुपाय में आ. श्री अमृतचन्द्र द्वारा र्विणत मूलगुण। २. पं. आशाधर जी द्वारा सागारधर्मामृत में विवेचित मूलगुण। ३. आचार्य श्री समन्तभद्र द्वारा रत्नकरण्डश्रावकाचार में उल्लिखित मूलगुण। मूलगुण के इन तीनों प्रकार में विशिष्ट अन्तर नहीं है। तीनों की मूल संवेदना एक है, केवल वर्णन श्रेणी में पार्थक्य है। आज के भौतिकवादी भोगप्रधान युग में जब मानव ने अपनी जिह्वा लोलुपता की सन्तुष्टि के लिये मांसाहार को अपने भोजन का आवश्यक अंग स्वीकार कर लिया है, पूज्य माताजी ने प्रत्येक धर्म के मांसाहार विरोधी उद्धरणों का उल्लेख कर मांसाहारियों से अपने पेट को कब्र न बनाने का अनुरोध किया है। इस सन्दर्भ में सिक्ख, पारसी, इस्लाम, महाभारत, मनुस्मृति आदि के उद्धरण लेखिका के बहुआयामी विशद ज्ञान के परिचायक हैं। द्वितीय अध्याय का शीर्षक है—षोडश संस्कार। व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में संस्कारों का विशेष महत्त्व है। व्यक्ति के संस्कारित होने की प्रक्रिया गर्भाधान से ही प्रारम्भ हो जाती है, संस्कारों की संख्या १६ है—गर्भाधान संस्कार, प्रीति संस्कार, सुप्रीति संस्कार, धृति या सीमंतोन्नयन संस्कार, मोद संस्कार, प्रियोद्भव संस्कार, नामकर्म संस्कार, बहिर्यान संस्कार, निषद्या संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, वर्षवद्र्धन (व्युष्टि) संस्कार, चौल संस्कार, लिपि संख्यान संस्कार, उपनयन संस्कार व व्रतावतरण संस्कार। लेखिका ने जैन शास्त्रानुसार प्रत्येक संस्कार के विधि-विधान का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। ये संस्कार व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। पुस्तिका का तृतीय अध्याय जैन विवाह विधि से सम्बन्धित है। जैन धर्म में विवाह केवल दो शरीरों का मिलन नहीं है, यह दो दिलों, दो परिवारों का मिलन है। विवाह प्रथा स्त्री-पुरुष के पारिवारिक, सामाजिक व र्धािमक कर्तव्यों के निर्वाह का सशक्त माध्यम है। विवाह की र्धािमक भारतीय पद्धति चारों पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के अर्जन में सहायक सिद्ध होती है। इस अध्याय में लेखिका ने एक महत्त्वपूर्ण संस्कार विवाह के समस्त रीति रिवाजों का र्धािमक एवं सामाजिक परिवेश में विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन किया है। अध्याय के अन्त में लेखिका का नवयुगल को दिया गया सन्देश अनुकरणीय है। ‘‘व्यक्तिगत जीवन जीने के बजाय समाज व जनता के सम्पर्वâ में भी आना चाहिये। अपनी शक्ति अनुसार समाजसेवा और जनता की सेवा करते रहकर यशस्वी बनना चाहिये ताकि लोग सदैव याद करते रहें।।’’ (पृष्ठ-१९)। पुस्तिका के चतुर्थ अध्याय का शीर्षक है—श्रावक की षट् आवश्यक क्रियाऐं—श्रावक शब्द में तीन अक्षर हैं—श्र व और क। श्र श्रद्धा का व्यंजक है, व विवेक का और क क्रिया का। जो व्यक्ति आगम में पूर्ण श्रद्धा रखते हुये विवेक सहित षट् क्रियाओं—देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान का पालन करता है, वह गृहस्थ की षट् आरम्भ क्रियाओं से होने वाले पापों से मुक्त हो जाता है। पूज्य माताजी ने उमास्वामी श्रावकाचार, वसुनन्दी श्रावकाचार, रयणसार, मोक्षपाहुड़, वामदेव कृत भावसंग्रह, सागार धर्मामृत जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का बड़े ही मनोयोग से पारायण कर श्रावक के षट् कर्मों का विवेचन किया है। अभिषेक, पूजन, सामायिक से सम्बन्धित भ्रान्तियों का प्रमाण सहित निराकरण करने में लेखिका को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। पंचम अध्याय में सूतक-पातक का वर्णन संक्षिप्त रूप में किया गया है। व्यवहार में जन्म-मरण दोनों के शौच को सूतक शब्द से जाना जाता है। यह सूतक-पातक आर्ष ग्रन्थों से मान्य है। षष्ठम अध्याय का शीर्षक है—रजस्वला स्त्री का अशौच। वर्तमान युग में इस अशौच को एक रूढ़िमात्र समझकर इसका परिहार नहीं किया जाता है। लेखिका ने इस प्रथा की शास्त्रों में उल्लिखित एवं वैज्ञानिक दोनों रूपों की विस्तृत व्याख्या की है। पुस्तिका के अन्त में ‘‘अिंहसक बनने के लिये कम से कम इतना अवश्य करें’’ इस आकर्षक शीर्षक के अन्तर्गत दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली उन वस्तुओं के प्रयोग का निषेध किया गया है, जिनके निर्माण में िंहसा होती है। अनजाने में हम लोग उन वस्तुओं का प्रयोग करते हैं, जिनके उत्पादन में जीवों की िंहसा होती है। लेखिका र्ने संस्था द्वारा र्नििमत वस्तुओं के प्रयोग करने का परामर्श दिया है। इसके उपरान्त लेखिका ने पानी छानकर पीने की आवश्यकता को वैज्ञानिक ढंग से प्रतिपादित किया है। वर्तमान युग में लुप्तप्राय पानी की विलछानी विधि को माताजी ने सरल एवं स्पष्ट ढंग से समझाया है। स्त्रियाँ सौन्दर्य के प्रति विशेष रूप से सजग रहती हैं। लेखिका ने स्त्रियों की इस दुर्बलता को भाँपकर जैन हर्बल्स कम्पनी—मुम्बई द्वारा उत्पादित अिंहसक प्रसाधन सामग्री—शैम्पू, केशतेल, त्वचा की देखभाल आदि के उपयोग करने का परामर्श दिया है। पुस्तिका का अन्तिम अध्याय—‘‘गर्भपात-माँ की ममता पर कुठाराघात’’ सर्वाधिक मर्मस्पर्शी अध्याय है। कन्या भ्रूण हत्या की बहुप्रचलित विभीषिका ने माँ की वात्सल्यमयी कोख को बूचड़खाना बना दिया है। इस घृणित प्रथा के फलस्वरूप तीर्थंकर को जन्म देने वाली माँ अपने ही हाड़ माँस के पुतले को अपने हाथों मौत के घाट उतार रही है। पूज्य माताजी ने गर्भपात के विभिन्न प्रकारों का मेडिकल दृष्टि से ऐसा हृदय विदारक वर्णन किया है कि पाठक का रोम-रोम सिहर उठता है और वह इस महापाप को न करने का दृढ़संकल्प करने को प्रस्तुत हो जाता है। इस पुस्तिका की मूल संवेदना इसी अध्याय में जीवन्त होती है। इस सम्बन्ध में पूज्य माताजी का महिला समाज को दिया गया यह उद्बोधन उल्लेखनीय है। ‘‘सभी माता बहिनों को विशेष रूप से यह ध्यान रखना होगा कि हम कभी भी कृत-कारित-अनुमोदना किसी भी प्रकार से इस पाप को प्रश्रय नहीं दें।’’ ‘‘संसार का सुख-दुख पुत्र या पुत्री पर नहीं, वरन् अपने किये कर्मों के आश्रित है, अतः कर्म सिद्धान्त पर अटल विश्वास रखते हुये पुत्र-पुत्री पर समान स्नेह रखें एवं गर्भपात जैसे कुकृत्य को समाज से तिरोहित करने का संकल्प लें।’’ पुस्तिका की भाषा सरल, स्पष्ट एवं बोधगम्य है। किसी भी स्थल पर तथ्य को आत्मसात् करने के लिये मानसिक श्रम नहीं करना पड़ता। परम पूज्य आर्यिका जी की विलक्षण प्रज्ञा के विविध रूप हमें इस पुस्तिका में दृष्टिगत होते हैं। मुझ अल्पज्ञ के पास इतनी बौद्धिक सम्पदा नहीं थी कि पूज्या माताजी की सशक्त लेखनी से प्रसूत इस अमर कृति का विवेचन कर सवूँâ किन्तु उनके वात्सल्य एवं असीम स्नेह के परिणाम स्वरूप यह दुधमुँहा प्रयास पाठकों के समक्ष है। इस कार्य में ज्ञात या अज्ञात रूप से हुई त्रुटियों के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। इस पुस्तिका के आगम सम्मत कथ्य की सुगंधी चन्दन के सदृश चर्तुिदक व्याप्त होगी, ऐसा विश्वास है। परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती माताजी के चरणों में मेरा सादर नमन।