संसार की सृष्टि में स्त्री और पुरुष दो अंग हैं। जैसे कुम्भकार के बिना चाक से बर्तन नहीं बन सकते हैं अथवा कृषक के बिना पृथ्वी से धान्य की फसल नहीं हो सकती है उसी प्रकार स्त्री-पुरुष दोनों के संयोग के बिना सृष्टि की परम्परा नहीं चल सकती है। उसी पर कुछ प्रकाश डाला जाता है-
आज जब घर में कन्या का जन्म होता है तब घर वाले ही क्या अड़ोस-पड़ोस के लोग भी यही सोचने लगते हैं कि यह क्या बला आ गई ? इसका मूल कारण है दहेज प्रथा । इस दहेज प्रथा ने कितने अनर्थों को जन्म दिया है यह सब प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। एक समय था जब कन्या को सबसे श्रेष्ठ रत्न और उनके माता-पिता को सबसे श्रेष्ठ रत्नाकर माना जाता था । देखिये पूर्वाचार्यों के वाक्य-
‘‘कन्यारत्नात्परं नान्यद्। कन्यारत्न से बढ़कर अन्य कोई रत्न नहीं है। तथा-
रत्नाकरत्वदुर्गर्वमम्बुधि: श्रयते वृथा।’’
यह समुद्र अपने- ‘‘रत्नाकरत्व’’ नाम के खोटे अभिमान को व्यर्थ ही धारण कर रहा है क्योंकि जहाँ इस कन्यारत्न ने जन्म लिया है। ऐसे उसके माता-पिता ही सच्चे रत्नों की खान रत्नाकर होते हैं।
यह बात सुलोचना के स्वयंवर के प्रसंग पर श्री गुणभद्राचार्य ने कही है। वास्तव में जहाँ एक कन्या के स्वयंवर के समय करोड़ों राजा-महाराजा आकर उपस्थित होते थे और सबसे मन में यही आशा रहती थी कि यह कन्या मेरे गले में वरमाला डाले । इस विषय में सुलोचना, सीता, द्रौपदी आदि के प्रत्यक्ष उदाहरण आबाल गोपाल में प्रसिद्ध ही हैं लेकिन आज सर्वथा इसके विपरीत स्थिति देखने को मिलती है। कन्याओं के जन्म को हीन दृष्टि से देखने का मूल कारण जो दहेज है उसको वैâसे निर्मूल किया जाय? इस पर महिलाओं को सक्रिय कदम उठाना चाहिये । महिलाएं ही महापुरुषों की जननी है। तीर्थंकर जैसे नररत्न को भी जन्म देने का सौभाग्य महिलाओं ने ही प्राप्त किया है।
यही कारण है कि महामुनियों ने भी उनकी प्रशंसा में बहुत कुछ कहा है। श्री मानतुंगाचार्य के शब्द स्पष्ट हैं-
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्।
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं।
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम्।।
सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों ही पुत्रों को जन्म देती हैं किन्तु हे भगवन्। आप जैसे पुत्र को जन्म देने वाली माता विरले ही होती है। सो ठीक ही है क्योंकि सभी दिशाएं नक्षत्रों को तो जन्म दे सकती हैं किन्तु हजारों किरणों से देदीप्यमान ऐसे सूर्य को एक पूर्व दिशा ही जन्म देती है।
पातिव्रत्य धर्म में सीता और मैना सुंदरी के उदाहरण प्रसिद्धि ही हैं। साथ ही पति को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाने के लिये रानी चेलना का पुरुषार्थ आज की महिलाओं के लिये एक प्रेरणास्पद उदाहरण है।
प्राय: आजकल महिलाएं पति को प्रसन्न रखने के लिए उनके साथ क्लबों में घूमना और स्वच्छंद प्रवृत्ति करना ही अपना कर्त्तव्य समझ लेती हैं। कोई-कोई महिलाएं तो पति के साथ रात्रि भोजन ही क्या मदिरापान आदि करने लगती हैं। भोगों में ही सुख मानने वाली कुछ महिलाएं तो पति को दुर्व्यसनों से नहीं रोक पाती हैं किन्तु धर्मकार्य में गुरुओं के पास जाने से अवश्य रोक देती हैं। आज कितने ही ऐसे उदाहरण देखने में आते रहते हैं।
सचमुच में ऐसी महिलाओं को ही आचार्यों ने दुर्गति का मार्ग बतलाया है। यथा-
‘‘शरणमशरणं वो बंधवो बंधमूलं।
चिरपरिचितदारा द्वारमापदगृहाणाम्।।१’’
जिस घर को शरण समझते हैं वह अशरण है, बंधुवर्ग बंध के मूल कारण हैं और चिरकाल से परिचित भी स्त्रियां असंपत्ति के घर का द्वार हैं। ये वाक्य श्री गुणभद्रसूरि के हैं किन्तु शीलवती महिलाएं इससे विपरीत सन्मार्गदर्शिका भी देखी जाती हैं।
जो महिलाएं गृहस्थाश्रम में रहते हुए सम्यग्दर्शन को धारण कर श्रद्धावती, सम्यग्ज्ञान से सहित हो विवेकवती और सम्यव्âचारित्र को अणुव्रत रूप एकदेश ग्रहण कर क्रियावती हो जाती हैं वे ही ‘‘श्राविका’’ कहलाती हैं। ये श्राविकाएं पति के साथ धर्मानुगामिनी होकर जिनेन्द्रदेव की पूजा, गुरुओं को आहारदान, शील, उपवास आदि अपनी श्रावक धर्म की क्रियाओं में तत्पर रहती हैं ऐसी श्राविकाओं से ही गृहस्थाश्रम मोक्षमार्ग बन जाता है।
श्राविकाओं का अपनी संतान के प्रति भी क्या कर्तव्य है? वास्तव में जो श्राविकायें सुशिक्षित हैं वे अपनी संतान को सुयोग्य साँचे में ढाल सकती हैं क्योंकि माताओं की गोद ही बच्चों के लिए प्रारंभिक पाठशाला है। माताएँ बच्चों को प्रारम्भ से ही लाड़-प्यार के साथ धर्म की घूँटी पिला-पिलाकर सुसंस्कारों से हष्ट-पुष्ट बना सकती हैं। जब बच्चे कुछ समझने और बोलने लग लाएं तब उन्हें महामंत्र सिखाना, अच्छे-अच्छे धार्मिक भजनों की पंक्तियां रटाना, जैसे-जैसे वे ३-४ वर्ष के होते जाएं उन्हें छोटी-छोटी शिक्षास्पद कथाएं सुनाना, धार्मिक पाठशालाओं में कुछ न कुछ धर्मशिक्षा दिलाते रहना ही बच्चों को सुसंस्कारित करना है। किशोरावस्था में उन्हें कुसंगति से बचाना, मंदिरोंं में जाने की प्रेरणा देते रहना, गुरुओं के पास ले जाना, तीर्थयात्राओं की वंदना कराते रहना, उनके जीवन में सद्विचारों के बीजारोपण करना है। खासकर ग्रीष्मावकाश में बालक-बालिकाओं को गुरुओं के पास धर्मशिक्षा दिलाना, धार्मिक पढ़ाई में, शिक्षण में भाग दिलाना छुट्टी के दिनों का बहुत बड़ा सदुपयोग है।
युवकों को धर्मकथाओं के माध्यम से चारित्रवान बनाना चाहिये। मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र, जंबूकुमार, अकलंक, निकलंक आदि महापुरुषों के आदर्श बालकों के समक्ष पुन:-पुन: कहते रहने से उनमें वैसे बनने के संस्कार सहज ही हो सकते हैं।
कन्याओं के शील की सुरक्षा वैâसे रहे ? इस पर भी माता को सावधान रहना चाहिये। छोटी-छोटी बालिकाओं को कुसंगति से बचाना, युवक नौकरों को घर में न रखना, एक साथ लड़के-लड़कियों को न पढ़ाना, युवक अध्यापक से न पढ़ाना, अश्लील उपन्यास पढ़ने से तथा अश्लील सिनेमा आदि देखने से दूर रखना आदि। प्राचीनकाल में भी राजघरानों तथा सभ्य घरानों में वृद्ध कंचुकी नौकर रहते थे जिससे कन्याओं की ही नहीं बल्कि युवती महिलाओं के भी शील की सुरक्षा बनी रहती थी। सहशिक्षा से वर्तमान में अनेक अघटित घटनाएं होती ही रहती हैं। किशोरावस्था की बालिकाओं को यदि युवक अध्यापक पढ़ाता है तो प्राय: उनके शील का अपहरण हो जाया करता है। अश्लील कहानियों और चलचित्रों का कुप्रभाव कोमल और सरल मस्तिष्क को विकृत बनाए बगैर नहीं रहता है।
कन्या विवाह के बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर माता बनती है। जिस प्रकार कोयले की खान से कोयले और हीरे की खान से हीरा निकलता है उसी प्रकार अच्छे संस्कारों से सहित शीलवती माता से अच्छे-अच्छे नररत्न और कन्यारत्नों का जन्म होता है। दुराचारिणी माता की संतान कभी भी अच्छी नहीं मानी जा सकती है। कुछ प्राकृतिक सृष्टि की व्यवस्था ही ऐसी है। चक्रवर्ती, अर्धचक्री आदि महापुरुषों के अनेक रानियां होती हैं। उन सब रानियों की सन्तान एक पिता की ही होती है किन्तु यदि कोई महिला अनेक पुरुषों से समागम करती हो तो वह स्वयं निर्णय नहीं दे सकती है कि मेरे इस पुत्र का पिता कौन है ? यही कारण है कि अपने यहाँ भारतीय संस्कृति में महिलाओं के लिए एक पति ही माना गया है। वैसे यह विषय अति सूक्ष्म है। विशेष जिज्ञासु महिलाओं को अपने धर्मगुरु मुनियों व आर्यिकाओं के पास में इस विषय को समझना चाहिये।
शीलव्रती महिलाएं मनुष्यों से ही नहीं देवों से भी पूज्यता प्राप्त कर लेती हैं। शील के प्रभाव से अग्नि का जल हो जाना, सर्प का हार हो जाना, वङ्का के फाटक खुल जाना आदि उदाहरण शास्त्रों में वर्णित हैं। आज भी यदि कोई महिला अपने शील को सुरक्षित रखकर अग्नि को जल बनाना चाहे तो सहज सफल हो सकती है। आत्मविश्वास बहुत बड़ी चीज है। यह नियम है कि पंचमकाल के अन्त में भी शीलवती महिलायें रहेंगी और आगे के छठे काल में भी उनकी परम्परा चल सकेगी। पुनरपि आने वाले चतुर्थकाल में उन्हीं शीलवती श्राविकाओं के वंश में तीर्थंकर आदि महापुरुष जन्म लेंगे। यह तो सब एकदेश ब्रह्मचर्य अणुव्रत की ही महत्ता है। ऐसी ब्रह्मचर्याणुव्रत पालन करने वाली श्राविकाएं गृहस्थाश्रम में रहकर भी देवपूजा, गुरुपासना, स्वाध्याय आदि करते हुए धर्म की परंपरा को अक्षुण्ण रखती हैं। अनन्तर सल्लेखना से मरण करके सम्यक्त्व और अणुव्रत के प्रभाव से स्त्रीलिंग को छेदकर सौधर्म आदि स्वर्गों में देव हो जाती हैं। कालान्तर में पुरुषलिंग प्राप्त कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेती हैंं।
जो महिलाएं पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत पालन करती हैं, व्रत, प्रतिमा आदि व्रतों से अपने शरीर को अलंकृत करती हैं, क्षुल्लिका अथवा आर्यिका बन जाती हैं, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, आदि महापुरुष भी उनकी पूजा करते हैं, उन्हें आहारदान आदि देकर अपने को धन्य मानते हैं, साक्षात् इन्द्र भी उनके चरणों की वन्दना करते हैं। इस प्रकार से वे स्त्रियाँ सर्वश्रेष्ठ आर्यिका पद में तीनों लोकों में वंद्य हो जाती हैं।